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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.दिल्ली से खत का इंतजार–3
दिल्ली के खत अकसर कोमल नहीं होते और इसीलिए कमोबेश हर सत्ता को पीछे मुड़कर देखना पड़ता है। वर्तमान दौर में भाजपा की राष्ट्रीय सियासत को पढ़ने के लिए उत्तर प्रदेश के योगी आदित्य नाथ के नाम खत के कई अर्थ समझे जाएंगे। इससे पहले उत्तराखंड में उस्तरा चला और भाजपा अपनी झोली में नए मुख्यमंत्री को नगीना बनाकर भी कोरोना काल के अभिशप्त अध्यायों को फनां नहीं कर सकी, तो अब यह स्पष्ट हो रहा है कि तमाम विडंबनाओं के बावजूद उत्तर प्रदेश में योगी रहेंगे। योगी के रहने या जाने से हिमाचल की सियासत के पत्ते न खुलें, लेकिन संघ परिवार के मंथन ने इतना समझ लिया है कि आगामी विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रमुख चेहरा नहीं होंगे। यानी दिल्ली का दस्ती खत लेकर लौटे मुख्यमंत्री के पास साहस, समर्थन और सुविधा के सबसे बड़े अधिकार हैं। इसीलिए उनके लौटते पांव हिमाचल की सतह पर मजबूती से देखे जा रहे हैं यानी वह प्रदेश के सियासी रथ को अब चुनाव की प्रत्येक राह पर खुद ही चलाएंगे।
आज जबकि भाजपा के शक्तिमान और देश के सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ पार्टी और संघ परिवार के किंतु-परंतु में फंसे हैं, तो दूसरी ओर छोटे से हिमाचल से जयराम ठाकुर का ताल्लुक पुरस्कृत होकर लौटा है और इसीलिए वह हर किसी विरोध या साजिश से आंख मिलाकर पूछ सकते हैं,‘कोई शक’। प्रदेश को अब संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं मिलती, लेकिन केंद्रीय प्रश्रय के ताबीज पहनकर अब मुख्यमंत्री को एक ओर प्रदेश को कोरोना से बचाना है, तो दूसरी ओर आर्थिक गतिविधियों के समानांतर विकास के रुके पहिए को भी घुमाना पड़ेगा। दिल्ली की कसरतें यूं तो फरियादी चिट्ठियों से अटी पड़ी हैं, लेकिन इन्हें चुनकर कौन जवाब देगा, इसका इंतजार रहेगा। मुख्यमंत्री खुद से कुछ सवाल पूछ सकते हैं और इनमें सबसे अहम है केंद्रीय प्रश्रय में ताकतवर होना व दिखाई देना। दूसरा यह है कि अपनी टीम के मंत्रियों को काम की दृष्टि से सफल बनते देखना और जनता को दिखाई देना। तीसरा, उपचुनावों की कड़ी में क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षा के फलक पर जननायक बनना और दिखाई देना। राजनीतिक नियुक्तियों में पार्टी के खाली छोर को भरना तथा भरते हुए दिखाई देना।
वर्तमान सरकार के कद और प्रारूप में विद्यार्थी परिषद की पृष्ठभूमि से अलहदा भाजपा की पृष्ठभूमि का नया कैनवास पैदा करना और यह करते हुए दिखाई देना भी मुख्यमंत्री के सामने प्रश्न होना चाहिए। मुख्यमंत्री हर विभाग के प्रश्नों में मंत्रियों से प्रश्न करें और प्रश्न करते हुए दिखाई दें और इसी कड़ी में मंत्रिमंडल के सबसे ताकतवर मंत्री महेंद्र सिंह के वजन से बड़ा दिखना और दिखाई देना भी इन्हीं कसौटियों का अहम हिस्सा है। प्रदेश की राजनीति में इससे पहले महेंद्र सिंह ने एक बार धूमल सरकार का पलड़ा अपनी ओर झुका लिया था। इसका परिणाम उन्हें तो सफल कर गया, लेकिन धूमल सरकार को रिपीट करने के खिलाफ गया। अब पुनः सशक्त महेंद्र सिंह का दायरा उनकी निजी सफलता को तो पारंगत कर रहा है, लेकिन इस दोष के छींटे सरकार पर पड़ रहे हैं। इसकी पुष्टि हाल ही में प्रशासनिक फेरबदल में हुई है। जिस तरह वरिष्ठ व तेज तर्रार आईएएस अधिकारी आेंकार शर्मा को बागबानी विभाग से जोड़ने के फैसले को महेंद्र सिंह ने कचरे के डिब्बे में डाल दिया, उससे मंत्री का कद तो बढ़ गया, लेकिन सरकार झुक गई या उनकी अहमियत के पीछे छिप गई। इसलिए दिल्ली से लौटे मुख्यमंत्री ने जिस तरह जोशीले संदेश में अपनी अहमियत बताई है, उसी तरह सरकार की अहमियत में उन्हें महेंद्र से ऊपर दिखना है और यह करते हुए दिखाई देना है, वरना अतीत के जख्म सुखराम से धूमल तक आज भी रिसते हैं, इसकी वजह और प्रमाण हैं।
2.‘पंडित जी’ बजाएंगे शंख!
पूर्व केंद्रीय राज्यमंत्री जितिन प्रसाद व्यक्तिगत और जातीय आधार पर ब्राह्मण नेता हैं, लेकिन वह समूचे उप्र में 12-14 फीसदी ब्राह्मण समुदाय के नेता नहीं माने जा सकते। उनके आह्वान भी ब्राह्मणों के समर्थन से किसी की झोली नहीं भर सकते। कमोबेश उनकी हैसियत वह नहीं है, जो उप्र में गोविंद वल्लभ पंत, हेमवती नंदन बहुगुणा, सुचेता कृपलानी और नारायण दत्त तिवारी सरीखे कद्दावर ब्राह्मण नेताओं, मुख्यमंत्रियों की होती थी, लेकिन जितिन प्रसाद कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए हैं, लिहाजा कांग्रेस के लिए झटका तो साबित होंगे। वह ब्राह्मण चेहरा और आवाज़ तो हैं ही। गौरतलब यह है कि कांग्रेस में अधिकतर युवा नेता, जिन्हें राहुल गांधी का बेहद करीबी माना जाता था और इसीलिए उन्हें छोटी उम्र में मंत्री पद से भी नवाजा गया था, बारी-बारी कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में आ रहे हैं, तो यह चिंतन-योग्य सवाल तो है। आखिर उनका मोहभंग क्यों होता जा रहा है? वर्ष 2016-20 के दौरान 170 से अधिक विधायकों ने कांग्रेस के डूबते जहाज को छोड़ा है।
उनमें न जाने कितने युवा नेता होंगे? असम के मौजूदा मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व सरमा और मप्र में ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर उप्र में जितिन प्रसाद तक सभी कांग्रेस से ‘भाजपाई’ हुए हैं। सिंधिया के कारण तो मप्र की कमलनाथ सरकार गिरी। इससे बड़ा धक्का क्या हो सकता है कांग्रेस के लिए? अब राजस्थान में सचिन पायलट, मुंबई में मिलिंद देवड़ा, पंजाब कांग्रेस में कई चेहरे और हरियाणा में दीपेंद्र हुड्डा आदि युवा नेता असंतोष और अलगाव की दहलीज़ पर मौजूद हैं। जी-23 समूह के नेता अलग हैं, जिनका हिस्सा जितिन और दीपेंद्र भी रहे हैं। बहरहाल एक लंबी सूची है, जिसमें एसएम कृष्णा, नारायण राणे, विजय बहुगुणा (सभी पूर्व मुख्यमंत्री) समेत राधाकृष्ण विखे पाटिल, चौ. बीरेंद्र सिंह, जगदंबिका पाल, संजय सिंह और टॉम वडक्कन सरीखे बुनियादी कांग्रेसियों के नाम हैं। जितिन प्रसाद के पुरखों की तीन पीढि़यां भी 60 साल से अधिक समय तक ‘कांग्रेसी’ रही हैं। जितिन के पिता जितेंद्र प्रसाद दो प्रधानमंत्रियों-राजीव गांधी और पीवी नरसिंहराव-के राजनीतिक सलाहकार रहे थे। केंद्र में कैबिनेट मंत्री भी रहे। कांग्रेस अध्यक्ष पद पर सोनिया गांधी के चयन का विरोध किया और उनके खिलाफ चुनाव लड़े, तो बगावत की दबी-छिपी चिंगारी महसूस होने लगी थी। बहरहाल अब युवा पीढ़ी के तौर पर जितिन प्रसाद भाजपा के लिए शंख बजाएंगे और ब्राह्मणों को भाजपा के खेमे में लाने की शुरुआत करेंगे, तो कांग्रेस की बची-खुची हिस्सेदारी भी लुट सकती है। यकीनन उप्र में ‘क्षत्रिय बनाम ब्राह्मण’ समीकरणों से पंडित भाजपा से खिन्न हैं और भाजपा को ब्राह्मण-विरोधी करार दिया जाता रहा है, लेकिन अब जितिन उल्टी दिशा में प्रचार करेंगे। कुछ तो प्रभाव पड़ेगा।
लिहाजा राशिद अल्वी सरीखे कांग्रेस नेता ने ज़मीनी नेताओं के संग ‘आत्मचिंतन’ की जरूरत की बात कही है। बेशक जितिन कांग्रेस के टिकट पर दो बार लोकसभा सांसद चुने गए, केंद्र सरकार के कई मंत्रालयों में राज्यमंत्री भी बनाए गए, पार्टी में बहुत कुछ मिला, लेकिन ऐसा कुछ भी होगा, जो उन्हें अप्रासंगिक लगा होगा, राजनीतिक स्तर पर करियर की बर्बादी महसूस हुई होगी और पार्टी के लगातार डूबने के आसार पुख्ता लग रहे होंगे, नतीजतन उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया। अब गांधी परिवार और कांग्रेस आलाकमान के शेष चेहरे हाथ मसलने और अफसोस करने अथवा जितिन को ‘कचरा’ करार देने के अलावा और क्या कर सकते हैं? उप्र में मार्च 2022 से पहले ही विधानसभा चुनाव होने हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का नेतृत्व ही रहेगा। साफ है कि भाजपा हिंदू पत्ता ज्यादा चलेगी! उसके लिए ब्राह्मणों की लामबंदी बेहद जरूरी है। हालांकि भाजपा में कई स्तरों पर ‘पंडितों’ का प्रतिनिधित्व है, फिर भी जितिन को पार्टी पूरी तरह इस्तेमाल करेगी। उन्हें विधान परिषद में भेजने का विचार हुआ है, लेकिन जितिन घूम-घूम कर शंख बजाएंगे और पंडितों को एकजुट करेंगे कि कांग्रेस छोड़ कर युवा चेहरे भाजपा में आ रहे हैं, तो कोई महत्त्वपूर्ण बात है। उन्होंने भाजपा को ही एकमात्र ‘राष्ट्रीय पार्टी’ माना है, जबकि कांग्रेस को पारिवारिक और क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा दिया है। बहरहाल ऐसे आरोप स्वाभाविक हैं। जितिन के आह्वान कितने कारगर और भाजपोन्मुखी साबित होंगे, यह चुनाव से पहले ही स्पष्ट होने लगेगा।
3.दिल्ली से खत का इंतजार-2
सियासी सफर के मुकाम पर केंद्र से रिश्तों की बिसात और हकीकत के अर्थ में खोजा-पाया के हालात में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के कार्यकाल का हिसाब, अब राजनीति का ऐसा गणित है जिससे प्रदेश की नागरिक जागरूकता अलंकृत होगी। केंद्र सरकार का हर फैसला जयराम ठाकुर को छांव देता रहा है और इसी तरह वैक्सीन की मांग अब उनके दायित्व को सरलता प्रदान करेगी। हमारा मानना है कि अगला चुनाव कोरोना काल के संबोधनों को याद करेगा और इन्हीं कदमों पर चलते हुए भाजपा की सत्ता को अपने प्रदर्शन की बेहतरी तराशनी होगी। ऐसे में दिल्ली दौरे की खनक में विकास के कंगूरे खड़े किए जा रहे हैं, तो केंद्रीय स्तर की मुलाकातें राजनीतिक छवि का परिमार्जन करते हुए मुख्यमंत्री के पक्ष में रेखांकन का नया दौर भी हो सकता है। विकास के घुटनों का दर्द हिमाचल महसूस करता रहा है, तो क्या चुनाव से ठीक पहले इनका आपरेशन हो रहा है, क्योंकि केंद्र के द्वार पर फिर से सड़क परियोजनाओं के मील पत्थर लग रहे हैं। यहां सवाल शिमला से नहीं कि दिल्ली कितनी दूर, बल्कि दिल्ली से है कि कभी नजदीक से भी पहाड़ सुहावने होंगे। जिस सुरंग पर मोदी राज का अलंकरण हुआ है, वह दरअसल अटल विहारी बाजपेयी के साथ प्रेम कुमार धूमल के रिश्तों का व्यावहारिक पक्ष भी तो है।
जिस ऊना ट्रेन की पटरी पर आज कुछ पहिए घूमते हैं, उसको आगे बढ़ाने की फितरत क्यों दिखाई नहीं देती। क्यों हमीरपुर को जोड़ती रेलवे लाइन का राग ठंडा पड़ गया और बजट की आबरू में कांगड़ा एयरपोर्ट विस्तार की फाइल का हमेशा चीर हरण होता रहा। जयराम सरकार की आरंभिक फाइलों से कांगड़ा और हमीरपुर की बड़ी परियोजनाओं को खुर्दबुर्द करता एक मंत्री आज हिमाचली राजनीति के बड़े सपनों का सौदागर बनने की शक्तियां कैसे एकत्रित कर पाया। इस दौरान ढेर हुए कांगड़ा के नेता, उपेक्षित हुए मंत्री तथा सत्ता के लाभार्थी बने संघ परिवार के सदस्यों का असंतुलन क्या दुरुस्त हो पाएगा। वर्तमान हालात के सिर पर सींग बनकर उगे तीन उपचुनाव, भाजपा के करामाती होने के युद्ध में हैं तो घात-प्रतिघात कहीं पार्टी के भीतर, उल्टे बांस बरेली के न उगा दें। ये तीनों परीक्षाएं क्षेत्रीय संतुलन में इसलिए भी पढ़ी जाएंगी, क्योंकि कहीं कांगड़ा, कहीं मंडी, तो कहीं शिमला की पृष्ठभूमि में ये चुनावी बिसात बिछेगी। राजनीति के दत्तक पुत्र बनने की कई नई परंपराएं सत्ता से हासिल को बयां करती हैं। पिछली बार धर्मशाला और पच्छाद के उपचुनाव ने उम्मीदवारों के चयन से सफलता के प्रतिबिंब तक मुख्यमंत्री का साथ दिया था, तो इस बार कहीं तो सियासी तड़का बदलेगा। इस बार तीनों उपचुनावों में सत्ता की समीक्षा के साथ-साथ, भाजपा खुद को वंशवाद के नारों से कितना दूर रख पाती है, यह भी देखना होगा। यह इसलिए कि कोरोना काल में बंटती इम्युनिटी किटों पर भाजपा नेताआ की औलाद दिखाई दे रही है।
इन किटों के सहारे कई चुनाव और चुनावी प्रक्रियाओं में उतरते नेताओं के उत्तराधिकारी देखे जा सकते हैं। इस काम में भाजपा ही नहीं, बल्कि कांग्रेसी तो अपनी परंपरा की सोहबत में प्रफुल्लित हैं। क्या भाजपा के कार्यकर्ता अब कांग्रेसी पायजामा पहनकर चलेंगे और प्रदेश में वंशवाद के नए पुरोधाओं को अगले चुनाव की वैतरणी पार कराएंगे या कहीं भीतर का गुस्सा पहाड़ी जटाओं की ऐंठ खोल देगा। बहरहाल मुख्यमंत्री को तीन दुर्गों पर पताका फहराने के लिए जनता का विश्वास, केंद्र का आश्वासन, पार्टी में एकजुटता और जगत प्रकाश नड्डा का प्रश्रय चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि भाजपा की गोद में हिमाचल के मुख्यमंत्री के लिए राजनीतिक लालन पालन जारी है और इसी की कुछ खुराकें लेकर वह दिल्ली से लौट आए हैं। इन खुराकों में उनके लिए कितनी टॉनिक, इम्युनिटी बूस्टर तथा बाह्य वातावरण से सुरक्षित रहने का कवच मिलता है, यह आने वाला वक्त ही बताएगा।
4.महामारियों की तुलना गलत
चेचक और पल्स पोलियो के साथ कोरोना वायरस की तुलना उचित नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने देश को संबोधित करते हुए उल्लेख किया था कि पोलियो, चेचक, हेपेटाइटिस आदि बीमारियों के टीके, विदेश से आयातित होने में, दशकों बीत जाते थे। यह अर्द्धसत्य कथन है, लिहाजा अनुचित भी है। इतिहास गवाह है कि चेचक का टीका 1802 में ब्रिटिश भारत में आ चुका था। वह ब्रिटेन के वैज्ञानिक का अनुसंधान था और भारत में भी इस्तेमाल किया जाता था। बेशक चेचक ने करीब 3000 साल तक दुनिया को ‘बीमार’ रखा। झाड़-फूंक और रूढि़वादी तरीकों से चेचक का इलाज किया जाता था, नतीजतन करोड़ों अकाल मौतें हुईं। 20वीं सदी में भी दुनिया भर में करीब 30 करोड़ लोगों की मौतें हुईं। यह बेहद भयावह आंकड़ा था। भारत की आज़ादी के वक्त देश में चेचक काफी फैला हुआ था। भारत सरकार ने मई, 1948 में चेचक पर आधिकारिक बयान दिया और मद्रास (आज का चेन्नई) के किंग्स इंस्टीट्यूट में, चेचक के लिए, बीसीजी टीका बनाने की प्रयोगशाला शुरू की गई। साल 1949 में स्कूलों के स्तर पर बीसीजी टीकाकरण का भी आगाज़ कर दिया गया। मात्र दो साल के बाद 1951 में बीसीजी टीकाकरण का विस्तार देश भर में कर दिया गया। उस दौर में उप्र, बिहार, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और ओडिशा में चेचक सबसे अधिक फैला।
यकीनन मौतें भी बहुत हुई होंगी! हालांकि उसका एक ठोस, साबित डाटा हमें नहीं मिल सका। अलबत्ता यह आंकड़ा लाखों में रहा होगा! 1962 में भारत में राष्ट्रीय चेचक उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया गया। उसके परिणाम अच्छे मिलने शुरू हुए थे कि चेचक का आखिरी और घोषित मामला 1977 में सोमालिया में मिला। आखिर वह सुखद पल और दिन भी सामने आया, जब दिसंबर, 1979 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेचक के खात्मे का ऐलान किया। मई, 1980 में 33वीं वर्ल्ड हेल्थ असेंबली ने भी इसकी आधिकारिक घोषणा की। बहरहाल तब तक भारत में चेचक लगभग समाप्त हो चुका था। आजकल भी कुछ मामले सामने आते हैं, जो देश और महामारी के स्तर पर नगण्य माने जा सकते हैं। पल्स पोलियो के संदर्भ में भारत ने सफलता और इतिहास के अध्याय लिखे हैं। एक ही दिन में पोलियो की 13 करोड़ से अधिक ‘दो बूंदें’ पिलाई गईं। साल 2011 में दो दिन के भीतर 17.2 करोड़ ‘दो बूंदें’ पिलाने की कामयाबी भी हासिल की गई। मौजूदा केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन 1993-98 के दौरान दिल्ली सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे। तब उन्होंने ‘पल्स पोलियो’ कार्यक्रम की शुरुआत की थी, जिसे 1995 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना में शामिल किया गया। तब देश के प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिंहराव थे। भारत ने 24 अक्तूबर, 2012 को खुद को ‘पोलियो मुक्त’ घोषित कर लिया था, जिस पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2014 के शुरू में ही मुहर लगा दी थी। तब भी भारत में कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी। गौरतलब यह है कि जब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे, तब भारत टीकों और टीकाकरण का हब नहीं था।
दिवंगत प्रधानमंत्री ने अपने कार्यकाल में भारत को ‘टीका हब’ बनाने की शुरुआत की थी। यकीनन आयातित टीकों और दवाओं के भारत तक आने में वक्त लगता था और खासकर बीमार बच्चों की अकाल मौतें हो जाती थीं, लिहाजा देश में ही टीका उत्पादन और शोध के नए आयाम खोले गए। पुणे के सीरम इंस्टीट्यूट को भी विस्तार मिला और आज वह 170 से ज्यादा देशों में अपने टीके बेच रहा है। दुनिया के 65 फीसदी बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें सीरम का कोई न कोई टीका जरूर लगा होगा। मौजूदा मोदी सरकार के आने से पहले चेचक, पोलियो, तपेदिक, हेपेटाइटिस-बी, टिटनस, रूबेला, डीपीटी आदि बीमारियों के टीके भारत में बनने लगे थे और विश्व स्तर पर प्रख्यात हुए थे। यह दौर वैश्विक महामारी कोरोना वायरस का है। सीरम सबसे ज्यादा टीके उत्पादित कर रहा है। उसके टीके-कोविशील्ड-का बुनियादी शोध ब्रिटेन की एस्ट्राज़ेनेका कंपनी ने किया था। बौद्धिक संपदा का पेटेंट अधिकार भी उसी के नाम पर है, लिहाजा यह टीका स्वदेशी नहीं कहा जा सकता। प्रधानमंत्री मोदी यह दावा करना बंद कर दें। सिर्फ ‘कोवैक्सीन’ टीका ही भारतीय है, क्योंकि उसमें भी भारत सरकार के आईसीएमआर की भागीदारी है। बुनियादी सवाल है कि पुराने कालखंड की बीमारियों और कोरोना जैसी महामारी की तुलना किन आधारों पर की जा सकती है? टीकों का आविष्कार पहले भी किया गया और अब भी किया गया है। अपने-अपने स्तर पर लड़ाई जारी है। ‘मिशन इंद्रधनुष’ ने टीकाकरण का कवरेज बढ़ाया है, क्योंकि बीमारियों के लिए शोध हो चुके थे और टीके-दवा उपलब्ध थे। तुलनात्मक उपलब्धियां क्या हैं?
5.आंकड़ों की अहमियत
आंकडे़ बहुत मूल्यवान होते हैं, इसलिए उनका सटीक होना सदैव स्वागतयोग्य है। यदि बिहार में कोरोना से होने वाली मौतों की संख्या में अचानक बढ़ोतरी दिख रही है, तो कोई आश्चर्य नहीं। सरकार की यह पहल दूसरे राज्यों के लिए भी अनुकरणीय होनी चाहिए। पहले बिहार सरकार ने बताया था कि कोरोना की वजह से 5,529 लोगों की जान गई है, लेकिन महज एक दिन में यह आंकड़ा 9,429 पर पहुंच गया। ऐसा कतई नहीं कि एक दिन में 3,900 लोगों की कोरोना से जान गई है। दरअसल, इससे पता चलता है कि हम आंकड़ों को दुरुस्त रखने के प्रति पर्याप्त सजग नहीं हैं। मृतकों की संख्या में अचानक आई इस उछाल की वजह से राज्य में एक दिन में सबसे ज्यादा मौत दर्ज की गई है। इससे पूरे देश के आंकडे़ में भी उछाल दिखा है और इस कारण से बिहार की ओर सबकी निगाह उठी है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? शिकायत नई नहीं है, कोरोना संबंधी आंकड़ों में हेरफेर के आरोप लगते रहे हैं। विपक्षी दल मौत के आंकड़ों में हेरफेर के आरोप लगाते रहे हैं। अब चूंकि राज्य सरकार ने सुधार कर लिया है, तो आगे पूरी तरह से सचेत रहने की जरूरत है। ब्लॉक और जिला स्तर पर आंकड़ों को ठीक रखने या सुधारने की कवायद होनी चाहिए। आंकड़ों को दुरुस्त रखना इसलिए भी जरूरी है कि मुआवजों का वितरण न्यायपूर्ण ढंग से किया जा सके। कम से कम सरकार के स्तर पर तमाम आंकड़ों को एकत्र करने और जोड़ने का काम पूरी मुस्तैदी और ईमानदारी से हो। अगर आंकडे़ सही नहीं होंगे, तो आने वाले दिनों में तरह-तरह की शिकायतें सामने आएंगी। अभी यह देखना चाहिए कि आंकड़ों को कैसे दुरुस्त किया गया है। क्या कुछ ऐसे जिले हैं, जहां से सही आंकडे़ नहीं आ रहे थे? अगर ऐसे जिलों की पहचान करके निर्दिष्ट सुधार किए जाएं, तो आगे के लिए बेहतर होगा। एक शंका तो बन ही गई है कि ऐसे जिलों से आ रहे दूसरे आंकडे़ कितने जमीनी या विश्वसनीय होंगे? बिहार जैसे अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों में आंकड़ों का विशेष महत्व है, ताकि किसी भी योजना में आंकड़ा जनित कमी की वजह से नाकामी न हासिल हो। यह अच्छी बात है कि स्वास्थ्य विभाग ने कमी को स्वीकार किया है और उसे आगे ईमानदारी से जांच करनी चाहिए। संभव है, आने वाले दिनों में आंकड़ों को और सुधारा जाए। सरकार को केवल अपने स्तर पर ही गणना नहीं करनी चाहिए, उसे तमाम निजी और सामाजिक स्रोत भी इस्तेमाल करने चाहिए। बिहार सरकार ही नहीं, अन्य सरकारों को भी ध्यान रखना होगा कि भविष्य में असत्यता का कोई भी आरोप न लगे। कोई यह न कहे कि तत्कालीन सरकार ने मौतों के आंकड़ों को छिपा लिया था। यह तय है कि आज के सूचना प्रधान युग में आंकडे़ नहीं छिपेंगे। जैसे-जैसे जीवन सामान्य होगा, वैसे-वैसे समीक्षाएं तेज होंगी और आलोचना भी। आज सरकारें अपने आंकड़ों को जितना दुरुस्त रखेंगी, भविष्य में उनके लिए उतना ही अच्छा होगा। सरकारों को हर संभव तरीके से अपने आंकड़ों को ठीक करना होगा। मृतकों या पीड़ितों की सही गणना से आने वाले समय में अन्य महामारियों से लड़ने में हमें मदद मिलेगी। इसके अलावा अभी जो आंकड़े आ गए हैं, उनकी भी जमीनी जांच जरूरी है। सरकारों को सावधान रहना होगा कि आंकडे़ किसी प्रकार के घोटाले का माध्यम न बनें।
6.विकास की उम्मीदें
विश्व बैंक ने दुनिया की आर्थिक स्थिति के बारे में अपने ताजा आकलन में कहा है कि इस वित्त वर्ष 2021-22 में दुनिया की अर्थव्यवस्था में 5.6 प्रतिशत की गति से बढ़ोतरी होगी। यह बढ़ोतरी अस्सी साल पहले की विराट मंदी के बाद अब तक की सबसे तेज बढ़ोतरी होगी। इसके बावजूद वैश्विक उत्पादन महामारी के पहले के स्तर से लगभग दो प्रतिशत कम होगा। लेकिन अर्थव्यवस्था में यह बढ़ोतरी कुछ बड़ी और विकसित अर्थव्यवस्थाओं में ज्यादा होगी। दुनिया की ज्यादातर उभरती हुई और कम आय वाली अर्थव्यवस्थाएं अब भी कोरोना के प्रभाव से निकलने के लिए संघर्ष कर रही होंगी। कई विकासशील देशों में अब भी टीकाकरण नहीं पहुंच पाया है, इसलिए कोरोना का साया बना हुआ है। यहां पिछले समय में गरीबी से लोगों को उबारने में जो सफलता मिली थी, उस पर कोरोना महामारी ने पानी फेर दिया है। कम से कम इस वित्त वर्ष में तो इस नुकसान की भरपाई होना मुश्किल लगता है। विकसित देशों की अर्थव्यवस्था का तेजी से बढ़ना फिर भी इसलिए राहत की बात होगी कि भारत, बांग्लादेश व वियतनाम जैसी कई उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के लिए निर्यात के मुख्य बाजार विकसित देशों में ही हैं और निर्यात बढ़ने से इनकी घरेलू अर्थव्यवस्था को भी गति मिल पाएगी। लेकिन विश्व बैंक का कहना है कि इस महामारी ने गरीब देशों पर और ज्यादा गरीबी व गैर-बराबरी थोप दी है और इसे मिटाने के लिए टीके के वितरण और नई टिकाऊ , पर्यावरण के लिए फायदेमंद टेक्नोलॉजी पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। जहां तक भारत के विकास का सवाल है, तो विश्व बैंक ने 11.2 प्रतिशत के अपने पहले के अनुमान को घटाकर 8.3 प्रतिशत कर दिया है। विश्व बैंक का कहना है कि बुनियादी ढांचे और ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश, स्वास्थ्य तंत्र पर खर्च वगैरह की वजह से विकास तो होगा, लेकिन कोरोना की दूसरी लहर ने जो नुकसान पहुंचाया है, उसके मद्देनजर पहले के आकलन से काफी कम होने की आशंका है। रिजर्व बैंक ने पिछले दिनों अपने आकलन में विकास दर को 10.5 से 9.5 प्रतिशत घटा दिया था। विश्व बैंक का कहना है कि मौजूदा संकट की छाया वर्ष 2023 में भी कुछ हद तक बनी रहेगी, इसलिए उस वर्ष विकास दर 7.5 प्रतिशत ही रहेगी। वैसे देखने में ये आंकड़े अच्छे लग रहे हैं, लेकिन हमें ख्याल रखना है कि हम शुरुआत 2020-2021 में नकारात्मक विकास दर (-7.3) से कर रहे हैं, इसके मद्देनजर विकास के आंकडे़ उतने आकर्षित नहीं कर रहे हैं। चाहे हम भारतीय रिजर्व बैंक का आकलन मानें या विश्व बैंक का, यह स्वीकार करना होगा कि हम अर्थव्यवस्था के स्तर पर बहुत कठिन दौर से गुजर रहे हैं। यह दौर बहुत जल्दी और आसानी से खत्म नहीं होने वाला है। ऐसे में, सबसे बड़ा संकट गरीबों की आय को बनाए रखने या जरूरत के अनुरूप उसे बढ़ाने और रोजगार देने को लेकर है। चाहे बैंक हों या उद्योग या आम आदमी ,आर्थिक असुरक्षा की भावना सबको पैसा बचाने पर मजबूर कर देती है, जिससे आर्थिक गतिविधियां और धीमी हो जाती हैं। ऐसे में, समाज में आत्मविश्वास और सुरक्षा की भावना पैदा करना सबसे बड़ा काम है और सरकार को तुरंत युद्धस्तर पर इसमें जुट जाना होगा, अब ज्यादा वक्त नहीं है।
7.सतर्कता से अनलॉक
और जोखिम नहीं उठा सकता देश
पहली लहर के खात्मे और टीकाकरण अभियान की शुरुआत के बाद सार्वजनिक जीवन में नागरिकों के स्तर पर और भविष्य की तैयारी को लेकर सरकारों के स्तर पर जो चूक हुई, उसकी पुनरावृत्ति नहीं की जानी चाहिए। भले ही देश में कोरोना संक्रमण का आंकड़ा एक लाख से कम हो गया है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि यह आंकड़ा बीते सितंबर में पहली लहर के शिखर के आसपास ही है। ऐसे में हमें पिछली चूक को दोहराने से बचने की जरूरत है। हमने बीते अप्रैल-मई में व्यवस्था की विसंगतियों तथा सामाजिक स्तर पर लापरवाही का खमियाजा भुगता है। ऐसे में जब कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित महाराष्ट्र और दिल्ली समेत कई राज्यों में अनलॉकिंग की प्रक्रिया शुरू हुई है तो हमें बुरे अनुभवों के सबक जरूर सीखने चाहिए। यह समझते-बूझते हुए कि देश में कोरोना संकट अभी टला नहीं है। कोरोना की लड़ाई में विशेषज्ञ राय देने वाले एम्स दिल्ली के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया और नीति आयोग के सदस्य वी.के. पॉल कह रहे कि भविष्य में आने वाली संक्रमण की लहर की आशंकाओं को दूर करने में कोविड-रोधी व्यवहार की बड़ी भूमिका रहेगी। वही बातें जो पिछले सवा साल से दोहरायी जा रही हैं कि ठीक से मास्क पहनें, शारीरिक दूरी और भीड़ से बचाव। ये सावधानी कुछ समय और हमें अपनानी होगी, जब तक कि लक्षित आबादी का टीकाकरण नहीं हो जाता। अच्छा होगा जहां एक नागरिक के रूप में हमारी सजगता बनी रहे, वहीं सरकार के स्तर पर भविष्य में किसी चुनौती के मद्देनजर स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार व सुधार को प्राथमिकता बनाया जाये। साथ ही परीक्षण व टीकाकरण को तेजी प्रदान की जाये। कोशिश हो कि सार्वजनिक स्थलों पर एंटीजन टेस्ट की सुविधा सरलता से उपलब्ध हो सके। इससे हम कोविड-पॉजिटिव लोगों को समय रहते अलग करके संक्रमण के जोखिम को कम कर सकते हैं। साथ ही बेहद सावधानी से राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक आयोजनों को अनुमति देनी होगी, ताकि वे सुपर स्प्रेडर्स की भूमिका न निभा सकें।
निस्संदेह, एक साल से अधिक समय से हम सामान्य जीवन नहीं जी पाये हैं। अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी है। करोड़ों लोगों के रोजगार पर संकट मंडराया है। ऐसे में हमारा सामाजिक व्यवहार जीवन को सामान्य बनाने के लिये जिम्मेदारी वाला होना चाहिए। हमें खुद ही बड़ी भीड़-भाड़ वाले मॉल व बाजारों में जाने में सतर्कता बरतनी होगी। हमें इन्हीं परिस्थितियों में जीवन को सामान्य बनाने की कोशिश करनी होगी। यह अच्छी बात है कि हम सीमित संसाधनों के बावजूद कोरोना की दूसरी लहर से उबर रहे हैं। याद रहे कि दुनिया की एक नंबर की महाशक्ति तमाम संसाधनों व आधुनिक चिकित्सा सुविधा के बावजूद कोरोना संक्रमण और मौतों के मामले में हम से आगे है। सरकारों का दायित्व तो पहले है ही, एक नागरिक के रूप में हमारा व्यवहार भी जिम्मेदारी वाला होना चाहिए। अनलॉक की प्रक्रिया में जैसी भीड़ बाजारों में उमड़ रही है और लोग जिस तरह सावधानी में चूक रहे हैं, वह चिंता बढ़ाने वाली है। निस्संदेह लंबे अर्से से जीवन में घुटन है, आर्थिक चिंताएं हैं, लेकिन थोड़ा और धैर्य भी जरूरी है। दिल्ली में बाजारों और शॉपिंग मॉल्स को ऑड-ईवन आधार पर खोलने की इजाजत सार्थक कदम है। मेट्रो का पचास फीसदी क्षमता के साथ खुलना भी अच्छा है। कोरोना संकट की सबसे बड़ी मार झेलने वाले महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण की स्थिति को पांच स्तर पर बांटना सार्थक पहल है। पहले वर्ग में कम संक्रमण के आधार पर सबसे ज्यादा व लेबल पांच के आधार पर सबसे कम छूट दी गई है। लंबे समय से घरों में बंद और रोजगार संकट से जूझ रहे लोगों के लिये यह राहतकारी जरूर है, मगर सावधानी फिर भी जरूरी है। ऐसे में जब दूसरी लहर पूरी तरह खत्म नहीं हुई है और विशेषज्ञ तीसरी लहर की आशंका जता रहे हैं, अतिरिक्त सावधानी में ही भलाई है। हमारा आगे का जीवन जल्दी से जल्दी सामान्य होना, हमारी सावधानी तथा इस दौरान हम टीकाकरण के लक्ष्य कितनी तेजी से हासिल करते हैं, पर ही निर्भर करेगा।
8.अरावली की फिक्र
वन भूमि के कब्जे पर सुप्रीम कोर्ट सख्त
अरावली के संवेदनशील वन क्षेत्र में अवैध आवासीय निर्माण को हटाने की बाबत सुप्रीम कोर्ट के सख्त आदेश के गहरे निहितार्थों को समझा जा सकता है। इसमें दो राय नहीं कि अवैध खनन व जंगलों के कटान से दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र को हुई क्षति को व्यापक अर्थों में देखे जाने की जरूरत है। अरावली पर्वत शृंखला प्रकृति की तल्खी से इस इलाके की रक्षा ही नहीं करती बल्कि लगातार गहराते प्रदूषण से भी वन शृंखला जीवनदान देती है। यही वजह है कि फरीदाबाद जनपद के वन क्षेत्र में लक्कड़पुर-खोरी गांव में तकरीबन दस हजार अवैध आवासीय निर्माणों को हटाने का आदेश देकर सुप्रीम कोर्ट ने अरावली की पहाड़ियों को बचाने की पहल की है। इस दौरान अदालत की सख्त टिप्पणी से समस्या की गंभीरता को समझा जा सकता है। अदालत ने सख्त लहजे में कहा है कि जमीन हथियाने वाले अदालत में आकर ईमानदार बन जाते हैं लेकिन बाहर कोई कार्य कानून के मुताबिक नहीं करते। यानी दो टूक शब्दों में कहा कि भूमि पर कब्जा करने वाले कानून की शरण लेने के हकदार नहीं हैं। यह संदेश न केवल जमीन पर अवैध भूमि कब्जाने वालों के लिये ही था बल्कि उन अधिकारियों के लिये भी था, जो पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के आदेशों का पालन करने में विफल रहे। अदालत ने पर्यावरण व पारिस्थितिकी को राष्ट्रीय संपत्ति माना है। इसमें दो राय नहीं कि इस तरह के अवैध कब्जे प्रशासन, वन विभाग, स्थानीय निकाय की अनदेखी के बिना संभव नहीं हैं, जिसके लिये बिल्डरों, दलालों तथा स्थानीय नेताओं का समूह भूमिका निभाता है। निगरानी करने वाले विभागों के आंख मूंदने से अतिक्रमण को गति मिलती है। इसमें दो राय नहीं कि कोर्ट के आदेशों से हजारों लोगों पर गाज गिरेगी। इनमें तमाम ऐसे व्यक्ति भी होंगे, जिन्होंने अपनी छत का सपना पूरा करने के लिये पूरी उम्र की कमाई लगाई होगी। कई लोगों ने बैंक व वित्तीय संस्थानों से ऋण भी लिये होंगे। लेकिन उन्हें भी लंबे समय से जारी अदालती चेतावनी व आदेशों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए था।
यहां विचारणीय पहलू यह है कि अतिक्रमण और निर्माण की यह स्थिति कैसे पैदा हुई। क्यों कार्यपालिका पर्यावरण संरक्षण और अरावली को अतिक्रमण से बचाने के प्रति संवेदनहीन बनी रही। अदालत की ग्रीन बेंच गाहे-बगाहे वन भूमि के गैर वन उपयोग को वन कानून का उल्लंघन बताती रही है। अदालत ने मई, 2009 में हरियाणा के अरावली इलाके में खनन गतिविधियों पर रोक लगा दी थी, जिसमें गुरुग्राम व मेवात का हिस्सा भी शामिल था। अदालत का मानना है कि स्वच्छ वातावरण संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का ही हिस्सा है। जिसे आने वाली पीढ़ियों के लिये संरक्षित करना हमारा दायित्व भी है। इससे अलावा सितंबर, 2018 में भी अदालत ने हरियाणा सरकार को फरीदाबाद के एक एन्क्लेव में अवैध निर्माण को ध्वस्त करने का आदेश दिया था। साथ ही एन्क्लेव का निर्माण करने वाली कंपनी पर अरावली पुनर्वास कोष में पांच करोड़ रुपये जमा कराने का आदेश भी दिया था। ताजे मामले में शीर्ष अदालत ने छह सप्ताह में अनुपालन रिपोर्ट मांगी है। दरअसल, जैसे-जैसे देश की राजधानी व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व बढ़ा है, बिल्डरों व दलालों का खेल बढ़ा है और आशियाने का सपना सजाये लोग इनके शिकंजे में फंस जाते हैं। जबकि प्रशासन व स्थानीय निकाय की जवाबदेही थी कि वे वन क्षेत्र को चिन्हित करते हुए लोगों को समय रहते इस इलाके में आवासीय निर्माण करने से रोकते। सवाल यह भी है कि जमीन के कागजात पूरा करने तथा निर्माण के नक्शा पास करने वाले अधिकारियों को क्यों नहीं ऐसे मामलों में जवाबदेह बनाया जाता। यही वजह है कि अदालत ने कहा भी कि जिन लोगों के पास दूसरे विकल्प नहीं हैं, उनके पुनर्वास के लिये अलग से विचार किया जा सकता है। बहरहाल, अदालत के हालिया आदेश को राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक अर्थों में देखा जाना चाहिए क्योंकि देश में पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील इलाकों में हजारों किलोमीटर वन क्षेत्र पर अवैध कब्जा बना हुआ है।