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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.राम के नाम पर ‘सौदा’!
यह प्रभु श्रीराम की आस्था का सवाल नहीं है। उनकी दैविकता और मर्यादा पुरुषोत्तम वाली छवि पर कोई छींटे नहीं गिरे हैं। आस्था, भक्ति और निष्ठा यथावत है। फिज़ूल में मुद्दा मत बनाएं और उसे सियासत से न जोड़ें। दुष्प्रचार करने की भी ज़रूरत नहीं है। अयोध्या में राम जन्मभूमि तीर्थ-क्षेत्र के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने जो ट्रस्ट बनाया था, वह लौकिक और जवाबदेह है। उसके सदस्य श्रीराम के प्रतीक नहीं हैं, लेकिन ज़मीन के एक सौदे को लेकर कुछ सवाल उठे हैं। कांग्रेस तो सुप्रीम अदालत जाने पर आमादा है। वह स्वतंत्र है। ज़मीन-सौदे पर न्यायिक निर्णय अनिवार्य है। आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह और सपा नेता पवन पांडेय की राम जन्मभूमि और भव्य मंदिर निर्माण में कोई भूमिका नहीं है। वे अयोध्या के निवासी भी नहीं हैं। उन्होंने भूमि-सौदे के जरिए भ्रष्टाचार और घोटाले के बेहद गंभीर आरोप लगाए हैं, लिहाजा उन्हें संबोधित किया जाना चाहिए। बेशक सियासी बयान और आरोपों को अंतिम कथन नहीं माना जा सकता।
रतलब यह भी है कि श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ-क्षेत्र के सम्यक निर्माण और विकास के लिए अब 108 एकड़ भूमि की ज़रूरत है। इसमें से 70 एकड़ ज़मीन भारत सरकार दे चुकी है। मंदिर परिसर के आसपास के गांवों की ज़मीनें खरीदी जा रही हैं। उप्र सरकार भी ज़मीनों का अधिग्रहण कर रही है। ज़मीनों के मुआवजे में गहरे अंतर हैं। कहीं 75-80 लाख रुपए की कीमत है, तो कोई ज़मीन 8-10 लाख रुपए प्रति एकड़ में खरीदी जा रही है। राज्य सरकार हरेक हथकंडे भी अपना रही है। जिन परिवारों में सरकारी कर्मचारी हैं, उन्हें ज़मीन के सौदे के लिए बाध्य किया जा रहा है। उन्हें नौकरी से बर्खास्त करने की धमकियां भी दी जा रही हैं। ऐसे कई सवाल और शोषण हैं, जिनके जवाब ट्रस्ट को ही देने हैं। इन सवालों को प्रभु श्रीराम के महात्म्य और आध्यात्मिक स्वीकृति से नहीं जोड़ा जा सकता। चूंकि विवादित भूखंड राम मंदिर परिसर से 300 मीटर की दूरी पर ही है, अयोध्या का रेलवे स्टेशन भी पास में ही है। ज़मीन बेशकीमती है और वहां अमरूद का बागीचा रहा है। अब कुसुम-हरीश पाठक ने वह ज़मीन दो करोड़ रुपए में बेची और उसके कुछ मिनटों के बाद राम मंदिर ट्रस्ट ने उसे 18.5 करोड़ रुपए में खरीद लिया। यकीनन यह दो पक्षों का सौदा है, जो रजिस्ट्रार के सामने रजिस्टर हुआ। उसमें कोई सरकार अथवा सरकारी अधिकारी संलिप्त नहीं था। भुगतान आरटीजीएस के जरिए किया गया। स्टांप ड्यूटी भी दी गई। रजिस्ट्रार कार्यालय ने आयकर विभाग को खुलासा कर दिया है। सर्किल रेट के हिसाब से ही आयकर तय होगा। तो इसमें घोटाला कैसे माना जा सकता है?
ज़मीन खरीद-बेच निजी मामला है, जिस पर टैक्स देना ही पड़ता है। सवाल ट्रस्ट के सदस्यों और महासचिव चंपत राय से किया जा सकता है, क्योंकि राम मंदिर और आसपास परिसर को विकसित करने के लिए वे करोड़ों रुपए का लेन-देन कर रहे हैं। भगवान श्रीराम के नाम पर बनाए जा रहे तीर्थस्थल के लिए 12 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं ने 5458 करोड़ रुपए का दान दिया है। यह जनता की पूंजी है, लिहाजा ट्रस्ट जवाबदेह है। ज़मीन का सौदा कैसे हुआ, बैनामा 10 साल पुराना था अथवा 2019 में लिखा गया था, इन तमाम तकनीकियों के जवाब रजिस्ट्रार देंगे अथवा ट्रस्ट देगा। इसे देश की सबसे बड़ी आबादी के आराध्य की जन्मभूमि का मसला मत बनाइए। प्रभु राम तो सब कुछ देख ही रहे होंगे! महत्त्वपूर्ण यह होगा कि सर्वोच्च न्यायालय पूरे चंदे और खर्च का ऑडिट कराए और रपट को देश के सामने सार्वजनिक किया जाए। यह कांग्रेस की मांग भी है और हम भी इसके पक्षधर हैं, क्योंकि सर्वोच्च अदालत के हस्तक्षेप से ही अयोध्या विवाद सुलझा था। शीर्ष अदालत के आदेश पर ही प्रधानमंत्री ने ट्रस्ट गठित किया था। चूंकि सौदे से जुड़े पाठक परिवार, अंसारी और तिवारी अब उपलब्ध नहीं हैं। पाठक के घर पर ताला पड़ा है, लिहाजा संदेहास्पद तो कुछ है। सर्वोच्च अदालत का हस्तक्षेप या निगरानी में कोई कमेटी बनाना इसलिए भी अनिवार्य है, क्योंकि यह सब कुछ भगवान श्रीराम के नाम पर किया जा रहा है। आराध्य को बदनाम कैसे होने दे सकते हैं?
2.विश्वविद्यालय के जंगल में मोर नाचा
हिमाचल में तमाम शगुन और बधाई संदेश अगर एक विश्वविद्यालय की अमानत चुनते हैं, तो इसके अस्तित्व का नौ मन तेल देखना होगा और नाचने वालों में ‘राधा’ को खोजना होगा। हिमाचल के वैचारिक धरातल की सबसे खतरनाक लूट केंद्रीय विश्वविद्यालय के अस्तित्व पर हुई है और दस साल बाद भी राजनीतिक चोर-सिपाही का खेल चल रहा है। इसमें चोर भी राजनीति और सिपाही भी राजनीति। यह दीगर है कि अर्जुन की आंख बने हमीरपुर संसदीय क्षेत्र के सांसद शुरू से अब तक बाकी तमाम विधायकों, सांसदों और सरकारों को पछाड़ रहे हैं। इस बार पुन: अनुराग ने लगभग धोबी पछाड़ करते हुए केंद्रीय विश्वविद्यालय का मुकुट धारण कर लिया और किसी तरह अपने प्रदर्शन के खजाने में देहरा परिसर की 81 हेक्टेयर वन भूमि कर ली। इसमें कोई शक नहीं कि आरंभ से अब तक चाहे धूमल सरकार हो या सांसद अनुराग हो, हमेशा धर्मशाला की जमीन से केंद्रीय विश्वविद्यालय को नीचे उतारने के लिए कभी राज्य तो कभी केंद्र की मशीनरी ने भरपूर कोशिश की और सफल भी हुई।
विडंबना यह भी कि शुरुआती दौर में हजरत किशन कपूर ने तत्कालीन धूमल सरकार में स्थानीय विधायक होते हुए भी केंद्रीय विश्वविद्यालय का विरोध किया था और अब भी वह केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री की अंगुली पकड़ कर इसका तीया पांचा कर रहे हैं। दूसरी ओर पूर्व में सांसद रहे और वर्तमान में राज्य व केंद्र सरकारों को नाको चने चबाने को मजबूर करने वाले पूर्व सांसद शांता कुमार तो ऐसे मसलों के बजाय डलहौजी का नाम परिवर्तन की सियासत के पुरोधा बन चुकेे हैं। ऐसे में विडंबना यह कि राजनीतिक खिचड़ी में उबल कर यह विश्वविद्यालय अपनी शैक्षणिक योग्यता को इतना कसूरवार बना चुका है कि पिछले वर्षों में हुई तमाम नियुक्तियां संदेह के घेरे में हैं। तीन लावारिस परिसरों में विभक्त विश्वविद्यालय किसके खूंटे की अमानत है, इसका फैसला अगर मात्र एक सांसद कर रहा है, तो उसके पुरुषार्थ को सलाम, लेकिन इसे जीत या हार बनाना पूरे हिमाचल को शर्मिंदा करता है। हिमाचल जानता है कि राजनीति में आए नेताओं का बौद्धिक स्तर क्या है, हालांकि पीएचडी रहे स्व.वाईएस परमार के बाद हर मुख्यमंत्री की हाथ की लकीरों में डिग्रियां पढ़ी जा सकती हैं।
प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनावों में कहीं डिग्रियां थीं, लेकिन हिमाचल का प्रबुद्ध वर्ग यकीनन नहीं था। यहां विभागीय करामात भी देखिए अपने ऑनलाइन कार्यक्रमों में मशगूल हिमाचल भाषा अकादमी तक के ज्ञान सरोवर में, आपको सत्ता के स्वरूप में कार्यक्रमों के उद्घोष मिलेंगे और तब श्रोता यह न सोचें कि सरकारी खर्च पर आपको पुरातन सभ्यता के उद्गार क्यों मिल रहे हैं। यही ज्ञान-विज्ञान हर स्कूल-कालेज में अपनी विधा बदलते हुए सुनिश्चित तो इतना ही कर रहा है कि प्रदेश साक्षर नजर आए। कल इसी स्थिति में यह विश्वविद्यालय नहीं होगा, नामुमकिन है। इसी कोरोना काल ने स्पष्ट कर दिया कि जिन इमारतों की बुलंदी को हम मेडिकल कालेज मानने लगे थे, वे तो जिला अस्पताल भी साबित नहीं हुईं। आश्चर्य कि अब हिमाचल के जिला अस्पताल रिजनल या जोनल कहलाते हैं। इसी तरह शिक्षा की बर्बादी के लिए राजनीति के मंच दोषी हैंं और गुनाह के दस्ताने पहने नेता, सत्ता के इशारों में कभी स्कूलों को कालेज बना देते हैं या विश्वविद्यालय के अस्तित्व को कब्र में डाल सकते हैं। ऐसा इसलिए कि हिमाचल का वन विभाग इतना नालायक नहीं हो सकता कि देहरा की फाइल में राजनीतिक जंगल आकर्षित करते हुए अनुमतियों के मोर को नचा दे, जबकि धर्मशाला का हिस्सा आरक्षित वन बन जाए। इसे शह मात में देखें तो अनुराग ने केंद्रीय वन मंत्रालय से अपनी सियासी तकदीर लिखवा ली, जबकि कांगड़ा संसदीय क्षेत्र अपनी योग्यता के आगे शर्मिंदा है। अब देखें राज्य के वन मंत्री राकेश पठानिया अपनी फाइल को अनुराग ठाकुर के आगे बड़ा कर पाते हैं या सरकार का यही सबसे बड़ा विस्फोट माना जाएगा।
3.मारक महंगाई
राहत देने की पहल तो करे केंद्र
देश में पेट्रोल-डीजल की सुलगती कीमतों के बीच थोक सूचकांकों पर आधारित महंगाई का करीब तेरह फीसदी होना आम आदमी को परेशान करने वाला है। ऐसे में केंद्र सरकार को इसे गंभीर स्थिति मानते हुए राहत के लिये कदम उठाने चाहिए। विडंबना यह है कि यह महंगाई ऐसे समय पर कुलांचे भर रही है जब देश का हर नागरिक कोरोना संकट से हलकान है। इस दौरान लॉकडाउन व अन्य बंदिशों से करोड़ों लोगों की आमदनी पर बुरा असर पड़ा है। चिंता की बात यह है कि थोक महंगाई के साथ ही खुदरा महंगाई दर भी तेजी से बढ़ी है। महंगाई की इस तपिश को आम आदमी दैनिक उपभोग की वस्तुएं खरीदने में महसूस भी कर रहा है। दिक्कत यह भी है कि देश में फिलहाल ऐसा सशक्त विपक्ष नहीं है जो जनता की मुश्किलों को जोरदार ढंग से उठाकर केंद्र पर दबाव बना सके। पिछले दिनों कांग्रेस ने जरूर देश के विभिन्न भागों में पेट्रोल-डीजल के दामों के खिलाफ प्रदर्शन किया था मगर घटती राजनीतिक ताकत के बीच उसकी आवाज में वो दम नजर नहीं आया जो केंद्र सरकार को बेचैन कर सके। लेकिन यह तय है कि आने वाले समय में केंद्र सरकार को इस महंगाई की कीमत का दंश झेलना पड़ सकता है। जनभावनाओं को लंबे समय तक दरकिनार नहीं किया जा सकता। कोरोना संकट से तनाव में जी रहे लोग सामान्य जीवन की आस में बैठे हैं, मगर बढ़ती महंगाई उनकी बेचैनी और बढ़ा रही है। निश्चित रूप से इस महंगाई के मूल में पेट्रोल-डीजल की कीमतों में लगातार हो रही तेजी भी है। इनकी तेजी से माल भाड़े में इजाफा होता है और जिसका प्रभाव हम तक पहुंचने वाली हर वस्तु पर पड़ता है। विडंबना यह भी है कि उपभोक्ता को जिस कीमत पर पेट्रोल-डीजल मिलता है, उसका अर्थशास्त्र यह है कि साठ फीसदी हिस्सा केंद्र व राज्य कर के रूप में वसूल लेते हैं। निस्संदेह कोरोना संकट में केंद्र व राज्यों की आय का संकुचन हुआ है और ऐसे में वे भी उपभोक्ताओं को राहत देने से कतरा रहे हैं।
सवाल यह है कि जब देश के कई राज्यों में पेट्रोल के दाम सौ रुपये के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार कर गये हैं तो क्या केंद्र व राज्यों को अपने-अपने हिस्से के करों में कटौती करके जनता को राहत नहीं देनी चाहिए? विपक्षी दलों की राज्य सरकारें भी अपने हिस्से के टैक्स में कटौती करके केंद्र व भाजपा शासित राज्यों में ऐसा करने के लिये दबाव बना सकती हैं। कहने को केंद्र की दलील है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के दामों में बढ़त की वजह से पेट्रोल व डीजल के दामों में तेजी आ रही है। लेकिन जब दुनिया में कच्चे तेल के दामों में तेजी से गिरावट पहली कोरोना लहर के दौरान दिखी तो उसका लाभ तो उपभोक्ताओं को नहीं दिया गया। सवाल यह भी है कि जब लंबे समय से पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने की मांग की जाती रही है तो क्यों इस दिशा में गंभीर प्रयास नहीं किये जाते? दरअसल, परिवहन लागत से बढ़ने वाली महंगाई के अलावा देश में लॉकडाउन लगने से वस्तुओं की आपूर्ति बाधित होने से भी महंगाई बढ़ रही है। मांग व आपूर्ति में असंतुलन होने से कीमतें बढ़ना बताया जा रहा है। केंद्रीय बैंक भी बढ़ती महंगाई पर चिंता जता चुका है। रिजर्व बैंक यदि महंगाई पर काबू पाने के लिये मौद्रिक उपायों के तहत ब्याज दरों में वृद्धि करता है तो इससे उद्योगों व निवेश पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। पहले ही कोरोना संकट से खस्ताहाल पहुंची अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश में दिक्कत आ सकती है। उम्मीद है कि देश जैसे-जैसे लॉकडाउन के दायरे से बाहर आ रहा है, बाजार खुल रहे हैं और औद्योगिक उत्पादन में तेजी आएगी तो बाजार में मांग व आपूर्ति का अंतर कम होने से महंगाई में कमी आयेगी। फिर भी उम्मीद है कि सरकार आम आदमी को राहत पहुंचाने के लिये संवेदनशील व्यवहार करेगी और इस पर काबू पाने के लिये सक्रियता दिखाएगी।
बुजुर्गों से सुलूक
कोरोना महामारी ने दुनिया भर के इंसानी समाजों को बहुत करीब से आईना दिखाया है, लेकिन इसकी दूसरी लहर ने खास तौर पर कई सामाजिक-पारिवारिक कटु हकीकतों से रूबरू कराया। गैर-सरकारी संगठन ‘एजवेल फाउंडेशन’ का ताजा सर्वे इसका ठोस उदाहरण है और चिंताजनक भी। संगठन ने अपने अध्ययन में पाया है कि दूसरी लहर के मद्देनजर लगे लॉकडाउन के दौरान 73 प्रतिशत बुजुर्ग दुव्र्यवहार के शिकार हुए। करीब 35 प्रतिशत वरिष्ठ नागरिकों को तो घरेलू हिंसा सहनी पड़ी। जाहिर है, इनमें महिलाओं की तादाद ज्यादा होगी। भारत में एक के बाद दूसरी सरकारों ने स्त्री सशक्तीकरण की दिशा में कई अहम कदम उठाए, और उन कोशिशों के सुफल भी अब दिख रहे हैं, लेकिन जो महिलाएं इस समय बुजुर्गियत जी रही हैं, उनमें से ज्यादातर की दूसरों पर आर्थिक निर्भरता और शारीरिक अशक्तता उन्हें उपेक्षा के लिहाज से अधिक संवेदनशील बना देती है।
पिछले वर्ष के लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में 10 साल का रिकॉर्ड टूट गया था। 25 मार्च से 31 मई के बीच पीड़ित महिलाओं ने अपने साथ हिंसा की 1,477 शिकायतें दर्ज कराई थीं, जो उस कालखंड की एक भयावह तस्वीर पेश कर रही थी। यह स्थिति तब थी, जब सामाजिक रूढ़ियों के कारण अनगिनत घटनाएं किसी तहरीर का हिस्सा नहीं बन पातीं। दरअसल, संक्रमण का डर, कमाई की चिंता, महानगरों के दड़बेनुमा घर में सिमट आई जिंदगी ने अनगिनत लोगों के सामने एक ऐसी स्थिति रख दी थी, जो उनकी कल्पना में भी नहीं थी। ऐसे में, हालात से उत्पन्न तनाव एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आए थे। पर दूसरी लहर के दौरान न तो लॉकडाउन उतने सख्त या लंबी अवधि के लगे और न ही यह परिस्थिति अचानक पैदा हुई थी, इसके बावजूद बुजुर्गों के साथ हो रहा बर्ताव बताता है कि हमारे पारिवारिक मूल्य तेजी से दरक रहे हैं और उनको संजीदगी से सहेजने की जरूरत है।
पारंपरिक भारतीय परिवारों यानी संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों की देखभाल कोई समस्या इसलिए नहीं हुआ करती थी, क्योंकि तब उन्हें एकाकीपन से नहीं जूझना पड़ता था। भावनाओं की साझेदारी के साथ उनकी बहुत सारी शिकायतें यूं ही तिरोहित हो जातीं और वे उपेक्षित नहीं महसूस करते थे। फिर परिवारों व संततियों पर लोकलाज का अंकुश हमेशा बना रहता था। लेकिन व्यापक सामाजिक-आर्थिक बदलावों के कारण एकल परिवारों का चलन अब मजबूरी है और महामारी ने ऐसे परिवारों के सदस्यों के तनाव को ज्यादा गहरा किया है। एजवेल फाउंडेशन जैसे संगठनों के अध्ययन हमारे नीति-नियंताओं के लिए आंख खोलने वाले होने चाहिए। तब तो और, जब देश अभी दूसरी लहर से पूरी तरह उबरा नहीं है, तीसरी लहर की आशंका को टालने का इसे उपक्रम करना है और अर्थव्यवस्था को पटरी पर वापस लाना है। विगत वर्षों में बुजुर्गों के अधिकारों को संरक्षित करने वाले कई अच्छे कानून बने, बावजूद इसके यदि 73 प्रतिशत बुजुर्ग दुव्र्यवहार के शिकार बनते हैं और 35 फीसदी को पीड़ादायक स्थितियों से गुजरना पड़ता है, तो यह उन कानूनों के क्रियान्वयन, उन्हें लेकर सामाजिक जागरूकता को कठघरे में खड़ा करता है। वैसे भी, बच्चों व बुजुर्गों के अधिकारों की रक्षा किए बिना कोई समाज सभ्य नहीं कहला सकता।