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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.परीक्षा परिणाम का फार्मूला
परीक्षा परिणामों में बुद्धि के बजाय तमाम स्कूल शिक्षा बोर्डों का विमर्श तो इंगित हो जाएगा, लेकिन इन लकीरों में योग्यता के कई दर्पण टूटेंगे। परीक्षा इससे पहले इतनी कमजोर नहीं थी और न ही स्कूल शिक्षा के मुकाम पर कभी ऐसा सन्नाटा रहा, लेकिन सीबीएसई बोर्ड के फार्मूले ने तनाव के नए घर भी पैदा कर दिए। बेशक कोरोना हालात की नब्ज पर आया यह फैसला छात्र समुदाय को कम से कम इस काबिल तो बना ही रहा है कि लंबे अरसे बाद पढ़ाई और परीक्षा की अनिश्चितता टूट जाएगी। यानी अब नए फार्मूले में गुंथे हल से बारहवीं के छात्र एक, दो-तीन करेंगे। एक यानी मैट्रिक परीक्षा से निकले तीस फीसदी अंक, दो यानी जमा एक परीक्षा से निकले तीस फीसदी अंक और तीन यानी बारहवीं की प्री बोर्ड परीक्षा से चालीस प्रतिशत अंक समाहित करते हुए जो चटनी बनेगी, उसी से निकलेंगे परिणाम, भविष्य और करियर।
परीक्षा परिणामों में पहले अंकों का गणित दिखाई देता था, जो इस बार बीजगणित बनकर, ए जमा बी जमा सी करते हुए उस तैयारी को वरदान देगा, जो वर्षों पहले से यानी प्री स्कूल से बच्चों के व्यक्तित्व का आवरण तैयार करती है। बारहवीं की परीक्षा एक ऐसी सीढ़ी बन चुकी है, जो स्कूल, शिक्षक, अभिभावक व छात्र को एक साथ आगे बढ़ाती है। बारहवीं की परीक्षा केवल छात्र तक सीमित नहीं और न ही पिछली तीन कक्षाओं से निकला कोई योग बना सकती है। हालांकि परीक्षा प्रक्रिया का सामान्य दौर भी निष्पक्ष, संतुलित या छात्रों के पूर्ण ज्ञान का आकलन नहीं रहा है। बच्चों का आरंभिक दौर अगर अभिभावकों की गोद का स्पर्श है, तो बीच में स्कूल व अध्यापक का रंग उस पर चढ़ता है। तीसरा दौर जिसके परिप्रेक्ष्य में सीबीएसई परीक्षा का मूल्यांकन कर रही है, उसको किसी पैरामीटर में बांधना आसान नहीं। दरअसल बारहवीं की परीक्षा जिस पटल पर होती है, वहां आपसी प्रतिस्पर्धा का हर एक अंक युद्ध सरीखा है। किताब और स्कूल के बाहर परीक्षा की तैयारी का माहौल इतना सुर्ख व सख्त है कि छात्रों की एक लहर बनती है।
अतिरिक्त अध्ययन की परिपाटी का मूल्यांकन ही, वास्तव में बारहवीं परीक्षा का परिणाम बनता रहा है। दसवीं से बारहवीं तक के ज्ञान का अर्थ केवल किसी एक कक्षा की उपलब्धि में दर्ज नहीं हो सकता और न ही यह कड़छी घुमाकर तीस-तीस या चालीस प्रतिशत अंक ढूंढ सकता है। यहां न चावल के एक दाने से पता चल सकता है कि परीक्षा की हंडिया में क्या पका है और न ही पाठ्यक्रम के अंश बता पाएंगे कि छात्र की समग्र उपलब्धि क्या है। बहरहाल कोविड काल ने शिक्षा की स्थिति और छात्रों की व्यथा को पुनः उजागर किया है। पिछले कुछ दशकों से या जबसे दस जमा दो प्रणाली इजाद हुई है, पढ़ाई के सारे बिंदु बारहवीं में आकर योग्य व अयोग्य होने का प्रमाण बनते रहे हैं। यही बिंदु इस बार लड़खड़ा रहे हैं, तो इसका अर्थ है कि शिक्षा एक अनुचित दौड़ का केंद्र बन चुकी है। यानी अध्ययन व सीखने के बजाय छात्रों को शिखर पर ले जाने की होड़ ने यह सिखा दिया कि परीक्षा अपने आप में ज्ञान से भी बड़ा फार्मूला है। इसीलिए औपचारिक शिक्षा से हटकर ऐसे संस्थान बढ़ गए जो छात्रों को ज्ञान गंगा से हटाकर परीक्षा परिणामों की बाढ़ में आजमाते हैं। यही बाढ़ आगे बढ़कर करियर चुनते-चुनते कितने बच्चों के भविष्य को नुकसान पहुंचा रही है, कोई नहीं जानता। बस किसी तरह परीक्षा परिणाम के उच्च स्तर की रेस में शरीक होना है। इस बार सीधे तौर पर रेस तो नहीं, लेकिन जो बच्चे वर्षों से दौड़ रहे थे, उनके सामने प्रश्नचिन्ह तो है। कोविड काल से कई सबक शिक्षा प्रणाली को मिल रहे हैं और सबसे महत्त्वपूर्ण बदलाव अगर कहीं वांछित है, तो परीक्षा पद्धति को बदलना ही होगा।
2.थम गए ‘उड़न सिख’
कोई उड़ते हुए को भी थाम सका है क्या? उड़ान भरने वाले के लिए असीम आसमान है, खुला माहौल है और उड़ने का जीवट है। यह संभव है कि उड़ते-उड़ते जिंदगी बीत गई है, लिहाजा कुछ थकान हो रही होगी! कुछ उनींदापन-सा महसूस हो रहा होगा! किसी नई, अनंत दौड़ पर निकलने को मन मचल रहा होगा! लिहाजा कुछ नींद आ गई होगी! ‘उड़न सिख’ मिल्खा सिंह की कभी मौत हो सकती है क्या? पार्थिव शरीर पंचतत्व में विलीन हो सकता है, लेकिन मिल्खा सिंह कभी ‘मिट्टी’ नहीं हो सकते। वह अनगिनत यादों, असंख्य संस्मरणों, दौड़ों, उपलब्धियों और लक्ष्य हासिल करने के हौसलों में आज भी और हमेशा जिंदा रहेंगे। पीढि़यों को प्रेरित करते रहेंगे। उम्र के 91 साल तो महज गिनती हैं। महत्त्वपूर्ण वह है, जिसे मिल्खा सिंह ने रचा था और हासिल किया था। पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खां ने उन्हें ‘फ्लाइंग सिख’ का विशेषण दिया था। फितरत से दुश्मन देश पाकिस्तान के अवाम ने भी उस वक्त तालियां बजाई थीं, जब मिल्खा सिंह ने उन्हीं की सरज़मीं पर एशिया के सबसे तेज धावक अब्दुल खालिक को पीछे छोड़ते हुए पराजित किया था।
अवाम ने भी माना था कि मिल्खा दौड़ते नहीं, बल्कि उड़ते थे। आज उनका पार्थिव शरीर हमारे बीच नहीं है, लेकिन विविध इतिहासों और कीर्तिमानों के जरिए मिल्खा हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे। दरअसल यह भी बेहद गौरतलब है कि मिल्खा ने उस दौर में दौड़ना शुरू किया था, जब उन्हें सिर्फ एक गिलास दूध की दरकार थी। भारत-विभाजन की त्रासदियां झेलते हुए, स्वतंत्र होते भारत और पाकिस्तान में सांप्रदायिक नफरतों की पराकाष्ठा देखते हुए और माता-पिता समेत भाई-बहनों की हत्याओं के बीच से निकल कर मिल्खा भारत तक पहुंचे थे। शायद यही नियति थी, क्योंकि उन्हें भारत के मस्तक पर असंख्य विजयों के तिलक सजाने थे। मिल्खा जीवन में कभी भी ‘नफरती’ नहीं बन पाए। वह ताउम्र इनसान बने रहे और इनसानियत के ही पक्षधर रहे। वह विनम्र, मिलनसार और सहृदय बने रहे। हालांकि अपनी बात पेश करने में उन्हें कभी भय महसूस नहीं हुआ। यह अर्जुन अवार्ड ठुकरा देने के संदर्भ में याद किया जा सकता है। एक शरणार्थी, शिविरों में जिंदगी जीने को मज़बूर और ढाबों पर जूठे बर्तन धोने वाला अनाथ नौजवान कब सैनिक बना और अंततः ‘उड़न सिख’ का दर्जा प्राप्त किया, उसका समयबद्ध इतिहास उपलब्ध है। क्या यह सब कुछ सामान्य लगता है? अब तो देश का हरेक खिलाड़ी, कमोबेश धावक, सुधिजन, विश्लेषक और औसत नागरिक उस इतिहास को जानता है। कई उस दौर के साक्ष्य भी रहे होंगे! मिल्खा सिंह का दौर ऐसे अभावों का समय था, जब देश में हुनरमंद कोच नहीं थे। अच्छे स्टेडियम और टै्रक नहीं थे। टै्रक सूट और अंतरराष्ट्रीय स्तर के जूते तो कल्पना ही थे। भारतीय ओलंपिक संघ नहीं था।
सुविधाएं और अवसर नहीं थे। खेल विपन्न था कि उसे करियर नहीं बनाया जा सकता था। उस दौर में भी मिल्खा सिंह ने 1960 के रोम ओलंपिक में कई कार्तिमान ध्वस्त किए। हवाओं पर भारत का नाम दर्ज कराया, लेकिन 0.1 सेकंड के अंतर से वह ओलंपिक पदक जीतने से वंचित रह गए। उन्हें यह मलाल जिंदगी भर सालता रहा, लिहाजा वह नए खिलाडि़यों के आह्वान करते रहे कि भारत के लिए वह जो नहीं कर पाए, आपको करना है, स्वर्ण पदक जीत कर लाना है। विडंबना है कि श्रीराम सिंह और पीटी उषा सरीखे धावकों का दौर भी गुज़र चुका, लेकिन भारत अभी प्रतीक्षा में है कि नया मिल्खा सिंह जन्म जरूर लेगा। मिल्खा सिंह उस दौड़ के बाद मानसिक रूप से पराजित नहीं हुए। उसके बाद एशियाड और राष्ट्रमंडल खेलों के मुकाबलों में वह स्वर्ण पदक जीतने के प्रतीक खिलाड़ी बने। बहरहाल अब मिल्खा को आराम करने दो। उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया गया। सार्वजनिक शोक भी घोषित किया गया। देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों समेत उन्हें याद करने वालों की आंखों और शब्दों में गीलापन था। मिल्खा सिंह और उनके गोल्फर पुत्र जीव मिल्खा सिंह को पद्मश्री से नवाजा जा चुका है। मिल्खा के लिए यह सम्मान ‘बौना’ था। जिसकी उपलब्धियां अप्रतिम थीं, उसे पद्मश्री तक समेट कर नहीं देखा जा सकता। पद्म भूषण और पद्म विभूषण सम्मान भी थे। ‘भारत-रत्न’ न तो मेजर ध्यान चंद को और न ही मिल्खा सिंह को दिया गया। यह हमारी सरकार के लिए एक विचारणीय सवाल है।
3.पृथ्वी का ऊर्जा असंतुलन
पिछले चौदह वर्षों में पृथ्वी का ऊर्जा असंतुलन अगर दोगुना हुआ है, तो यह दुख और चिंता की बात है। पृथ्वी ज्यादा तेजी से गरम हो रही है, जिससे जलवायु परिवर्तन का संकट और बढ़ा है। पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन और उसमें आ रहे बदलाव को जानने के लिए नासा और यूएस नेशनल ओशनिक ऐंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) के अध्ययन में यह तथ्य उजागर हुआ है। शोध के नतीजे जर्नल जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित हुए हैं। हम सब जानते हैं कि पृथ्वी का तापमान एक नाजुक संतुलन से निर्धारित होता है। पृथ्वी निश्चित मात्रा में सूर्य की विकिरण ऊर्जा हासिल करती है और फिर इन्फ्रारेड तरंगों के रूप में अतिरिक्त ऊष्मा अंतरिक्ष में उत्सर्जित कर देती है। ऊर्जा असंतुलन का अर्थ है- धरती ऊर्जा प्राप्त कर रही है, जिससे यह ग्रह गरम हो रहा है।
नासा और एनओएए के वैज्ञानिकों ने ऊर्जा असंतुलन को मापने के लिए दो विधियों से मिले आंकड़ों की तुलना की है। इसके नतीजे एक जैसे आए। ये परिणाम सटीक अनुमान लगाने में सक्षम बनाते हैं कि बढ़ता ऊर्जा असंतुलन एक वास्तविक घटना है, कल्पना नहीं। ऊर्जा असंतुलन से लगभग 90 फीसदी अतिरिक्त ऊर्जा समुद्र को गरम कर रही है, इसलिए आने और जाने वाली विकिरण के समग्र रुझान यही निर्धारित करते हैं कि बदलावों के चलते समुद्र गरम हो रहा है। शोध के प्रमुख लेखक और नासा से जुडे़ नॉर्मन लोएब कहते हैं कि यह रुझान एक मायने में काफी चेतावनी भरा है। इंसानी गतिविधियों के चलते ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि, जैसे कॉर्बन डाईऑक्साइड और मिथेन के कारण तापमान गरम हुआ है। ये गैस गरमी को वातावरण में ही पकड़ लेती हैं। बाहर जाने वाली विकिरणों के रुक जाने से वे वापस अंतरिक्ष में नहीं जा पातीं। शोध के अनुसार, वार्मिंग के चलते अन्य बदलाव भी आते हैं। जैसे, जलवाष्प में वृद्धि, बर्फ का ज्यादा पिघलना, बादलों व समुद्र्री बर्फ में कमी आना आदि। पृथ्वी के ऊर्जा असंतुलन में इन सभी कारकों का सीधा असर है। इस असंतुलन को मापने के लिए वैज्ञानिकों ने सैटेलाइट से मिले आंकड़ों, बादलों में परिवर्तन, गैसों के योगदान, सूर्य की रोशनी और महासागरों में लगे सेंसर्स सिस्टम का उपयोग किया है। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि प्रशांत महासागर के दीर्घकालिक महासागरीय उतार-चढ़ाव के कारण ठंडे चरण से गरम चरण में उछाल भी ऊर्जा असंतुलन की तीव्रता का परिणाम है। पृथ्वी के सिस्टम में स्वाभाविक रूप से होने वाली यह आंतरिक परिवर्तनशीलता मौसम और जलवायु पर दूरगामी प्रभाव डाल सकती है। लोएब यह भी चेतावनी देते हैं कि यह शोध दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन के सापेक्ष केवल एक स्नैपशॉट है। किसी भी निश्चितता के साथ भविष्यवाणी करना संभव नहीं है कि आने वाले दशकों में पृथ्वी के तापमान संतुलन में कैसी गति रहेगी। हालांकि, शोध का निष्कर्ष यही है कि जब तक गरमी की रफ्तार कम नहीं होगी, तब तक वातावरण में बदलाव होता रहेगा। वाशिंगटन के सिएटल में नेशनल ओशनिक ऐंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के पैसिफिक मरीन एनवायर्नमेंटल लेबोरेट्री से जुड़े व शोध के सहलेखक ग्रेगरी जॉनसन कहते हैं, पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन को समझने के लिए इस ऊर्जा असंतुलन के परिणामों का अवलोकन महत्वपूर्ण है।
4.कल्याण का योग
संपूर्णता में स्वीकारने से ही भला
योग यूं तो सदियों से भारत की सनातन परंपरा का हिस्सा है मगर इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाने का अभियान 27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन व प्रस्ताव रखने के बाद मूर्त रूप में आया। दुनिया के 175 देशों के समर्थन के बाद संयुक्त राष्ट्र ने हर साल 21 जून को विश्व योग दिवस मनाने का फैसला किया। इस बार सातवें विश्व योग दिवस को भी कोरोना संकट के चलते वर्चुअली मनाने की कवायद जारी है। संयुक्त राष्ट्र ने इसकी थीम ‘योगा फॉर वेल बीइंग’ यानी मानवता के कल्याण के लिए योग रखा है। कोरोना संकट ने दुनिया को अहसास कराया है कि योग ने महामारी के दौर में न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक व मनोवैज्ञानिक तौर पर भी भयाक्रांत लोगों को मजबूती दी। इससे कोविड-19 के नकारात्मक प्रभावों तथा अवसाद से उबरने में लोगों को मदद मिली है। संयुक्त राष्ट्र ने भी स्वीकारा है कि महामारी के दौरान योग ने न केवल संक्रमितों को स्वस्थ बनाने में मदद की है बल्कि पृथकवास के दौरान अवसाद से लड़ने की ताकत दी। संक्रमितों के स्वस्थ होने में मदद करने के साथ ही लोगों के भय व चिंताओं को दूर करने में सहायक बना है। देश में 21 जून 2015 को दिल्ली के राजपथ से शुरू हुआ मुख्य आयोजनों का सिलसिला 2016 में चंडीगढ़, 2017 में लखनऊ, 2018 में देहरादून तथा 2019 में प्रधानमंत्री की उपस्थिति में रांची तक चला। वर्ष 2020 में कोविड संकट के चलते मुख्य सार्वजनिक आयोजन नहीं किया जा सका।
दरअसल, सामान्य तौर पर प्रचलित योग में हम इसके सीमित रूप का अनुसरण करते हैं। पतंजलि योग सूत्र में वर्णित अष्टांग योग के एक अंग आसन तक सिमटे हैं। सही मायनो में योग व्यापक अर्थों में मानव कल्याण का साधन है। योग के आठ अंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इसे संपूर्णता प्रदान करते हैं। जहां यम के पांच प्रकार सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह हमें जीवन में वैचारिक पवित्रता की राह दिखाते हैं, वहीं नियम के पांच प्रकार शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्राणिधान व्यक्तिगत मूल्यों की स्थापना में सहायक हैं। आसन शरीर को स्थिरता व सुखपूर्वक बैठना सिखाते हैं। वहीं श्वास-प्रश्वास की गति के नियमन को प्राणायाम कहा जाता है जो हमारी प्राणशक्ति को मजबूती देकर तमाम तरह के मानसिक तनाव व अवसाद में मन को स्थिर बनाने का काम करते हैं। सांसों से हम अपने तन-मन को साध सकते हैं। वहीं इंद्रियों के नियमन की प्रक्रिया को प्रत्याहार कहा जाता है। इसी क्रम में धारणा व ध्यान की परिपक्वता के साथ योगी समाधि या निर्वाण या कैवल्य की अवस्था को हासिल करते हैं। सही मायनो में योग मनुष्य को मानसिक, शारीरिक व आध्यामिक रूप से सशक्त बनाने का साधन है। योग से मन को उन वृत्तियों से मुक्त करना है जो मनुष्य के सर्वांगीण विकास में बाधक हैं। यह मर्यादित व संयमित जीवन जीने की प्रेरणा है जो कालांतर मनोकायिक रोगों को दूर करने में सहायक है।