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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
- पीएम का ‘मिशन कश्मीर’
यदि जम्मू-कश्मीर के उन्हीं तत्त्वों और नेताओं के साथ विमर्श किया जाना है, जिन्होंने वहां जेहाद और अलगाववाद के जरिए भारत-विरोध का बारूद बोया था, तो प्रधानमंत्री मोदी मुग़ालते में हैं कि ऐसे संवाद से साझापन और नए कश्मीर का कोई रास्ता निकलेगा। ये सियासी दल और अपने-अपने दड़बों के नेता अब भी अनुच्छेद 370 और 35-ए की बहाली के प्रलाप कर रहे हैं। चीन और पाकिस्तान के जरिए विशेष दर्जा हासिल करने की हुंकार भरते रहे हैं। भारत सरकार इस पक्ष में बिल्कुल भी नहीं है। कश्मीर के ‘गुपकार गिरोह’ और उसके हमदर्दों की पूरी सियासत ही अनुच्छेद 370 पर टिकी है। उन्हें कश्मीर के लिए विशेष दर्जा चाहिए, बेशक कश्मीर, भारत के संदर्भ में, एक टापू बनकर रह जाए! इन तत्त्वों और नेताओं को कश्मीर में बेहतर अस्पताल, उच्चस्तरीय विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थान, सरकारी नौकरियां और व्यापक रोज़गार, कारखानों के विकास के जरिए औद्योगीकरण और संपूर्ण भारत के बसने की खुली पेशकश तथा व्यवस्था की दरकार नहीं है। वे आज भी ‘बंद कश्मीर’, अलग संविधान और झंडा, अपने कानून और द्वीपीय व्यवस्था के पक्षधर हैं। उन्हें आज भी गली-सड़ी, संकीर्ण और पुरुषवादी रूढि़यां ही चाहिए। वे आज भी कश्मीरी बेटियों को पारिवारिक संपत्ति और संसाधनों से बेदखल करने के पैरोकार हैं।
वे जननेता नहीं हैं, देश के गद्दार हैं और आतंकियों के हमदर्द हैं। कश्मीर दशकों तक इनका नेतृत्व देख और अनुभव कर चुका है। मात्र 6-7 फीसदी वोट हासिल कर वे भारतीय संसद में सांसद बनते रहे हैं। सुविधाएं, मोटे वेतन-भत्ते, वीवीआईपी दर्जा और राजशाही प्रावधान उन्हें सब कुछ हासिल है। सब कुछ भारत सरकार और देश के औसत करदाता का, लेकिन ज़हर उगलेंगे भारत के ही खिलाफ और ‘आपके प्रधानमंत्री’ सरीखे शब्दों का इस्तेमाल करेंगे। भारत का प्रधानमंत्री क्या उनका भी प्रधानमंत्री नहीं है? बहरहाल वे स्वीकार नहीं करते। भारत से सिर्फ पैसा चाहिए और सब कुछ कश्मीरियों के नाम पर अलग-थलग…! ऐसे विमर्श घातक और देश-विरोधी साबित हो सकते हैं। इनसे ‘मिशन कश्मीर’ कैसे पूरा करेंगे प्रधानमंत्री मोदी? अनुच्छेद 370 खारिज किए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर में यह पहली महत्त्वपूर्ण, राजनीतिक पहल है। प्रधानमंत्री ने 24 जून को कश्मीर पर सर्वदलीय बैठक बुलाई है। उन्हें भी निमंत्रण भेजा गया है, जिन्हें 370 हटाने के दौर में, अराजक और हिंसात्मक संभावनाओं के मद्देनजर, नजरबंद किया गया था। कई महीनों बाद उनकी रिहाई की गई, लेकिन उनके मानस और सुर नहीं बदले। प्रधानमंत्री का ‘मिशन कश्मीर’ क्या है, यह वह ही जानते हैं। अनुच्छेद 370 बहाल करने के शून्य आसार हैं, तो क्या जम्मू-कश्मीर का पुराना राज्य का दर्जा बहाल करने की कोशिश होगी? क्या वहां विधानसभा चुनाव कराने की आधार-भूमि का ऐलान किया जाएगा?
क्या कश्मीर के संदर्भ में परिसीमन आयोग के प्रयासों पर चर्चा होगी? क्या कश्मीर में चौतरफा विकास की जो तस्वीर प्रधानमंत्री पेश करना चाहेंगे अथवा उनका जो भी रोडमैप होगा, क्या गुपकार गैंग और कश्मीर के कट्टरपंथी नेता उसे स्वीकार करेंगे? क्या पंचायत और जिला विकास परिषद चुनावों सरीखी कोई पहल की जाएगी? क्या कश्मीरी पंडितों और हिंदुओं को नए सिरे से बसाने का कोई प्रस्ताव प्रधानमंत्री पेश कर सकते हैं? अटकलों के सवाल कई हो सकते हैं। विमर्श का आधार बड़ा और नाजुक है, लिहाजा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा जारी है। प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी मंत्रियों को भी इसकी संवेदनशीलता का एहसास होगा, क्योंकि यह आंतरिक और सरहदी सुरक्षा का भी सरोकार है। लद्दाख में चीनी सैनिक और उनकी हथियारबंद मोर्चेबंदी अब भी है। पाकिस्तान आतंकवाद को हवा-पानी देने की फितरत से अभी बाज नहीं आया है। हमारी सरकारों को जिनके खिलाफ आपराधिक केस दर्ज कराने चाहिए थे तथा कानून के कठघरों तक ले जाना चाहिए था, अब हम उन्हीं की मेहमाननवाजी करेंगे! बड़ा अजीब लगता है, लेकिन देश के प्रधानमंत्री विमर्श करना चाहते हैं, तो उन्होंने कुछ सोचा होगा। कोई रणनीति तय की होगी! लिहाजा प्रधानमंत्री के विवेक पर ही छोड़ कर पर्यवेक्षक की तरह आकलन करना चाहते हैं।
2.रेत बना माफिया की खुराक
शिकायत एनजीटी तक पहुंची, तो स्वां नदी के अस्तित्व का दरिया भी कहीं कमजोर दिखाई दिया। अपराधी स्वां नदी तो नहीं हो सकती और न ही वर्षों पुराना रेत मैला हो गया, बल्कि जब से खनन को सियासी दिशा मिली है, सारा रेत बहने लगा है। खनन का मशीनीकरण और इससे जुड़ी मांग का बढ़ता दायरा सारी आपूर्ति का ऐसा गणित है जो सियासी प्रश्रय से एक शक्तिशाली माफिया को निरंकुश बना चुका है। एनजीटी के निरीक्षण-परीक्षण से सामने आए खतरे तुरंत पैदा नहीं हुए और न ही ये वर्तमान सरकार के कार्यकाल में पनपे हैं, बल्कि पिछली सरकार भी इन लांछनों से नहीं बच सकती। एनजीटी भले ही दस दिनों में खनन विभाग से रिपोर्ट मांग कर यह सुनिश्चित कर रहा है कि हिमाचल में रेत आखिर किस तरह माफिया की खुराक बना। राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल अपने फीडबैक को मजबूत करने के लिए अगर पिछले दस सालों की पुलिस व्यवस्था पर गौर करे और इस दौरान ऊना में रहे तमाम पुलिस कप्तानों की ओर से भी यह जान ले कि अचानक रेत के सौदे में कमाई का दरिया किस-किस दिशा में बहने लगा है, तो स्थिति और स्पष्ट होगी।
केवल स्वां नदी की रेत कुख्यात नहीं, अपितु हिमाचल के सीमांत क्षेत्रों की सारी नदियां, खड्डें व नाले इसी तरह के खेल में अपनी-अपनी इज्जत गंवा रहे हैं। विडंबना यह है कि हिमाचल में अवैध खनन का अंतरराज्यीय वजूद पनप चुका है और रात के अंधेरे अपने कवच में सारा धंधा करते हैं। यह सबसे संगठित अपराध की श्रेणी में ऐसा व्यवसाय बनता जा रहा है, जहां वैध है नहीं और अवैध तरीके बढ़ते जा रहे हैं। एनजीटी ने सर्वप्रथम 2013 में जो निर्देश पारित किए, उनकी अवहेलना कमोबेश हर राज्य में हो रही है और इसी तरह 2020 तक आई सारी गाइडलाइंस कचरा ही साबित हुईं। कोविड काल में प्रशासनिक प्राथमिकताओं के बीच खनन माफिया ने अपने तंत्र को इतना मजबूत कर लिया कि हिमाचल की निगाहें धोखा खा रही हैं। राष्ट्रीय स्तर पर 2017 में आई रिपोर्ट बताती है कि देश में सात सौ मिलियन टन रेत की जरूरत थी जो अब बढ़कर हजार मिलियन टन के करीब है। हिमाचल में रेत-बजरी की मांग लगातार दस से बीस फीसदी दर पर बढ़ी है और यह शहरी से ग्रामीण क्षेत्रों तक एक सरीखी है। पर्वतीय विकास में कंकरीट का बढ़ता दायरा और वन संरक्षण की कठोरता में लकड़ी की घटती उपलब्धता ने ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में भी रेत-बजरी के लिए पहाड़ पर सेंध लगानी शुरू की है। प्रदेश में जेसीबी मशीनों की शुमारी और स्टोन क्रशरों की कालाबाजारी के बीच, कबीरा खड़ा बाजार में कुछ इस तरह कि राज्य की जरूरतों को छीन कर कहीं माफिया ही जीवन की मिट्टी चुराने लगा है।
इस दौरान सतलुज, ब्यास, रावी और इनकी सहायक नदियों से हुई खुराफात ने कई तटीय इलाकों को लील दिया है, तो माफिया दबाव में निर्माण लागत पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है। विभाग की बेचारगी देखिए खड्डों से मुट्ठी भर रेत लाने वाले खच्चर मालिकों पर तो कोड़े बरसाने की मुस्तैदी रहती है और जहां से टनों माल उठ जाता है, वहां उफ तक नहीं होती। दरअसल न तो सरकारें हिमाचल की मांग के अनुरूप खनन के लाइसेंस जारी कर रही है और न ही निर्माण सामग्री का रेट निर्धारण हो रहा है। अवैध खनन की जद में केवल मत्स्य पालन पर ही असर नहीं हुआ, बल्कि खड्डों व नदियों का व्यवहार सामान्य जीवन के भी प्रतिकूल होने लगा है। प्रदेश में प्रदेश के लिए खनन प्रबंधन के लिए बोर्ड या अथारिटी का गठन करके मांग व आपूर्ति के वैज्ञानिक आधार पुष्ट करने होंगे। एनजीटी गाइडलाइंस के अनुरूप खनन लाइसेंस से माल की आपूर्ति तक मानिटरिंग के लिए स्पेस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना होगा। खनन सतर्कता पद्धति के लिए पुलिस व्यवस्था में सुधार के अलावा बिक्री और खरीद में पारदर्शिता तथा नियमों का सख्ती से पालन सुनिश्चित करना होगा। तमाम नदी-नालों व खड्डों के सर्वेक्षण, ऑडिट के साथ-साथ रात्रि सतर्कता के इंतजाम भी करने होंगे। पहाड़ी नदियों, नालों व खड्डों के तटीकरण पर केंद्र से विशेष वित्तीय मदद की जरूरत है।
3.जम्मू-कश्मीर पर विमर्श
अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 व 35-ए की समाप्ति और राज्य का दर्जा खत्म किए जाने के बाद से ही जम्मू-कश्मीर के भविष्य को लेकर सबकी नजर केंद्र सरकार के अगले बड़े कदम पर टिकी थी। ऐसे में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जम्मू-कश्मीर के मसले पर गुरुवार को बुलाई गई सर्वदलीय बैठक एक बड़ी पहल है। यह बैठक इस केंद्र शासित क्षेत्र की सांविधानिक स्थिति तय करने और वहां पूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया बहाल करने के लिहाज से काफी अहमियत रखती है। जब अनुच्छेद 370 हटा, तब काफी आशंकाएं जताई गई थीं कि आतंकी बडे़ पैमाने पर उत्पात मचाएंगे और पाकिस्तान इस मसले पर भारत के खिलाफ नए सिरे से देशों की गोलबंदी की कोशिश करेगा, लेकिन भारत सरकार की दूरदर्शी कूटनीति की बदौलत न सिर्फ पाकिस्तान, बल्कि उसके सदाबहार मित्र चीन को भी एक से अधिक बार संयुक्त राष्ट्र में मुंह की खानी पड़ी। जहां तक, आतंकी वारदात का सवाल है, तो वे भले ही पूरी तरह बंद न हो सकी हों, लेकिन सुरक्षा बलों की सख्ती और चौकसी ने दहशतगर्दों को किसी बड़ी घटना को अंजाम नहीं देने दिया।
जम्मू-कश्मीर के मामले में सरकार को लगा वक्त इसकी संवेदनशीलता को खुद-ब-खुद उजागर कर देता है। हालांकि, वहां हालात को सामान्य बनाने की दिशा में चरणबद्ध तरीके से लगातार रियायतें दी जाती रहीं, और उनका असर भी देखने को मिला। पिछले साल दिसंबर में पहली बार हुए जिला विकास परिषद (डीडीसी) के सफल चुनाव इसकी तस्दीक करते हैं। 20 जिलों में हुए उन चुनावों में अच्छी तादाद में लोगों ने भाग लिया था। नेशनल कॉन्फ्रेंस व पीडीपी समेत सात दलों के गुपकार गठबंधन ने 13 जिलों में और भाजपा ने छह में जीत दर्ज की थी। इस तरह, राजनीतिक प्रक्रिया का आगाज तो वहां पहले ही हो चुका है। पिछले अगस्त में परिपक्व राजनेता मनोज सिन्हा को उप-राज्यपाल बनाए जाने के साथ ही स्पष्ट हो गया था कि केंद्र अब वहां के लोगों को राजनीतिक खुदमुख्तारी सौंपने को लेकर गंभीर हो चला है। और यदि महामारी ने देश को हलकान न किया होता, तो जम्मू-कश्मीर को लेकर तस्वीर अब तक काफी साफ हो चुकी होती।
इस बीच कांग्रेस नेता व पूर्व गृह मंत्री पी चिदंबरम ने जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा लौटाने की मांग की है। वैसे, गृह मंत्री अमित शाह लोकसभा में पहले ही यह आश्वासन दे चुके हैं कि सही वक्त आने पर जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा लौटा दिया जाएगा। इसलिए इस मामले में सरकार और विपक्ष में नीतिगत मतभेद नहीं है। अब जम्मू-कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टियों का रुख क्या है, इसके लिए गुरुवार की बैठक पर सबकी नजर होगी। हालांकि, नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी समेत तमाम पार्टियों को यह एहसास हो गया होगा कि अब व्यावहारिक सियासत के सहारे ही वे आगे बढ़ सकती हैं। जम्मू-कश्मीर के लोगों को तरक्की की मुख्यधारा में शामिल होने का उतना ही हक है, जितना देश के किसी अन्य प्रदेश के नागरिक का। उन्हें राजनीतिक गतिरोध का बंधक बनाना उचित नहीं होगा। केंद्र सरकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती तो है ही कि वहां पूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया जल्द से जल्द बहाल हो और लोग अपनी जिम्मेदार लोकप्रिय सरकार चुन सकें। पर इसके लिए क्षेत्रीय पार्टियों को भी लोगों को भरोसे में लेकर अमन-चैन कायम रखना होगा।
4.बहिष्कार नहीं, बात करें
ताकि बेहतर हो जम्मू-कश्मीर का भविष्य
जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा वापस लेने एवं उसे केंद्रशासित प्रदेश बनाए जाने के करीब दो साल बाद केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अब वहां राजनीतिक अनिश्चितता खत्म करने की पहल की है। इसी दिशा में बढ़ते हुए केंद्र ने 24 जून को सर्वदलीय बैठक बुलाई है। बैठक में जम्मू एवं कश्मीर क्षेत्र के प्रमुख नेताओं को आमंत्रित किया गया है। बताया जा रहा है कि इस बैठक का मुख्य एजेंडा परिसीमन है। असल में राज्य को दो हिस्सों में बांटने के बाद जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराने के लिए विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन जरूरी हो गया था। चुनावी दृष्टिकोण से परिसीमन एक अहम प्रक्रिया है। गौरतलब है कि 6 मार्च, 2020 को गठित परिसीमन आयोग को इस साल मार्च में एक साल का विस्तार दिया गया था। जनसंख्या बदलाव के साथ सभी को समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए ऐसा किया जाता है। इस प्रक्रिया के जरिये विधानसभा सीटों की संख्या में भी बदलाव हो सकता है। परिसीमन की इस प्रक्रिया में क्षेत्र विशेष के राजनेताओं का प्रतिनिधित्व जरूरी होता है। परिसीमन के लिहाज से तो यह बैठक अहम है ही, इसके साथ ही इस सरहदी प्रदेश में आम जनता की राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करना और जम्मू-कश्मीर के बेहतर भविष्य के लिए नीति बनाना भी सत्ता एवं सियासत का मुख्य कर्तव्य है। सर्वदलीय बैठक के लिए केंद्र से मिले न्योते पर भले ही अभी तक एक राय नहीं बन पाई हो, लेकिन किसी ने भी बैठक के बहिष्कार का ऐलान नहीं किया है, जो कि एक अच्छी पहल है। सभी सियासी दल बैठक में शामिल होने के लिए अपने नेताओं से लगातार बातचीत कर रहे हैं। पीडीपी ने जहां अपनी नेता महबूबा मुफ्ती पर फैसला छोड़ दिया है, वहीं नेशनल कानफ्रेंस मंगलवार यानी 22 जून को इस विषय में कोई फैसला लेगी।
इस बीच, इस मसले पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने ट्वीट किया, ‘कांग्रेस पार्टी का रुख जो कल था, उसे पुनः दोहराया जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाना चाहिए।’ यहां उल्लेखनीय है कि पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग अन्य विपक्षी दल भी कर रहे हैं, साथ ही केंद्र सरकार भी स्पष्ट कर चुकी है कि परिस्थितियां सामान्य होते ही जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जाएगा। यानी पूर्ण राज्य बनाये जाने पर किसी भी दल को आपत्ति है ही नहीं, इसलिए इस मुद्दे को उछालना गैर वाजिब ही होगा। दरअसल अनुच्छेद-370 हटने और केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद जम्मू-कश्मीर में सियासी हलचल पर सबकी नजर है। लंबी नजरबंदी के बाद तमाम नेताओं की रिहाई एवं जिला विकास परिषद के चुनावों के सफल संचालन के बाद जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक परिदृश्य बदल रहा है। इसी बदलाव के बीच आगे की रणनीति के लिए केंद्र ने बैठक बुलाई है। बेशक गुपकार संगठन अभी तक केंद्र के न्योते पर आम राय नहीं बना पाया है और अनेक दल पूर्ण राज्य के दर्जे की ही अपनी मांग दोहरा रहे हैं, लेकिन जरूरत इस बात की है कि बातचीत की टेबल पर सभी लोग मिलें। बैठक के बहिष्कार के बजाय किसी भी मुद्दे का हल वार्तालाप से ही निकलेगा। बातचीत के दौरान ही अपनी शिकायतों को भी दर्ज कराया जा सकेगा और इसके बाद भविष्य की रणनीति बनाने में भी सियासी दलों को आसानी होगी। अड़ियल रुख किसी ओर से भी अच्छा नहीं होता क्योंकि अड़ने से बाधाएं ही उत्पन्न होती हैं और वार्तालाप से ही किसी मुद्दे के हल निकलने की उम्मीद बढ़ती है। इसलिए सभी सियासी दलों के नेताओं को केंद्र का आमंत्रण स्वीकार करना चाहिए और जम्मू-कश्मीर के लोगों के बेहतर भविष्य के लिए सर्वसम्मति से फैसला लेना चाहिए।