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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.आजादी का अमृत महोत्सव
15 अगस्त, भारत का स्वतंत्रता दिवस….! हम ऐतिहासिक और खुशनसीब हैं कि आज़ादी की 75वीं सालगिरह मना रहे हैं। देश में ‘अमृत महोत्सव’ के समारोह मनाए जा रहे हैं और संकल्प ग्रहण किए जा रहे हैं। वह पीढ़ी कितनी सौभाग्यशाली होगी, जो भारत की आज़ादी के 100वें साल का मंजर देखेगी! विश्व शक्ति के रूप में गौरव और गर्व का एहसास करेगी और आगामी सदी के लक्ष्य तय करेगी। यकीनन इन 75 सालों में देश ने एक लंबा और पगडंडीनुमा सफर तय किया है। गरीबी, भूख, अकाल के थपेड़ों से जूझ कर आत्मनिर्भरता की दहलीज़ तक हम पहुंचे हैं। युद्धों के दंश और विभीषिकाएं भी झेली हैं, लेकिन भारत हमेशा बंद मुट्ठी की तरह एकजुट रहा है। यह हमारी राजनीतिक, सामाजिक, वैचारिक, आर्थिक और अस्तित्वमयी आज़ादी का दिन है। भारत आज स्वावलंबी है। सैन्य हथियार भी बनाने लगा है। अंतरिक्ष के लिए असंख्य उपग्रह बनाए हैं और दूसरे देशों के उपग्रह भी अंतरिक्ष में भेजे हैं। जो देश सुई तक नहीं बना सकता था, आज वह विमान भी बना रहा है। यह सब कुछ तभी संभव हो रहा है, जब हम बुनियादी तौर पर लोकतांत्रिक हैं। हम विश्व के सबसे विराट लोकतंत्र हैं। भारत की सामूहिक चेतना और सोच में लोकतंत्र बसा है। लोकतंत्र ही चुनाव और देश की सत्ता-सियासत की आधार-भूमि है। लोकतंत्र से ही सरकारें चुनी जाती हैं और सत्ता का सहज हस्तांतरण भी होता रहा है। भारत में अनेक भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं, लेकिन विविधता में एकता ने भी देश को एकसूत्र में बांधे रखा है।
कोई विभाजन नहीं और न ही तानाशाही के संस्कार हैं, लिहाजा आज़ादी के बाद भारत एक क्षण के लिए भी नहीं बिखरा है। विदेशी विद्वानों और गोरे हुक्मरानों के आकलन गलत साबित होते रहे हैं। भारत विभिन्न धर्मों, संप्रदायों, मतों, जातियों और नस्लों का देश है, लेकिन वह राष्ट्रीय तौर पर धर्मनिरपेक्ष है और आस्थाओं का प्रहरी भी है। देश शहीद जांबाजों, क्रांतिकारियों की कुर्बानियां, गांधी के सत्याग्रह और समग्रता में भारतीय होने की विरासत को नहीं भूला है, लिहाजा संविधान, संसद से लेकर सरकारों तक हम धर्मनिरपेक्ष हैं। मौलिक अधिकार, खाद्य सुरक्षा अधिकार, अनिवार्य निःशुल्क शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार आदि सभी नागरिकों को बराबर से हासिल हैं। नफरत और सांप्रदायिकता की कुछ आवाज़ें जरूर गूंजने लगती हैं, लेकिन वे राष्ट्रीय एकता को खंडित नहीं कर पातीं, क्योंकि भारत समभाव और सह-अस्तित्व का देश है।
कुछ ‘काली भेड़ें’ जरूर होती हैं, लेकिन ‘अमृत महोत्सव’ में उनका भी कायापलट होना चाहिए। भारतीय राजनीतिक तौर पर परिपक्व है, उसमें साहचर्य, संवाद की लगातार गुंज़ाइश है, असहमति का भी सम्मान होता है, लिहाजा सामाजिक न्याय भी संभव हुआ है। हम अपवादों की गारंटी नहीं ले सकते, क्योंकि लोकतंत्र में वे भी संभव हैं। भारत में औसत नागरिक के लिए समान अवसर हैं, सामाजिक-मानसिक विषमताएं ढह चुकी हैं और यह सिलसिला लगातार जारी है। अब सवर्ण, दलित, आदिवासी, अति पिछड़ा आदि सभी समुदाय एक सरकार, एक संसद, एक समाज, एक निजी कंपनी में साथ-साथ काम कर रहे हैं। वे अपनी योग्यता के आधार पर न्यायाधीश, डॉक्टर, इंजीनियर, सैनिक और शीर्ष नौकरशाह तक बन सकते हैं। आज़ादी के इन लंबे सालों के दौरान आरक्षण की व्यवस्था ने भी असमानताओं को समाप्त किया है। यकीनन 75वें साल तक भारत की तस्वीर बहुत कुछ बदली है, लेकिन ‘अमृत महोत्सव’ के बावजूद कुछ स्थितियां भीतर से कुरेदती रहती हैं। कई बार चीखने को मन किया है कि क्या इसी स्वतंत्र भारत का सपना हमारे क्रांतिवीरों और पुरखों ने देखा था? भारत में करीब 50 करोड़ आबादी या तो गरीबी-रेखा के नीचे जीने को विवश है अथवा वे गरीब हैं। करोड़ों हाथ काम के लिए खाली हैं। संतोष है कि खाद्यान्न की दृष्टि से भारत अब आत्मनिर्भर ही नहीं, विदेशों को निर्यात भी करता है, लेकिन करीब 86 फीसदी किसानों की आय ‘गरीबी’ के दायरे में ही आती है। बहुत अभाव हैं, बहुत विसंगतियां हैं, जिन्हें आज़ादी के 75वें साल में दूर किया जाना चाहिए।
2.हमारे गोरे, हमारे काले
कोई शेरशाह हमारे करीब एक बड़ी कहानी लिख गया, फिर जब चर्चा चली तो हम खुद को देखने लगे। शहीद विक्रम बतरा पर आधारित फिल्म हमें राष्ट्र भाव से भर देती है, लेकिन देश के हालात पर जन प्रतिनिधियों का चरित्र हमें खाली कर देता है। स्वाधीनता दिवस की ओर हमारी दिशाएं फिर अग्रसर और आजादी के नजारों के बीच हम ही बनेंगे गोरे-काले। राष्ट्रीय स्तर पर संसदीय परंपराओं का हमाम हमारे सामने और सदन की कार्यवाही में देश को काला करते अपने ही जनप्रतिनिधि। आश्चर्य यह कि मानसून सत्र के सामने भारतीय जनमानस के प्रश्न औंधे मुंह गिरे और अब बहस यह कि राजनेता खुद में ‘गोरा-काला’ का खेल खेल रहे हैं। जनता को शायद पेगासस जासूसी कांड समझ न आए या कृषि कानूनों की कलई न खुल पाए, लेकिन जब राशन डिपो की दाल महंगी होती है, महंगाई निचोड़ती है या बेरोजगारी अपने सामने बच्चों को भिखारी बना रही होती है, तो देश का नमक नकली लगता है। आज मार्शल बनाम सांसद हो रहा है या जनप्रतिनिधि जमूरे की तरह सत्ता या विपक्ष का तमाशा दिखा रहे हैं, तो क्या फर्क पड़ता है कि आजादी का गौरव हमारा संविधान है। हमें क्या फर्क पड़ा है कि कृषि कानून क्या कहते हैं, अगर हमारे खेत की पैदावार का सौदा वार्षिक छह हजार की किसान सम्मान निधि से हो जाए। हम नया कानून, नए दायरे बना रहे हैं।
फैसलों की फेहरिस्त में कौन सरकार की नीतियों या अदालत की तारीखों में हार रहा है, किसी को फर्क पड़ता है। क्या सत्ता हमेशा गोरी हो जाएगी और विपक्ष काला साबित कर दिया जाएगा। सदन में जो पिटे या जिन्होंने पीटा, इसका अनुभव आजाद भारत कैसे व्यक्त करेगा। मानसून सत्र में हो-हल्ला कोई असामान्य बात नहीं, लेकिन विपक्ष की गैर हाजिरी या सदन में विरोध के बीच अगर 38 विधेयक पेश होकर बीस पास भी हो जाते हैं, तो आजाद देश की नाक है कहां। क्या आजाद भारत को बेरोजगारों में खोजा जाए या निरंकुश जनप्रतिनिधियों को ही आजाद भारत मान लिया जाए। कभी संविधान से संसद चलती थी, लेकिन अब तो संसदीय प्रक्रिया और कार्यवाही ही असुरक्षित होने लगी है। बेशक अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने का भाईचारा संसद में नहीं टूटता, लेकिन परंपरावादी देश अब सबसे अधिक सदन में टूट रहा है। आजादी के बाद राजनीति का आपराधिकरण होने लगा था, लेकिन आज तो अपराध का राजनीतिकरण हो रहा है। देश के 43 फीसदी सांसद अगर आपराधिक पृष्ठभूमि से हैं, तो पूर्व केंद्रीय मंत्री शांता कुमार का अपनी ही पार्टी पर शर्म आना स्वाभाविक है। सर्वोच्च न्यायालय तक को कहना पड़ रहा है कि सियासी दल आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को चुनाव लड़ने के लिए पार्टी टिकट न दें। उत्तर प्रदेश विधानसभा का हवाला लें तो वहां 403 विधायकों में से 143 आपराधिक पृष्ठभूमि से हैं और इनमें से 107 तो हत्या व अपहरण जैसे घृणित अपराधों के आरोपी हैं।
क्या कोई आम आदमी ऐसे आरोपों से बाहर निकल सकता है, लेकिन देश की संसद और राज्यों की विधानसभाएं अपने भीतर जनप्रतिनिधियों की आपराधिक पृष्ठभूमि से बाहर नहीं निकल पा रही हैं, तो देश की खंडित मर्यादा और तार-तार होते लोकतंत्र की वजह हमारे सामने है। सुप्रीम कोर्ट भले ही बिहार विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा अपने उम्मीदवारों के काले चिट्ठे न खोलने पर सख्त हो या इसी आधार पर नौ दलों पर जुर्माना ठोंक दे, लेकिन आजाद भारत के कर्णधारों को अब शर्म नहीं आती। शर्म नहीं आती क्योंकि संसद सत्र के हर मिनट पर लगभग ढाई लाख रुपए व्यय होते हैं। आजादी के मायनों में 73 साल बाद भी हम समाज के हिस्सों में आरक्षण के नए बीज बो कर सामाजिक न्याय का पौधारोपण करना चाहते हैं, तो कहीं फिर आजाद भूखंडों पर कोई नक्सली आंदोलन, देश की धरती पर बारूद बिछा कर स्वंतत्रता की आत्मा पर प्रहार कर रहा है। इस सबके बीच हिमाचली शहादत इस बार फिल्म ‘शेरशाह’ की पेशकश में, अमर शहीद विक्रम बतरा के योगदान पर राष्ट्रीय फख्र में शरीक है। फिर हमारे चौक-चौराहों पर कोई न कोई शहादत यह बता रही है कि हम जिंदा हैं, क्योंकि हमारे बीच से कोई कुर्बान हो गया।
3.अफगानिस्तान के लिए
अफगानिस्तान में तालिबान का लगातार मजबूत होते जाना दुख और चिंता की बात है। तालिबान ने अफगानिस्तान के 160 से अधिक जिलों और 10 से अधिक प्रांतीय राजधानियों पर कब्जा जमा लिया है। सबसे गंभीर बात यह है, तालिबान ने अफगानिस्तान के दूसरे बड़े शहर कंधार पर कब्जा कर लिया और काबुल से महज 90 किलोमीटर दूर रह गया है। एक अमेरिकी रक्षा अधिकारी के अनुसार, तालिबान 90 दिनों के भीतर काबुल पर कब्जा कर सकता है। काबुल के लिए संघर्ष तेज होगा, लेकिन अगर काबुल को नहीं बचाया गया, तो फिर चीन, पाकिस्तान इत्यादि देशों को अगर छोड़ दें, तो बाकी दुनिया के लिए अफगानिस्तान में सांस लेना दूभर हो जाएगा। भारतीयों और दूसरे देशों के नागरिकों का अफगानिस्तान से निकलना तेज हो रहा है। डच सरकार ने शुक्रवार को कह दिया है कि उसे काबुल में अपना दूतावास बंद करना पड़ सकता है। बेशक, जो देश तालिबान की आलोचना करेंगे, उन्हें अफगानिस्तान छोड़ने के लिए मजबूर होना पडे़गा। दुनिया के ज्यादातर देशों ने विगत बीस वर्षों में इस देश में काफी संसाधन लगाए हैं, ताकि वहां विकास हो सके, लेकिन लगता है, वहां का वैध शासन खुद को मजबूत करने में नाकाम रहा और नतीजा सामने है।
यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं कि लगभग दो दशक तक अफगानिस्तान में रहने के बाद भी अमेरिका वहां लोकतंत्र और सुरक्षा को मजबूत नहीं कर पाया। तालिबान को काबू करने की उसकी तमाम कोशिशें नाकाम हुईं और अंतत: उसने केवल अपने स्वार्थ की चिंता करते हुए वहां से हटने में ही अपनी भलाई समझी। अमेरिकी अधिकारी यह समझने में नाकाम रहे कि अफगानिस्तान में उनकी हार वास्तव में चीन की जीत है। चीन न केवल तालिबान के पक्ष में दिख रहा है, बल्कि अफगानिस्तान में उसकी सरकार को मान्यता देने में वह कतई देरी नहीं करेगा। ऐसे में, तालिबानी कट्टरता और कथित वामपंथी निर्ममता क्या गुल खिलाएगी, कल्पना से भी सिहरन होती है। यह मेल स्वाभाविक नहीं है, यह दुनिया को सिर्फ तबाह करने के काम आएगा। यह प्राथमिक रूप से अमेरिकी नीतियों की विफलता है, जिसका खमियाजा अमेरिका को भी भुगतना पड़ेगा। एक मोर्चे पर पिंड छुड़ाने की कोशिश राजनय व व्यापार इत्यादि मोर्चों पर भारी पडे़गी।
अफगानिस्तानी उप-राष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह के ताजिकिस्तान भाग जाने की अफवाह से तो मानो दहशत का माहौल बन गया। तालिबान ने हेरात के शेर कहलाने वाले इस्माइल खान को पकड़ लिया है। बताया जा रहा है कि इस्माइल खान के साथ उप-गृहमंत्री जनरल रहमान और कई आला पुलिस अधिकारियों को भी पकड़ लिया गया है। इस्माइल खान जैसे लोग अमेरिकी सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे थे, लेकिन अब अफगानिस्तान में इस तरह के लड़ाके व नेता लाचार हो गए हैं। पूरे देश में अविश्वास का माहौल बन गया है। यह समय ठोस पहल का है, वरना अफगानिस्तान को एक निर्मम शासन से बचाना मुश्किल हो जाएगा। दुनिया में आतंकियों का दुस्साहस बढ़ेगा, संयुक्त राष्ट्र के स्तर पर भी सोच लेना चाहिए। भारत के पास एक ही विकल्प है कि वह अपनी सुरक्षा चाक-चौबंद करे। कम से कम अपनी जमीन पर किसी भी आतंकी साजिश को मुंहतोड़ जवाब दे।
4.अशोभनीय
गरिमा तार-तार, लोकतंत्र पर वार
यूं तो संसद का हालिया मानसून सत्र ही पूरी तरह हंगामे की भेंट चढ़ गया लेकिन सत्र के अंतिम दिन उच्च सदन में जो निम्न हुआ, उससे सदन की गरिमा को गहरे तक आघात पहुंचा। देश चलाने वाले और कानून बनाने वाले यदि ऐसा अराजक व्यवहार करेंगे तो लोकतंत्र की गरिमा कहां बचेगी? चुनावी जंग के दौरान व सड़कों पर होने वाला विरोध व संघर्ष यदि संसद के भीतर होगा तो लोकतंत्र की मर्यादाएं तार-तार होंगी ही। हालांकि, सत्ता पक्ष और विपक्ष सत्र के अंतिम दिन के घटनाक्रम के लिये एक-दूसरे पर दोष मढ़ रहे हैं, लेकिन हंगामे के वायरल हुए वीडियो हकीकत बयां कर रहे हैं, जिसमें महिला सांसद महिला मार्शल पर हमलावर नजर आ रही है। सत्ता पक्ष असंसदीय व्यवहार के लिये विपक्षी दलों को दोषी बता रहा है तो विपक्ष सरकार पर मार्शल लाकर सांसदों का अपमान करने की बात कर रहा है। जिसके विरोध में विपक्ष ने प्रदर्शन किया तो सत्ता पक्ष के मंत्रियों ने प्रेस कॉनफ्रेंस करके विपक्ष पर आरोप दागे। बहरहाल, इस हंगामे को देश और दुनिया ने देखा। अब हम किस तरह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का गुणगान करेंगे। सवाल स्वाभाविक है कि क्या राज्यसभा में हुए हंगामे की हकीकत देश जान सकेगा? क्या इस अप्रिय घटनाक्रम की जांच होगी? यह भी कि क्या वह जांच राजनीतिक दुराग्रहों से मुक्त हो सकेगी? ऐसे तमाम यक्ष प्रश्न हमारे सामने जवाब की प्रतीक्षा में हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि जब देश महामारी के दंश से आहत है तब देश का राजनीतिक नेतृत्व लोकतंत्र के प्रहसन में लिप्त रहा। हंगामे की भेंट चढ़े सत्र के दौरान लोकसभा में महज 22 फीसदी काम का होना बताता है कि हमारे चुने सांसदों की लोकतंत्र के लिये प्रतिबद्धताएं क्या हैं? ऐसा लगा जैसे सुनियोजित ढंग से कामकाज को अवरुद्ध करने का प्रयास किया गया। विपक्ष आरोप लगा रहा है कि पहली बार संसदीय इतिहास में राज्यसभा की कार्रवाई के दौरान मार्शलों का सहारा लिया गया। लेकिन सवाल यह भी है कि नियमावली को सभापति की ओर फेंकते और मेजों पर उछलकूद करते सांसदों को पहले भी देखा गया?
निस्संदेह, संसद स्वस्थ बहस करने, सवाल पूछने और सरकार के जनविरोधी फैसलों का विरोध करने का स्थान है। लेकिन इसकी अभिव्यक्ति जनप्रतिनिधियों के गरिमामय व्यवहार तथा लोकतांत्रिक गरिमा के अनुरूप ही होनी चाहिए। सत्ता पक्ष इस घटनाक्रम को विपक्ष के दिवालिएपन का प्रतीक बता रहा है तो विपक्ष लोकतंत्र की हत्या का जुमला दोहरा रहा है। लेकिन क्या नेता व राजनीतिक दल अपने सांसदों को गरिमामय व्यवहार के लिये प्रेरित कर सकते हैं? यही वजह है कि संसद में मानसून सत्र निर्धारित समय से दो दिन पहले की समाप्त करना पड़ा है। लेकिन हकीकत यह भी है कि सत्ता पक्ष की ओर से भी उस जिम्मेदारी का परिचय नहीं दिया गया, जो विवाद टालने के लिये जरूरी था। अब चाहे तीन विवादास्पद कृषि कानूनों का मसला हो, पेगासस मामले की जांच हो या महंगाई और बेरोजगारी का मुद्दा हो, सरकार द्वारा इन्हें संबोधित ही नहीं किया गया। जाहिर है ऐसी हताशा में विपक्ष का आक्रामक होना स्वाभाविक ही था। लेकिन इस प्रतिरोध का संयमित और मर्यादित होना पहली शर्त ही है। देश का जनमानस पूछ सकता है कि संसद की कार्यवाही में करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद सिर्फ बाइस फीसदी ही काम क्यों हुआ? यह भी कि उच्च सदन, जिसे अपनी गरिमा व गंभीर व्यवहार के लिये जाना जाता है, वहां सभापति को रुंधे गले से सदन क्यों संबोधित करना पड़ा? क्यों सदन की शुचिता भंग हुई है? सवाल यह है कि देश की नयी पीढ़ी इन माननीयों से क्या प्रेरणा लेगी? क्या कल वे भी सार्वजनिक जीवन में ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे? यह विडंबना ही है कि जब देश में कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर पूरी तरह खत्म नहीं हुई है, रोज चालीस हजार के करीब नये संक्रमण के मामले सामने आ रहे हैं तथा तीसरी लहर का खतरा लगातार बना हुआ है, तो क्या माननीयों को सदी के इस सबसे बड़े संकट पर गंभीर विमर्श नहीं करना चाहिए था? क्या जनप्रतिनिधियों को राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से इतर देश के दर्द का अहसास होता है?