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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.कूटनीति पर सियासत नहीं
कूटनीति एक सीधी-सरल लकीर नहीं है। टेढ़े-मेढ़े और पथरीले रास्ते होते हैं। अनचाहे संवाद भी अपरिहार्य हैं। कूटनीति पर सरकार के फैसलों और नीतियों को लेकर सियासत तार्किक नहीं है, क्योंकि मसले घरेलू नहीं, अंतरराष्ट्रीय होते हैं। बेशक भारत सरकार में राजनीतिक नेतृत्व बदल जाए, लेकिन विदेश नीति और कूटनीति में कमोबेश निरंतरता रहती है। भारत के प्रधानमंत्रियों ने पाकिस्तान के साथ युद्धों के बावजूद संवाद और समझौते किए हैं। इतिहास साक्षी है। जब वाजपेयी सरकार के दौरान विमान का अपहरण कर लिया गया था और यात्रियों की जिंदगी के एवज में मसूद अज़हर जैसे खूंख्वार आतंकी को रिहा करने का सौदा करना पड़ा था, तालिबान से तब भी बातचीत और सौदेबाजी करनी पड़ी थी। विपक्ष ने एकजुट होकर सरकार के निर्णय का समर्थन किया था। तब सोनिया गांधी नेता प्रतिपक्ष थीं। 1989 में देश के गृहमंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की अपहृत बेटी को छुड़ाने और सकुशल घर-वापसी के बदले में आतंकियों से बात करनी पड़ी थी और आतंकी जेल से रिहा भी किए गए थे। मौजूदा संदर्भ में तालिबान नेता शेर मुहम्मद अब्बास के साथ कतर में भारत के राजदूत दीपक मित्तल के संवाद को भारत सरकार का आत्म-समर्पण न मानें और न ही सियासी दुष्प्रचार करें। यह देशहित में नहीं है। भारत विभाजित नहीं लगना चाहिए।
सियासत के भरपूर मौके मिलते रहेंगे। बीते दिनों सर्वदलीय बैठक सर्वसम्मत सम्पन्न हुई थी। विपक्ष ने सरकार के निर्णयों पर भरोसा जताया था। उसके बाद अब ऐसा क्या हुआ है कि विपक्ष अफगानिस्तान और तालिबान के साथ बातचीत को लेकर कपड़े फाडऩे पर आमादा है? दुर्भाग्य से तालिबान का आज एक देश पर कब्जा है। उनकी हुकूमत बनने की प्रक्रियाएं जारी हैं। अफगानिस्तान के साथ भारत के प्राचीन, सांस्कृतिक, कारोबारी और इनसानी रिश्ते रहे हैं। वहां आज भी भारतीय बसे और फंसे हुए हैं। उनकी सुरक्षित घर-वापसी सबसे प्राथमिक और नीतिगत मुद्दा है। आतंकवाद के नए खतरे आसन्न हैं। यदि ऐसे संक्रमण-काल के दौरान तालिबान के वरिष्ठ नुमाइंदे ने भारतीय राजदूत के साथ संवाद कर एक सिलसिला शुरू करने की पहल की है और भारत को कुछ आश्वासन दिए हैं, तो भारत सरकार ने तालिबान के सामने नाक नहीं रगड़ी है। घुटने टेकने वाला यकीन नहीं जताया है। तालिबान की हुकूमत को मान्यता देने की स्वीकृति नहीं दी है, बल्कि भारत की अध्यक्षता में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में दो प्रस्ताव पारित किए गए हैं। प्रस्ताव फ्रांस, ब्रिटेन और अमरीका ने पेश किए थे। भारत समेत 13 सदस्यों ने स्वीकार किए हैं। बेशक तालिबान को स्पष्ट तौर पर ‘आतंकवादी’ करार नहीं दिया गया, लेकिन यह दो टूक जरूर कहा गया है कि तालिबान अफगान सरज़मीं का इस्तेमाल किसी देश को धमकाने या हमला करने अथवा आतंकियों को पनाह देने में नहीं करने देंगे। रूस और चीन सरीखे वीटो पॉवर वाले स्थायी सदस्य देशों के बहिष्कार के बावजूद ये प्रस्ताव पारित किए गए हैं।
लगभग यही अपेक्षा भारतीय राजदूत ने की थी, जिस पर तालिबान नेता ने आश्वस्त किया है। बेशक भरोसा करने में वक्त लगेगा। दुनिया के ज्यादातर देश तालिबान हुकूमत का आकलन करना चाहते हैं। मान्यता तो रूस और चीन ने भी नहीं दी है। फिर भारत में चिल्ला-पौं क्यों मची है? हम ओवैसी सरीखे कट्टरवादी नेताओं के कथनों की व्याख्या करना ही नहीं चाहते, लेकिन कांग्रेस जैसी पार्टी को तो बोलने से पहले तोलना जरूर चाहिए। उसने करीब 55 साल तक देश पर शासन चलाया है। विदेश नीति की बुनियाद उसी ने खोदी और भरी है। तालिबान से संवाद पर उसे क्या आपत्ति है? अफगानिस्तान पर किससे बात करे भारत? सुरक्षा परिषद में जो प्रस्ताव पारित किए गए हैं, उनमें भारत सरकार की विदेश नीति को अच्छी तरह पढ़ा जा सकता है। भारत सरकार ने भी प्रत्यक्ष रूप से तालिबान को ‘आतंकी’ नहीं कहा है। उसके भीतर की कूटनीति को समझने की ज़रूरत है। अफगानिस्तान में हम अपना दखल छोड़़ नहीं सकते और उस देश को चीन तथा पाकिस्तान के ही हाथों में नहीं सौंप सकते, लिहाजा इस मसले पर सियासत बिल्कुल नहीं की जानी चाहिए। तालिबान से वार्ता के जरिए भारत ने उसे अपनी चिंताओं से अवगत कराया है। अफगानिस्तान की जमीन का भारत विरोधी गतिविधियों के लिए प्रयोग नहीं होने दिया जाएगा, तालिबान ऐसा आश्वासन देता नजर आ रहा है। वार्ता के जरिए ही यह बात संभव हो पाई है। कई अन्य देश भी तालिबान से वार्ता कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में भारत का वार्ता करना नाजायज नहीं कहा जा सकता। हमें वार्ता से अच्छे परिणामों की उम्मीद करनी चाहिए।
2.सवालों के भूत
सवालों के भूत हिमाचल सरकार के सामने खड़े हो रहे हैं और इनकी इबारत में क्षेत्रवाद का हौआ मुखातिब है। कोविड काल की परेशानियों से आजिज लोगों का धंधा पूरी तरह लौटे या न लौटे या रोजगार खो चुके युवाओं को आजीविका का नया सहारा मिले या न मिले, हिमाचल की राजनीति अपने हित में सोच रही है। आश्चर्य यह कि प्रदेश ने यह सोचना बंद कर दिया है कि कोविड से मौत के आंकड़ों में, अस्पताल व्यवस्था क्यों सरकारी क्षेत्र को अपराधी बना रही है। क्यों फोरलेन निर्माण की परिधि में ऊना का मुआवजा नूरपुर में लागू नहीं हो पा रहा या एक केंद्रीय विश्वविद्यालय आगे की कितनी चुनावी पारियां खेलकर भी अपनी हैसियत के दर्शन देने में नाकाम दिखाई दे रहा है। क्या किसी ने गौर किया कि धड़ल्ले से खोले गए निजी विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग या बीएड कालेज आज बंद क्यों हो गए। एक सौ चालीस के करीब सरकारी कालेजों में से 66 संस्थानों में प्रिंसीपल क्यों नियुक्त नहीं हुए। मानव भारती जैसे विश्वविद्यालय की डिग्रियों से बने अध्यापकों का रिकार्ड खंगालने की नौबत क्यों आई। आवाजें फिर से सुनी जाएंगी और जनप्रतिनिधि या तो छोटे मंच पर बड़ी घोषणाएं तराशते हुए नजर आएंगे या छोटे से उद्घाटन के लिए बड़े मंच सजाएंगे। उपचुनावों के गले में टंगा रेशमी रूमाल देखा जा सकता है और यह करोड़ों के वादों का परिचायक भी है।
आईने घूम रहे हैं और इसीलिए जनमंच का पुनरागमन बारह सितंबर के दिन बारह मंच सजाएगा। इसी बीच किसी मेधावी योजना की तरह नए जिलों के गठन की तरफदारी में बुद्धिजीवी समाज, अपने तर्कों के समायोजन में सरकारी तरकारी की तरह नई प्लेट सजा रहा है। यह हिमाचल का बौद्धिक विकास है जो विकास में सरकारी कार्यालय देखता है, सुशासन नहीं। चिलगोजे की तरह राजनीति को लाभकारी पदार्थ बनाने की कोशिश में हिमाचल का समाज कितना सभ्य है, यह हर गांव, कस्बे से शहर तक की गंदगी में दिखाई देता है।
अब शहरी जिम्मेदारियों का हस्तांतरण नगर निगमों का गठन जरूर करने लगा है, लेकिन शहरीकरण के यथार्थ में हमारी परिकल्पनाएं क्या हैं। ग्रामीण परिवेश तक कालेज खोलकर या हर कालेज को स्नातकोत्तर बना कर आखिर प्राप्त क्या किया। नए कालेज खोलने के बजाय हर कालेज में प्रिंसीपल, फैकल्टी तथा फैसिलिटी उपलब्ध कराएं, तो कहीं ज्यादा बेहतर होगा। कुछ इसी तरह नए जिलों के बजाय जिलों का पुनर्गठन करें, तो आर्थिक संसाधनों का सदुपयोग होगा। एक अतिरिक्त जिला का व्यय कम से कम पांच सौ करोड़ की लागत मांगता है। इसी औचित्य को आधा दर्जन नए उपग्रह नगरों, निवेश केंद्रों, ट्रांसपोर्ट नगरों, खेल स्टेडियमों, मनोरंजन व साइंस पार्कों, आईटी, जैव प्रौद्योगिकी तथा ज्ञान पार्कों की स्थापना में लगाएं तो ज्यादा बेहतर होगा। सुनिश्चित यह करें कि प्रदेश में पर्यटन व औद्योगिक विकास का नक्शा और सुदृढ़ हो ताकि कोविड से उजड़े बेरोजगारों को आसरा मिले। हिमाचल में पर्यटन के ढांचागत विकास के तहत नए एयरपोर्ट, फोरलेन व पर्यटन सडक़ें, ट्रांसपोर्ट कोरिडोर, रज्जु मार्ग व स्काई बस जैसी परियोजनाएं स्थापित की जाएं। हिमाचल की चुनौतियों का हल न नए कार्यालयों, स्कूल-कालेजों, चिकित्सालयों की स्थापना से होगा और न ही नए जिलों की गिनती बढ़ाने से होगा, बल्कि हर गांव को बस स्टॉप, 24 घंटे बिजली-पानी, पार्किंग, कूड़ा-कचरा प्रबंधन तथा परिवेश संरक्षण की जरूरत है। प्रदेश को नए प्रयोगों की जमीन, नवाचार की कल्पना, सुशासन की नई पद्धति, आर्थिक संसाधनों की हिफाजत, अनावश्यक खर्च में कटौती और वित्तीय क्षमता की चादर देखते हुए, पांव पसारने की कहीं अधिक जरूरत है।
3.सख्त संदेश
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में नोएडा स्थित सुपरटेक लिमिटेड द्वारा बनाये दो अवैध चालीस-चालीस मंजिला टावरों को गिराये जाने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश देश भर के उन बिल्डरों व भ्रष्ट अधिकारियों के लिये बड़ा सबक है जो उपभोक्ताओं की खून-पसीने की कमाई से खिलवाड़ करके मोटी कमाई कर रहे हैं। दरअसल, तमाम कायदे-कानूनों को ताक पर रखकर बने इन टावरों के बनने से जनसुरक्षा और परिवेश के पर्यावरण से जुड़े पहलुओं पर खतरा पैदा हो गया था। महत्वपूर्ण बात यह है कि रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन ने इसके लिये लंबी लड़ाई लड़ी। कोर्ट ने न केवल बहुमंजिला इमारतों को तीन माह में गिराने का आदेश दिया बल्कि घर के खरीदारों को बुकिंग के समय से उनकी देय राशि बारह फीसदी ब्याज के साथ दो महीने में चुकाने का आदेश भी दिया है। साथ ही उत्तर प्रदेश सरकार से उन भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने को कहा है, जिनकी मिलीभगत से भ्रष्टाचार की ये इमारतें खड़ी हो सकी हैं। दरअसल, इससे पहले अवैध रूप से बनी बहुमंजिला इमारतों को गलत ढंग से बनाये जाने से हवा, धूप व जीवन अनुकूल परिस्थितियां न होने पर रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में मामला दायर किया था। वर्ष 2014 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन टावरों को गिराने के आदेश दिये थे। लेकिन इसके बाद बिल्डर राहत पाने की आस में सुप्रीम कोर्ट चले गये। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बिल्डरों व नोएडा विकास प्राधिकरण की दलीलों को खारिज करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को ही लागू करने के आदेश दिये। साथ ही बिल्डरों को अपने खर्च पर टावर गिराने के भी आदेश दिये। दरअसल, प्राधिकरण के अधिकारियों की मिलीभगत से तमाम नियम-कानूनों को ताक पर रखा गया। बताते हैं कि प्राधिकरण की अनुमति मिलने से पहले ही इमारत का निर्माण कार्य प्रारंभ हो गया था। बिना अधिकारियों की मिलीभगत ऐसा कैसे संभव है कि प्राधिकरण की नजर के सामने भवन निर्माण तथा उत्तर प्रदेश अपार्टमेंट एक्ट की अनदेखी होती रही हो?
दरअसल, यह पहला मामला नहीं है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और देश के तमाम भागों में इस किस्म की बहुमंजिला इमारतों में नागरिक जीवन, सुरक्षा और हितों की अनदेखी के साथ ही पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को ताक पर रख दिया गया हो। सुपरटेक की बिल्डिंग के निर्माण में हरित क्षेत्र और खुले एरिया की अनदेखी को लेकर रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन ने बार-बार आवाज उठायी। शीर्ष अदालत ने स्वीकार किया कि जब प्राधिकरण बिल्डरों की मनमानी पर अंकुश लगाने में विफल रहता है तो इससे सीधे-सीधे नागरिक जीवन की गुणवत्ता बाधित होती है। लेकिन भ्रष्ट अधिकारियों से मिलीभगत करके बिल्डरों का निरंकुश खेल विभिन्न आवासीय परियोजनाओं में बदस्तूर जारी रहता है। निस्संदेह खून-पसीने की कमाई से घर का सपना देखने वाले लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने के लिये दोषियों को दंडित किया जाना चाहिए। तभी भविष्य में इस अपवित्र गठबंधन की गांठें खुल सकेंगी। लोग पेट काटकर और बैंकों व वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेकर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अपनी छत का सपना देखते हैं। लेकिन अधिकारियों से मिलीभगत करके बिल्डर उनके स्वप्न को दु:स्वप्न में बदल देते हैं। निस्संदेह, रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन की पहल और अदालत के फैसले से देश में तमाम ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी के सदस्यों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ेगी। वे अपने हितों के लिये संघर्ष करेंगे। साथ ही शेष भारत के बिल्डरों के लिये भी कोर्ट के फैसले से सख्त संदेश जायेगा कि भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से वे चाहे कितने ही ऊंचे भ्रष्टाचार के टावर खड़े कर लें, एक दिन उन्हें जमींदोज होना ही पड़ेगा। इस मामले में देर से ही सही, योगी सरकार ने प्राधिकरण के भ्रष्ट अधिकारियों को दंडित करने की बात कही है। यदि इस मामले में सख्त कार्रवाई होती है तो बिल्डरों-अधिकारियों का अपवित्र गठजोड़ टूटेगा। सरकार को भी रियल एस्टेट सेक्टर के निर्माण में पारदर्शिता लाने के लिये सख्त नियम-कानूनों को अमल में लाना चाहिए। निस्संदेह, अदालत के इस फैसले से देशभर में छत का सपना देखने वाले लोगों को संबल मिलेगा कि अब बिल्डर उनके अरमानों से खिलवाड़ नहीं कर पायेंगे।
4.गौ रक्षा का स्वागत
गौ रक्षा के संबंध में इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला बेहद महत्वपूर्ण और विचारणीय है। हमारे समाज में गाय न केवल आर्थिक, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से भी व्यापक महत्व रखती है। यदि उच्च न्यायालय ने गाय के संपूर्ण महत्व को देखते हुए इसे राष्ट्रीय पशु घोषित करने का सुझाव दिया है, तो यह भारत में एक पारंपरिक आस्था को पुष्ट करने वाला कदम है। भारतीय समाज में अनेक समूह और लोग गो मांस का उपयोग करते हैं, लेकिन उच्च न्यायालय ने साफ कर दिया है कि गो मांस खाना किसी का मौलिक अधिकार नहीं है। जीभ के स्वाद के लिए किसी से जीवन का अधिकार नहीं छीना जा सकता। बूढ़ी, बीमार गाय भी खेती के लिए उपयोगी होती है। गाय की हत्या की इजाजत किसी को देना ठीक नहीं है। वास्तव में आज गाय भारतीय कृषि की रीढ़ नहीं है और समय के साथ उसका सम्मान कम भी हुआ है, लेकिन अदालत के फैसले से गाय को नए सिरे से न केवल संरक्षण, बल्कि संवद्र्धन मिलने की संभावना बनेगी। अदालत ने इस बात को भी विशेष रूप से रेखांकित किया है कि भारत में सभी संप्रदाय के लोग रहते हैं और सभी को एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करना चाहिए।
उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव ने गाय की हत्या करने वाले एक आरोपी की जमानत याचिका को साक्ष्यों के आधार पर खारिज करते हुए यह फैसला सुनाया है। किसी भी समाज में किसी पशु को चोरी करके काटने या मारने की इजाजत नहीं दी जा सकती। भारतीय समाज पशुओं के प्रति कुछ ज्यादा ही संवेदना की मांग करता है और महात्मा गांधी ने कभी कहा था कि आपकी पहचान इस बात से होगी कि आप अपने पशुओं के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। खास तौर पर गाय के प्रति भारतीय समाज का मोह सुस्थापित है, इसीलिए देश के 24 राज्यों में गोवध पर रोक है। गाय की उपयोगिता निर्विवाद है। यह माना जाता है कि एक गाय अपने जीवन काल में 410 से 440 लोगों का पेट भरती है, जबकि एक गाय के मांस से महज 80 लोगों का पेट भरता है। मतलब मानवीयता के लिहाज से भी गाय का पालन-पोषण अर्थपूर्ण है। इसमें कोई दोराय नहीं कि मुस्लिम शासकों ने भी इस देश में कभी गो हत्या पर रोक लगाई थी और गाय को हर लिहाज से गुणकारी माना था। कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे संविधान में भी गो संरक्षण पर बल दिया गया है।
उच्च न्यायालय ने लगे हाथ यह भी कहा है कि सरकार को भी एक विधेयक लाना होगा और गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करना होगा और गायों को नुकसान पहुंचाने की बात करने वालों के खिलाफ सख्त कानून बनाना होगा। संभव है, इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट भी ले जाया जाए। तब विशेष रूप से सोचना होगा कि बैल, सांड इत्यादि की बढ़ती संख्या का क्या किया जाएगा? क्या भारतीय समाज बैल, सांड को गायों के समान ही महत्व देता है? जब गोवंश हत्या पर रोक लग चुकी है, तब आवारा पशुओं से खेतिहर समाज पहले ही परेशान है। गौ रक्षा के लिए कड़े कानून बनाने से पहले पूरे गोवंश को भारतीय समाज के लिए लाभप्रद बनाना होगा? केवल भावना या आस्था के आधार पर गोवंश की रक्षा का सपना साकार नहीं हो सकता, इसलिए गौ सेवा के तमाम व्यावहारिक पहलुओं को परख लेना चाहिए।