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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है।
1.मुख्यमंत्री बदलने के मायने
मुख्यमंत्री को बदलना सवालिया और असंवैधानिक नहीं है। यह कोई सरकारी स्थायी कर्मचारी का पद नहीं है। चुनावी जनादेश के बाद जिस शख्स को मुख्यमंत्री चुना जाता है, वह शपथ-ग्रहण के बाद संवैधानिक, सरकारी और कार्यपालिका का शीर्ष अधिकारी बनता है। वह सरकार और जनता के प्रति जवाबदेह होने के साथ-साथ अपनी पार्टी के प्रति जिम्मेदार भी होता है। बेशक मुख्यमंत्री का पद बिल्कुल अस्थायी और अस्थिर भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि उससे विकास और सामाजिक-आर्थिक योजनाओं के क्रियान्वयन पर असर पड़ता है, लिहाजा संविधान में पांच साल के कार्यकाल की व्यवस्था की गई है। यदि मुख्यमंत्री के प्रति सत्तासीन पार्टी और खासकर विधायकों के भीतर ही असंतोष और विद्रोह की स्थितियां बन जाती हैं या किसी बेहद संवेदनशील मुद्दे पर जनमत पार्टी के खिलाफ लगता है और चुनाव प्रभावित हो सकता है, तो पार्टी आलाकमान मुख्यमंत्री बदलने का फैसला भी ले सकता है। हमारी राजनीतिक व्यवस्था में, किसी भी दल को, एक आलाकमान नियंत्रित करता है। वह पार्टी अध्यक्ष, पार्टी महासचिव, पोलित ब्यूरो, केंद्रीय समिति या संसदीय बोर्ड आदि कुछ भी हो सकता है, लेकिन पार्टी आलाकमान ही सर्वोच्च और राष्ट्रीय नेतृत्व होता है। भाजपा ने बीते दो माह के दौरान उत्तराखंड, कर्नाटक और गुजरात के मुख्यमंत्री बदले हैं। उत्तराखंड का मामला कुछ संवैधानिक पेंच वाला था और वहां इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं। कर्नाटक में येदियुरप्पा लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे। भाजपा और येदियुरप्पा को पर्यायवाची ही माना जाता था। अब उनकी उम्र 78-79 साल की हो गई है और वह अस्वस्थ भी रहने लगे हैं।
जाहिर था कि नए नेतृत्व को चुना जाए और उसे दायित्व सौंपा जाए। गुजरात में विजय रूपाणी अप्रत्याशित तौर पर मुख्यमंत्री बनाए गए थे। उन्होंने 5 साल से अधिक का कार्यकाल पूरा किया है। चूंकि एक साल बाद ही गुजरात विधानसभा के चुनाव होने हैं, लिहाजा परिवर्तन के तौर पर नए नेतृत्व की बाजी खेली गई है। गुजरात देश के प्रधानमंत्री मोदी एवं गृहमंत्री अमित शाह का गृह-राज्य है, लिहाजा भाजपा का बहुत कुछ दांव पर भी है। भाजपा गुजरात में 1995 से लगातार सत्ता में है, लिहाजा सरकार-विरोधी लहर का भी कुछ असर हो सकता है। नए मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल एक बार के विधायक हैं। उन्हेें सीधे ही मुख्यमंत्री बनाया गया है। इसमें कुछ भी अप्रत्याशित और असंवैधानिक नहीं है। जब 2000 में भुज के विध्वंसक भूकंप के बाद नरेंद्र मोदी को भाजपा आलाकमान ने मुख्यमंत्री तय कर गुजरात भेजा था, तब वह एक बार के विधायक भी नहीं थे। कोई प्रशासनिक अनुभव भी नहीं था। मोदी दशकों से पार्टी संगठन में ही काम कर रहे थे। वैसे भी स्वतंत्र भारत में ऐसे कई उदाहरण हैं कि किसी को मुख्यमंत्री पद के लिए अचानक ही चुन लिया गया हो अथवा कांग्रेसी सरकार के दौरान रातोंरात मुख्यमंत्री को बदल भी दिया गया हो। यकीनन मुख्यमंत्री बनाने के कुछ मानक तो हैं, लेकिन राजनीतिक दल बुनियादी तौर पर जातीय समीकरण ही आंकते रहे हैं। भाजपा ने पाटीदार मुख्यमंत्री बनाने के आग्रहों का सम्मान किया है, क्योंकि पटेल सबसे ताकतवर और भाजपा-समर्थक जातीय समुदाय रहा है। भूपेंद्र पटेल पाटीदारों में लोकप्रिय और ईमानदार नेता माने जाते रहे हैं।
बहरहाल भाजपा के हालिया दौर में राष्ट्रपति प्रणाली की सियासत ही जारी है। चुनाव कोई भी हो और किसी भी राज्य में होना हो, भाजपा का सर्वसम्मत चेहरा प्रधानमंत्री मोदी ही हैं। फिर गुजरात तो उनका अपना प्रदेश है, जहां उनके नाम पर ही वोट पडऩे तय हैं। दरअसल रूपाणी कोरोना की दूसरी लहर के दौरान प्रबंधन और व्यवस्था को कारगर तरीके से दुरुस्त नहीं रख पाए। आरोप हैं कि करीब 3 लाख लोग संक्रमण से मरे, लोगों को सहज ही इलाज नहीं मिल पाया, अस्पतालों के बाहर एंबुलेंस की कतारें दिखाई देती थीं, लेकिन वे लोगों को आसानी से उपलब्ध नहीं थीं, लिहाजा जनता का एक निर्णायक वर्ग भाजपा के खिलाफ माना जा रहा था। गुजरात उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के खिलाफ कई तल्ख टिप्पणियां भी की थीं। भाजपा नेतृत्व ने असंतोष के चेहरे को ही बदलने का निर्णय लिया। शेष प्रधानमंत्री मोदी संभाल सकते हैं। दरअसल 2022-23 में कई राज्यों के चुनाव होने हैं। भाजपा वहां सरकार में है अथवा नहीं है, लेकिन 2024 के आम चुनाव की तैयारियां और भूमिकाएं शुरू कर दी गई हैं।
2.स्कूल में खालिस सोना
स्वर्ण जयंती समारोह की बरसात में हिमाचल कितना भीगता और कितना सींचता है, अगर इस भेद में अंदाज बदल जाए तो निश्चित रूप से यह प्रदेश अगले पचास सालों का सोना उगाने का हुनर पैदा कर सकता है। यह जयराम सरकार के लिए भी एक स्वर्णिम अवसर है कि इस बहाने प्रदेश के सुन्न पड़े काफिलों को जगा दे और यह समीक्षा और मीमांसा के नए प्रयोग की प्रगतिशील कार्यशाला में स्थापित हो जाए। इस सदी के अपने प्रश्र व महत्त्वाकांक्षा है और इसी के साथ नई पीढ़ी की चेतना को समृद्ध करती सूचनाएं व क्रांतियां भी हैं। पिछले पचास सालों का इत्र उन इमारतों पर जरूर चढ़ा है, जिन्होंने पर्वतीय राज्य की मजबूरियों पर फतह पा कर हिमाचल को पढऩा, चलना और आगे बढऩा सिखाया। जिन राहों पर आंकड़ों की हर शून्यता के नहले को दहले में बदला गया होगा, वहां पुराने दस्तावेज ही आज की स्वर्णिम यात्रा हैं। ऐसे में वर्तमान राज्य सरकार समारोहों की हर परिकल्पना में भविष्य के उजाले देख सकती है। युवा हिमाचल अब आगे का सफर तय करना चाहता है। यह हिमाचल हर दिन प्रदेश से बाहर निकल कर मीलों दूर मंजिलें तलाश करता है।
उसके जीवन में बेंगलूर, मुंबई, दिल्ली, चंडीगढ़ सरीखी जिंदगी के अरमान घर कर गए हैं, इसलिए वह शिक्षित होने से कहीं आगे जीवन की सफलता के लिए पढऩा चाहता है और प्रतिस्पर्धा की हर कसौटी के लिए तैयार है। ऐसे में जयराम सरकार ने प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी के लिए जो खाका तैयार किया है, उसके परिणाम प्रशंसनीय ही होंगे, लेकिन बदलते समय में प्रोफेशनल पढ़ाई के कई अन्य अनछुए आयाम रह जाते हैं। प्रदेश के बाहर और देश की अपेक्षाओं में जो करियर तैयार हो रहे हंै, वे मेडिकल और इंजीनियरिंग से इतर भी हंै। दुर्भाग्यवश शिक्षा के चबूतरे पर हिमाचल ने अपनी योग्यता का हिसाब केवल डाक्टरी व इंजीनियरिंग के लिए ही लगाया, जबकि रोजगार के नए अवसरों में खेल, नृत्य व गीत-संगीत जैसे विषय भी शामिल हैं। अत: बच्चों की प्राकृतिक क्षमता का पूर्ण दोहन एवं विकास स्कूल-कालेज के माहौल तथा शिक्षा के नवाचार से ही होगा। हिमाचली बच्चों को गैर सरकारी क्षेत्र के लिए तैयार करने की जरूरत है और यह निजी क्षेत्र में पैदा हो रहे रोजगार के मद्देनजर आवश्यक है। प्रदेश के सौ टापर्स केवल दो विधाओं में नहीं हो सकते, बल्कि एक अच्छा खिलाड़ी, अर्थ शास्त्री, विज्ञानी या समाज शास्त्री भी चुना जाना चाहिए। हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग, स्कूल शिक्षा बोर्ड व अभिभावकों के सहयोग से आठवीं व दसवीं श्रेणी तक के बच्चों के दो शैक्षिक भ्रमण होने चाहिएं। एक भ्रमण में वह राज्य को जानें, जबकि दूसरे में देश को जानें।
प्रदेश की अपनी एक साइंस सिटी होनी चाहिए, ताकि बच्चों के वैज्ञानिक सोच व शोध के प्रति रुचि बढ़े। बच्चों की शारीरिक और मानसिक क्षमता को संबोधित करने की आवश्यकता में अभिभावकों को यह समझाने की कहीं अति आवश्यकता है कि केवल डाक्टरी या इंजीनियरिंग ही पढ़ाई को मुकम्मल व श्रेष्ठ नहीं बनाते। अत: छात्रों की योग्यता की खोज होती है, तो साथ ही साथ करियर के हिसाब से अकादमियां बनें। यानी प्रदेश की अनौपचारिक मैरिट से यह हिसाब लगाया जाए कि अगर सौ बच्चे नीट-जेईई की तैयारी के लिए चुने गए हैं, तो वाणिज्य, बिजनेस, इकॉनमी, विज्ञान की विभिन्न शाखाओं, आर्ट व कल्चर जैसे विषयों के लिए भी तो छात्र राष्ट्रीय स्तर की धूम मचाएं। देश की श्रेष्ठ कानूनी पढ़ाई के लिए छात्रों की तैयारी या फैशन, फिल्म उद्योग में जाने का रास्ता भी तो टेलेंट की पहचान से ही निकलेगा। स्कूल शिक्षा बोर्ड व हर विश्वविद्यालय को दसवीं से बारहवीं तक के कुछ चयनित बच्चों के लिए विषय अकादमियां चलानी चाहिएं। प्रदेश की मैरिट में हर साल पांच हजार बच्चे चमकते हैं, लेकिन सारे ही डाक्टर-इंजीनियर नहीं बनते। सौ बच्चों के प्रकाश में हम अपने सारे अंधेरे दूर नहीं कर सकते।
3.एक और निर्भया
मुंबई में दुराचार और अमानवीय क्रूरता के चलते एक युवती की मौत ने एक बार फिर अपराधियों में कानून का भय न होना दर्शाया है। यह भी कि हमारा कानून व पुलिस बेटियों को सुरक्षा कवच देने में नाकाम रहे हैं। वर्ष 2012 में दिल्ली की निर्भया के साथ जैसी क्रूरता की गई थी, वही राक्षसी व्यवहार मुंबई की निर्भया के साथ भी हुआ है। निस्संदेह यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि घर से निकलने वाली बेटियां अमानवीय क्रूरता की शिकार हो रही हैं। अपराधियों में यह धारणा लगातार बनी हुई है कि वे अपराध करने के बाद भी बच जायेंगे। हमें इस सवाल पर गंभीरता से सोचना होगा कि अपराधियों में कानून का खौफ क्यों नहीं है। हमारे समाज में ऐसी सोच क्यों पनप रही है जो महिलाओं के प्रति नफरत-क्रूरता को दर्शाती है। उसके साथ बेजान वस्तु जैसा व्यवहार क्यों किया जाता है जबकि पुरुष मां, बहन व बेटी के बिना अधूरा है। क्या कहीं अपराधी की परवरिश में खोट है या हमारा वातावरण इतना विषाक्त हो चला है कि वह लगातार ऐसे अपराधियों को पैदा कर रहा है। हमें तमाम ऐसे सवालों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। यही वजह है कि महिलाओं के प्रति क्रूरता करने वालों के साथ तालिबानी न्याय करने की बात उठने लगी है। कुछ वर्ष पूर्व दक्षिण भारत में एक बलात्कार की घटना और क्रूरता के बाद पुलिस पर अपराधियों के साथ बंदूक से न्याय करने का दबाव बना था। बाद में जब बलात्कारी पुलिस मुठभेड़ में मारे गये थे तो महिलाओं ने पुलिस का अभिनंदन किया था। यह भाव दर्शाता है कि आम धारणा बन रही है कि न्यायिक प्रक्रिया से संगीन अपराधियों को समय रहते समुचित दंड नहीं मिल पाता। देश ने देखा था कि निर्भया कांड के दोषी सजा होने के बाद भी कानूनी दांव-पेचों का सहारा लेकर पुलिस-प्रशासन व न्याय व्यवस्था को छकाते नजर आए। इस घटनाक्रम ने शीघ्र न्याय की आस में बैठे लोगों को व्यथित किया था।
हाल के दिनों में मुंबई और पुणे में दुराचार व सामूहिक बलात्कार के कई मामले प्रकाश में आये। कमोबेश देश में भी ऐसी तमाम घटनाएं सामने आती रहती हैं जो दर्शाती हैं कि पथभ्रष्ट लोगों में स्त्री अस्मिता व गरिमा के लिये कोई जगह नहीं है, जिसके चलते यौन अपराध और फिर हत्या का सिलसिला जारी है। अपराधी समाज का अंग होने के बावजूद महिला-बच्चियों व उसके परिजनों के दर्द की कतई परवाह नहीं करते। वर्ष 2012 में निर्भया कांड ने देश की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया था। पूरे देश में व्यापक आक्रोश सामने आया था। उसके बाद यौन हिंसा से जुड़े कानूनों को सख्त बनाया गया था। दोषियों को कठोरतम सजा से दंडित भी किया गया था। लेकिन लगता है कि दिल्ली की निर्भया का बलिदान व्यर्थ चला गया। आज भी पीड़ित महिला व परिजनों को न्याय पाने के लिये यातनादायक लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। वहीं यौन अपराधों का आंकड़ा चौंकाने वाले स्तर तक बढ़ा है। यौन हिंसा के बाद तब तक मामला सुर्खियों में रहता है जब राजनीतिक दल राजनीति करते रहते हैं और मीडिया में मामला गर्म रहता है। फिर यौन पीड़िता का शेष जीवन सामाजिक लांछनों और हिकारत की त्रासदी के बीच गुजरता है। उ.प्र. में हाथरस से लेकर उन्नाव तक यौन हिंसा के मामले में ऐसा हुआ। यहां तक कि यौन हिंसा के आरोप मंत्रियों व विधायकों तक पर लगे। पिछले दिनों शिव सेना के एक मंत्री पर गंभीर आरोप लगे, आरोप लगाने वाली महिला की आत्महत्या के बाद मंत्री का इस्तीफा तो हुआ पर, पीड़िता को न्याय मिला? दरअसल, सत्ताधीश भी कोई गंभीर पहल नहीं करते जो पीड़िताओं का दर्द बांट सके और जांच व न्याय प्रक्रिया में तेजी लाकर नजीर पेश कर सकें। तभी आपराधिक तत्वों को खेलने का मौका मिलता है। मुंबई कांड में एक गिरफ्तारी हुई है, एसआईटी का गठन हुआ है और राजनीतिक दबाव के बाद फास्ट ट्रैक कोर्ट में मामला चलाने की बात की जा रही है, लेकिन क्या अमानवीयता का शिकार हुई महिला को न्याय मिल सकेगा?
4.गुजरात में बदलाव
गुजरात को नए मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल का नेतृत्व हासिल होने के बड़े सियासी मायने हैं। मुख्यमंत्री पद से विजय रूपाणी की विदाई की पहली जाहिर वजह यही है कि उनके नेतृत्व में भाजपा को आगामी विधानसभा चुनाव में जीत पर विश्वास न था। विजय रूपाणी ने अचानक शनिवार को इस्तीफा दिया और सोमवार को भूपेंद्र पटेल ने मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाल लिया। यह सहज सत्ता हस्तांतरण भाजपा में केंद्रीय नेतृत्व की मजबूती और दलीय अनुशासन का भी प्रमाण है। पहली बार विधायक बने भूपेंद्र पटेल गुजरात के 17वें मुख्यमंत्री हैं। उनके शपथ ग्रहण समारोह में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और अन्य भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री मौजूद थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पटेल को बधाई देने के लिए ट्विटर का भी सहारा लिया और उन पर विश्वास व्यक्त किया। साथ ही, प्रधानमंत्री ने विजय रूपाणी की भी तारीफ की है। गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन कुल मिलाकर अनुकरणीय रहा है। एकाधिक अवसरों पर हम भाजपा में भी नेतृत्व परिवर्तन के समय खींचतान देख चुके हैं। लेकिन फिलहाल गुजरात पूरी भाजपा के लिए नाक का सवाल है और पार्टी का कोई नेता या कार्यकर्ता यह नहीं चाहेगा कि पार्टी इस राज्य में पिछड़ जाए।
भाजपा गुजरात में विजय रूपाणी को आगे करके ही 2017 का विधानसभा चुनाव लड़ी थी। रूपाणी को भी चुनावी वर्ष से एक साल पहले ही पार्टी को जिताने की कमान सौंपी गई थी और वह कामयाब रहे थे। हालांकि, भाजपा के नेता यह भूले नहीं हैं कि कांग्रेस से मुकाबला कितना कड़ा था। जहां भाजपा की 16 सीटें घटी थीं, वहीं कांग्रेस की 16 सीटें बढ़ गई थीं। आमतौर पर मत प्रतिशत में 38 के आसपास रहने वाली कांग्रेस 40 प्रतिशत के पार पहुंच गई थी। दोनों पार्टियों के बीच सात से आठ प्रतिशत मतों का अंतर कायम है, लेकिन राजनीति के जानकार सहज ही बता सकते हैं कि दो दशक से ज्यादा सत्ता में रहने वाली पार्टी को मत प्रतिशत के प्रति ज्यादा सजग रहना चाहिए। दो पार्टियों के वर्चस्व वाले गुजरात में कांग्रेस ही भाजपा के खिलाफ पूरे दमखम से सामने है, तीसरी पार्टी के लिए गुंजाइश नहीं है। इसलिए भाजपा के लिए ज्यादा जरूरी है कि वह गुजरात में खुद को मजबूत रखे और मजबूती दिखाए। भूपेंद्र पटेल पाटीदार (या पटेल) समुदाय से आते हैं। इस समुदाय के 12-14 प्रतिशत मतदाता हैं। यह समुदाय आर्थिक, राजनीतिक रूप से बहुत प्रभावी है, और पूरे राज्य में फैला हुआ है। पाटीदारों के वोट 182 विधानसभा क्षेत्रों में से कम से कम 70 में नतीजे तय करते हैं। भाजपा के लिए एक तिहाई विधायक अकेले इसी समुदाय से आते हैं। खैर, कहना न होगा, इस बदलाव से कांग्रेस का मनोबल बढ़ा होगा। कांग्रेस को पता है कि गुजरात में सत्ता मिली, तो 2024 के आम चुनाव की बुनियाद तैयार हो जाएगी। बहरहाल, सियासत से अलग हटकर देखें, तो हर राज्य में हमें यह सोचना चाहिए कि विगत दो वर्षों में हमारी सरकारें लोगों की उम्मीदों पर कितनी खरी उतरी हैं? क्या मात्र चेहरा बदलने से लोग खुश हो जाएंगे? असंतोष व कमियों की मूल बुनियाद में जाकर सरकारों को काम करना पड़ेगा। जो लोग निराश हैं, उन्हें राहत देने के उपाय करने पड़ेंगे। फर्क यही है कि यह काम गुजरात में पहले विजय रूपाणी के जिम्मे था और अब भूपेंद्र पटेल के जिम्मे है।