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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.और कितनी कच्ची घाटियां
शिमला की कच्ची घाटी अपनी व्यथा को चित्रित करती हुई हिमाचल के शहरी विकास को प्रश्नांकित करती है। भले ही अब हम शहरी विकास का कोई नुक्ता पकड़ कर कोस लें या एक साथ कई परिसर खाली करवा दें, लेकिन उस अभिशप्त माहौल को दुरुस्त नहीं कर पाएंगे जिसके चलते राजनीति ने टीसीपी कानून की धज्जियां उड़ा दीं। पहली बार सुधीर शर्मा के मंत्रित्व में यह आभास हुआ था कि शहरी विकास मंत्रालय का भी कोई वजूद है, वरना अधिकांश मंत्रियों ने इस दायित्व को समझा ही नहीं। वर्तमान सरकार में भले ही पहले शहरी विकास मंत्री सरवीण चौधरी को विभाग से हटाना पड़ा, परंतु यह परिवर्तन भी रास नहीं आया। कच्ची घाटी के विध्वंसक नजारों से पहले हमें याद करना होगा कि किस तरह शहरी विकास योजनाओं का उल्लंघन करती व्यवस्था को प्रश्रय दिया गया। कमोबेश हर चुनाव से पूर्व यह जुस्तजू रही कि किसी तरह शहरी परिधि से गांव के कंकाल को अलग करके शहरीकरण को शर्मिंदा किया जाए। अगर शहरी विकास के साथ अमृत योजना या स्मार्ट सिटी परियोजनाएं न जुड़तीं, तो हिमाचल आंख मूंदे शहरीकरण को नजरअंदाज करता रहा है।
विडंबना यह भी हिमाचल के हर शहर के साथ लगते ग्रामीण क्षेत्रों ने यूं तो पूर्ण शहरीकरण अपना लिया, लेकिन शहरी विकास योजना हार गई। कच्ची घाटी का संताप कमोबेश तब से है, जब से यह क्षेत्र नगर पंचायत के दायरे में आया है। उसके बाद साडा के तहत भी दो दशक गुजर गए, लेकिन वास्तव में वहां कोई अथारिटी थी ही नहीं। शिमला में कितनी कच्ची घाटियां हैं या सोलन समेत अन्य कई क्षेत्रों में इनका प्रसार जिस तीव्रता से हो रहा है, इस पर कभी गौर ही नहीं होता। प्रदेश में रियल एस्टेट का मजमून एक तरह से कब्रगाहों की निशानदेही बन चुका है। शिमला खुद को एनजीटी की बाहों में असमर्थ पा रहा है। इस हालत से पहले टीसीपी कानून को मरणासन्न स्थिति में पहुंचा कर जो पाप हुए, उनका प्रायश्चित करना होगा। आज भी प्रदेश के अहम कार्यालय शिमला में सिर उठा रहे हैं, तो मसला निर्माण की आचार संहिता से लाजिमी तौर पर जुड़ता है या जिस स्मार्ट सिटी की पैरवी में भविष्य की परियोजनाएं शिरकत कर रही हैं, उन्हें भी परखने की जरूरत है। शिमला स्मार्ट सिटी को कार्ट रोड की कसरतों में समझा जाए, तो पुराने डंगों को खुरच कर कौन सी कलगी धारण की जा रही है। शिमला कंकरीट का आलेप नहीं हो सकता और न ही ऐसी शहरी अवस्था इसके बचाव के प्रमाण हैं।
शिमला को ‘डी कन्जैस्ट’ होना ही पड़ेगा और यह ही स्मार्ट सिटी होने का तसव्वुर होगा। शिमला को अपने अतीत के यथार्थ को याद किए बिना भविष्य की परिकल्पना नहीं करनी चाहिए। ‘डी कन्जैस्ट’ करने की प्राथमिकताओं में उपग्रह शहरों की एक श्रृंखला तैयार करनी होगी, जिसके तहत आवासीय नागरिक शहर, कर्मचारी नगर, प्रशासनिक टाउनशिप, कामर्शियल सेंटर, परिवहन नगर, मेडिकल सिटी तथा शिक्षा संकुल तैयार करने होंगे। बहरहाल प्रश्न यह भी है कि पूरे प्रदेश में पनप रही कच्ची घाटियों का क्या करें। ऊना के साथ लगती शिवालिक पहाडि़यों के सफाचट होते ही लक्ष्य बदल जाते हैं और फिर कालोनियांे का उभरना खतरे बढ़ा देता है। मंदिर परिक्रमा से शुरू होता व्यापारिक लक्ष्य नयनादेवी की पहाडि़यों को समतल बनाने में जुट जाता है और तमाम नगर निकाय अपने पार्षदों के सियासी लक्ष्यों में प्रगति की बोटी-बोटी बांट लेते हैं। धर्मशाला के कोतवाली बाजार में नगर निगम का जो कांपलेक्स कुछ साल असुरक्षित रहा, पुनः सुरक्षित कैसे हो जाता है, यह सबसे बड़ा रहस्य है। शिमला की कितनी इमारतें सीधे ऊपर कैसे पहुंच जातीं, यह पहंुच जब तक रहेगी कोई नियम-कानून धंसते शहरों से वास्तविक कारण नहीं चुन पाएगा। प्रदेश नए नगर निगम बना कर भी यह साबित नहीं कर पाया कि उसके लिए शहरीकरण का अर्थ क्या है। क्या हम सोलन की पहाडि़यों पर बसते लोगों के कारण शहर बन जाएंगे या शिमला के कहर में खुद को बचा लेंगे।
2.इंसाफ मांगे ‘मिनी पंजाब’
उप्र के लखीमपुर खीरी को ‘मिनी पंजाब’ भी कहते हैं। जिले की आबादी में करीब 6.5 लाख सिख हैं, जो उप्र में सबसे ज्यादा सिख आबादी है। वे किसान आंदोलन में सिखों का समर्थन करते आए हैं। उस इलाके में सिख पहचान और उसके कृषि संबंधी अधिकारों की गूंज सुनाई देती रही है। उप्र के इस क्षेत्र में जातीय और धार्मिक विभाजन की स्थितियां हैं। हिंदू तथा उच्च वर्ग के अन्य समुदाय इन सिख किसानों को ‘अतिवादी’ करार देते हैं, क्योंकि किसान आंदोलन को लेकर उनमें स्पष्ट विरोधाभास हैं। अधिकतर सिख परिवार भारत-विभाजन के बाद पाकिस्तान से भाग कर यहां आए और तराई के इस इलाके में बस गए। वे शुरू से ही अल्पसंख्यक रहे हैं। सिखों ने इलाके के आदिवासियों और स्थानीय लोगों से ज़मीनें खरीदीं और खेती का दायरा बढ़ाते रहे। अलबत्ता उप्र सरकार ने एक कानून पारित कर आदिवासियों से ज़मीन खरीदने पर पाबंदी लगा दी थी। ज़मीन पर आदिवासियों का ही हक घोषित किया गया। चूंकि लखीमपुर के सिख किसान पंजाब, हरियाणा, दिल्ली की सीमाओं पर और पश्चिमी उप्र में जारी किसान आंदोलन के समर्थक रहे हैं और सार्वजनिक तौर पर विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन करते रहे हैं, लिहाजा प्रतिक्रिया में आंदोलन-विरोधी भी उग्र होते रहे हैं। बीती तीन अक्तूबर का मौत-कांड या हत्याकांड उसी विरोध और टकराव की एक परिणति है।
सिखों को लेकर भी सियासत शुरू हो चुकी है, लेकिन मृतकों के परिजन सिर्फ इंसाफ़ चाहते हैं। उन्हें मुआवजा नहीं चाहिए, लेकिन न्यायालय की निगरानी में एक तटस्थ और ईमानदार जांच की उन्हें दरकार है। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी पंजाब के दलित-सिख मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को साथ लेकर लखीमपुर में पीडि़त परिजनों से मिलने गए। उनके साथ छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और प्रियंका गांधी वाड्रा भी थे। दोनों मुख्यमंत्रियों ने मृतक किसानों के परिजनों को 50-50 लाख रुपए देने की घोषणा की है, जबकि उप्र सरकार ने सभी मृतकों, पत्रकार और भाजपा कार्यकर्ता समेत, के परिवारों को 45-45 लाख रुपए के चेक सौंप भी दिए हैं। घायलों को भी 10 लाख रुपए दिए जा रहे हैं। मुआवजे की सियासत बिल्कुल स्पष्ट है। पंजाब में राजनीतिक तौर पर सक्रिय ‘आप’ के नेता भी पीडि़त परिवारों की दहलीज़ तक गए और फोन पर दिल्ली के मुख्यमंत्री एवं ‘आप’ के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल से भी बात कराई। संवेदना और सहानुभूति के सिलसिले जारी हैं, क्योंकि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा आदि भी पीडि़तों के आंसू पोंछ चुके हैं। पंजाब में फरवरी और उप्र में अप्रैल, 2022 में चुनाव हैं, लिहाजा सिख किसानों का वोट बैंक याद आ रहा है। सभी किसानवादी बनने की हुंकार लगा रहे हैं।
पंजाब के कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू ने भी 200 गाडि़यों का काफिला लखीमपुर तक ले जाने का ऐलान किया है। उत्तराखंड से 1000 गाडि़यां लखीमपुर जाएंगी, ऐसा दावा पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने किया है। हरियाणा की कांग्रेस अध्यक्ष सैलजा ने भी पानीपत से वाहनों का काफिला कूच कराने की घोषणा की है। पीडि़तों को दिलासा देने की कोशिश की जा रही है अथवा उनके घरों से कुछ दूर सियासी मेला आयोजित करने की कवायद है? पुलिस प्रशासन ने 5-5 नेताओं के समूह को ही पीडि़त परिवारों तक जाने की अनुमति दी है, तो बाकी गाडि़यां भीड़ के अलावा और क्या भूमिका अदा कर सकती हैं? गौरतलब यह है कि जब कांग्रेस आलाकमान राहुल और प्रियंका गांधी, पंजाब और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों समेत, पीडि़त परिजनों से मुलाकात कर चुके हैं और प्रियंका तो बहराइच भी गई हैं, तो कांग्रेस नेता अपने-अपने काफिले ले जाकर क्या साबित करना चाहेंगे? इस तरह कांग्रेस उप्र में अपनी प्रासंगिकता को बचाए नहीं रख सकती। उसके लिए कई और मुद्दे और विभिन्न वोट बैंकों का समर्थन जुटाना जरूरी है। बहरहाल राज्यपाल ने उच्च न्यायालय के रिटायर्ड न्यायाधीश प्रदीप श्रीवास्तव की अध्यक्षता में आयोग गठित कर दिया है और उसका कार्यकाल दो माह तय किया गया है। समूची जांच उनके ही निर्देशन में होगी। इधर सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय न्यायिक पीठ ने सुनवाई शुरू कर दी है। कमोबेश न्यायिक प्रक्रिया पर भरोसा होना चाहिए।
3.कश्मीरियत की आवाज
कश्मीर घाटी में अल्पसंख्यकों को जिस तरह से निशाना बनाया जा रहा है, उसकी जितनी निंदा की जाए कम होगी। ऐसे कायर फिर सिर उठा रहे हैं, जो अब लगभग हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। किसी भी मकसद में जब हिंसक ताकतें आम निहत्थे लोगों को निशाना बनाने लगती हैं, तब दरअसल वे अपनी बुनियादी हार का ही संकेत देती हैं। बुधवार को आतंकियों की कारस्तानी की चर्चा अभी शुरू ही हुई थी कि उन्होंने श्रीनगर में गुरुवार सुबह ईदगाह इलाके में स्थित एक सरकारी स्कूल में हमला कर दिया। इस हमले में स्कूल के प्रधानाध्यापक और शिक्षक की मौत हो गई है। गैर-मुस्लिमों को निशाना बनाने का मकसद साफ तौर पर समझा जा सकता है। जो लोग देश में बढ़ते सांप्रदायिक तनाव को लेकर चिंतित हैं, उनकी चिंता का स्तर अब और बढ़ गया है। घाटी में लगातार यह साबित करने की कोशिश होती रही है कि दो समुदाय मिलकर साथ नहीं रह सकते। समुदायों के बीच पिछले दिनों से देखे जा रहे सद्भाव पर प्रहार करने की यह नापाक कवायद जिन लोगों की दिमाग की उपज है, वे दरअसल इंसानियत के दुश्मन हैं। वे नहीं चाहते कि कश्मीर में अमन-चैन की बहाली हो। जिस तरह से कश्मीर में राष्ट्रीय महत्व के उत्सवों को मनाने की शुरुआत हुई है, जिस तरह कश्मीर के प्रति बाकी भारत में लगाव बढ़ा है, उससे आतंकियों को अपनी जमीन खिसकती लग रही है।
अपेक्षाकृत सुरक्षित माहौल बनाने में कामयाब हो रहे सुरक्षा बलों को पूरे संयम के साथ ऐसे कायराना हमलों का जवाब देना चाहिए। कायरों के नेटवर्क को समय रहते तोड़ना होगा। सुरक्षा बलों को कश्मीर की उस बेटी की आवाज पर कान देना चाहिए, जो पिता की मौत के बाद भी मुकाबले के लिए तैयार है। बुधवार को भी आतंकियों ने एक के बाद एक तीन हमले किए थे, जिनमें तीन अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया था। इसमें सबसे दुखद हत्या माखनलाल बिंद्रू की है। घाटी में दवाई की दुकान चलाने वाले बिंद्रू उन गिने-चुने हिंदुओं में शामिल थे, जो 1990 और 1991 के खतरनाक समय में भी घाटी में पांव जमाए रहे। सांप्रदायिकता की आग में झुलस रही घाटी में भी बिंद्रू कश्मीरियत को संजोए हुए थे। बिंद्रू की बेटी के उद्गार सुनने के बाद कश्मीरियत और भारतीयता, दोनों की मजबूती का पता चलता है। वह भारत की बेटी पिता को खोने के बावजूद बोल रही है, ‘तुम लोग पत्थर फेंक सकते हो, पीछे से गोली मार सकते हो, तुम लोगों में हिम्मत है, तो आगे आओ।’ दरअसल, यह निडर भारतीयता का जयघोष है, जो निश्चित रूप से देशवासियों को जोश से भर देता है। सीमा पार से चल रही नापाक लड़ाई पाकिस्तान छिपकर ही लड़ रहा है, उसमें हिम्मत नहीं कि भारतीय जवानों का सामना कर सके। अगर इन हमलों के बाद श्रीनगर में लोग विरोध में सड़कों पर उतरे हैं, तो सुरक्षा बलों की भी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। आम लोगों का शिकार करने निकले दरिंदों पर जल्द से जल्द शिकंजा कसना चाहिए। इसके अलावा मानवाधिकार के नाम पर आतंकियों और उनके समर्थकों का पक्ष लेने वाले पेशेवर भड़काऊ लोगों को भी शर्म आनी चाहिए। राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को मजहबी नजरिए से नहीं, बल्कि इंसानियत की नजर से कश्मीर में होने वाली हिंसा को देखना चाहिए, ताकि बिंद्रुओं, दीपकों, सुपिंदरों का मानवाधिकार भी सुरक्षित रहे।
4.आतंक की आहट
हताशा में आम लोगों पर निशाना
बृहस्पतिवार को फिर आतंकवादियों ने घाटी में आम लोगों को हमले का शिकार बनाया। एक सरकारी स्कूल में घुसकर महिला प्रिंसिपल व एक अध्यापक की निर्मम हत्या कर दी गई। पिछले पांच दिनों में आम लोगों पर यह सातवां हमला था। इससे पहले मंगलवार को आतंकवादियों ने प्रसिद्ध फॉर्मासिस्ट माखनलाल बिंद्रू की, उनकी दुकान में गोली मारकर हत्या कर दी थी। बिंद्रू नब्बे के दशक में आतंकवाद के चरम के दौर में अन्य कश्मीरी पंडितों की तरह घाटी छोड़कर नहीं गये थे। उनके मेडिकल स्टोर को अन्य जगह आसानी से न मिलने वाली दवाइयों की अंतिम उम्मीद कहा जाता था। वे कश्मीरियों की सेवा के चलते बड़े सम्मान से देखे जाते थे। वहीं एक पानी-पूरी बेचने वाले बिहार के व्यक्ति व एक टैक्सी यूनियन के व्यक्ति को इसी दिन मारा गया। शनिवार को भी दो लोगों की हत्या की गई थी। जाहिरा तौर पर घाटी में सांप्रदायिक सौहार्द खत्म करने के लिये आम लोगों को साजिशन निशाना बनाया जा रहा है। हताशा में आतंकवादी कश्मीर में अमन-चैन व भाईचारे को खत्म करने के लिये षड्यंत्र रच रहे हैं। ऐसे वक्त में जब कश्मीर में लंबे अशांति काल के बाद जन-जीवन पटरी पर लौटने लगा तो यह अमन-चैन आतंकवादियों को रास नहीं आ रहा है। केंद्र सरकार की विस्थापित कश्मीर पंडितों के पुनर्वास की नई कोशिशों के बीच उन पंडितों को निशाना बनाया जा रहा है जिन्होंने अभी तक घाटी में आतंक के आगे घुटने नहीं टेके। वास्तव में सेना व सुरक्षा बलों के चौतरफा दबाव के चलते आतंकवादियों की सप्लाई चेन टूटती नजर आ रही है। एक ओर उन पर सेना व अर्द्ध सैनिक बलों का शिकंजा कसा है तो वहीं स्थानीय लोगों का पहले जैसा समर्थन उन्हें नहीं मिल पा रहा है। अब आम लोग आतंकवादियों को बचाने के लिये पहले जैसी मानव ढाल नहीं बनते। कट्टरपंथी ताकतों व संगठनों पर पुलिस व कानून का शिकंजा कसा है। सीमा पर बढ़ी चौकसी से उन्हें पाकिस्तान से मिलने वाली मदद भी पहले की तरह नहीं मिल पा रही है। अब उनके समर्थन में पहले जैसी पत्थरबाजी भी नहीं होती।
दरअसल, अब आम लोग महसूस करने लगे हैं कि कश्मीर का विकास देश की मुख्यधारा से जुड़कर ही संभव है। वे रोजगार व कारोबारों को नये सिरे से स्थापित कर रहे हैं। यही बात आतंकवादियों और सीमा पार बैठे उनके आकाओं को रास नहीं आ रही है। दूसरी ओर सुरक्षा बलों की निरंतर कार्रवाइयों में बड़ी संख्या में आतंकवादियों के मारे जाने से उनके आका बौखलाए हुए हैं। सेना व सुरक्षाबलों से मुकाबला न कर पाने की स्थिति में निहत्थे लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। उनकी आर्थिक मदद करने वालों पर भी सख्त शिकंजा कसा गया है। पाकिस्तान से संचालित आतंकी संगठन इसी हताशा में आम लोगों को निशाना बनाकर भय का माहौल बनाना चाह रहे हैं। लेकिन वे भूल जायें कि नब्बे के दौर जैसा आतंक का माहौल, वे फिर से बना पायेंगे। बहरहाल, जिस तरह से घाटी में आम लोगों पर हमले हो रहे हैं, उसे आतंकवाद की नई दस्तक माना जा सकता है, जो हमें और अधिक सतर्क होने का संदेश देती है। जहां एक बार फिर घुसपैठ पर पैनी निगाह रखने की जरूरत है, वहीं तलाशी व निगरानी अभियान को नये सिरे से चलाये जाने की भी जरूरत है। बहुत संभव है कि हताशा के चलते पाक पोषित आतंकी संगठनों ने आतंक फैलाने के लिये स्थानीय स्लीपर सेलों की मदद लेनी शुरू कर दी हो, जिन पर भी निगरानी रखने की जरूरत है। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि जम्मू कश्मीर से विशेष प्रावधान हटाये जाने के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान की सभी कोशिशें विफल होने और अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद पाक घाटी में फिर से हिंसा का नया दौर लाने की बड़ी साजिशें रच सकता है। इस नयी चुनौती का मुकाबला करने के लिये एलओसी और केंद्रशासित प्रदेश के भीतर ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है।