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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1. मतदान में कई मुकाबले
दिवाली से पहले हिमाचल में लोकतांत्रिक रोशनी का आगाज और चुनावी पटाखेबाजी के बीच मतदाता की अहमियत का पुख्ता सबूत बनते उपचुनावों की आज इबारत लिखी जाएगी। ये एक बड़ी राजनीतिक घटनाक्रम बनकर दर्ज हो सकते हैं। कांग्रेस के लिए आगामी सत्ता का कदमताल देखा जाएगा, तो भाजपा की सत्ता का काल इसमें पढ़ा जाएगा। कई विश्लेषण, कई समीकरण, कई ताल बजेंगे और कहीं सिंहनाद भी हो सकता है। यह राजनीति के अजीब विश्वास की परिणति में लिखा गया इतिहास है, जो कभी पलकों पर सवार होता है, तो कभी जनता के इकरार को दगा देता है, फिर भी इस दौरान के चुनाव प्रचार का मूल्यांकन जरूर होगा। भाजपा की दृष्टि से उपचुनावों की कसरत में हर छोटे-बड़े नेता, सत्ता के लाभार्थी, महत्त्वाकांक्षा ओढ़ती नई पीढ़ी व संगठन की क्षमता का फैसला होना है, लेकिन प्रदेश व केंद्र सरकारों के प्रति जनता की समझ व निर्णय की प्रतीक्षा भी हो रही है। उपचुनावों का सबसे बड़ा बीड़ा स्वयं मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने उठाया है, तो यह पहला अवसर है जब उनके कार्यकाल की सही-सही रेटिंग भी होगी। यह इसलिए भी कि राजनीतिक पंडितों की दृष्टि में फिलहाल जयराम अंडर रेटिड प्रतीत होते हैं, जबकि उनके कार्यकाल में ही संसदीय चुनाव की चार सीटों और पूर्व के उपचुनाव में दो विधानसभा सीटों में कमल खिल चुका है। जयराम ठाकुर के कार्यकाल में भाजपा की प्रतिष्ठा व उसका रुतबा इतना शक्तिशाली रहा है कि उनके मुख्यमंत्रित्व को कोई भी सीधी आंतरिक चुनौती नहीं मिली है। इससे पूर्व शांता कुमार रहे हों या प्रेम कुमार धूमल, इन दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों के सामने कुनबे के भीतर विस्फोटक मुद्राएं रही हैं।
बावजूद इसके जयराम ठाकुर के लिए अपनी सत्ता की सबसे बड़ी परीक्षा अब शुरू हुई है और इस लिहाज से ये उपचुनाव सत्ता और सरकार की नब्ज तसल्ली से टटोलेंगे। खास तौर पर मंडी संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव वर्तमान सरकार की नीतियों व नीयत का खुलासा करते हुए क्षेत्रवाद पर भी अपना मत देगा। मसलन मंडी जिला के विकास की तुलना में पूरे संसदीय क्षेत्र की चुनाव परिक्रमा करेगा या उन दस्तावेजों को अहमियत देगा, जिनके दम पर जयराम ठाकुर सरीखा नेता पहली बार मंडी की अस्मिता से जुड़ता है और हिमाचल के केंद्र में मुख्यमंत्री का पद हासिल करता है। जाहिर है हिमाचल की राजनीति में मुख्यमंत्री का पद अपने भीतर का एक गणित रहा है और इसके पीछे पार्टियों का रणनीतिक कौशल और भूमिका भी दिखाई देती है। हिमाचल में आज की भाजपा पहले से भिन्न है और उसका सत्तारूढ़ कौशल भी अलग दिखाई देता है। अगर ऐसा न होता, तो उम्मीदवारों की पसंद कुछ और होती, लेकिन यही एक बड़ा दांव होगा या उलटा पड़ सकता है। भले ही कांगे्रस ने विपक्षीय चुंबक से कई मुद्दे आकर्षित किए या कुछ स्वाभाविक रूप से जुड़ते गए, लेकिन इन उपचुनावों के कई मुकाबले हो रहे हैं। यहां चेतन बरागटा अगर जुब्बल-कोटखाई में स्वयं ही मुद्दा धारण करते हैं, तो फतेहपुर में डा. राजन सुशांत की तरफदारी में एक वर्ग ऐसा भी है जो कांग्रेस व भाजपा के खिलाफ हो जाता है। ब्रिगेडियर खुशाल सिंह पूरे मंडी संसदीय क्षेत्र को फौजी वर्दी दिखा पाते हैं या प्रतिभा सिंह की आंखों में दिवंगत वीरभद्र सिंह के प्रति उभरते संवेदना के आंसू भी कतरा-कतरा सारे क्षेत्र में फैलते हैं, यही रहस्य इस चुनाव की परेशानी है। उपचुनावों की वकालत में राजनीतिक तर्क दोनों तरफ से एक समान हो सकते हैं, लेकिन सवाल जनता के भीतर सहजता व असहजता का भी है। क्या बढ़ती आवश्यक वस्तुओं की कीमत पर हिमाचली मतदाता सहज बना रहेगा या उसके घर की रसोई गैस या चूल्हे पर उबलता सरसों का तेल उसे असहज कर चुका है। क्या हिमाचल के कर्मचारी अपने स्वभाव के विरुद्ध वर्तमान सत्ता के सामने सहज रहेंगे या कहीं कुछ असंतोष इस बार टपक पड़ेगा।
यहां डबल से ट्रिपल और उससे भी आगे निकलती भाजपा की केंद्र तक की सरकारों से प्रश्न पूछते लोग दिखाई देंगे या कृषक सम्मान निधि, मुफ्त राशन और राष्ट्रवाद का भाषण फिर से आलेप लगा देगा। क्या रोजगार के मोर्चे पर असंतुष्ट युवा, कोविड काल में नौकरी से अलग हुआ हिमाचल या परिवर्तन की राजनीति में मशगूल हुए जन समुदाय इन उपचुनावों में प्रकट होंगे या शेष एक साल की सत्ता को ये उपचुनाव भी वरदान दे देंगे। जो भी हो, ये उपचुनाव राजनीति के अच्छे-बुरे का ऐसा गठजोड़ जरूर हैं, जिनके नतीजों में कुछ आदेश-कुछ संदेश रहेंगे। उपचुनाव की तहकीकात में सबसे अधिक विश्लेषण भाजपा का इसलिए भी होगा क्योंकि मत विभाजन में अब तक डबल इंजन सरकारों का दौर इसी के पक्ष में रहा, लेकिन अब ये पिंजरे भी खुल रहे हैं और जहां हिमाचल की महत्त्वाकांक्षा यह खोज रही है कि रेल, हवाई अड्डा और सड़क विस्तार परियोजनाओं का क्या हुआ। ये उपचुनाव अनेकांे घोषणाओं, राजनीतिक मंचों और आश्वासनों का लबादा खोल सकते हैं।
2. यह ‘देशद्रोह’ नहीं, तो क्या…
श्रीनगर मेडिकल कॉलेज के होस्टल में पाकिस्तान का राष्ट्रगान गाया गया। ‘जियो पाकिस्तान’ के नारे बुलंद किए गए। कुछ भारतीय छात्रों को ‘जन-गण-मन’ गाने से डर लगता है, क्योंकि उसके गान का मतलब है-जान से मारने की धमकियां! येे छात्र एमबीबीएस कर रहे हैं। कल डॉक्टर बनेंगे। एक ऐसी ही देशभक्त छात्रा अनन्या ने पाकिस्तान के राष्ट्रगान पर आपत्ति दर्ज कराई, भारत-विरोधी नारों का विरोध किया, तो नारेबाज उसे मारने की धमकियां दे रहे हैं। अश्लील गालियां दी जा रही हैं। उस ‘भारतीय बेटी’ को पुलिस-सेना की मुखबिर और आरएसएस की सदस्य करार दिया जा रहा है। सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक वीडियो वायरल किए जा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने ऐसे पाकपरस्त, देशद्रोही छात्रों पर यूएपीए के तहत केस दर्ज किया है। आतंकियों के खिलाफ कानून का सबसे कड़ा प्रावधान…! अब ऐसी आवाज़ें भी गूंजने लगी हैं कि छात्र मासूम, अपरिपक्व हैं। जोश और उन्माद में ऐसा किया होगा।
इतने कड़े कानून से उनका शैक्षिक करियर बर्बाद हो सकता है, लिहाजा उपराज्यपाल उन्हें माफ कर दें और चेतावनी के तौर पर उन्हें दंड दें। सवाल है कि जो छात्र एमबीबीएस कर रहा है और कुछ वक़्त के बाद डॉक्टर बनेगा तथा इनसानी जि़ंदगियां बचाने के प्रयास करेगा, वह मासूम और अपरिपक्व कैसे हो सकता है? ऐसे छात्रों ने पाकिस्तान क्रिकेट टीम की जीत पर जो जश्न मनाए हैं, पाकिस्तान का राष्ट्रगान गाया है और उसी का झंडा लहराते हुए नाच किए हैं, उससे स्पष्ट है कि उनके मानस में भारत के प्रति नफरत का भाव है, वे सांप्रदायिक तनाव पैदा कर सकते हैं, किसी भी मुकाम पर भारत की अखंडता के दुश्मन साबित हो सकते हैं, उन्होंने आम जन-व्यवस्था को खंडित करने की कोशिश की है, कल वे ही ‘जयचंद’ बन सकते हैं, लिहाजा वे पाकपरस्त और भारत के गद्दार देशद्रोही नहीं हैं, तो क्या हैं? उप्र के बरेली, बदायूं, आगरा, सीतापुर में भी ऐसी ही 8 गिरफ्तारियां की गई हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने स्पष्ट कहा है कि भारत में रहते हुए पाकिस्तान का गुणगान करेंगे, तो उसे ‘देशद्रोह’ माना जाएगा।
राजद्रोह की धारा 124-ए ब्रिटिश राज के दौरान की है और उसका संदर्भ गल-सड़ गया है। हम भी ऐसे प्राचीन, अप्रासंगिक कानून में संशोधन के पक्षधर रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान के समर्थन में जो जश्न मनाए गए, उन्माद फैलाया गया, भारत के प्रति विद्वेष की अभिव्यक्ति की गई, ऐसी अराजक हरकतों को किस श्रेणी में रखा जाए? देशद्रोह संबंधी कानून की तकनीकी परिभाषा, उसकी सजा-दर और अदालतों के दृष्टिकोण को एकतरफा कर दें, तो छात्रों के हुड़दंग को क्या नाम और दर्जा दिया जाएगा? क्या संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की परिभाषा में यह उल्लेख है कि औसत छात्र पर करोड़ों रुपए भारत सरकार खर्च करे, उसे एक उपयुक्त नौकरी या रोज़गार दे, इस देश में रहे और तमाम संसाधनों और सुविधाओं का लाभ प्राप्त करे, लेकिन वह पाकिस्तान का राष्ट्रगान गा सकता है और उसका झंडा लहरा कर महिमामंडित करने को वह स्वतंत्र है? यदि ऐसी ही आज़ादी की तमन्ना है, तो यह जमात पाकिस्तान जाने को भी स्वतंत्र है! उस भूखे, कर्ज़दार और आतंकी देश में क्या मिलेगा, उन्हें एहसास हो जाएगा। क्यों भारत की रोटी और उसका नमक खाकर उसी की पीठ में खंजर घोंप रहे हो? इसी तरह एक अन्य मामले में एक कर्मचारी को देशद्रोह में बर्खास्त कर देना भी जायज है।
3.अवरोध हटने की शुरुआत
यह किसी खुशखबरी से कम नहीं कि लगभग ग्यारह महीने बाद किसानों के धरना स्थल पर लगे बैरिकेड्स को हटाने की शुरुआत हो गई है। जब यातायात की शुरुआत होगी, तब दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहने वाले लोग निश्चित ही राहत की सांस लेंगे। टीकरी सीमा के बाद गाजीपुर सीमा से भी बाधाओं के हटने से कम से कम सरकार की ओर से परेशानी कुछ कम हो जाएगी। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि बाधाओं को पूरी तरह से हटा दिया जाएगा या एक-दो या आधे लेन ही खोले जाएंगे। यदि एक-दो लेन को भी चालू कर दिया जाता है, तब भी लोगों को बड़ी राहत होगी। जयपुर की ओर जाने वाले मार्ग पर भी हरियाणा सरकार को यातायात की सुविधा बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए। बारिश में सर्विस लेन को बड़ी क्षति पहुंची है और इक्का-दुक्का लेन के चालू रहने से घंटों जाम की स्थिति बनी रहती है। हम सब जानते हैं कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में एकाधिक जगहों पर यातायात बंद होने से अरबों रुपये का नुकसान हुआ है। जाम वाले इलाकों में रहने वालों के साथ ही वहां स्थित रोजगार-धंधों पर भी इसकी तगड़ी मार पड़ी है।
जिन नेताओं और अधिकारियों ने यातायात को अब खोलने का निर्णय लिया है, वे बधाई के पात्र हैं। शासन-प्रसाशन में यातायात को फिर से सहज बनाने की चिंता अगर बढ़ी है, तो यह हर दृष्टि से सराहनीय है। यह कदम सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के कुछ दिन बाद ही उठाया गया है। सुनवाई के दौरान किसान संगठनों ने शीर्ष अदालत में यह कहा था कि उन्होंने कोई रास्ता बंद नहीं किया है, दिल्ली की सीमाओं पर बैरिकेड्स पुलिस ने लगाए हैं। वाकई, जब किसानों ने दिल्ली की ओर कूच किया था, तब उन्हें राजधानी के महत्वपूर्ण ठिकानों से दूर रोकने के लिए पुलिस ने ही अवरोधक लगाए थे। जिस तरह से कांटों की ढलाई हुई थी, सीमेंट के अवरोधक खड़े किए गए थे, सड़कों को रातोंरात खोद दिया गया था, लोग भूले नहीं हैं। किसानों को लेकर सरकार के मन में एक भय था और इस भय को कुछ कथित आंदोलनकारियों ने मौका मिलने पर लाल किले पर उत्पात मचाकर सही साबित कर दिया। कोई शक नहीं कि हम आर्थिक, सामाजिक, सांविधानिक रूप से बहुत नुकसान झेल चुके हैं, अत: अब यह संकट टलना चाहिए। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन से लोकतंत्र भले कम मजबूत हुआ है, लेकिन देश का गौरव कतई नहीं बढ़ा है। विगत ग्यारह महीने में यमुना में बहुत पानी बह चुका है, पर समस्या जस की तस बनी हुई है।
जहां सरकार कुछ लचीलापन दिखा रही है, वहीं किसानों को भी जिम्मेदारी का परिचय देना चाहिए। उदाहरण के लिए, गाजीपुर बॉर्डर पर डटे भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने कहा है कि रास्ते खुलेंगे, तो हम भी अपनी फसल बेचने पार्लियामेंट में जाएंगे। अगर किसान वाकई ऐसा करने वाले हैं, तो सरकार को ज्यादा गंभीरता का परिचय देना चाहिए। टिकैत भले ही कह रहे हों कि सड़क जाम करना हमारे विरोध का हिस्सा नहीं है, लेकिन हकीकत कुछ अलग है। किसान सड़कों पर ऐसे आ जमे हैं कि उन्हें भी हटने में वक्त लगेगा। उम्मीद करनी चाहिए कि जैसे सड़कों से अवरोधक हटने की शुरुआत हो रही है, ठीक उसी तरह से समाधान का भी मार्ग प्रशस्त होगा। परस्पर संवाद और समझदारी से ही बाधाएं हटेंगी।
4.टीके से परहेज
कमजोर हो सकती है कोविड से लड़ाई
ऐसे वक्त में जब देश एक सौ चार करोड़ से अधिक लोगों को टीके की पहली डोज लगा चुका है, कुछ विसंगतियां हमारी चिंता बढ़ाने वाली साबित हो रही हैं जो कहीं न कहीं कोरोना के खिलाफ जीती जा रही लड़ाई को कमजोर कर सकती हैं। हाल ही में एक परेशान करने वाला यह तथ्य सामने आया है कि देश में करीब ग्यारह करोड़ लोगों ने पहली खुराक के बाद दूसरी खुराक का समय आ जाने के बावजूद टीका नहीं लगवाया। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि देश में लगभग चार करोड़ वयस्क दूसरी खुराक के लिये निर्धारित तिथि से छह सप्ताह से अधिक लेट हो चुके हैं। इसी तरह डेढ़ करोड़ लोगों को दूसरी डोज के समय से चार से छह सप्ताह अधिक हो चुके हैं। वहीं डेढ़ करोड़ लोग दो से चार सप्ताह गुजरने के बावजूद टीका लगवाने नहीं पहुंचे। साथ ही करीब 3.38 करोड़ लोग दूसरे टीके की निर्धारित अवधि से दो सप्ताह बीत जाने के बावजूद टीका लगाने को उत्सुक नजर नहीं आते। ऐसे समय में जब देश में कोविशील्ड व कोवैक्सीन के अलावा स्पूतनिक-वी वैक्सीन उपलब्ध हैं और उनका भारत में ही उत्पादन हो रहा है, टीके लगाने में उदासीनता का कारण समझ से परे है। देश में पर्याप्त मात्रा में टीके उपलब्ध हैं और देश अब जरूरतमंद देशों को निर्यात का भी मन बना चुका है। ऐसे में जब पहले टीके की खुराक ले चुके लोग दूसरा टीका लेने में कोताही बरत रहे हैं तो अधिकारियों को भी ऐसे लोगों को टीका लगाने के लिये तैयार करने के लिये अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। यह चिंता की बात है कि पिछले दिनों इस गंभीर समस्या के बाबत केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री द्वारा आहूत बैठक में कुछ उत्तरी राज्यों ने भाग नहीं लिया। भले ही हमने सौ करोड़ टीकाकरण का मनोवैज्ञानिक लक्ष्य छू लिया हो लेकिन अभी तीसरी लहर का खतरा टला नहीं है। ऐसे में कोई ऐसी चूक नहीं होनी चाहिए जो कालांतर आत्मघाती साबित हो।
भारत जैसे बड़ी आबादी और सीमित संसाधनों वाले देश में यह गर्व की बात है कि हम देश की 76 फीसदी आबादी को टीके की एक खुराक और बत्तीस फीसदी लोगों को दोनों खुराक दे चुके हैं। विगत में कई वैज्ञानिक अध्ययन इस बात की पुष्टि कर चुके हैं कि टीके की एक खुराक की तुलना में दो खुराक कोविड-19 के खिलाफ अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षा प्रदान करती है। ऐसे में यह विश्वसनीय निष्कर्ष स्वयं में प्रमाण है और लोगों को दोनों डोज लेने के लिये प्रेरित करने के लिये पर्याप्त प्रयास होने चाहिए। यदि इसके बावजूद लोग दुराग्रह-अज्ञानता और आलस्यवश दूसरा टीका लगाने आगे नहीं आते तो केंद्र व राज्यों को मिलकर उन्हें प्रेरित करना चाहिए कि वे जितना जल्दी हो सके, दूसरा टीका लगा लें। इसके लिए केंद्र व राज्यों को मल्टी-मीडिया साधनों और जागरूकता अभियानों के जरिये लोगों को इस मुहिम में शामिल करने को प्रेरित किया जाना चाहिए। यदि इसके बावजूद बड़ी संख्या में लोग आगे नहीं आते तो इस बाबत चेतावनी भी देनी चाहिए। दरअसल, कुछ लोगों की लापरवाही सुरक्षा शृंखला को तोड़ सकती है और बड़ी समस्या की वजह बन सकती है। निस्संदेह, इस मामले में हम चूके हैं कि कोवैक्सीन को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता दिलाने में हम कामयाब नहीं हो सके हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वैक्सीन निर्माता भारत बायोटेक से क्लीनिकल ट्रायल का विस्तृत ब्योरा मांगा है। इस बाबत तीन नवंबर को होने वाली बैठक में कोवैक्सीन को आपातकालीन उपयोग के लिये मंजूरी से जुड़े जोखिम व लाभ पर विचार किया जायेगा। इसके साथ ही डब्ल्यूएचओ की रीति-नीतियों पर भी सवाल उठता है कि बीते जुलाई में भारत बायोटेक द्वारा डाटा उपलब्ध कराये जाने के बावजूद अभी तक इस पर अंतिम निर्णय नहीं लिया गया। विडंबना यह है कि इस टीके को लगाने वाले लाखों वे भारतीय भी हैं जो डब्ल्यूएचओ द्वारा अनुमति के इंतजार के कारण विदेश यात्रा करने में सक्षम नहीं हैं। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियां भारत के टीकाकरण कार्यक्रम को कमजोर कर सकती हैं, जिसने हाल के महीनों में तेजी से प्रगति की है।