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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1. किसान आत्महंता क्यों है?
किसान आंदोलन के बॉर्डर कुछ खुल चुके हैं और कुछ खुलने हैं। टीकरी और गाज़ीपुर बॉर्डर पर अवरोधक हटाए गए हैं। बड़े बोल्डर भी हटाए जा रहे हैं। कीलें और कंटीले तार उखाड़ेे जा रहे हैं। कुछ रास्ता जरूर खुला है। दोपहिया वाहन और एंबुलेंस गुज़र सकते हैं। सामान ढोने वाले भारी वाहन अब भी ठहरे हुए हैं। सबसे बड़ा धरनास्थल सिंघु बॉर्डर रहा है। फिलहाल वहां यथास्थिति है। पुलिस और किसान नेताओं में सहमति नहीं बन पाई है। किसान आंदोलन जारी रहेगा। किसान अपनी मांगों पर अड़े और डटे हैं। मुद्दों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का भी असर उन पर नहीं है। कुछ किसान नेताओं ने ‘दिल्ली कूच’ की बात कही है। हालांकि निर्णय अभी घोषित किया जाना है। रास्ते भी सर्वोच्च अदालत की तल्ख टिप्पणियों के बाद खोले गए हैं। इस बीच राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2020 तक की रपट जारी की गई है, जिसका सारांश है कि किसान अब भी आत्महंता है। उसकी आत्महत्या केस 18 फीसदी बढ़े हैं। बीते साल 10,677 किसानों ने आत्महत्या की है। उनमें 5579 पूरी तरह किसान थे, जबकि 5098 खेतिहर मजदूर थे। किसानों के अलावा छात्र, पेशेवर, उद्यमी, रिटायर व्यक्ति आदि की संख्या 1,53,052 है, जिन्होंने आत्महत्या की है।
कोरोना-काल में भी कृषि की औसत विकास-दर 3.4 फीसदी रही थी। बंपर फसलें हुईं, लिहाजा भारत सरकार 80 करोड़ से अधिक गरीबों को मुफ़्त खाद्यान्न बांट पाई है। कृषि प्रधान देश और फसलें भी लहलहाती हुई, फिर भी किसान आत्महंता क्यों है? ज्यादातर आत्महत्याएं फसल कटने के बाद की गई हैं, क्योंकि सूदखोर महाजन खेत पर आकर फसल पर कब्जा कर लेता है। किसान को कर्ज़ चुकाना है और सूदखोर को अपना पैसा वसूल करना है। अंततः किसान खाली हाथ और भूखे पेट….! यह आज भी प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ के होरी की कहानी लगती है, लेकिन देश में छोटे किसानों का यथार्थ आज भी यही है! औसतन हर घंटे एक किसान की अप्राकृतिक मौत हो रही है। किसान आंदोलन इस भयावह और त्रासद यथार्थ को संबोधित नहीं कर रहा है। वह मंडियों और फसल के दाम तक सीमित है। या ऐसे यथार्थ का भ्रम फैलाया जा रहा है, जिसकी संभावना ही नहीं है और कानूनों में ऐसा दर्ज भी नहीं है। किसानों की आत्महत्या पर घडि़याली आंसू जरूर बहाए जा रहे हैं। आंदोलन पूरी तरह राजनीतिक रंग में डूब गया है। अब भी महाराष्ट्र 4006 आत्महत्याओं के साथ पहले स्थान पर है। छत्तीसगढ़ में 535 किसानों ने आत्महत्या की और यह आंकड़ा उप्र से अधिक है, लेकिन कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी भागकर उप्र तो जा सकती हैं।
तेरा किसान, मेरा किसान के भाव में प्रलाप कर सकती हैं और पीडि़त परिवारों को दिलासा भी दे सकती हैं, लेकिन वह यह तथ्य नहीं जानतीं कि तीन पीढि़यों से पंजाब के किसान आत्महत्या करते आ रहे हैं। यह संख्या इतनी बढ़ गई कि गणना ही बंद कर दी गई अथवा राज्य सरकारें आत्महत्या के कम आंकड़े दर्ज कराती हैं। आत्महत्या करने वाले किसानों में करीब 69 फीसदी गरीबी रेखा के नीचे रहने को विवश हैं। सरकार उद्योगपतियों के 10 लाख करोड़ रुपए के कर्ज़ माफ कर सकती है, लेकिन किसानों पर 18 लाख करोड़ रुपए का कर्ज़ है। कर्जमाफी 2 लाख करोड़ रुपए की होती है। किसानों का कर्ज ऐसा क्या है कि जो माफ नहीं किया जा सकता। यूपीए सरकार ने 65-70 हजार करोड़ रुपए के कर्ज़ माफ किए। कुछ राज्य सरकारों ने भी माफ किए, लेकिन किसान आज भी कर्ज़दार है। आखिर क्यों…? क्या सरकार इसका रास्ता नहीं निकाल सकती? यदि बैंक पूरा कर्ज़ जारी कर सकते, तो किसान सूदखोर महाजन के पास क्यों जाता और अपना सब कुछ गिरवी रखकर कर्ज़ लेता? दरअसल सरकार और व्यवस्था ही किसान को शहरी मज़दूर बनाने पर आमादा है। यही हमारी अर्थव्यवस्था और नीतियों का डिजाइन है। कृषि को खत्म करने की कोशिश कौन-सी अर्थव्यवस्था में अपेक्षित है।
2. अपनी अहमियत के बाली
चेहरे कभी समानांतर नहीं होते और यही वजह है कि मौत के आगोश में इनसान की यादें सोती नहीं, बल्कि जिंदगी का इम्तिहान इसी अंतिम यात्रा का सबसे बड़ा विश्लेषण हो जाता है। कुछ इसी तरह हिमाचल के पूर्व मंत्री जीएस बाली का निधन हर चाहने वाले, आलोचक, समीक्षक या राजनीतिक हलकों में एक खालीपन पैदा करता है। हमेशा वक्त से आगे निकलने की जद्दोजहद ने उन्हें अलग करके देखा और यही वजह है कि वह अपने संघर्ष को हर सफलता का मानक बनाते हुए, ऐसी जमीन बनाने में कामयाब हुए, जो राजनीति के हर पहर और पहरेदारी के हर मोर्चे पर अगुवा होती है। जीएस बाली का हिमाचल की राजनीति का अनूठा चेहरा बनने की वजह आसान नहीं और इसे साबित करते हुए वह समर्थकों का एक खास वर्ग और प्रभाव की अमानत के स्वयं मूर्तिकार रहे। राजनीतिक तौर पर उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि जातीय समीकरणों से ऊपर दिखाई देती है, जहां वह कांगड़ा की ओबीसी सियासत के बीच ब्राह्मण होकर भी सबसे अधिक प्रासंगिक बन जाते हैं। कांगड़ा का नगरोटा बगवां विधानसभा क्षेत्र ओबीसी बहुल हलका है, लेकिन वह लगातार चार बार विधायक बनने में सक्षम होते हैं। इसी क्षेत्र से इससे पूर्व कोई ओबीसी उम्मीदवार भी यह रुतबा हासिल नहीं कर सका।
कारण उनकी शैली, रणनीतिक कौशल, स्पष्टता, विजन और विकास के नए आयाम पैदा करना रहा है। वह किसी कमजोर समझे जाने वाले मंत्रालय में भी संकल्प और नवाचार की ऊर्जा भरने में सक्षम बने। बतौर खाद्य आपूर्ति मंत्री बाली ने सरकारी डिपो को न केवल बहुआयामी बनाया, बल्कि इसका डिजिटल प्रारूप भी पेश किया। महज कुछ खरीद फरोख्त से आगे जितनी दालें उन्होंने उपलब्ध कराई, इससे पहले ऐसा नहीं हुआ। बतौर परिवहन मंत्री जीएस बाली प्रदेश की बसों को नई पहचान देते रहे और देश में इलेक्ट्रिक बसों की पहली खेप उतार कर वह केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के करीब खड़े हो जाते हैं। हिमाचल में वोल्वो बसों की शुरुआत तथा बीओटी के तहत बस अड्डा निर्माण की तरफ बढ़ते उनके इरादे निजी निवेश को सार्थक करते हैं। भले ही राजनीतिक विरोध के चलते स्की विलेज की परिकल्पना पूरी नहीं हुई, लेकिन विकास का यह जादूगर जानता था कि अंतरराष्ट्रीय पर्यटन की दृष्टि से यह परियोजना कुल्लू-मनाली क्षेत्र को विश्व का महत्त्वपूर्ण डेस्टिनेशन बना सकती है। जीएस बाली हिमाचल में एनआरआई टाउनशिप बनाने की परिकल्पना में हिमाचल में निजी निवेश का जहाज उड़ाना चाहते थे और इसी के साथ वह ऊना-धर्मशाला एक्सप्रेस हाई-वे के माध्यम से इसका मानचित्र स्थापित करने को प्रयासरत रहे। बाली के व्यक्तित्व का सम्मोहन उन्हें कांग्रेस के अलावा भाजपा में चर्चित करता रहा और इन्हीं रिश्तांे की बुनियाद पर वह मीडिया के लिए सुर्खियां पेश करते थे।
हिमाचल में मीडिया के प्रति राजनीतिक समझ के कारण बाली सारे प्रदेश में अपनी संभावना को अलंकृत करते रहे और इस तरह तख्त और ताज के लिए उन्हें नजरअंदाज करना मुश्किल होता रहा। वह अपने साथ राहुल गांधी को इतना बटोर लेते कि मुख्यमंत्री के रूप में स्व. वीरभद्र सिंह भी चकित हो जाते। वह केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी को साथ लेकर हिमाचल पहुंच जाते, तो इस मैत्रीभाव से राजनीतिक कयास बढ़ जाते। ऐसे में राजनीति खुद भी सोचती होगी कि क्या जीएस बाली ने सदा ज्यादा हासिल किया या यह सोचना होगा कि जो व्यक्ति कांगड़ा से मुख्यमंत्री पद की सरेआम हिमायत करता था, उससे जुड़ी हस्ती का मूल्यांकन अभी होना बाकी है। बाली दरअसल हिमाचल के राजनीतिक केंद्र बिंदु में खुद को स्थापित करने की कला जानते थे और इस लिहाज से वह हर कयास की पैमाइश में अव्वल रहे। राजनीति के प्रदर्शन और सरकारी पद की अहमियत में जीएस बाली ने अपना एक मानचित्र बना लिया था। नगरोटा बगवां या कांगड़ा की सियासत ही नहीं, उनके व्यक्तित्व का कायल पूरा हिमाचल रहा। किसी भी सरकार में ऐसे नेताओं की आवश्यकता को पूरा करना एक दुलर्भ परिपाटी है और बाली को किसी अन्य व्यक्ति या नेता के रूप में हासिल करना फिलहाल मुश्किल होगा। कांग्रेस के लिए पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के बाद जीएस बाली का दिवंगत होना, आंतरिक संतुलन व नेतृत्व की दृष्टि से ऐसी क्षति है, जिसे शीघ्र पूरा करना कठिन होगा।
3. फिर डेंगू का डंक
कोरोना के मामले जहां कम होने लगे हैं, वहीं डेंगू के मामलों में बढ़ोतरी चिंता और दुख की बात है। राष्ट्रीय राजधानी समेत देश के अनेक राज्यों में डेंगू के मामलों ने स्वास्थ्य एजेंसियों को परेशान करना शुरू कर दिया है। एक रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली में इस साल डेंगू के 1,000 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए हैं, जिसमें पिछले सप्ताह 280 से अधिक मामले दर्ज किए गए थे। दिल्ली सरकार ने अस्पतालों को निर्देश दिया है कि कोरोना के लिए आरक्षित बिस्तरों में से एक तिहाई बिस्तर डेंगू, मलेरिया और चिकनगुनिया के मरीजों के लिए आरक्षित कर दिया जाए। दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पंजाब और बिहार में भी डेंगू से चिंता बढ़ी है। कुछ जगहों से रिकॉर्ड मामले आ रहे हैं।
यह बात सर्वज्ञात है कि डेंगू मच्छर जनित बीमारी है, जो एडीज मच्छरों के काटने के कारण होती है। डेंगू से संक्रमित ज्यादातर लोगों में हल्के या कोई लक्षण नहीं होते हैं। रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र के अनुसार, डेंगू से संक्रमित 75 प्रतिशत लोगों में कोई लक्षण नहीं दिखता है, जबकि 20 प्रतिशत में हल्के लक्षण होते हैं और पांच प्रतिशत में गंभीर लक्षण विकसित हो सकते हैं, जो जानलेवा भी हो सकते हैं। अत: सावधानी व समय पर इलाज जरूरी है। ध्यान रखना चाहिए कि इधर एक सप्ताह में कुछ डॉक्टरों की भी डेंगू से मौत हुई है। इस वर्ष डेंगू के मामलों का बढ़ना विवश कर रहा है कि इसके कारणों पर फिर से निगाह डाली जाए। मलेरिया के मामलों में हाल के वर्षों में भारी गिरावट हुई है। साल 2000 से 2019 के बीच मलेरिया के मामलों में 71.8 फीसदी, जबकि मौतों में 73.9 फीसदी की गिरावट आई है। शायद हमारे प्रयासों में कमी है, तभी हम ऐसी बीमारियों को भी पूरी तरह से काबू नहीं कर पा रहे हैं। पंजाब जैसे संपन्न और साफ-सुथरे समझे जाने वाले राज्य में इस साल डेंगू से करीब 30 लोगों की मौत हो चुकी है। महाराष्ट्र भी विकसित है और दिल्ली भी अपेक्षाकृत विकसित है, लेकिन ऐसे राज्यों में अगर मच्छरों का आतंक कम नहीं हो रहा है, तो अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों की क्या स्थिति होगी, सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
डेंगू के साथ-साथ मलेरिया और चिकनगुनिया ने भी अगर सिर उठाया है, तो इसका मतलब है, मच्छरों के प्रति हम लापरवाह हुए हैं। अब समय आ गया है, जब भारत के शहरों और रिहाइशी इलाकों को मच्छर-मुक्त बनाने के तमाम उपाय किए जाएं। नए स्वच्छता अभियान को मच्छर-मुक्त शहर-गांव बनाने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। शहरों को हरा-भरा और साफ-सुथरा करने के लिए सरकारों की ओर से बहुत धन खर्च किया जा रहा है। स्मार्ट सिटी बनाने की कोशिशें चल रही हैं, लेकिन क्या हमारा कोई ऐसा शहर है, जहां कूड़े के पहाड़ न हों या जहां खुली नालियां न बहती हों? राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को ही अगर देख लिया जाए, तो समझ में आ जाता है कि हम वास्तविक रूप से साफ-सफाई के लिए अभी आधे भी सजग नहीं हुए हैं। व्यक्तिगत स्तर परजहां आम लोग जागरूक हैं, वहां तो गंदगी और मच्छरों से थोड़ी मुक्ति की स्थितियां बनी हैं, लेकिन ज्यादातर जगह आम लोग सफाई को अपना नहीं, किसी और का काम समझते हैं। जब हम सफाई रखने को अपना मूलभूत काम समझने लगेंगे, तो डेंगू ही नहीं, दस से ज्यादा बीमारियों को हमेशा के लिए अलविदा कह देंगे।
4.प्रचंड अग्नि
प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने से चीन बेचैन
ऐसे में जब चीन भारतीय सीमा पर लगातार आक्रामक गतिविधियां चला रहा है, बुधवार को अब्दुल कलाम द्वीप से पांच हजार किलोमीटर तक मार कर सकने वाली बैलिस्टिक मिसाइल अग्नि-5 का सफल परीक्षण देश को विश्वसनीय प्रतिरोधक क्षमता उपलब्ध कराता है। निस्संदेह, इस मिसाइल का परीक्षण वक्त की जरूरत थी, अब चीन का हर कोना-कोना ही नहीं, अंतर-महाद्वीपीय लक्ष्य भी भारत की जद में आ जायेंगे। पांच हजार किलोमीटर तक सटीक निशाने लगाने में सक्षम इस मिसाइल का परीक्षण नाइट ऑपरेशन मोड में किया गया। ये नियंत्रित दिशा व गति के तय मानकों पर निर्धारित समय में लक्ष्य को भेदने में सफल रही। यह मिसाइल अब सेना द्वारा उपयोग के लिये तैयार है। अंतर्राष्ट्रीय जगत में भारत की इस कामयाबी को गंभीरता से लिया जा रहा है। लंबी दूरी तक सतह से हवा में मार करने में सक्षम अग्नि-5 मिसाइल की रेंज में संपूर्ण चीन, अफ्रीका व यूरोप के कुछ भाग आयेंगे। मिसाइल पंद्रह सौ किलो के परंपरागत व परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम हैं। यह भारत की सबसे शक्तिशाली मिसाइल है और चीन की चुनौती के मुकाबले के मकसद से ही तैयार की गई है। इसे काफी कम समय में आसानी से लॉन्च किया जा सकता है। यह प्रत्येक मौसम और परिस्थितियों में लक्ष्य भेदने में सक्षम है। साथ ही इसे सड़क व रेल दोनों से लक्ष्य पर साधा जा सकता है। इसका यह परीक्षण पिछले कई परीक्षणों की अंतिम कड़ी है।
अब तक भारत के पास सबसे अधिक दूरी तक मार करने वाली अग्नि-4 मिसाइल थी, जो साढ़े तीन हजार किलोमीटर की रेंज वाली थी। दरअसल, यह मिसाइल पाकिस्तान जैसे नजदीकी ठिकानों को साधने में सक्षम थी। रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि यह मिसाइल चीन को पूरी रेंज में लेने के मकसद से तैयार की गई है। जैसा कि भारत की नीति रही है, उसके अनुरूप इस परीक्षण का लक्ष्य भरोसेमंद न्यूनतम प्रतिरोधक क्षमता हासिल करना ही है। भारत सदैव कहता रहा है कि हमारा परमाणु व मिसाइल कार्यक्रम रक्षात्मक है, आक्रमण के लिये नहीं। चीनी मीडिया में जिस तरह की नकारात्मक प्रतिक्रिया आई है, उससे चीन की बौखलाहट का ही पता चलता है। अग्नि-5 के परीक्षण की खबरों पर चीन ने दुहाई दी थी कि शांति, सुरक्षा और स्थिरता बनाये रखना सभी के हित में है। बहरहाल, इस सफल परीक्षण से भारतीय सेना का मनोबल बढ़ेगा, जो इस चुनौतीपूर्ण समय में जरूरी भी था। भारत विरोधियों को यह अहसास कराना जरूरी था कि भारत को किसी तरह हल्के में न लें। जाहिरा तौर पर भारत ने सीमाओं पर बढ़ती चुनौती के मद्देनजर ही इस मिसाइल के परीक्षण का फैसला लिया है। भारत की यह प्रतिरोध क्षमता उस समय पुख्ता हो जायेगी जब रूस से अभेद सुरक्षा चक्र उपलब्ध कराने वाली एस-400 मिसाइलें भारत को हासिल हो जायेंगी। अगस्त में चीन द्वारा हाइपरसोनिक मिसाइल के परीक्षण के बाद अमेरिका व यूरोप बेहद चिंतित हैं। भारत को इस उन्नत तकनीक को हासिल करने के लिये युद्ध स्तर पर काम करना चाहिए।