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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.संघ का एक राष्ट्र, एक रूप
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक डा. मोहन भागवत के सान्निध्य में जागृत होती राष्ट्रीय भावना, हिंदू व हिंदुत्व के महीन पर्दे और मानवीय अलंकरण के मसौदों में समाज के दर्पण का अवलोकन, इन दिनों कांगड़ा की परिधि में एक बड़ी कार्यशाला में निरुपित हुआ। अपने इतिहास के सौ साल की ओर बढ़ रहा संघ परिवार मानवीय जिज्ञासा, राष्ट्रीय चित्रण, सामाजिक संकल्प, देश के ध्येय और स्वयं को निर्धारित करते आदर्शों को सामने ला रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में हिमाचल के प्रबुद्ध वर्ग की नुमाइंदगी में मोहन भागवत के साथ हिमाचल रू-ब-रू हुआ, तो मोहन भागवत जीवन का तिनका-तिनका और राष्ट्र का मनका-मनका जोड़ देते हैं। यहां स्वयं सेवक और संघ परिवार दो अलग संदर्भों की व्याख्या में जीवन के मूल का उच्चारण होते हैं, लेकिन जीवन पद्धति से देश के लिए जीने और मरने वालों की पौध की शिनाख्त भी सामने आती है। समाज की एकता में देश और नागरिक, न जाति और न ही पंथ के रूप में देखे जाते हैं। भागवत देश के अभिप्राय में नागरिक समाज में गुणवत्ता का आचरण टटोलते हैं। देश को आगे रखते हुए समाज कितना अनुशासित दिखाई देता है या कायदे-कानूनों में कितना जीरो टांलरेंस दिखाता है, इसको लेकर भारतीय मानस को वह खंगालते हैं। ऐसे में वक्तव्यों की तांकझांक में उच्चारण तो सही व सटीक हैं, लेकिन नागरिक जिम्मेदारी व जवाबदेही के आंकड़े तो बुरी तरह कुचले जा रहे हैं।
नागरिक अपना अलग संसार बना कर देश को किसी कोने में खड़ा कर देते हैं। देश तो किसी मंदिर में बौना हो जाता है, क्योंकि वहां भूख व भिखारियों में लिपटा आचरण दया-भाव जगा सकता है, लेकिन इस चौखट में भी लेन-देन करता इनसान केवल एक पक्ष को बड़ा बना देता है। भागवत स्पष्टता से कहते हैं कि अच्छे राष्ट्र के निर्माण के लिए सारे कार्य सरकारें नहीं कर सकतीं और अगर देश की अर्थनीति का यही भविष्य है, तो फिर निजी क्षेत्र के प्रति सरकारों की दृष्टि क्यों असामान्य है। दूसरी ओर समाज से निकलते राष्ट्र के कदम, आत्मबल के लिए अपने अनुशासन, त्याग, मेहनत व कसौटियां तय नहीं करेंगे, तो भारत अतुलनीय नहीं होगा। व्यक्ति और समाज के बीच टकराव के लिए कोई जगह नहीं। मोहन भागवत के सामने हिमाचल का सांस्कृतिक, बौद्धिक व श्रेष्ठ उपलब्धियों से अलंकृत समाज कई प्रश्न उठाता है, लेकिन यथार्थ में हम अपने वजूद के कई छिलके देखते हैं। राज्य के समक्ष कई उदाहरण ऐसे आश्रमों की ख्याति करते हैं, जहां समाज असमानता के तिनके बटोर लेता है, लेकिन आश्रम के बाहर सामुदायिक व्यवहार में रत्ती भर परिवर्तन नहीं आता। हिमाचली समाज की चिंताओं में मंदिरों का सरकारीकरण, खेल संघों पर राजनेताओं का कब्जा,इतिहास लेखन के द्वंद्व, पर्यावरणीय शर्तों के बीच जल विद्युत उत्पादन, महिला सशक्तिकरण, जातीय वैमनस्य, गोमाता की दुर्दशा, आजादी के बाद के भारतीय युद्धों और पराक्रम के इतिहास लेखन पर जब चर्चा होती है, तो सरसंघ चालक के सामने प्रश्नों के आत्मविश्लेषण-आत्म चिंतन के रास्ते खुलते हैं।
वह हर प्रश्न के भीतर समाज को समाज की नजर से देखने की नसीहत देते हैं। समाज से राष्ट्र के संवाद में मीडिया की भूमिका पर ताज्जुब करता अन्वेषण बताता है कि व्यापार में मदहोश पत्रकारिता अपनी सांस्कृतिक ऊर्जा, ईमानदार पक्ष, संतुलन भूल गया है, जबकि समाज का भौंडापन, सोच की विद्रूपता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सब कुछ परोसा जा रहा है। हिमाचल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कार्यशालाओं से नैतिक ऊर्जा के कई स्रोत दिखे, लेकिन हकीकत में मंच से जमीन तक की पैमाइश जब तक नहीं होती, आदर्श अवधारणा के दीपक अलग-अलग तूफानों से घिरे रहेंगे। देश के प्रति समाज के दायित्व की नियुक्ति करते मोहन भागवत बहुत कुछ परोसते हैं, लेकिन क्लासरूम से बाहर हमारे प्रदेश की ऊर्जा या तो युवा मंतव्यों में हार रही है या सरकारी कार्य संस्कृति का रिसाव इतना है कि प्रदेश का खजाना सूख रहा है। राष्ट्र और नागरिक की चिंताएं एक न होकर,समाज के खोखलेपन में इजहार कर रही हैं। नागरिक और दीमक के बीच बंटती सीमा रेखा और राष्ट्र के प्रति घटती नागरिक कृतज्ञता के विवरण हम खुद पैदा कर रहे हैं। ऐसे में देश, समाज और सरकार के लिए एक संस्कृति, एक सभ्यता, एक सरीखे सरोकार, एक भावना व एक इतिहास को जोड़कर राष्ट्र के संगठन में अतीत से भविष्य को जोड़ते हिंदू मंतव्य का अर्थभेद कैसे मुकम्मल होगा, यह राष्ट्र निर्माण की नई सोहबत में संघ परिवार का जागरण है। यह किस हद तक कबूल होगा, कोई नहीं जानता।
2.बेअदबी भी चुनावी मुद्दा!
सिखो के पवित्रतम ‘स्वर्ण मंदिर’ में दरबार साहिब और फिर कपूरथला के निजामपुर गुरुद्वारे में ‘निशान साहिब’ (सिखों का धार्मिक ध्वज) की बेअदबी के प्रयास किए गए। यह कोशिश या साजि़श घोर निंदनीय है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब न केवल सिखों का पवित्रतम धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि वह आस्था का आधार भी है। हमारी संस्कृति में गुरु परंपरा एक साझा विरासत है। उसे खंडित करना घोर आपराधिक है। जिन्होंनेे बेअदबी की कोशिशें कीं, वे कौन थे और किसके इशारे पर पवित्र ग्रंथ को अपवित्र करने की पराकाष्ठा तक जा पहुंचे थे, यह फिलहाल जांच का विषय है, लेकिन भरे-पूरे गुरुद्वारे में कथित अपराधी ‘दरबार साहिब’ तक कैसे पहुंचा, सिख आस्था को अपवित्र करने की आश्चर्यजनक कोशिश की, उसके मद्देनजर यह एक सामूहिक साजि़श प्रतीत होती है। बेशक यह जघन्य अपराध की श्रेणी का प्रयास था, लेकिन स्वर्ण मंदिर और कपूरथला जिले के गुरुद्वारों में सेवादारों ने आरोपितों को पीट-पीट कर मार डाला। सिखों के पवित्र गुरुद्वारों के प्रांगण में इनसानी हत्याएं की गईं। उस पर एक रहस्यमयी और गहरी चुप्पी साध रखी है। हत्या तो जघन्य ही नहीं, बर्बरता का अंतिम उदाहरण भी है।
कोई भी शख्स कानून को अपने हाथों में नहीं ले सकता। बेअदबी के खलनायकों को पकड़ कर कानून के हवाले किया जाना चाहिए था, लेकिन उत्तेजना, उन्माद और गुस्से में भीड़ का विवेक मर जाता है। यह भी अपराध है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी से लेकर ‘अकाल तख्त’ के जत्थेदार तक, पांच बार के मुख्यमंत्री रहे प्रकाश सिंह बादल से मौजूदा मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी तक, सभी तरह के धार्मिक और राजनीतिक नेतृत्व और सरकारी अधिकारियों ने सिर्फ जांच की बात कही है। हत्याओं के अपराध की भर्त्सना नहीं की है। जांच तो होनी ही थी। मुख्यमंत्री चन्नी ने विशेष जांच दल (सिट) का गठन भी कर दिया है। राजनेता नाप-तोल कर बोल रहेे हैं, क्योंकि पंजाब में विधानसभा चुनाव फरवरी,’22 से पहले ही होने हैं। सवाल है कि 2017 की तर्ज पर 2022 में भी बेअदबी एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बनेगा? क्या उसके आधार पर जनता में ध्रुवीकरण कराया जाएगा और भावनात्मक आधार पर वोट हासिल करने के आह्वान किए जाएंगे? 2015 में भी फरीदकोट में बेअदबी का मामला सामने आया था। उसके बाद पुलिस गोलीबारी में दो प्रदर्शनकारियों की हत्या हो गई थी। तब राज्य में अकाली दल-भाजपा की सरकार थी। वह मुद्दा 2017 के चुनाव में छाया रहा।
नतीजतन सरकार बदल गई और कांग्रेस की कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार बनी। कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू अपनी ही सरकार के खिलाफ बेअदबी का मामला उठाते रहे। उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, तो उसके बाद कैप्टन को इस्तीफा देकर सत्ता के बाहर होना पड़ा। अब कैप्टन और भाजपा साथ-साथ हैं। वे बेअदबी को बेहद संवेदनशील मुद्दा करार दे रहे हैं। जांच का निष्कर्ष पहले भी सामने नहीं आया और अब भी हम प्रतीक्षा करेंगे, लेकिन हत्या के बाद जो माहौल बना है, वह सामान्य नहीं है। बेअदबी के संदर्भ में आम सिख गुस्से में है। हालांकि पुलिस अफसरों का मानना है कि दोनों गुरुद्वारों में बेअदबी नहीं हुई। श्री गुरु ग्रंथ साहिब का सम्मान बरकरार है। यदि अभी इस मुद्दे को शांत नहीं किया गया, तो दूसरे महत्त्वपूर्ण विषय पीछे छूट सकते हैं। कृषि के तीन विवादित कानूनों को संसद में रद्द करने और किसानों की अधिकतर मांगों पर लिखित आश्वासन के बाद आंदोलन समाप्त हुआ है, लेकिन किसानों के सरोकार आज भी गरम मुद्दा हैं। इसके अलावा, बेरोज़गारी के कारण नौजवान राज्य छोड़ कर पलायन कर रहे हैं, उनमें बेचैनी है, उद्योगों की दयनीय स्थिति है, बिजली से जुड़े मुद्दे हैं और राज्य में भ्रष्टाचार व्यापक तौर पर व्याप्त है। ये मुद्दे बेअदबी के कारण पीछे छूट सकते हैं, जबकि इन्हें प्राथमिकता से संबोधित किया जाना चाहिए।
3.चुनाव सुधार
चुनाव सुधार की किसी भी कोशिश का स्वागत होना चाहिए। इस लिहाज से लोकसभा में सोमवार को पारित चुनाव सुधार संबंधी बिल विशेष है, जिसके तहत मतदाता पहचान पत्र और आधार को परस्पर जोड़ने की प्रक्रिया की ओर हम बढ़ेंगे। चुनाव आयोग लंबे समय से यह मांग कर रहा है और इसके लिए वर्ष 2015 में भी कोशिश हुई थी, मगर सर्वोच्च अदालत की आपत्ति के बाद उस प्रक्रिया को तब रोक दिया गया था। कानून में बदलाव के जरिये इस सुधार की दिशा में बढ़ने में काफी वक्त लगा है। अभी लोग केवल अपनी इच्छा से ही अपने मतदाता पहचान पत्र और आधार को परस्पर जोड़ सकेंगे। मतलब, कानून में बदलाव के बावजूद लोगों को रियायत दी जा रही है। हालांकि, चुनाव आयोग को इससे बहुत सुविधा नहीं होगी और न ही इससे अचानक मतदाता सूची को पूरी तरह त्रुटिहीन बनाने में पुख्ता मदद मिलेगी। जिस तरह भारतीय व्यवस्था मतदाता पहचान पत्र को लेकर उदार है, उसी तरह की उदारता आधार के साथ भी है। अभी भी बड़ी संख्या में देश में ऐसे लोग हैं, जिनके पास न तो मतदाता पहचान पत्र है और न आधार कार्ड।
पहचान सिद्ध करने की उदार व्यवस्था के कारण ही विपक्षी दल इस कानूनी बदलाव की आलोचना कर रहे हैं। एक ओर, विधेयक पेश करने वाले केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रीजीजू के अनुसार, यह कानून देश में फर्जी मतदान को समाप्त करेगा और चुनावी प्रक्रिया को अधिक विश्वसनीय बनाएगा, तो दूसरी ओर, ज्यादातर विपक्षी दलों के अनुसार, यह नागरिकों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करेगा। इसमें कोई शक नहीं कि अपने देश में पहचान का कोई भी जरिया या पत्र राजनीति का विषय है। जहां देश में एक-एक नागरिक की पहचान सुस्थापित होनी चाहिए, वहीं पहचान की गोपनीयता रखने के पक्ष में भी खूब दलीलें हैं। पहचान साबित करने की मांग को लोग अनुदारता भी मानते हैं और निजता का उल्लंघन भी। नागरिक पहचान, पहचान पत्र और ऐसे तमाम पत्रों को परस्पर जोड़ने की प्रक्रिया व नियमों को राजनीति से ऊपर रखकर सोचना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं कर रहे हैं, तो हमें देश की सुरक्षा की उतनी चिंता नहीं है, जितनी होनी चाहिए।
खैर, इस प्रस्तावित कानून के कुछ अन्य पहलू स्वागतयोग्य हैं। साल में चार बार मतदाता पहचान पत्र नामांकन की सुविधा मिलेगी। हालांकि, मतदाता सूची में किसी भी समय नाम जुड़वाने या संशोधन की सुविधा होनी चाहिए। लिंग आधारित समानता भी सुनिश्चित होगी। आज के समय में चुनाव सुधार की किसी भी प्रक्रिया को तेजी से पूरा करना जरूरी है। अच्छे सुधारों में कई-कई वर्ष खप जा रहे हैं। देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, लेकिन हम अभी भी फर्जी मतदाता पहचान पत्र और फर्जी मतदान से छुटकारा नहीं पा सके हैं। पहचान व पहचान पत्र के मामले में फर्जीवाड़े के रास्ते बंद करने में हम अभी भी नाकाम हैं। मामला मतदान पत्र बनवाने का हो या आधार कार्ड, त्रुटियों की भरमार है। भाषा, वर्तनी, फोटो, गुणवत्ता, आंकड़े इत्यादि की गलतियों को सुधारते रहने में भी काफी वक्त जाया होता है। अगर मतदाता पहचान पत्र व्यवस्था पुख्ता होती, तो उसे आधार से जोड़ने की जरूरत ही क्यों पड़ती? अत: ऐसे कागजों को परस्पर जोड़ने से कहीं ज्यादा जरूरी है, कागजों को सोलह आना सही बनाना।
4.कूटनीतिक कामयाबी
अफगानिस्तान में भारतीय हितों की रक्षा
यह भारतीय कूटनीतिक कामयाबी ही कही जायेगी कि जिस समय इस्लामाबाद में इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी के सदस्य देशों की अफगानिस्तान के मुद्दे पर बैठक हो रही थी उसी दिन भारत में आयोजित सम्मेलन में मध्य एशिया के पांच इस्लामिक देश भाग ले रहे थे। दरअसल, दिल्ली में विदेश मंत्री एस. जयशंकर की अध्यक्षता में आयोजित तीसरे भारत-मध्य एशिया डायलॉग में उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान व कजाखस्तान के विदेश मंत्रियों ने शिरकत की। वे इस्लामाबाद जाने के बजाय दिल्ली सम्मेलन में पहुंचे। इस सम्मेलन में जहां मध्य एशिया के इन देशों के बीच व्यापार संबंधी व क्षेत्रीय जुड़ाव पर बात हुई, वहीं अफगानिस्तान के मुद्दे पर गंभीर विमर्श हुआ। उल्लेखनीय है कि इन पांच देशों में से तीन ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान की सीमा अफगानिस्तान से लगती है। अफगानिस्तान के हालात पर इनकी चिंता भारत से मेल खाती है। इस सम्मेलन के बाद जारी संयुक्त बयान में भारत ने इन पांचों देशों के साथ एक सुर में कहा कि बदले हालात में अब अफगानिस्तान की धरती का उपयोग आतंकवादी गतिविधियों के लिये नहीं होना चाहिए। इसके साथ ही मानवीय संकट से जूझ रहे अफगानिस्तान की भरपूर मदद की जाये। निस्संदेह भारत समेत इन देशों की क्षेत्रीय सुरक्षा को अफगानिस्तान में तालिबान के आने से खतरा उत्पन्न हुआ है। इन पड़ोसी देशों के व्यापार पर भी प्रभाव पड़ा है। दरअसल, अफगानिस्तान से अमेरिका व नाटो संगठन की वापसी के बाद तालिबान कब्जा होने से भारत की गंभीर भूमिका नहीं रह गई थी। एक वजह यह कि तालिबान पाक के गहरे प्रभाव में है और पाक नहीं चाहता कि अफगानिस्तान में भारत की कोई भूमिका हो। लेकिन भारत ने कूटनीतिक प्रयासों से इस दिशा में अपनी भूमिका के लिये जगह बनाने का प्रयास किया है। उल्लेखनीय है कि दस नवंबर को भी इन मध्य एशियाई देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों का भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की अध्यक्षता में दिल्ली सम्मेलन हुआ था। महत्वपूर्ण यह कि इसमें रूस और ईरान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी मौजूद थे।
दरअसल, भारत की सोच रही है कि वह मध्य एशिया के देशों से संबंध बेहतर करके अफगानिस्तान में अपने कूटनीतिक हितों का पोषण कर पायेगा। इसमें भारत के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट ईरान स्थित चाबहार बंदरगाह के जरिये मध्य एशिया के इन देशों से जुड़ाव का लक्ष्य भी शामिल है, जिसमें इन देशों में आपसी व्यापार के लिये मालवाहक गलियारा बनाने पर सहमत होना भी शामिल है। अच्छी बात है कि भारत की चिंताओं में शामिल इन देशों ने अफगानिस्तान में पनप रहे आतंकवाद पर कारगर कार्रवाई पर सहमति जतायी। इसी क्रम में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रावधानों के अनुरूप अफगान धरती को आतंकवाद की उर्वरा भूमि बनाने से रोकने के सभी आवश्यक कदम उठाने पर बल दिया गया। वहीं भारत समेत इन देशों के विदेश मंत्रियों ने सहमति जतायी कि जहां अफगानिस्तान की संप्रभुता व अखंडता की रक्षा होनी चाहिए, वहीं सभी अल्पसंख्यक समूहों की भागीदारी वाली समावेशी सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त हो, जिसमें महिलाओं की भागीदारी भी सुनिश्चित हो। प्रयास हो कि अफगानिस्तान में मानवीय अधिकारों का सम्मान किया जाये। तालिबान सरकार बनने के बाद अफगानिस्तान की धरती से नशे के कारोबार फलने-फूलने पर चिंता जताते हुए इस पर रोक के लिये सख्त प्रयास करने की जरूरत बतायी गई। सभी सहमत थे कि नये अफगानिस्तान में यूएन की प्रभावी भूमिका हो। वक्त आ गया है कि मानवीय संकट को दूर करने के लिये तुरंत मदद पहुंचाई जाये। साथ ही जातीय अल्पसंख्यकों, महिलाओं व बच्चों के हितों को संरक्षण मिले। निस्संदेह, पाक को इस बात की परेशानी होगी कि इस्लामाबाद में चालीस साल बाद हुए इस्लामिक देशों के सम्मेलन के समांतर भारत ने मध्य एशियाई देशों के सम्मेलन के जरिये कुछ बढ़त तो हासिल कर ली है। निस्संदेह, जनवरी में होने वाले मध्य एशिया-भारत सम्मेलन के बाद यह मुहिम और विस्तार लेगी। वहीं इस्लामाबाद में हुई ओआईसी की बैठक में पारित 31 मुद्दों वाले संकल्पपत्र में भी अफगानिस्तान में पनप रहे आतंकी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई करने व मानवीय सहायता पहुंचाने पर बल दिया गया।