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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.चांदनी के भ्रम में सियासत-1
राजनीतिक इच्छा शक्ति बनाम सियासी स्वार्थ के हर खेल में हिमाचल के नेताओं का कद और स्तर अब क्षेत्रवाद से ऊपर नहीं उठ रहा है। इसी तरह नागरिक जागरूकता भले ही हर हिमाचली की पहचान बन जाए, मगर सियासी चेतना से कोसों दूर है हिमाचली समाज। यही वजह है कि हर बार सरकार को बदलना होता है और खुद को स्थायी रूप से रोकने के लिए सरकारों के बीच मंत्रियों का क्षेत्रवाद पनप रहा है, सरकारी कार्यसंस्कृति ध्वस्त हो रही है तथा अफसर शाही-नौकरशाही केवल हिमाचल के भविष्य को धकिया रही है। जब नीतियां खामोश रहेंगी और सत्ता के ओहदेदार अपनी सलामती के लिए राज्य का बजट जाया करेंगे, तो नागरिक समाज भी ऐसे मुद्दों पर मोहित होता रहेगा, जो सिर्फ चांदनी रात की तरह कुुछ क्षणों का भ्रम हो सकते हैं। हर साल हमारे विधायक अपनी प्राथमिकताओं का गुलदस्ता बनाते हैं, लेकिन ये सारे फूल हर बार बिखरे-बिखरे से प्रयास में टूट जाते हैं।
नेता बनने की प्रक्रिया के बजाय यहां स्थापित होने के लिए सत्ता के ही मकबरे सजाए जा रहे हैं। ऐसे में न तो हिमाचल निर्माण की वह तड़प दिखाई दे रही है, जो कभी स्व. वाई एस परमार ने इस प्रदेश को ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भाषाई विरासत के स्वरूप में जोडऩे के लिए पैदा की थी या स्व. वीरभद्र सिंह ने प्रादेशिक संतुलन के संगम पर खड़ी की थी। कभी शांता कुमार ने राज्य के स्वाभिमान के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता के संदर्भ खोजते-खोजते विद्युत उत्पादन पर रायलटी के स्वरूप में 12 प्रतिशत मुफ्त बिजली हासिल करके जो शिलालेख लिखे थे, वे आज कहीं पर्दे के पीछे चले गए हैं। अब सत्ता के नाम पर जनता और जनता के अधिमान पर नेता खुद को इतना मांज रहे हैं कि पूरा प्रदेश और प्रादेशिक महत्त्वाकांक्षा के बनिस्पत क्षेत्रवाद के अध्याय खोले जा रहे हैं। चुनावी वर्ष की आंच पर पुन: माखौल उड़ाती हांडी ऐसी सियासत को उबाल रही है, जहां लंगड़े समीकरणों को सीधे करने के लिए नेता आविष्कार कर रहे हैं। आश्चर्य यह है कि जो जनप्रतिनिधि बनते रहे या इस वक्त मौजूद हैं, उनसे कहीं आगे निकलने के लिए नए आगाज की बोली पर सिद्धांत, तर्क और यथार्थ के बजाय ऐसा तमाशा खोजा जा रहा है, जिसके ऊपर राजनीतिक गौरव की परत बिछ जाए। कभी नेताओं की बिरादरी ने पर्यटन इकाइयां, स्कूल, कालेज और कार्यालय खोल कर जनप्रतिनिधि बनने के लिए विकास को आवाज दी, लेकिन प्रदेश अपनी तरक्की के ऐसे सूरमाओं को हराने पर उतारू रहा। राजनीतिक सिद्धि का अखंड पाठ हर बार सरकारी कर्मचारियों के प्रांगण में दगा दे जाता है, तो फिर इंकलाब के नाम पर इंतकाम कैसे लिया जाए।
यहां श्रेय की राजनीति पैदा होती है, तो प्रदेश की दरख्वास्तें बदल जाती हैं। अब हर जिला को मुख्यमंत्री चाहिए, तो नेताओं को पर्दापण के लिए नए जिले चाहिए। अगर ऐसा हो जाए तो शिमला और मंडी से दो-दो और कांगड़ा से तीन ऐसे नेता पैदा हो सकते हैं, जो नए जिलों के प्रकाश पर अपना सियासी पर्व मना सकते हैं। यानी प्रदेश के भीतर एक और चुनाव नए जिलों के नाम पर ही हो सकता है। पूर्व में याद होगा कि कभी रमेश धवाला ने देहरा को जिला बनाने की सौगंध में सियासी पतवार थामी, तो राकेश पठानिया ने नूरपुर का बजीर बनने के लिए ‘खूब लडिय़ा पठानिया की छवि को प्रस्तुत किया। आजकल त्रिलोक कपूर, जो कांगड़ा-चंबा संसदीय क्षेत्र के भाजपा प्रभारी हैं, अपने प्रभाव से पालमपुर दुर्ग की संरचना में लगे हैं यानी एक नए जिले की चार दीवारी में जनप्रतिनिधित्व की एक नई लाल लकीर लगाई जा रही है। हालांकि इससे पूर्व ऐसे ही सोच के तहत पालमपुर नगर निगम बना कर भाजपा अपने राजनीतिक नक्शे का विस्तार करना चाहती थी, लेकिन इसका पटाक्षेप एक करारी हार से हुआ। प्रदेश के विकास को सियासी छिछोरेपन पर नहीं परखा जा सकता, बल्कि समग्रता से यह सोचना होगा कि हिमाचल प्रदेश की तस्वीर किस तरह से मुकम्मल व असरदार होती है। -(जारी)
2.मुफ्तखोरी की राजनीति
वोट और बहुमत हासिल करने के लिए ‘मुफ़्तखोरी की पेशकश की जा रही है। इस हम्माम में लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल और नेता डूबे हैं। आपस में होड़ मची है। दलों और नेताओं का सीधा गणित है कि लालच में आकर आम मतदाता उनके पक्ष में वोट कर सकता है। यदि अर्थव्यवस्था का ‘डिब्बा गोल होता है, तो दलों और नेताओं का कोई गंभीर सरोकार नहीं है। उनका निजी नुकसान थोड़े हो रहा है! लगभग प्रत्येक राज्य पर लाखों करोड़ रुपए के कजऱ् का बोझ है। फिर भी बहुत कुछ नि:शुल्क बांटने की योजनाएं बनाई जा रही हैं। चुनावी घोषणाएं की जा रही हैं। हमने करीब 45 साल पहले चौ. देवीलाल की फ्री बिजली-पानी की घोषणाएं सुनी थीं। उन्हें ऐतिहासिक जनादेश हासिल हुआ। उसके बाद मुफ़्तखोरी की एक राजनीतिक परंपरा की शुरुआत हुई, जो चुनावों के दौरान कुछ ज्यादा ही गूंजती है। केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के दौरान किसानों की कजऱ्माफी का नया प्रयोग किया गया और करीब 55,000 करोड़ रुपए के कजऱ् माफ किए गए। कुछ कांग्रेसी नेता 70,000 करोड़ रुपए तक की कजऱ्माफी का दावा करते रहे हैं।
नतीजतन 2009 के लोकसभा चुनाव में यूपीए सबसे बड़ा गठबंधन बनकर उभरा। उसकी सरकार भी बनी। उसके बाद विभिन्न राज्यों में चुनाव जीतने के लिए कजऱ्माफी एक सशक्त हथियार बन गया। लगभग सभी राज्य सरकारों ने, कम या ज्यादा, किसानों के कजऱ् माफ किए। अब जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, वहां भी कजऱ्माफी एक बुलंद चुनावी मुद्दा है। सवाल है कि किसान का कजऱ् एक बार में ही माफ क्यों नहीं किया जा सकता? क्या किसान लगातार कजऱ्माफी के बावजूद कजऱ्दार बना रहेगा? यह निरंतर कजऱ् किसका है-बैंकों का, गैर-बैंकिंग आर्थिक संस्थाओं का अथवा सूदखोर महाजन का? बहरहाल किसान की कजऱ्माफी के अलावा, नि:शुल्क अनाज, फ्री बिजली-पानी, घरों में 300 यूनिट तक बिजली मुफ्त, छात्राओं-युवाओं को लैपटॉप या टैबलेट, बेरोजग़ारी भत्ता, फ्री साइकिल, फ्री स्कूटी, पुरानी पेंशन योजना, फ्री 6000 रुपए सालाना प्रति किसान, फसल बीमा आदि के अलावा प्रधानमंत्री के स्तर पर आवास योजना, आयुष्मान भारत योजना, उज्जवला, शौचालय, नि:शुल्क अनाज आदि की योजनाएं भी हैं। इनके अलावा, आरक्षण और विभिन्न मुआवजों की भी व्यवस्था है। हम मानते हैं कि लोकतंत्र में जन-कल्याणकारी योजनाएं अनिवार्य हैं। सरकारें गरीब तबके और ज़रूरतमंद आबादी के प्रति जवाबदेह होती हैं, लेकिन जिन राज्यों के चुनावों में मंगलसूत्र, चूडिय़ां, साडिय़ां, कलर टीवी, मिक्सी आदि के लालच फ्री में परोसे जाते हैं, उनमें कौन-सा जन-कल्याण निहित है? क्या ऐसी पेशकशों पर ही लोकतांत्रिक जनमत तय होने चाहिए? क्या गरीबी के प्रति यही सरकारी जवाबदेही है? दरअसल ऐसी खैरात बांट कर हमारे दल और नेता एक पूरी जमात को बेकार, निठल्ली बना रहे हैं। मुफ़्तखोरी के बजाय सरकारें ऐसे गरीबतम तबके के पात्र लोगों को ईमानदारी से नौकरियां अथवा स्थायी रोजग़ार मुहैया कराएं, तो अर्थव्यवस्था में विस्तार और सुधार होगा और एक पूरी, निकम्मी पीढ़ी कमाकर खाना और जीवन-यापन करना सीखेगी।
एक निश्चित उम्र में, एक निश्चित पेंशन की व्यवस्था सामाजिक सुरक्षा की बुनियाद है। यदि हमारे सांसद, विधायक, मंत्री आदि एक दिन की सेवा के लिए जीवन भर पेंशन पाने के हकदार हो सकते हैं, तो आम नागरिक इससे वंचित क्यों रखा जाए? हमारे निजी और असंगठित क्षेत्र में तो रिटायरमेंट के बाद पेंशन के प्रावधान ही नहीं हैं। प्रधानमंत्री रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने जिस नई पेंशन योजना की शुरुआत की थी, उसकी सही व्याख्या नहीं हुई, लिहाजा एक व्यापक वर्ग पेंशन के लाभ से वंचित है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने जिस समाजवादी पेंशन की दोबारा शुरुआत करने की घोषणा की है और लाखों मतदाताओं को आकर्षित करने का प्रयास किया है, दरअसल वह योजना ही सवालिया और छिद्रदार रही है। उस पर 10.8 अरब रुपए के घोटाले के आरोप हैं। ऐसे भी आरोप हैं कि करीब 44,000 मृत लोगों के नाम पर भी पेंशन जारी की जा रही थी। बहरहाल इस विवाद को भी छोड़ते हैं। दरअसल चुनाव में उन योजनाओं की घोषणाएं की जाएं, जो अर्थव्यवस्था को पोपला न बनाती हों। मतदाताओं को लुभाने की कोशिशें एक सीमा तक ही की जानी चाहिए।
3.ज्योति का विलय
सन् 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध की प्रतीक अमर जवान ज्योति ज्वाला को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की ज्वाला से मिला दिया गया है। सरकार का मानना था कि इंडिया गेट पर जिन शहीदों-वीरों के नाम हैं, उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध और एंग्लो-अफगान युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में लड़ाई लड़ी थी, जबकि अमर जवान ज्योति बांग्लादेश की मुक्ति के लिए शहीद हुए वीरों की याद में है, अत: दोनों अलग-अलग हैं। इस लिहाज से औपनिवेशक काल के प्रतीक इंडिया गेट को स्वतंत्र रहने देना चाहिए और अमर जवान ज्योति को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में लाना एक लिहाज से सरकार का तर्कपूर्ण फैसला है। फिर भी अमर जवान ज्योति इंडिया गेट की पहचान रही है। इंडिया गेट के बीच अनवरत लगभग 50 वर्षों से यह ज्योति प्रज्ज्वलित थी, जिसे देखकर शहादत की भव्यता और गर्व की अनुभूति होती थी। कम से कम तीन पीढ़ियां ऐसी बीती हैं, जिनके लिए इंडिया गेट के साथ अमर जवान ज्योति के दर्शन का विशेष महत्व था। अब हमारी शान का एक प्रतीक इंडिया गेट तो वहां रहेगा, लेकिन ज्योति के दर्शन वहां नहीं, वहां से 400 मीटर दूर राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में होंगे।
सरकार के इस निर्णय पर बड़ी संख्या में पूर्व सैनिकों ने खुशी जताई है। आमतौर पर यही यथोचित है कि दिल्ली में एक ही स्थान पर ऐसी शहादत को समर्पित ज्योति रखी जाए। शहीदों के सम्मान में जब राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में ज्योति जलाई गई थी, तभी से भी इंडिया गेट की अमर जवान ज्योति पर चर्चा हो रही थी। यह संभव था कि राष्ट्रीय युद्धस्मारक का वजूद अलग रहता और इंडिया गेट पर पचास वर्षों से प्रज्ज्वलित ज्योति को यथावत रहने दिया जाता। खैर, यह सरकार का फैसला है और देश के शहीदों, वीरों के सम्मान पर किसी तरह के विवाद की कोई गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए। यदि सेना को भी यही लगता है कि राष्ट्रीय युद्ध स्मारक ही एकमात्र स्थान है, जहां वीरों को सम्मानित किया जाना चाहिए, तो इस फैसले और स्थानांतरण का स्वागत है। इधर, सरकार ने एक और फैसला लिया है कि इंडिया गेट के पास नेताजी सुभाषचंद्र बोस की प्रतिमा स्थापित होगी। यह फैसला भी अपने आप में बड़ा है। अभी तक वहां किसी प्रतिमा के लिए कोई जगह नहीं थी, अब अगर जगह निकल रही है, तो आने वाली सरकारों को संयम का परिचय देना पड़ेगा। अलग-अलग सरकारों के अपने-अपने आदर्श रहे हैं और अलग-अलग सरकारों द्वारा अलग-अलग प्रकार के स्मारक बनाने का रिवाज भी रहा है। यही विचार की मूल वजह है। स्मारकों और प्रतिमाओं का सिलसिला सभ्य और तार्किक होना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे स्मारक देशवासियों को प्रेरित करते हैं और इससे देश को मजबूती मिलती है, लेकिन तब भी हमें राष्ट्रीय महत्व के कुछ स्मारकों को उनके मूल स्वरूप में ही छोड़ देने पर अवश्य विचार करना चाहिए।
अब यह इतिहास है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 26 जनवरी, 1972 को अमर जवान ज्योति का उद्घाटन किया था और यह भी इतिहास है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 फरवरी, 2019 को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक का उद्घाटन किया, जहां अब तक शहीद हुए देश के 25,942 सैनिकों के नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित हैं। अब अमर जवान ज्योति के आगमन से राष्ट्रीय युद्ध स्मारक का महत्व बहुत बढ़ गया है और बेशक, इससे राष्ट्रभक्ति और राष्ट्र सेवा को बल मिलेगा।
4.आरक्षण और योग्यता
सामाजिक न्याय की व्यापक व्याख्या
नीट पीजी परीक्षा में आरक्षण को दो सप्ताह पूर्व झंडी दे चुके सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले की तार्किक व्याख्या व्यापक संदर्भों में की है। दरअसल, इस फैसले में देरी की वजह से जूनियर डाक्टरों ने दिल्ली में व्यापक आंदोलन किया था। उसके बाद सात जनवरी को एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने नीट पीजी में 27 फीसदी ओबीसी और दस फीसदी ईडब्ल्यूएस कोटे को मंजूरी दे दी थी। लेकिन कोर्ट ने तब अपने फैसले की तार्किक व्याख्या नहीं की थी। अब कोर्ट ने आरक्षण की सामाजिक न्याय की अवधारणा समेत तमाम सवालों के जवाब देने का प्रयास किया। सबसे महत्वपूर्ण यह कि योग्यता को प्रतियोगी परीक्षा के नतीजे की संकीर्ण परिभाषा तक सीमित नहीं रखा जा सकता क्योंकि इन परीक्षाओं से अवसर की औपचारिक समानता ही हासिल होती है। कोर्ट ने कहा कि आरक्षण और योग्यता में कोई अंतर्विरोध नहीं है बल्कि आरक्षण सामाजिक न्याय की अवधारणा को पुष्ट करके योग्यता का संवर्धन ही करता है। दरअसल, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना की पीठ का मानना था कि स्नातक हो जाने से किसी व्यक्ति की सामाजिक व आर्थिक स्थिति नहीं बदल जाती। उनकी कमजोर पृष्ठभूमि के मद्देनजर आरक्षण देने की जरूरत महसूस होती है। साथ ही यह भी तर्क दिया कि जब अन्य स्नातकोत्तर पाठयक्रमों में आरक्षण लागू है तो नीट में भी दिया जाना चाहिए। दरअसल, अदालत का मानना था कि योग्यता व आरक्षण परस्पर विरोधी नहीं हैं। महज प्रतियोगी परीक्षा के ही अंकों को योग्यता का मापदंड नहीं माना जा सकता। उसे सामाजिक रूप से भी प्रासंगिक बनाने की जरूरत है। अदालत ने संविधान निर्माताओं की आरक्षण अवधारणा को पुष्ट करते हुए कहा कि देश में पिछड़ापन दूर करने के लिये आरक्षण देना प्रासंगिक है। अपवाद को स्वीकार करते हुए अदालत का मानना था कि संभव है कि कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो पिछड़े न होते हुए भी आरक्षण का लाभ उठा रहे हों, लेकिन व्यापक अर्थों में आरक्षण की तार्किकता को नकारा नहीं जा सकता।
दरअसल, कोर्ट की यह व्याख्या इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि ओबीसी आरक्षण व आर्थिक आधार पर आरक्षण का मामला अदालत में विचाराधीन होने के बावजूद केंद्रीय परीक्षाओं में इसे लागू करने के लिये अब अदालत की मंजूरी लेने की आवश्यकता नहीं होगी। दरअसल, अदालत में आरक्षण से जुड़े कई मामलों में याचिका दायर की गई थी। इसमें ईडब्ल्यूएस कोटे का लाभ आठ लाख से कम सालाना आय वालों को दिये जाने के आधार पर सवाल खड़े किये गये थे। दलील दी गई थी कि इतनी आय वाला परिवार आर्थिक रूप से पिछड़ा नहीं हो सकता। इस बाबत केंद्र ने कोर्ट को बताया था कि यह मानक तार्किक है। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकार ने नीट पीजी की काउंसलिंग से पहले आरक्षण लागू कर दिया था, ऐसे में यह नियम विरुद्ध नहीं कहा जा सकता। साथ की पीठ ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि इस मामले में अदालत को पुन: समीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि नीट पीजी में ओबीसी और ईडब्ल्यूएस आरक्षण संवैधानिक रूप से मान्य है। इसी क्रम में कोर्ट ने योग्यता व आरक्षण के मुद्दे पर व्यापक दृष्टि को परिभाषित भी किया। कोर्ट का मानना था कि कोई परीक्षा व्यक्ति की वर्तमान सक्षमता को ही दर्शाती है, उसकी क्षमताओं, उत्कृष्टता व सामर्थ्य को पूरी तरह परिभाषित नहीं करती। इसको समृद्ध करने में अनुभव, बाद का प्रशिक्षण और व्यक्तिगत चरित्र की भी भूमिका होती है। इसके साथ ही मानवीय मूल्यों को जोड़कर अदालत ने टिप्पणी की कि उच्च अंक हासिल करने वाला उम्मीदवार यदि अपनी प्रतिभा का उपयोग अच्छे कार्य करने के लिये नहीं करता तो उसे मेधावी नहीं कहा जा सकता। वैसे योग्यता एक सामाजिक अच्छाई है और इसका संरक्षण जरूरी है। वहीं न्यायालय का स्पष्ट मानना था कि इस मामले में न्यायिक हस्तक्षेप से इस साल की प्रवेश परीक्षा प्रक्रिया में देरी हो सकती थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि देश इस समय महामारी की चुनौती से जूझ रहा है और देश को अधिक डॉक्टरों की जरूरत है। कुल मिलाकर अदालत ने योग्यता को सामाजिक रूप से प्रासंगिक बनाने पर बल दिया।