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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.मौसम से घातक इश्क
बर्फ पर फिसलती नादानी और खंडहर होती जिंदगी का नासूर अगर मौसम नहीं, तो रोमांच के अंदाज को यह छूट नहीं मिलती कि यूं ही सफर शुरू किया जाए। धर्मशाला की पहाडि़यों पर बर्फ के शृंगार से मोहित चार युवकों के एक दल ने पुनः अपने ही कदमों को गुनहगार बना लिया। मौसम के बिगड़ते मिजाज से उनका इश्क अंततः ऐसी चोट दे गया कि दो बच्चे जिंदा नहीं लौट पाए। इससे कुछ दिन पहले भी दो युवा इसी तरह मौसम से रोमांच छीनने की कोशिश में दुनिया छोड़ गए। राइजिंग स्टार हिल टॉप की ओर रुखसत चार बच्चों का दल आखिर अपनी जिंदगी से छेड़खानी करने के लिए खुद जितना दोषी है, उतना ही दोष बचाव के वर्तमान ढर्रे का भी है। पहला बचाव घर से शुरू होता है जहां बच्चों पर अभिभावकों की जिम्मेदारी का पहरा इतना असर तो रख सकता है कि रोमांच के नाम पर मौत की खिड़कियां न खोली जाएं। दूसरा पर्वतीय मार्गों पर बिखर रहे पर्यटन की अवांछित हरकतों ने अब इस तरह के अंजाम चुनने शुरू कर दिए हैं। तीसरे, शीतकालीन पर्यटन का मानचित्र बनाते हुए हिमाचल प्रदेश को अपनी शर्तें, बंदोबस्त तथा बचाव के पुख्ता इंतजाम करने होंगे।
चौथे, मौसम संबंधी जानकारियों के हिसाब से प्रदेश को अति सुरक्षित बनाने के लिए और सूचनाएं व सतर्कता चाहिए। पांचवें, युवा पर्यटन से बढ़ता हिमाचल का रिश्ता कब तक औपचारिक बना रहेगा, जबकि जरूरत यह है कि इसे सही परिप्रेक्ष्य में समझते हुए मंजूर किया जाए और युवा व्यवहार को तसदीक करते हुए सुरक्षात्मक कदम लिए जाएं। हिमाचल प्रदेश में ऐसे हादसों का हम जिन तथ्यों के आधार पर अन्वेषण करते हैं, उससे कहीं आगे निकलकर इन्हें युवा पर्यटन की गतिविधियों से जोड़कर देखना होगा। युवा पर्यटक का हिमाचल प्रवेश न तो केवल एक तयशुदा रास्ता है और न ही यह केवल बाहरी राज्यों पर आधारित रह गया है। हिमाचली युवाओं के कारण राष्ट्रीय स्तर पर विकसित होते संपर्क, प्रदेश के शैक्षणिक संस्थानों की पृष्ठभूमि में पलता युवा जोश, युवा आकाश से हटते भौगोलिक प्रतिबंध तथा नए रोजगारों से युवा क्षमता का नया जोश अब पर्यटन यात्राओं और अनुभव की नई पराकाष्ठा लिख रहा है। ऐसे में पारंपरिक पर्यटन को चुनौती देती नई मंजिलें विकसित हो रही हैं और ये गतिविधियां अब निर्बाध रूप से पूरा साल चलने को उतारू हैं। ऐसे में चिन्हित पर्यटन से कहीं आगे सैलानी गतिविधियां निकल रही हैं।
2.आम बजट के विरोधाभास
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट को ‘आकांक्षाओं वाला’ कहा है। बेशक बजट से देश की अपेक्षाएं और उम्मीदें भी काफी थीं। आम आदमी का सोचना था कि उसके हाथ में पैसा आए, ताकि वह खूब खर्च कर सके। खर्च से मांग बढ़ेगी, जिससे बाज़ार सजेंगे और अंततः अर्थव्यवस्था नए सिरे से जि़ंदा होगी। लेकिन ऐसी आकांक्षाएं अधूरी ही रहीं। औसतन किसान के उदाहरण से ही समझा जा सकता है। उसके लिए बजट में 16 सूत्री कार्य योजना की घोषणा की गई है। चूंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को उबारना प्राथमिकता होनी चाहिए थी और किसान बुनियादी तौर पर ग्रामीण है। ग्रामीण क्षेत्र के इर्द-गिर्द ही पूरी अर्थव्यवस्था घूमती है, लेकिन बीते चार साल के दौरान किसान की औसत आय 1580 रुपए के बजाय 1540 रुपए हो गई है। यानी किसान गरीब ही रहा है। तो 2022 में किसान की आमदनी दुगुनी कैसे होगी? कृषि का बजट 2.83 लाख करोड़ रुपए तय किया गया है, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था को दुगुनी के स्तर तक ले जाने में नाकाफी साबित होगा।
किसान सम्मान राशि की हकीकत यह है कि करोड़ों किसानों को पहली ही किश्त मिली है। बजट में 20 लाख किसानों को सौर पंप मुहैया कराने की घोषणा की गई है। सरकार बंजर ज़मीन पर सौर ऊर्जा के प्लांट लगाने में मदद करेगी और ‘अन्नदाता’ को ‘ऊर्जादाता’ भी बनाने की इच्छा रखती है। जल-संकट झेल रहे 100 जिलों के लिए भी योजना बनाई गई है। पिछले बजट में 1500 से अधिक ब्लॉकों के 256 जिलों में जल-संकट दूर करने का लक्ष्य रखा गया था, लिहाजा इस बजट में 100 जिले अतिरिक्त हैं या कुछ और हैं, यह स्पष्ट नहीं है। पेंशन और बीमा के दायरे में 6.11 करोड़ किसानों को रखने की बात कही गई है, लेकिन अहम, बुनियादी सवाल है कि किसान को उसकी फसल का कितना पैसा मिल रहा है? किसान की तमाम फसलें बीमित क्यों नहीं हैं? किसान की फसल की उचित कीमत कौन सुनिश्चित करेगा? प्याज 150 रुपए किलो तक बाज़ार में बिकता है, लेकिन किसान को वही 5-7 रुपए किलो के दाम ही क्यों नसीब होते हैं। बजट में एफसीआई को मिलने वाला अनुदान 1.5 लाख करोड़ से घटा कर 75,000 करोड़ रुपए कर दिया गया है। अब आधा अनुदान के साथ एफसीआई फसल खरीदने के बहाने लगा सकेगा कि उसके पास बजट ही नहीं है। व्यापक तौर पर किसान की फसल की सरकारी खरीद प्रभावित होगी। उर्वरक सबसिडी भी 80,000 करोड़ से घटकर नए वित्त वर्ष में 71,309 करोड़ रुपए हो सकती है। खाद्य सबसिडी में भी ‘खेल’ किया गया है कि जिसे 1.84 लाख करोड़ से घटाकर 1.09 लाख करोड़ रुपए कर दी गई है। इनसे किसान की फसलें प्रभावित होंगी और अंततः खरीद का बोझ उर्वरक कंपनियों या एफसीआई पर पड़ेगा।
देश में करीब 2.5 लाख पंचायतें हैं। 2015 की घोषणा के मुताबिक 2018 तक इनमें ऑप्टिकल फाइबर डालने का काम पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन बजट में इसे एक बार फिर 2020-21 के लिए लक्ष्य रखा गया है। किसान सीधे तौर पर गांव और पंचायतों से जुड़ा है। गांव और पिछड़े इलाकों की बात करें, तो मनरेगा की याद आती है, लेकिन इस बजट में मनरेगा की राशि 61,000 करोड़ आवंटित की गई है, जबकि पिछले बजट में यह फंड 71,000 करोड़ रुपए था। बजट बढ़ता है या कम किया जाता है? यदि 2022 तक किसानों की आमदनी दुगुनी करनी है, तो जीडीपी की विकास दर 12 फीसदी होनी चाहिए। फिलहाल यह 2.8 फीसदी है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री मोदी इसे किसानों और गरीबों को समर्पित बजट कह रहे हैं। उनका अब भी दावा है कि किसानों की आय दुगुनी होगी और ग्रामीण क्षेत्र में रोज़गार बढ़ेगा। रोज़गार का उल्लेख हुआ है, तो बजट में ही कहा गया है कि 2021 तक सरकारी संस्थानों में 2.6 लाख से अधिक नौकरियांे का अनुमान है। हकीकत यह है कि फिलहाल देश में एक करोड़ से ज्यादा लोगों को नौकरी की जरूरत है। लिहाजा योजनाएं और आधारभूत ढांचे का विस्तार कैसे होगा कि नौकरियां और रोज़गार अधिक से अधिक मिल सकें। खनन, निर्माण, उत्पादन, रियल एस्टेट, ऑटोमोबाइल आदि क्षेत्रों में नौकरियां सबसे ज्यादा होती थीं, लेकिन इन क्षेत्रों में धंधा मंदा है। सेवा क्षेत्र में नए रोज़गार हो सकते हैं, लेकिन सरकार स्पष्ट नहीं है।
3.कितने बूस्टर
यह धारणा शायद बीते वर्ष में ही रह गई कि कोविड-19 से सुरक्षा में तीसरी खुराक (बूस्टर डोज) बहुत प्रभावी होगी। खासकर ओमीक्रोन के बाद तो कुछ देश चौथी खुराक भी देने लगे हैं। क्या पांचवीं, छठी व उसके बाद भी खुराक की जरूरत पडे़गी? एक के बाद एक खुराक ली जाए, क्या यह व्यावहारिक है? क्या ये टीके बार-बार देने के लिए बनाए गए हैं? ज्यादातर वैज्ञानिक मानते हैं कि बार-बार टीके देने की यह रणनीति व्यावहारिक नहीं है। इंपीरियल कॉलेज, लंदन के प्रतिरक्षा विज्ञानी डैनी ऑल्टमैन का कहना है कि ‘हम टीकाकरण के मोर्चे पर पूरी तरह से अनजान क्षेत्र में हैं। हम एक आपातकालीन उपाय के रूप में लगातार एमआरएनए बूस्टर के वास्तविक कार्यक्रम में झटके खा चुके हैं। यह वास्तव में आगे का रास्ता नहीं लगता है।’ इजरायल के क्लैलिट हेल्थ इंस्टीट्यूट के सार्वजनिक स्वास्थ्य चिकित्सक रैन बालिसर कहते हैं, जनवरी की शुरुआत में इजरायल ने वृद्धों, कमजोर लोगों और स्वास्थ्यकर्मियों को चौथी खुराक देने की शुरुआत कर दी है। इस हफ्ते आए इजरायल के प्रारंभिक आंकड़ों से पता चलता है कि चौथी खुराक संक्रमण और गंभीर बीमारी के जोखिम को कम करती है। हालांकि, आने वाले दिनों में जब और आंकड़े आएंगे, तब स्थिति ज्यादा स्पष्ट होगी।
बूस्टर डोज को लेकर शोधकर्ताओं में बहस तेज हो गई है। कोविड-19 का हमला और उसके नए-नए प्रकार का सामने आना, कुछ इतनी जल्दी में हो रहा है कि वैज्ञानिक साफ तौर पर कुछ बता नहीं पा रहे हैं। इलाज की राह में उन्हें जहां भी कुछ संभावना लग रही है, हाथ-पांव मार रहे हैं। संक्रमण को रोकना बड़ी चुनौती है और वायरस के नए-नए प्रकार लगातार तनाव बढ़ाए चले जा रहे हैं। एक बड़ा तनाव यह भी है कि दो खुराक ले चुके लोगों में भी संक्रमण क्यों देखा जा रहा है? क्या बूस्टर भी लंबे समय तक संक्रमण को रोकने में नाकाम हो रहे हैं? फिक्र इसलिए बढ़ जाती है, क्योंकि कोई भी वैज्ञानिक गारंटी देने की स्थिति में नहीं है। इजरायल में पिछले वर्ष जून व नवंबर के बीच जुटाए गए आंकड़े दर्शाते हैं कि बूस्टर डोज के एक तिहाई मामलों में प्रतिरक्षा कुछ ही महीने में कम हो जा रही है। यह दुखद है, जब कई देशों में लोगों को पहली खुराक भी नहीं लगी है, तब इजरायल, चिली, कंबोडिया, डेनमार्क व स्वीडन जैसे देश चौथी खुराक पर पहुंच रहे हैं। चार खुराक से भी एंटीबॉडी का स्तर बढ़ता है या नहीं, यह देखा जाना बाकी है।
बोलिसर कहते हैं, ‘अंतहीन बूस्टर खुराक देने के बजाय महामारी को धीमा करने का एक बेहतर तरीका नए टीकों को विकसित करना होगा। ऐसे टीके बनाने पड़ेंगे, जो लंबे समय तक सुरक्षा प्रदान कर सकें। ओमीक्रोन-विशिष्ट टीकों पर पहला डाटा आगामी महीने में आने की उम्मीद है। हालांकि, अभी भी एक व्यापक कारगर टीके के लिए हमें इंतजार करना पड़ सकता है। क्या हम ऐसी कोई एक वैक्सीन खोज पाएंगे? कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी सांताक्रूज में रोग पारिस्थितिकीविद् मॉर्म किलपैट्रिक कहते हैं, ‘वायरल विकास से निपटने के दौरान हमेशा अनिश्चितता होती है।’ न्यूजीलैंड की ओटागो यूनिवर्सिटी के संक्रामक रोग विशेषज्ञ पीटर मैकइंटायर का तर्क है कि जब तक हमारे पास नए टीके नहीं हैं, दूसरे उपायों और एंटीवायरल दवाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए। बचाव के उपायों में ढील की अभी गुंजाइश नहीं है।
4.शहादत की ज्योति
बलिदानी स्मृतियों को गरिमा
पिछली आधी सदी से इंडिया गेट पर प्रज्वलित ‘अमर जवान ज्योति’ हर देशवासी को राष्ट्र की बलिदानी गाथा से जोड़ती रही है। अमर जवान ज्योति 26 जनवरी, 1972 को अस्तित्व में आई थी, जिसे वर्ष 1971 के भारत-पाक युद्ध में शहीद जवानों की स्मृति में प्रज्वलित किया गया था। वहीं 25 फरवरी, 2019 को इसके निकट ही राष्ट्रीय युद्ध स्मारक का उद्घाटन हुआ, जहां आजाद भारत में शहीद हुए पच्चीस हजार से अधिक जवानों के नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित हैं, जिनकी याद में वहां भी अमर जवान ज्योति प्रज्वलित है। मोदी सरकार ने दोनों ज्योतियों के विलय के बारे में फैसला लिया था और देश के महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जन्मशती को इस मौके के रूप में चुना। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडिया गेट पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की होलोग्राम प्रतिमा का अनावरण किया और ऐतिहासिक गलती सुधारने की बात कही। साथ उन असंख्य बलिदानी स्वतंत्रता सेनानियों का स्मरण किया जो त्याग और बलिदान के बावजूद चर्चाओं में न आ सके। दरअसल, इंडिया गेट 1921 में प्रथम विश्व युद्ध तथा तीसरे एंग्लो अफगान युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में बनाया गया था। सत्ता पक्ष के लोग जहां इसे साम्राज्यवादी ब्रिटिश सत्ता का प्रतीक मानते रहे हैं वहीं विपक्षी दलों का कहना है कि आजादी से पहले भारतीय सैनिकों के बलिदान को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। अतीत को लेकर एक समग्र दृष्टि की जरूरत है। बहरहाल, देश में एक समग्र राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की कमी जरूर पूरी हुई है जो देश के बहादुर शहीद सैनिकों के प्रति राष्ट्र की कृतज्ञता का ही पर्याय है। इसका निर्माण भी नई दिल्ली में विकसित सेंट्रल विस्टा एवेन्यू में इंडिया गेट के पास ही किया गया है जहां अमर जवान ज्योति का विलय राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में प्रज्वलित ज्योति में हुआ है। निस्संदेह, कृतज्ञ राष्ट्र अपने शहीदों के बलिदान से कभी उऋण नहीं हो सकता है। उनके बलिदान की अखंड ज्योति हमेशा नई पीढ़ी को प्रेरणा देती रहेगी कि देश ने अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिये कितनी बड़ी कीमत चुकायी है।
बहरहाल, यह तार्किक ही है कि शहादत को समर्पित ज्योति को दिल्ली में एक ही स्थान पर रखा जाना चाहिए। हालांकि, इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति की अमिट स्मृतियां भारतीय जनमानस के दिलो-दिमाग में सदैव ही रही हैं। इस मार्ग से गुजरते लोगों का ध्यान बरबस इस ओर सम्मान से चला ही जाता था। वहीं सरकार व सेना का मानना रहा है कि राष्ट्रीय युद्ध स्मारक ही वह एकमात्र स्थान हो सकता है जहां शहीदों को गरिमामय सम्मान मिल सकता है। दूसरी ओर, इंडिया गेट क्षेत्र में छत्र के नीचे जहां नेताजी सुभाष चंद्र बोस की होलोग्राम प्रतिमा लगायी गई है, वहां कभी इंग्लैंड के पूर्व राजा जॉर्ज पंचम की प्रतिमा हुआ करती थी। निस्संदेह स्वतंत्र भारत में उसका कोई स्थान नहीं हो सकता था। माना जा रहा है कि इस महत्वपूर्ण स्थान में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की प्रतिमा का लगाया जाना, उनके अकथनीय योगदान का सम्मान ही है। विगत में सरकारों के अपने आदर्श नायक रहे हैं और उन्हीं के स्मारक नजर भी आते हैं, जिसके मूल में वैचारिक प्रतिबद्धताएं भी शामिल रही हैं। इसके बावजूद देशवासियों में आत्मसम्मान व गौरव का संचार करने वाले नायकों को उनका यथोचित सम्मान मिलना ही चाहिए जो कालांतर में आम नागरिकों में राष्ट्र के प्रति समर्पण व राष्ट्रसेवा का भाव ही जगाते हैं। शहादत की अमर ज्योति भी देशवासियों के दिलों में शहीदों के प्रति उत्कट आदर की अभिलाषा को ही जाग्रत करती है। वहीं स्वतंत्रता सेनानियों की प्रतिमा देश की स्वतंत्रता की गौरवशाली लड़ाई का पुनर्स्मरण भी कराती है कि हमने आजादी बड़े संघर्ष व बलिदान से हासिल की थी। ऐसे में यदि ज्योति में ज्योति मिलने से राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की आभा में श्रीवृद्धि होती है तो यह बलिदानियों का कृतज्ञ राष्ट्र द्वारा किया जाने वाला सम्मान ही कहा जायेगा। वहीं नेताजी की प्रतिमा लगने से इंडिया गेट को भी प्रतिष्ठा मिलेगी।