News & Events
इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.‘कोकिला’ अब भी गूंजेगी
एक सूरज है और एक ही चांद है। एक आसमान और एक ही ब्रह्मांड है। एक ब्रह्मदेव हैं और एक ही ब्रह्मपुत्री हैं। एक मां सरस्वती है और एक ही उनका प्रतिरूप है। एक भारत है और एक ही उसकी कोकिला-पुत्री लता मंगेशकर है। ये सभी अजर-अमर हैं। वे अवतार-रूप में पृथ्वी पर आ सकते हैं, लेकिन वे अनश्वर हैं। मानव-रूप में पार्थिव देह का अंत और पंचतत्व में विलीन होना कुदरत की नियति है, लेकिन उनका अंत नहीं होता। उनका युग समाप्त नहीं होता। वे ऐसी इबारत नहीं हैं, जिसे मिटाया जा सके। ब्रह्मांड रहेगा, पृथ्वी-लोक रहेगा और यह दुनिया अस्तित्व में रहेगी, तो हमारी स्वर-कोकिला, भारत-रत्न लता मंगेशकर भी रहेंगी। मौसम होगा, माहौल होगा, इच्छा होगी, तो कोकिला की गूंजती हुई कूक की मिठास भी होगी। वह शाश्वत, चिरंतन-सी है। घर-आंगन में मां बच्चे को लोरी सुनाएगी, बच्चा बड़ा होकर अल्हड़ या शरारती होगा, बालपन से गुजऱते हुए किशोर मन की चाहतें भी होंगी, भाई-बहिन का पवित्र त्योहार रक्षा-बंधन आएगा, यौन अवस्था में प्रेम की कोंपलें फूटेंगी और रोमांस के भाव जगेंगे अथवा इन अवस्थाओं से इतर पीड़ा, वेदना, बिछोह से लेकर राष्ट्र-प्रेम तक के अवसर होंगे, तो इन तमाम भावों में एक ही स्वर, एक ही कंठ से गूंजे सुर हम सभी को राहत देंगे और वह हैं-लता मंगेशकर। जीवन में भजन, भक्ति के गीत हों या विभिन्न अंचलों के लोकगीत हों, हमारी कोकिला ने सभी विधाओं को अपनी सुरमयी आवाज़ दी है। क्या एक अदद फनकार या एक आम आदमी की शख्सियत के इतने आयाम संभव हैं?
कदापि नहीं। फिर लता जी मर कैसे सकती हैं? हां, उनका पार्थिव क्षय हुआ है। पार्थिव अंत तो प्रभु राम और कृष्ण का भी हुआ था। यही तो प्रकृति-चक्र है। खुद ब्रह्मदेव ने तय किया है, लेकिन यह विश्लेषण करना बिल्कुल गलत है कि लता जी के पार्थिव देहावसान के साथ ही एक युग, एक अध्याय समाप्त हो गया। दरअसल यह पूरी सदी ही लता मंगेशकर के नाम दर्ज है-लता से पूर्व और लता के बाद। लेकिन कला-संस्कारों और स्थापनाओं में लता मंगेशकर हमेशा मौजूद हैं और रहेंगी। यह तो प्रख्यात गीतकार एवं फिल्मकार गुलज़ार से लेकर ग़ज़ल के उस्तादों-मेहंदी हसन और गुलाम अली साहेब-और लता जी के जीवनीकार हरीश भिमानी तक न जाने कितने ़फनकारों ने माना है। लता जी संगीत, सुरों और गायकी की जीवंत प्रतिमा थीं। कितना दैवीय संयोग है कि 5 फरवरी को बसंत पंचमी के दिन देश ने मां सरस्वती की पूजा की, उनके नाम समर्पित दिन को समारोह की तरह मनाया और अगले ही दिन मां शारदा की साक्षात् अवतार लता जी ने महाप्रयाण का निर्णय ले लिया। वह किसी और स्थान, मंज़र और मानस को गुंजायमान करने की लंबी यात्रा पर निकल पड़ीं। यह यकीनन असामान्य संयोग है। अंतिम सांस लेने से पूर्व लता जी अपने प्रेरक-पुरुष, दिवंगत पिता जी मास्टर दीनानाथ मंगेशकर के गीत सुनती रहीं और हौले-हौले ताल भी देती रहीं। संगीत उनकी चेतना में आखिरी पलों तक साकार था।
उस साकार को देखने, सुनने, जीने और प्रेरित होने का साक्षात् क्षय जरूर महसूस होगा और उस खालीपन को कभी भरा नहीं जा सकेगा। अलबत्ता लता जी हमारे बीच ही मौजूद हैं। उन्हें अनुभव करने के एहसास जगाओ। जब सरहदों पर उदास, भावुक सैनिकों ने उन्हें याद किया, तो क्या उन्होंने ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ और ‘वंदे मातरम्’ सरीखे गीतों को गुनगुनाया नहीं होगा? यही चिरंतन अवस्था है। लता जी ने पार्थिव रूप में जो कुछ हासिल किया, भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत-रत्न’ से नवाजा, सभी पद्म सम्मान भी मिले, गिनीज बुक में रिकॉर्ड के तौर पर नाम दर्ज हुआ और विदेशियों को या तो लता मंगेशकर अथवा ताज़महल के संदर्भ में खुद को वंचित महसूस करना पड़ा, 36 भाषाओं में 30,000 से ज्यादा गीत गाना-क्या कोई आम कलाकार इतने हासिल प्राप्त कर सकता है? यही लता जी की व्यापकता और विलक्षणता थी। भाषाओं को जानना और उनमें गायकी ही परोक्ष रूप से सरस्वती-गायन है। बहरहाल लता जी की अनुपस्थिति जरूर खलेगी, लेकिन उनके गीत सुनें आंखें मूंद कर। कुछ पल भावुकता में भी बिताएं। आंखें नम हो जाने दें, लेकिन चिंता न करें, क्योंकि यह कोकिला हमेशा गूंजती रहेगी। उन्हें बेहद विनम्र श्रद्धांजलि…।
2.पुस्तकालयों की बदलती भूमिका
कुछ ऐसे विषय हैं जिनके ऊपर अगर कभी सुर्खी बनती है, तो ताज्जुब होता है। धर्मशाला में अनुसूचित जाति कल्याण बोर्ड की बैठक में सरकार की उदारता से अब हर जिला के किसी न किसी पुस्तकालय का नाम संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर से जोड़ा जाएगा। डा. भीमराव अंबेडकर के नाम से किसी संस्था का नाम जुड़ना सुखद है, लेकिन इसके साथ अगर उद्देश्यपूर्ण ढंग से पुस्तकालयों की कार्यप्रणाली भी सुधरती है तो यह सोने पे सुहागा होगा। यह विषय नाम से कहीं आगे डा. भीमराव अंबेडकर के साथ जुड़ने वाले पुस्तकालय को एक अलग ढंग से पेश करने का भी होना चाहिए। अमूमन भारतीय महापुरुषों के साथ संस्थाएं, संस्थान और इमारतें तो जोड़ दी जाती हैं, लेकिन उनकी खासियत में कुछ नहीं जोड़ा जाता। ऐसे में पुस्तकालयों के मौजूदा वजूद को अगर नए परिप्रेक्ष्य में पेश करते हुए इन्हें आइंदा अंबेडकर लाइब्रेरी कहा जाए तो इसके साथ उच्च गुणवत्ता की गारंटी भी होनी चाहिए। हिमाचल में पिछले दो दशक से पुस्तकालयों के प्रति युवाओं का रुझान कहीं अधिक सार्थक हुआ है। धीरे-धीरे ये स्टडी सेंटर के रूप में अंगीकार हो रहे हैं। दिव्य हिमाचल ने एक सर्वेक्षण में पाया कि राज्य के कई जिला पुस्तकालय अब युवा करियर की पनाह बन चुके हैं, जहां छात्र समुदाय सुबह सात बजे से देर रात्रि तक बैठना पसंद करता है। इतना ही नहीं, पूरे प्रदेश में निजी तौर पर ही दर्जनों पुस्तकालय खुल रहे हैं। ऐसे में सरकार अगर चाहे तो आगामी बजट में अंबेडकर के नाम पर ऐसे पुस्तकालयों की नींव रख सकती है, जो आगे चलकर हिमाचली बच्चों को तमाम राष्ट्रीय स्तर की प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी और राष्ट्रीय प्रशासनिक व अन्य सेवाओं में प्रवेश के लिए तैयार कर सके।
धीरे-धीरे पुस्तकालय की अवधारणा बदल रही है और अध्ययन की तकनीकी जरूरतें भी। आज का पुस्तकालय केवल किताबों का जमघट नहीं, बल्कि अध्ययन का माहौल और ज्ञान को छूने का रास्ता है, जहां एक साथ सैकड़ों छात्र बैठ सकें। धर्मशाला के जिला पुस्तकालय में युवा अपनी सीट मुकर्रर करने के लिए सुबह-सुबह कतारबद्ध हो जाते हैं, तो इसके मायने समझे जा सकते हैं। प्रदेश में किसी स्कूल या कालेज बनाने से कहीं अधिक बेहतर होगा कि हम नए आधार पर पुस्तकालयों का निर्माण करके इनका उपयोग स्टडी सेंटर के रूप में करें। ऐसे पुस्तकालयों का संचालन पुस्तकालय अध्यक्ष के बजाय करियर निदेशक के तहत किया जाए और जहां बच्चों की काउंसिलिंग तथा मार्गदर्शन किया जाए। पुस्तकालय के साथ लेक्चर रूम बनाकर विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों के साथ परिचर्चाएं कराई जा सकती हैं। पुस्तकालयों के नए प्रारूप में यह आवश्यक होगा कि औपचारिक शिक्षा के बाद युवा अपने व्यक्तित्व विकास का सामर्थ्य हासिल करें। किस तरह करियर या रोजगार के दबाव को कम करते हुए किताबों से इतर खुद को शरीक किया जाए और इसके लिए गीत, संगीत, योग, शारीरिक कसरतें और खेलों का योगदान हो सकता है, इसके ऊपर भी गतिविधियां जोड़ी जा सकती हैं। कहना न होगा कि पुस्तकालयों को नाम से अलंकृत करने से राजनीतिक तुष्टि हो सकती है, लेकिन इन्हें वास्तव में अलग करके दिखाना है, तो अंबेडकर पुस्तकालय के तहत नए शिखर बनाने होंगे। विडंबना यह भी है कि स्कूल व कालेजों के शैक्षणिक स्तर व पाठ्यक्रमों की रफ्तार ने पुस्तकालयों का महत्त्व गौण कर दिया है, जबकि उपाधियों के बाद युवाओं को महसूस होने लगा है कि लाइब्रेरी मानसिक उत्थान की सबसे अहम कार्यशाला है। हम सरकार से आग्रह करेंगे कि प्रदेश में करियर और काम्पीटिशन लाइब्रेरियों की दिशा में आगे बढ़ते हुए वर्तमान जिला पुस्तकालयों को अंबेडकर के नाम से ऐसे सदन में परिवर्तित करें, जो युवाओं के भविष्य और चुनौतियों का समाधान कर सकें। जिला अंबेडकर पुस्तकालय की शुरुआत से न केवल अध्ययन केंद्र विकसित होंगे, बल्कि युवाओं को अपने व्यक्तित्व विकास के साथ-साथ मानसिक संतुलन के लिए भी मार्गदर्शन मिलेगा।
3.महामारी और पढ़ाई
हमने सामान्य हालात की ओर एक कदम और बढ़ा दिया है। सोमवार को देश के बहुत से प्रदेशों में स्कूल-कॉलेज खुल गए, उनके परिसरों में पुरानी रौनक लौट आई। कंधों पर बस्ते लादे स्कूल जाते छोटे-छोटे बच्चों को देखना हमेशा ही सुखद होता है। कई राज्यों में सोमवार से ही यह दृश्य भी दिखाई देना शुरू हो गया और कुछ राज्यों में इसके लिए अगले सोमवार का इंतजार करना होगा। देश के ज्यादातर प्रदेशों में कक्षा नौ से ऊपर की सभी कक्षाओं की पढ़ाई सोमवार से शुरू हो गई है, जबकि एकाध राज्य में इसका उल्टा तरीका अपनाया गया है। वहां छोटे बच्चों के स्कूल पहले खोले गए हैं। यह अच्छी बात है कि देश के तकरीबन सभी राज्य एक साथ महामारी के दौर में शिक्षा-व्यवस्था को सामान्य बनाने में जुट गए हैं। इस समय जब नए संक्रमितों की दैनिक संख्या और संक्रमण की दर, दोनों नीचे आ रहे हैं, तब इस तरह का फैसला स्वाभाविक ही था।
महामारी के खतरों को देखते हुए स्कूलों को खोला जाए या नहीं, इसे लेकर पिछले दो साल में पूरी दुनिया में खासी माथा-पच्ची हुई है। अमेरिका वगैरह में तो महामारी की पहली लहर के बाद ही स्कूल खोलने की कोशिशें शुरू हो गई थीं। लेकिन तब परिणाम अच्छे नहीं रहे थे। तभी यह खतरा भी समझ में आया था कि कोरोना वायरस भले बच्चों को शिकार नहीं बनाता, लेकिन कुछ बच्चे अगर इस वायरस को लेकर घर पहंुचते हैं, तो वयस्कों और बुजुर्गों को इससे खतरा हो सकता है। इस दो साल में पूरी दुनिया ने स्कूलों के गेट बंद कर ऑनलाइन शिक्षा की संभावनाएं और सीमाएं भी समझ ली हैं। यह भी समझ में आ गया है कि इस माध्यम से बच्चों को शिक्षित तो किया जा सकता है, लेकिन उनका पूरा मानसिक विकास नहीं हो सकता। ऑनलाइन शिक्षा संगी-साथियों का विकल्प नहीं दे सकती। स्कूलों में जब बच्चे एक-दूसरे से मिलते हैं, तो वे सामाजिक संबंधों का ककहरा भी सीखते हैं। इस समय जब बड़ी संख्या में लोगों का वैक्सीनेशन हो चुका है और देश की सभी गतिविधियां सामान्य रूप से चलाई जाने लगी हैं; बाजार खुल गए हैं और यहां तक कि चुनाव भी हो रहे हैं, तब यह अच्छी तरह समझ में आ चुका है कि पूर्ण बंदी से नुकसान भले हो जाए, कोई बहुत बड़ा फायदा नहीं मिलता। ऐसे में, सिर्फ शिक्षण संस्थानों को बंद रखने का कोई अर्थ नहीं रह गया है।
पिछले कुछ समय में जिस भी गतिविधि को सामान्य किया गया है, सभी में यह आग्रह रहा है कि पूरी सावधानी बरती जाए। मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग और सैनेटाइजेशन को हर जगह अपनाया जाए। लेकिन सच यह है कि ज्यादातर जगहों पर लोग इसका पालन नहीं कर रहे हैं। अगर प्रयास किए जाएं, तो इसकी शुरुआत हमारे स्कूल ज्यादा अच्छी तरह से कर सकते हैं। स्कूलों को महामारी से लड़ने की पाठशाला बनाया जाए, तो इसका असर पूरे समाज पर दिख सकता है। पूरे देश में किशोर वय बच्चों को वैक्सीन भी लगने लगी है। यह काम स्कूलों में उसी तरह से किया जा सकता है, जैसे कभी हैजे और चेचक के मामले में किया जाता था। यह भी जरूरी है कि महामारी से लड़ाई को छोटे बच्चों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। फिलहाल तो इतिहास विषय में भी इनके बारे में नहीं पढ़ाया जाता।
4.जीत की रीत
उदीयमान युवा-तुर्कों ने जगायी उम्मीद
महामारी से उदास मौसम और सीनियर क्रिकेट टीम की डगमगाती जीत की लय के बीच अंडर-19 टीम के युवा खिलाड़ियों ने पांचवीं बार विश्वकप भारत की झोली में डालकर उल्लास का संचार किया। टीम की एकजुटता ने कई खिलाड़ियों के कोरोना पॉजिटिव होने के बावजूद जीत का करिश्मा दिखाया। टीम शुरुआत से ही जीत की लय में दिखी, सभी मैच शानदार तरीके से जीते। उभरते खिलाड़ियों ने देश-दुनिया को बता दिया कि भारतीय क्रिकेट का भविष्य उज्ज्वल है। फाइनल में इंग्लैंड को कम स्कोर में समेटकर युवाओं ने जिस तरह से दबाव को संभाला, वह प्रशंसनीय है। बहरहाल, कप्तान यश ढुल- मोहम्मद कैफ, विराट कोहली, उन्मुक्त चंद और पृथ्वी शॉ के रूप में उन सफल कप्तानों की सूची में शामिल हो गये, जिन्होंने भारत की झोली में अंडर-19 विश्वकप डाला। निश्चित रूप से यश ढुल की यश पताका क्रिकेट के आकाश में फहरायेगी, क्योंकि पूर्व के चार कप्तानों में से कैफ, कोहली व पृथ्वी शॉ ने सीनियर टीम में जगह ही नहीं बनायी, अपने खेल से क्रिकेट जगत को आलोकित भी किया। टीम की बल्लेबाजी दमदार व गेंदबाजी सधी रही। गेंदबाजों की गति व स्पिन ने विरोधी टीमों को मुश्किल में डाले रखा। टीम की कामयाबी का एक पक्ष यह भी कि सलामी बल्लेबाज अंगकृष रघुवंशी टूर्नामेंट में शीर्ष रन बनाने व विकेट लेने वालों में शामिल रहा। कप्तान यश का जज्बा देखिये कि कोविड से उबरने के बाद उसने सेमीफाइनल में आस्ट्रेलिया के खिलाफ 110 रन की विजयी पारी खेली। इस टूर्नामेंट की एक बड़ी उपलब्धि राज बावा का एक हरफनमौला खिलाड़ी के रूप में मिलना है, जिसने फाइनल मैच में इंग्लैंड के खिलाफ न केवल पांच विकेट लिये बल्कि कीमती पैंतीस रन भी बनाकर मैन ऑफ द मैच घोषित घोषित हुआ। निस्संदेह राज बावा में भारत के उस सीम ऑलराउंडर का अक्स उभरा है, जिसकी तलाश भारत को वर्षों से रही है। साथ ही फाइनल में अर्द्धशतक बनाने वाले निशांत सिंधु व उपकप्तान शेख रशीद ने भी भविष्य की उम्मीदें जगायी हैं।
अंडर-19 विश्व कप में दमदार खेल दिखाने वाले इन क्रिकेटरों की उम्मीदों की यात्रा का आगाज हुआ है। निस्संदेह, भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने इन्हें कुशल प्रशिक्षण देने व संवारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्हें निरंतर निखारने की जरूरत है ताकि ये वक्त आने पर टीम इंडिया में अपनी जगह बना सकें। पक्की बात है कि इसी माह होने वाली आईपीएल की नीलामी में इन खिलाड़ियों को अतिरिक्त अधिमान मिलेगा। मध्यवर्गीय परिवारों से आने वाले खिलाड़ियों को अपने व परिवार के सपने सच करने में मदद मिल सकेगी। पिछले कुछ वर्षों में राहुल द्रविड़ आदि सीनियर खिलाड़ियों द्वारा दिया गया प्रशिक्षण भी नवोदित खिलाड़ियों को निखारने में सहायक बना, जिसका असर इस बार के अंडर-19 के फाइनल में दिखा। पहली बार अंडर-19 के फाइनल में किसी भारतीय गेंदबाज ने पांच विकेट लिये। रणनीति में बदलाव के तहत भारतीय कप्तान यश ढुल ने फाइनल मैच में सात गेंदबाजों का इस्तेमाल किया। गेंदबाजी की रणनीति ही थी कि पिछली बार भारत से खिताबी जीत छीनने वाले बांग्लादेश को क्वार्टर फाइनल में रवि कुमार ने शुुरुआत में तीन विकेट का ऐसा झटका दिया कि उससे टीम आखिर तक उबर नहीं पायी। निस्संदेह, टीम की एकजुटता व रणनीतियों में नये प्रयोग निर्णायक जीत का आगाज करते हैं। अंडर-19 में भारतीय क्रिकेटरों की नई पौध के दमखम का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि टीम आठ बार फाइनल में पहुंची। पांच बार खिताबी जीत हासिल की और तीन बार टीम उपविजेता रही। इस बार तो कोरोना संकट की बड़ी चुनौती भी थी। एक समय ऐसा आया कि कप्तान यश ढुल समेत कई प्रमुख खिलाड़ी कोरोना से पीड़ित हो गये। यहां तक कि युगांडा के खिलाफ छह रिजर्व खिलाड़ियों के साथ टीम मैदान में उतरी और विजय अभियान को फिर भी रुकने नहीं दिया। यही टीम थी, जिसके सलामी बल्लेबाज अंगकृष रघुवंशी के 120 रनों तथा राज बावा के 162 रनों की मदद से टीम ने युगांडा के खिलाफ 405 रन बनाये। निस्संदेह कोच ऋषिकेश कानितकर व एनसीए के डायरेक्टर वीवीएस लक्ष्मण की टूर्नामेंट में मौजूदगी खिलाड़ियों का संबल बनी।