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इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है

1. सुलगती दीवारों पर पोस्टर

अंततः उपचुनावों ने सियासी दीवारों को जितना सुलगाया उतने ही जोर-शोर से राजनीतिक पार्टियों के पोस्टर इनके ऊपर चस्पां हो गए। देखना यह होगा कि दीवारें पिघलती हैं या पोस्टर, लेकिन मुद्दों की ईंटें अब भुर-भुराकर मिट्टी और कीचड़ बनने लगी हैं। यानी अंतिम हथियार अब यही कीचड़ साबित होगा क्योंकि दोनों तरफ से कहने-सुनने का माहौल झगड़ालू हो गया है। कमोबेश दोनों तरफ से उम्मीदवारों के पोस्टरों पर कीचड़ गिरता रहा है और अब घातक राजनीति ने रही सही कसर भी उतार दी। आश्चर्य यह कि पुनः क्षेत्रवाद की मंजिलों पर राजनीतिक वैमनस्य का मुकाबला हो रहा है और बात टोपियों के रंग पर आकर टिक जाती है। यह तो मानना ही पड़ेगा कि क्षेत्रवाद की राजनीति अब चुनावी अंडे देने वाली मुर्गी है, जबकि हकीकत में हिमाचल का समावेशी विकास हमेशा शिकायतों के घेरे में रहता है। केंद्रीय योजनाओं-परियोजनाओं का आबंटन और प्रादेशिक विकास के नक्शे पर उभरता क्षेत्रवाद हर सरकार के वक्त, सत्ता के नूर और गुरूर की कहानी है।

नया क्षेत्रवाद तो राजनीति के प्रभाव को अमल में लाने की मजदूरी सरीखा है, जो योजना के आकार और प्रकार को बदल सकता है। विभागीय परियोजनाओं में खिलते गुल अगर एकतरफा मुस्कराते हैं, तो कृषि-बागबानी क्षेत्र की असमंजस समझी जा सकती है। यह महज सेब और किन्नू की लड़ाई नहीें हो सकती, बल्कि प्रदेश स्तरीय तासीर में योजनाओं का घाटा है। ऐसे में सोचना यह भी होगा कि हिमाचल के मूल प्रश्नों, आत्मनिर्भरता की बागडोर तथा युवा रोजगार के लिए हो क्या रहा है। क्षेत्रवाद के पैरामीटर पहले भी श्वेत पत्रों की पोशाक पहनकर लड़ते-झगड़ते रहे, लेकिन आजतक यह सामने नहीं आया कि असली कसूरवार कौन है। क्षेत्रवाद तो अप्रत्यक्ष रोजगार प्रदान करने का माध्यम रहा है, लेकिन कौन बता पाया कि किसने कंडक्टर, अध्यापक या मजदूर भर्तियों में हाथ रंग लिए। किसके इशारों पर इमारतें बनीं और उजड़ गईं या दफ्तर नाकारा हो गए। तमाम घाटे के निगम या बोर्ड इसलिए असफल हुए, क्योंकि हर किसी ने क्षेत्रवाद के फलक पर नए-नए होर्डिंग्स चस्पां किए। हिमाचल पथ परिवहन निगम के कितने ही डिपो केवल क्षेत्रवाद का अलंकरण करते रहे, लेकिन घाटे की इस व्यवस्था पर कभी सार्थक बहस नहीं हुई। छोटे से प्रदेश में एक सौ चालीस डिग्री कालेज तथा नौ मेडिकल कालेज, एम्स या पीजीआई सेंटर का स्थापित होना क्षेत्रवाद की क्षुधा के प्रतीक हैं या इनका चारित्रिक उत्थान होगा।

इतना ही नहीं हर बड़े मंदिर का ट्रस्ट अपने आप में ऐसा क्षेत्रवाद है, जहां सत्ता का पक्ष श्रद्धा की कमाई को राजनीति में झोंक और जोत देता है। यही क्षेत्रवाद नए जिलों के गठन की भूमि व भूमिका तैयार करता है, तो अब बात नगर निगमों की स्थापना से क्षेत्रीय संभावनाएं टटोलती है। अब तो सांस्कृतिक क्षेत्रवाद में राजनीति का दबदबा ही त्योहार बन जाता है। कभी ऊना महोत्सव से बड़ा हरोली उत्सव हो जाता है, तो इसे क्या कहेंगे या कभी लोहड़ी पर्व गरली-परागपुर को रोशन करने के बाद बुझ जाता है, तो उसे क्या कहेंगे। हम आज तक अलग-अलग बोलियों से हिमाचली भाषा का स्रोत नहीं पैदा कर पाए, तो यह अपनी तरह का ऐसा क्षेत्रवाद है जिसमें तमाम साहित्यकार भी शरीक हैं। इसी प्रदेश में एक ही गांव में तीन-तीन निजी विश्वविद्यालय खोल दिए जाते हैं या प्रदेश का सारा औद्योगिकीकरण कुछ जिलों में सिमट जाता है, तो इसे क्षेत्रवाद न कहंे या मान लें कि सत्ता का जन्म ही एक नए क्षेत्रवाद का जन्म बनता जा रहा है। बहरहाल ऐसे मुद्दों की समीक्षा तो सदन की बहस में ही होगी, फिर भी वक्त की नजाकत में कांग्रेस ने कुछ हरकत तो की ही है। शिव धाम के प्राथमिक टेंडर में अठारह से छत्तीस करोड़ तक पहुंचता आंकड़ा अगर आरोप की गहनता में चुनाव की खाक छान रहा है, तो हर निर्माण की कोख में पलती अनियमितता का जिक्र संवेदनशील हो जाता है। सवाल यह है कि हिमाचल की जनता चुनावों में मुद्दों को टटोल रही होती है या अदला-बदली के इश्तिहारों में इक रंग जनता के अपने सियासी मंसूबों का भी है, जो बहुत बार ईमानदार होकर भी निर्लिप्त भाव से चयन नहीं करता।

2. खेल ‘मज़हब’ नहीं

टी-20 विश्व कप के पराजित मैच की समीक्षा हमने भी की थी। यह देश के प्रत्येक जागरूक नागरिक और विश्लेषक का अधिकार और धर्म है कि वह किसी भी पक्ष की सम्यक आलोचना करे। खेल को खेल ही रहने दें, मज़हबी रंग न दें। क्रिकेट के किसी भी खिलाड़ी के संदर्भ में हिंदू-मुस्लिम न करें। क्रिकेट सामूहिकता का खेल है, लिहाजा सभी 11 खिलाड़ी जिम्मेदार हैं। इसमें किसी विशेष दिन कोई खिलाड़ी ‘नायक’ या ‘मैन ऑफ द मैच’ तो हो सकता है, लेकिन किसी ‘ऑफ दिन’, किसी भी खिलाड़ी को ‘खलनायक’ करार नहीं दिया जा सकता। ऐसा करना खेल-भावना के खिलाफ होगा। कोई भी जीत या हार किसी मज़हब अथवा समुदाय के जज़्बातों की जीत या हार नहीं हो सकती। इस संदर्भ में पाकिस्तान के गृहमंत्री शेख़ रशीद का बयान ‘शर्मनाक’ और ‘निंदनीय’ है। उसकी इससे ज्यादा व्याख्या हम नहीं करेंगे। भारत-पाकिस्तान मैच में मुहम्मद शमी बहुत महंगे गेंदबाज साबित हुए और 3.5 ओवर में उन्होंने 43 रन लुटा दिए। यह कोई भी खिलाड़ी कर सकता है। जरा याद करें भारतीय गेंदबाज चेतन शर्मा को, जिनकी अंतिम गेंद पर पाकिस्तान के जावेद मियांदाद ने छक्का जड़ दिया था और भारत मैच हार गया था। मौजूदा पीढ़ी को यह प्रकरण याद भी नहीं होगा। चेतन शर्मा हो या शमी हो, उन गेंदबाजों का आकलन हिंदू-मुसलमान के तौर पर करना गलत है, फिरकापरस्ती है और सांप्रदायिक नफरत की बुनियाद भी है। ‘क्रिकेट के भगवान’ माने जाने वाले, ‘भारत-रत्न’ सचिन तेंदुलकर भारतीय गेंदबाज शमी को विश्वस्तरीय गेंदबाज आंकते हैं। वह दिन शमी का ‘ऑफ दिन’ था, जो किसी अन्य खिलाड़ी का भी हो सकता है। जिस गेंदबाज ने क्रिकेट के सभी प्रारूपों में, भारत के लिए, 350 से अधिक विकेट लिए हैं, वह ‘खलनायक’ अथवा कुछ भी नकारात्मक कैसे माना जा सकता है? यह बेहद संकीर्ण और घटिया सोच है। कृपया ऐसे मज़हबी लोग क्रिकेट का खेल देखना ही छोड़ दें। सचिन समेत लक्ष्मण, सहवाग और गौतम गंभीर सरीखे विश्व चैम्पियन रहे बल्लेबाजों ने शमी और टीम इंडिया का समर्थन किया है। वे उनके साथ चट्टान की तरह खड़े हैं। बल्कि आगे बढ़ने का आह्वान भी कर रहे हैं, लेकिन इस प्रकरण का एक और सांप्रदायिक तथा देश-विरोधी पक्ष भी है।

 कश्मीर के श्रीनगर समेत देश के कुछ हिस्सों में पाकिस्तान की जीत के जश्न मनाए गए। पटाखे और आतिशबाजियां छोड़ी गईं। पाबंदियों के बावजूद पटाखेबाजी….! सोशल मीडिया पर खासकर शमी को बहुत ट्रोल किया गया। वीरेंद्र सहवाग को पलटवार करना पड़ा- ‘शमी चैम्पियन हैं और कोई भी खिलाड़ी, जो भारत की जर्सी पहनता है, उसके अंदर ऑनलाइन भीड़ से ज्यादा देशभक्ति होती है।’ श्रीनगर में तो पाकिस्तान का झंडा लहराते हुए ‘पाकिस्तान जि़ंदाबाद’ के नारे तक बुलंद किए गए। जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती हमेशा पाकपरस्त रही हैं, लिहाजा उन्होंने सवाल उठाया कि पाकिस्तान की जीत पर जश्न मनाने के लिए कश्मीरियों के खिलाफ गुस्सा क्यों जताया जा रहा है? दरअसल वे नारेबाज कश्मीरी नहीं, पाकिस्तानी एजेंट और दलाल थे, जिन्हें कुछ ‘खनकते सिक्के’ मिल जाते हैं और वे अपनी देशप्रियता भूल जाते हैं। कश्मीर में ऐसे देश-विरोधी तत्त्व अब भी हैं। हमेशा रहे हैं, क्योंकि यह तो हमारी पुरानी परंपरा रही है, नहीं तो हम सदियों तक गुलाम क्यों रहते? गौरतलब है कि यह किसी भी नागरिक का मौलिक या संवैधानिक अधिकार नहीं है कि वह देश-विरोध का प्रदर्शन करे। इज़हार सरकार, नेता, नीतियों अथवा किसी भी राजनीतिक दल के खिलाफ किया जा सकता है, लेकिन ‘पाकिस्तान जि़ंदाबाद’ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भाव या अधिकार निहित नहीं है। एक पार्टी प्रवक्ता की यह टिप्पणी बिल्कुल सटीक लगती है कि हमारी खुफिया एजेंसियां- रॉ और आईबी-खूब मेहनत के बावजूद ऐसे ‘आस्तीन के सांपों’ को ढूंढ नहीं पातीं, जो एक मैच ने कर दिया और देश के गद्दार बेनकाब हो गए। उधर खेल के मैदान पर दोनों देशों के खिलाड़ी आपस में गले मिले। यही खेल भावना है।

3. ताकि न बढ़े संक्रमण

रूस और ब्रिटेन में कोविड-19 के नए मामलों में वृद्धि की खबर के बाद अब चीन के शहर लानझोऊ में लॉकडाउन की वापसी कुछ चिंतित करने वाली है। लगभग 40 लाख की आबादी वाले लानझोऊ में मंगलवार से पूर्णबंदी लागू कर दी गई। इधर भारत में भी पश्चिम बंगाल में नए मामलों में वृद्धि को दुर्गा पूजा के दौरान लोगों द्वारा बरती गई असावधानी से जोड़कर देखा जा रहा है। गौरतलब है कि चीन हो या भारत, दोनों देश अपने-अपने यहां 100 करोड़ से अधिक खुराक दे चुके हैं और दोनों जगह पिछले कई हफ्तों से नए मामलों में उतार का क्रम देखा जा रहा था। ऐसे में, कुछ इलाकों में यदि नई बढ़ोतरी दिख रही है, तो स्थानीय प्रशासन के साथ-साथ केंद्रीय नियंत्रण बोर्ड को भी अतिरिक्त चौकसी बरतनी पड़ेगी।

एक लंबे त्रासद अनुभव के बाद दुनिया भर में जिंदगी आहिस्ता-आहिस्ता अपनी लय में लौट रही है। देश की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ आम आदमी की माली हालत भी अब और अधिक पाबंदी झेल सकने की स्थिति में नहीं है, यह देखते हुए ही भारत सरकार ने भी देश में लगभग सभी गतिविधियों को शुरू करने की इजाजत दी। हालांकि, स्वास्थ्य विशेषज्ञ और सरकार, स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार आगाह करते रहे हैं कि अभी कोरोना खत्म नहीं हुआ है, इसलिए किसी तरह की सार्वजनिक लापरवाही या प्रशासनिक उदासीनता घातक हो सकती है। इसमें कोई दोराय नहीं कि 100 करोड़ टीके की उपलब्धि और दैनिक मामलों के लगातार 20 हजार के नीचे बने रहने से देश के लोगों में सुरक्षा बोध गहरा हुआ है। लेकिन जिस तरह से लानझोऊ में डेल्टा वेरिएंट ने विषम परिस्थिति पैदा की है, वह आंखें खोलने के लिए काफी है। फिर इस वायरस की प्रकृति को लेकर भी वैज्ञानिक अभी तक अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं।
भारत के लिए अभी अतिरिक्त सावधानी इसलिए भी जरूरी है कि यह त्योहारी मौसम है। दिवाली, छठ, क्रिसमस जैसे बड़े पर्व-त्योहार आने वाले हैं और इस दौरान बड़े पैमाने पर भीड़भाड़ की आशंका होगी। हम पिछले कई अवसरों पर देख चुके हैं कि सार्वजनिक आयोजनों के बाद अचानक मामले बढ़ गए और मजबूरी में कई आयोजन रद्द करने पड़े। इसलिए यह समय जोश और होश के सही संतुलन का है। उत्साह में कोई कमी लाए बगैर थोड़ी सी सजगता से त्योहारों का लुत्फ उठाया जा सकता है। लेकिन इन दिनों बाजारों में जो भीड़ दिख रही है, उसमें कई सारे लोगों को बिना मास्क के देखा जा सकता है। ऐसे लोगों को एक तथ्य याद दिलाने की जरूरत है कि वैक्सीन बनाने वाली किसी भी कंपनी ने शत-प्रतिशत सुरक्षा का दावा नहीं किया है। निस्संदेह, पूर्ण टीकाकरण वायरस के बहुत घातक असर से हमें एक सुरक्षा कवच देता है। लेकिन किसी भी आशंका को निर्मूल करने का एकमात्र रास्ता अभी कुछ माह तक एहतियात बरतना ही है। ऐसे भी ब्योरे मिले हैं कि करोड़ों की तादाद में लोग अपनी दूसरी खुराक लेने नहीं पहुंचे। यह खतरनाक प्रवृत्ति है, जो इस महा-अभियान के लक्ष्य को गंभीर चोट पहुंचा सकती है। इसलिए, राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन को मुस्तैदी के साथ पूर्ण टीकाकरण सुनिश्चित करना होगा। खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड की सरकारों को अधिक सावधानी बरतनी होगी, क्योंकि वहां बड़ी संख्या में दूसरे प्रदेशों से लोग दीपावली-छठ मनाने पहुंचेंगे।

 

4. सेहत के संकल्प

कोरोना संकट ने देश के चिकित्सातंत्र की क्षमताओं, सीमाओं और खामियों को आईना दिखाया है। यह संकट अभी पूरी तरह से टला नहीं है तो ऐसे में हमें सतर्क रहने के साथ ही दूरगामी रणनीतियों के साथ आगे बढ़ना होगा। आने वाले समय में ऐसी नई महामारियों की चेतावनी विश्व स्वास्थ्य संगठन विगत में दे चुका है। ऐसे में अच्छा लगता है कि उत्तर प्रदेश में नौ मेडिकल कॉलेजों का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। इन मेडिकल कालेजों के निर्माण में 2,329 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। देश के सबसे बड़े राज्य उ.प्र. की आबादी के नजरिये से इस पहल का स्वागत तो किया जाना चाहिए, लेकिन यह पर्याप्त नहीं हैं। ऐसे वक्त में जब उ.प्र. विधानसभा चुनाव में चंद महीने रह गये हैं तो इस मौके के राजनीतिक निहितार्थों पर चर्चा भी होगी। लेकिन चिकित्सा जैसे गंभीर विषय को राजनीति से अलग रखना चाहिए। केंद्र व योगी सरकार की प्राथमिकता पूर्वांचल का इलाका है। लेकिन एक हकीकत यह भी है कि यह इलाका लंबे समय से दिमागी बुखार और अन्य चिकित्सा चुनौतियों से जूझता रहा है। वैसे भी जब किसी इलाके में कोई मेडिकल कालेज खुलता है तो स्थानीय लोगों को समय पर उपचार तो मिलता ही, क्षेत्र में रोजगार की शृंखला का भी विस्तार होता है। फिर क्षेत्र के लोगों को उपचार के लिये लखनऊ और दिल्ली के धक्के नहीं खाने पड़ेंगे। यह इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि कोरोना काल में निजी अस्पतालों ने जिस तरह मरीजों को उलटे उस्तरे से मूंड़ा, उसे देखते हुए सरकारी चिकित्सातंत्र का विस्तार व मजबूती बेहद जरूरी हो जाती है। यह सुखद है कि इससे देश के सबसे बड़े राज्य की चिकित्सा सुविधा में ढाई हजार बिस्तर और जुड़ जायेंगे। मोदी सरकार के दौरान देश में 157 मेडिकल कालेज खुलने व मंजूरी मिलना सुखद ही है। देश के हर जिले में मेडिकल कालेज खोलने की केंद्र सरकार की पहल सराहनीय है।

यह अच्छी बात है कि देश के आम आदमी का भरोसा सरकारी चिकित्सातंत्र पर कायम है। सरकारी मेडिकल कालेज कम फीस में डॉक्टर तैयार करते हैं। वे सेवा भाव से मरीजों के उपचार के लिये निकलते भी हैं। सरकारी अस्पतालों में उपचार भी किफायती दरों में मिलता है। वहीं जब निजी मेडिकल कालेजों में मोटी रकम देकर डॉक्टर तैयार होते हैं तो चिकित्सक बनने के बाद उन्हें अपनी फीस की उगाही के साथ मोटे मुनाफे की भी आकांक्षा होती है। ऐसे में ज्यादा सरकारी मेडिकल कालेजों का बनना किसी भी राज्य के लोगों के लिये जीवन सुरक्षा का भरोसा जैसा ही है। वहीं सिर्फ मेडिकल कालेज खोलना ही मकसद नहीं होना चाहिए, वहां योग्य चिकित्सा विशेषज्ञ और आधुनिक चिकित्सा सुविधाएं भी हों। तभी योग्य डॉक्टर समाज को मिल पायेंगे। हालांकि, महामारी के दौर में केंद्र सरकार ने देश के चिकित्सा बजट में बढ़ोतरी की है लेकिन बड़ी आबादी व आर्थिक विसंगतियों वाले देश में बजट में अधिक वृद्धि की जरूरत है। सोमवार को ही प्रधानमंत्री ने आयुष्मान भारत हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर मिशन का शुभारंभ किया। अगले पांच वर्ष के लिये इस योजना में 64,180 करोड़ रुपये खर्च होंगे, जिसके अंतर्गत शहरी-ग्रामीण इलाकों में गहन स्वास्थ्य सुरक्षा सुविधाओं व प्राथमिक देखरेख से जुड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य संरचना की खामियों को दूर किया जायेगा। फिलहाल योजना दस राज्यों के ग्रामीण स्वास्थ्य व कल्याण केंद्रों का उन्नयन करेगी। निस्संदेह यह देश में चिकित्सा के बुनियादी ढांचे में सुधार की सबसे बड़ी पहल है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के मुकाबले डॉक्टर व मरीज के अनुपात को न्यायसंगत बनाने और मूलभूत चिकित्सा सुविधाएं समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने के लिये अभी बहुत कुछ करना बाकी है। कोरोना काल में जो विसंगतियां आयुष्मान भारत जैसी महत्वाकांक्षी योजना में सामने आई उन पर भी मंथन करने की जरूरत है। इस बात का विश्लेषण हो कि कोरोना काल में निजी अस्पतालों ने इस योजना के तहत कितने मरीजों को लाभ दिया। लोकलुभावनी महत्वाकांक्षी योजनाओं का मूल्यांकन भी जरूरी है कि आम लोगों को योजना का लाभ कितनी सहजता-सरलता से मिला, जिसके लिये सतर्क निगरानी तंत्र बनाने की भी जरूरत है। 

 

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