इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.कोरोना के फंदे
लगातार चौदह महीनों में ‘जान है तो जहान है’ जैसे आदर्श नारे बूढ़े हो गए और मातम की एक वजह आर्थिकी भी हो गई। कुछ इसी आशय की एक खबर सुजानपुर के एक बेरोजगार ड्राइवर के इर्द गिर्द घूमती हुई उसकी मजबूरियों का फंदा इतना कस देती है कि चालीस वर्षीय सुरेश कुमार इसके भीतर आत्महत्या कर लेता है। यह बेरोजगारी की आग है जिसे आर्थिक सिसकियों के आंगन ने हवा दी है। किसी टैम्पो का संचालन केवल पगार नहीं, परिवार संवारता है। सुरेश कुमार ने पगार, परिवार और परिस्थितियों को कठिन होते देख एक गलत कदम उठाया, लेकिन कोरोना अब हादसों का वीभत्स अध्याय रच रहा है। कोरोना के फंदे में विध्वंस के सारे सबूत एकत्रित किए जाएं, तो जनता से सरकारों तक खुद को बचाने की अनेक चुनौतियां दरपेश हैं। यह एक लंबी बहस है कि देश की राजनीतिक कसरतों ने कोरोना काल को फंदों का बहाना दे दिया। विज्ञान की प्रयोगशालाओं से उलझता इनसानी फितूर और सत्ता की एेंठन में फटती हिदायतों का कसूर यह रहा कि आज फिर किसी बेरोजगार के जीने का अधिकार छीन लिया।
यह भयानक स्थिति है और ऐसे कई सुरेश कुमार इसलिए खुद में प्रश्नचिन्ह बने हैं, क्योंकि चौदह महीनों की सावधानियां और प्रबंधन फिर से राख हो रहा है। फिर वही कर्फ्यू का जल्लाद कोरोना को रोकेगा, भले ही इसकी कीमत में कुर्बानियां लिखी जाएं। कमोबेश हर व्यवसाय का संतुलन नहीं बिगड़ा, बल्कि सारी क्षमता, अभिलाषा, उम्मीद व सामर्थ्य भी डूब गया। दिहाड़ी और हुनर पर टिका रोजगार ही नहीं, बल्कि निजी क्षेत्र की क्षमता से उभरा क्षितिज पूरी तरह ध्वस्त हो गया। हिमाचल की एक छोटी सी दुकान औसतन दो से तीन परिवार पालती है। एक निजी बस या टैक्सी कितने ही परिवारों का संबल बनती है। फूलों की नर्सरियां पिछले साल भी अपने चरम पर सूखीं थीं और इस बार भी फूलों की खेती ने अनगिनत जिंदगियों में कांटे भर दिए। कुल्लू की मंडियों में उतर रही सब्जियों की खेप अगर दाम नहीं वसूल पा रही या कांगड़ा का आलू पहली बार गच्चा खा गया, तो कृषि उत्पादन लागत का खामियाजा न जाने कितने परिवारों के चूल्हे को सदमा देगा। आर्थिक फंदों में निजी क्षेत्र का रोजगार अगर किस्तों में भी कुछ कर पा रहा है, तो सरकार को इसकी मंदी का संज्ञान लेना चाहिए, क्योंकि लगातार लॉकडाउन से कर्फ्यू तक की परिस्थितियों ने सरकारी बनाम निजी नौकरी के बीच एक वर्ग के नाम गहरी होती खाई को घातक बना कर छोड़ दिया है। सुजानपुर के सुरेश कुमार की तरह बेरोजगार हो रहे हुनरमंद आर्थिक खाई में न कूदें, इसके लिए कभी तो सरकारों को प्रयास करने होंगे।
जाहिर तौर पर सरकारों का राजनीतिक अस्तित्व भी कोरोना के फंदे में है। उत्तर प्रदेश सहित अन्य चार राज्यों(उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर व गोवा) के चुनाव फरवरी-मार्च में होने है, अतः इस बार केंद्र में भाजपा के लिए यह सबसे बड़ा मोर्चा होगा। दूसरी ओर अगले साल का अंत गुजरात और हिमाचल में भी चुनावी पसीना बहाएगा। ऐसे में हिमाचल सरकार भी अब कोरोना के फंदे में एक ओर सुशासन, विकास और कर्त्तव्यपरायणता का सबूत बन कर रहेगी, तो दूसरी ओर महामारी के बीच गुम होती राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को बचाए रखने का दस्तूर भी रहेगा। कहना न होगा कि वर्तमान जयराम सरकार के हिस्से इस बार केंद्र का अभूतपूर्व प्रश्रय तथा राज्य में पार्टी का उल्लेखनीय सौहार्द रहा, लेकिन उम्मीदों की राजनीतिक उड़ान कोरोना के फंदे में है। ऐसे में मिशन रिपीट की अभिलाषा में यह सरकार अपना रिपोर्ट कार्ड अगर बेहतर करना चाहती है, तो इसे कोरोना के सामने सुशासन व प्रबंधन के सारे पत्ते मजबूत करने पड़ेंगे। यह अवसर है कि सरकार कोरोना के बहाने स्वास्थ्य मशीनरी की पूरी तरह आयलिंग करके यह साबित कर दे कि आपदा में अवसर क्या होता है। विडंबना यह है कि आपदा में राजनीतिक अवसर बटोरने की गलती पक्ष और विपक्ष एक जैसी ही कर रहे हैं, जबकि जनता के प्रश्न कोरोना के चंगुल से मुक्ति चाहते हैं।
2.बाबा रामदेव बनाम एलोपैथी
एलोपैथी ‘स्टुपिड’ और ‘दिवालिया’ साइंस है। डॉक्टर टर्र टर्र करते रहते हैं। उनका बाप भी स्वामी रामदेव को गिरफ्तार नहीं कर सकता। ये तीनों वाक्य किसी संभ्रांत व्यक्ति के बोले नहीं हो सकते। कमोबेश बाबा रामदेव जैसी शख्सियत से तो अपेक्षा नहीं की जा सकती। बाबा ने यह भी कहा है कि कोरोना टीका लगने के बावजूद 10,000 डॉक्टरों की मौत हो गई। यह कहकर बाबा ने टीकाकरण अभियान को ही बदनाम किया है और महामारी कानून का उल्लंघन भी किया है। कमोबेश यह देशहित का कथन नहीं है। बाबा यह कहने से भी नहीं चूके कि लाखों लोगों की मौत एलोपैथी दवाएं खाने से हुई है। एलोपैथी में गंभीर बीमारियों का स्थायी इलाज नहीं है, जबकि बाबा रामदेव ने ऐसी बीमारियों को ठीक करने का दावा किया है। बेशक उन्होंने हजारों, लाखों लोगों को आरोग्य दिया है। करीब 10 करोड़ लोगों को योग भी सिखाया है। यकीनन आयुर्वेद हमारी सनातन चिकित्सा पद्धति है, जो पुरखों के अनुभव से विरासत में हमें मिली है। बहरहाल बाबा रामदेव के तमाम दावे और प्रयोग अपनी जगह सही हो सकते हैं। बेशक वह योग के महत्त्वपूर्ण प्रवक्ता हैं, लेकिन कोरोना वायरस जैसी वैश्विक महामारी के मौजूदा दौर में आयुर्वेद और एलोपैथी के दरमियान अखाड़े सजाने की ज़रूरत क्या थी? एलोपैथी को गालियां देने और सवालिया करार देने का फिलहाल औचित्य क्या है? बेशक आयुर्वेद हमारी विरासत है, लेकिन मेडिकल साइंस ने निरंतर शोधों और प्रयोगों के जरिए जीवन-रक्षक दवाएं और सर्जरी मानव-सभ्यता को दी हैं।
इनसान को नया जीवन बख्शा है, लिहाजा डॉक्टर में हम ‘भगवान’ की छवि महसूस करते रहे हैं। कोरोना के 22 करोड़ से ज्यादा मरीजों को एलोपैथी इलाज ने स्वस्थ किया है। यह इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) का दावा है। यदि इनसान को दिल का दौरा पड़ा है या ब्रेन हैमरेज हुआ है अथवा गुर्दे, फेफड़े और लिवर में कोई नाजुक अंग खराब हो गया है या कैंसर तीसरे-चौथे चरण तक पहुंच गया है, तो ऐसी गंभीर बीमार अवस्थाओं में प्राणायाम और अनुलोम-विलोम इनसान की प्राण-रक्षा नहीं कर सकते। सिर्फ एलोपैथी में ही संभावनाएं हैं और सर्जरी अपरिहार्य हो जाती है। एलोपैथी के जीवन-रक्षक इलाज का उदाहरण तो खुद बाबा और उनके सहयोगी बालकृष्ण ही हैं। जब उनकी तबीयत बिगड़ी थी, तो एम्स में उनका इलाज कराया गया था। तब आयुर्वेद की कोई दवा और योग कारगर नहीं हो सकते थे। बेशक हम आयुर्वेद, होम्योपैथ, यूनानी और एलोपैथ आदि सभी चिकित्सा पद्धतियों के समर्थक हैं। उनके अपने-अपने अनुभव और इलाज हैं, लेकिन कोरोना टीके के अनुसंधान और मानव-जीवन की रक्षा का श्रेय आधुनिक मेडिकल साइंस को ही जाता है। वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने निरंतर शोध और प्रयोगों के जरिए महामारी के विषाणु को निरस्त करने में सफलता हासिल की है। टीके के प्रभाव 70-90 फीसदी तक हैं। कुछ कंपनियों ने 100 फीसदी प्रभावों का दावा किया है, लेकिन कोरोना के दौर में इनसान के जिंदा रहने की एकमात्र संभावना टीके में ही निहित है। फिर किस आधार पर बाबा रामदेव ने एलोपैथी को ‘स्टुपिड’ और ‘दिवालिया’ साइंस करार दे दिया अथवा किसी अन्य के कथन की सार्वजनिक पुष्टि की है? बाबा ने एलोपैथी या आयुर्वेद में ही कितनी शिक्षा प्राप्त की है? गुरुकुल के आचार्य को ‘डॉक्टर’ नहीं माना जा सकता।
बाबा का चिकित्सकीय पेशेवर अनुभव भी क्या है? योग, ध्यान आदि भी उनकी बपौती नहीं हैं। गुजरात के प्रख्यात योगाचार्य अध्यात्मानंद की मौत भी कोरोना से हुई है। मौत तो निश्चित है, लिहाजा डॉक्टर भी इस महामारी के शिकार हुए हैं, लेकिन अस्पतालों में डॉक्टर भी योगासनों की अनुशंसा करते रहे हैं। यह हमारा अपना अर्जित अनुभव है। यह अब छोटा विवाद नहीं रहा है। आईएमए ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखकर बाबा रामदेव के खिलाफ देशद्रोह का केस चलाने की मांग की है। आईएमए ने 1000 करोड़ रुपए मानहानि का नोटिस भी बाबा को भेजा है। देश के अलग-अलग हिस्सों में प्राथमिकी दर्ज कराने के मद्देनजर शिकायतें दी जा रही हैं। देश के स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन, उनके मंत्रालय और भारत सरकार के औषध महानियंत्रक की साख सवालिया हुई है। हासिल क्या हुआ? बाबा साबुन, शैम्पू, मसालों से लेकर आटा और असंख्य औषधियों तक उत्पादन करवा रहे हैं। उनके पतंजलि योगपीठ में डॉक्टर और वैज्ञानिक भी हैं। बाबा अपने व्यापार और योग पर ध्यान दें। एलोपैथी को कोसने से धंधा बढ़ेगा क्या?
3.सावधानी के साथ छूट
कोरोना की दूसरी लहर के चलते पूरे देश में इस वक्त लॉकडाउन और अन्य पाबंदियां लागू हैं। जैसे-जैसे इस लहर की भयावहता में कमी आ रही है और कोरोना संक्रमण व उससे होने वाली मौतों की संख्या घट रही है, तमाम राज्य अब पाबंदियों में ढील देने की सोच रहे हैं। कुछ राज्यों ने 1 जून से रियायतें देने का एलान कर दिया है। बहुत सारे राज्यों में अभी ऐसी घोषणा नहीं हुई है, मगर होने की उम्मीद है। इस लहर का अनुभव इतना दहला देने वाला रहा है कि सरकारें बहुत सावधानी से कदम उठाना चाहती हैं। अच्छा होगा कि यह सावधानी लंबे दौर तक बरकरार रहे। पिछले एक साल में ऐसा अनुभव कई बार हुआ कि जब-जब लापरवाही बरती गई, उसके बाद कोरोना के मामले तेजी से बढ़ गए ।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आगामी 1 जून से लॉकडाउन में ढील देने और कुछ आर्थिक गतिविधियों को फिर शुरू करने की घोषणा की है। निर्माण गतिविधियों को तुरंत शुरू करने की वजह यह है कि इनमें बडे़ पैमाने पर प्रवासी मजदूर काम करते हैं और कोई नहीं चाहेगा कि वे फिर पिछले साल वाली पीड़ा से गुजरें। पिछले साल का सख्त पूर्ण लॉकडाउन और उसके बाद का दौर रोज खाने-कमाने वाले लोगों पर इतना मुश्किल गुजरा कि इस बार कोरोना का कहर पिछले साल के मुकाबले बहुत ज्यादा होने के बावजूद वैसा लॉकडाउन लगाने का इरादा किसी ने जाहिर नहीं किया। यह अच्छा है कि इस बार लॉकडाउन लगाने या अन्य निषेधात्मक उपाय करने का अधिकार राज्यों के पास था, ताकि वे स्थानीय जरूरतों के हिसाब से फैसला कर सकें और अब बंदी में छूट देने का फैसला भी वे अपनी परिस्थिति के मुताबिक कर रहे हैं। दिल्ली के अलावा मध्य प्रदेश ऐसे राज्यों में शामिल था, जहां कोरोना का कहर सबसे ज्यादा बरपा है और अब वहां भी स्थिति कुछ संभली है। ऐसे में, मध्य प्रदेश सरकार ने भी कुछ आर्थिक गतिविधियों को शुरू करने की अनुमति देने का फैसला किया है। राजस्थान सरकार ने भी 1 जून से धीरे-धीरे पाबंदियां घटाने की घोषणा की है। उत्तर प्रदेश में भी कुछ छूट मिलने की संभावना है। महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि जिन जिलों में अब कोरोना संक्रमण की दर कम है, वहां छूट देने पर विचार किया जा सकता है। संभव यही है कि अगले हफ्ते से लगभग सारे देश में पाबंदियां हटनी शुरू हो जाएंगी।
सारे राज्य बहुत धीरे-धीरे पाबंदियां उठाने के पक्ष में हैं, इसकी वजह से कोरोना संक्रमण की रफ्तार थमेगी। लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि कोरोना की रफ्तार पर काबू तभी होता है, जब सरकार और लोग साथ-साथ सावधानियां बरतें। इस साल की शुरुआत से ही लोगों ने कोरोना से जुड़ी सावधानियों को औपचारिकता मात्र बना दिया था, बल्कि बहुत सी जगहों पर यह औपचारिकता भी नहीं बची थी। जब कोरोना की दूसरी लहर आई, तब सरकारों ने पाबंदियां लगाईं और लोगों ने अपना व्यवहार बदला, मास्क पहनने और शारीरिक दूरी बरतने को गंभीरता से लेना शुरू किया, जिसके नतीजे में अब संक्रमण के मामले घटे हैं। इसलिए यह याद रखना जरूरी है कि घूमने-फिरने व कामकाज करने की हमारी आजादी लगातार सावधानी बरतने से जुड़ी है। इसके अलावा, वैक्सीनेशन के दायरे को युद्ध-स्तर पर बढ़ाने की जरूरत है। तभी तीसरी लहर की डरावनी आशंका से मुक्ति संभव है।
4.निजता और शिकंजा
राष्ट्रीय हित व अभिव्यक्ति की आजादी के द्वंद्व
देश में नये आईटी कानून लागू होने के बाद निजता के सवाल की बहस ने लोगों का ध्यान खींचा है। गत पच्चीस फरवरी को घोषित आईटी कानूनों को सरकार ने तीन माह में लागू करने की घोषणा की थी तथा सोशल मीडिया कंपनियों से निर्धारित जानकारी मांगी थी। लंबे समय से भारत के व्हाट्सएप उपभोक्ताओं की निजी जानकारी व्यापारिक उपयोग के लिये हासिल करने के लिये दबाव बनाने वाली सोशल मीडिया कंपनी इन नये कानूनों को निजता के अधिकार का हनन बताते हुए अब दिल्ली हाईकोर्ट चली गई है। दुनिया में सत्ता को बनाने व बिगाड़ने के खेल में शामिल ये कंपनियां दरअसल निरंकुश व्यवहार के लिये जानी जाती हैं। बताया जाता है कि इस साल जनवरी में फेसबुक व टि्वटर डोनाल्ड ट्रंप को हटाने की मुहिम में एकजुट हो गए थे। कई विवादों के चलते फेसबुक के मुखिया को अमेरिकी सीनेट में तलब भी किया गया था। बाइडेन प्रशासन भी अब इन कंपनियों को जवाबदेह बनाने की मुहिम में जुटा है। अमेरिका में इन भीमकाय कंपनियों को छोटे उद्यमों में बदलने की मांग हो रही है। निजता के अधिकारों की दलील देने वाले फेसबुक पर विगत में उपभोक्ताओं का डाटा व्यावसायिक उपयोग के लिये बेचने के भी आरोप लगे थे। ऐसे वक्त में जब चीन ने इन कंपनियों पर रोक लगाकर अपना सोशल मीडिया विकसित कर लिया है तो अमेरिका व यूरोप से बड़े बाजार व बड़ी जनसंख्या वाला भारत इनके व्यावसायिक हितों के निशाने पर है। निस्संदेह भारत कोई खाला का घर नहीं है कि ये भीमकाय कंपनियां निजता व लोकतांत्रिक अधिकारों की दलीलों के साथ व्यावसायिक हितों को अंजाम दें। भारत में पहले आईटी कानून लचर थे और इन कंपनियों के निरंकुश व्यवहार पर नियंत्रण करने व जवाबदेही तय करने में सक्षम नहीं थे। इन नये कानूनों के खिलाफ व्हाट्सएप अदालत चला गया है तो टि्वटर ने कहा है कि वह उन कानूनों में परिवर्तन का समर्थन करता रहेगा, जो स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति में बाधक हैं।
वहीं सरकार अपने स्टैंड पर कायम है, उसका कहना है कि वह निजता के अधिकार की पक्षधर है लेकिन कोई भी अधिकार निरंकुश व पूर्ण नहीं होता। साथ ही यह भी कि एंड-टू-एंड एनक्रिप्शन भंग होने की दलीलें हर आम उपभोक्ता के बाबत नहीं है। सरकार की दलील है कि यह कानून केवल उन परिस्थितियों में लागू होगा जहां राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति तथा शांति भंग होने से जुड़े मामले सामने होंगे। निस्संदेह जब देश में सांप्रदायिक सौहार्द भंग करने और देश विरोधी मामलों में फर्जी खबरों का उफान तेजी पर है तो खबर फैलाने वाले मूल स्रोत तक पहुंचना जरूरी भी है। निस्संदेह, जवाबदेही व जिम्मेदारी तो जरूरी है लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि कहीं सरकार का व्यवहार निरंकुश न हो जाये और वह निजता व अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश न लगाने लगे क्योंकि कौन-सी खबर आपत्तिजनक है, इसका निर्धारण भी तो सरकार के अधिकारी ही तय करेंगे। इससे जुड़ी दूसरी चिंता यह भी है कि ये कानून मीडिया संस्थानों के डिजिटल एडीशनों पर भी लागू होंगे, जिसमें पाठक अपनी प्रतिक्रिया देते रहते हैं, जिसे अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन सरकार इन कानूनों पर किसी तरह पीछे हटती नहीं दिख रही है। सरकार को इससे जुड़ी तमाम आशंकाओं का सार्वजनिक रूप से निराकरण करना चाहिए। बहरहाल, सरकार ने सोशल मीडिया कंपनियों से नियमों के पालन की स्टेटस रिपोर्ट मांगी है। दरअसल, सरकार ने नयी गाइडलाइन के हिसाब से सोशल मीडिया कंपनियों को भारत में चीफ कॉम्प्लायंस अफसर, नोडल कॉन्टेक्ट पर्सन और रेसिडेंट ग्रेवांस अफसर की नियुक्ति करने को कहा था, ताकि सोशल मीडिया पर प्रसारित आपत्तिजनक सामग्री के बाबत जानकारी व कार्रवाई के बाबत पूछा जा सके। ये अधिकारी भारत में रहने वाले होने चाहिए, जिनसे उपभोक्ता संपर्क कर सकें। साथ ही पंद्रह दिन में शिकायत का निस्तारण कर सकें। नये कानून के दायरे में मूल कंपनी व सहायक कंपनी भी आती है, जिन्हें कंपनी के एप का नाम, वेबसाइट और सर्विस से जुड़ी जानकारी उपलब्ध कराने को कहा गया है।