इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.बिना परीक्षा अगला मुकाम
कोरोना काल में फंसी बारहवीं की परीक्षा अंततः खारिज हो गई। एक लंबी अनिश्चितता में फंसे छात्रों के जीवन का अति महत्त्वपूर्ण अध्याय इस तरह अब परिणाम की प्रक्रिया में कुछ जटिलता भरे प्रश्नों का उत्तर पा सकता है, फिर भी बच्चों के भविष्य का यह उतार-चढ़ाव यकीनन मानसिक दबाव का सबब बना रहेगा। केंद्र सरकार ने सीबीएसई व आईसीएसई परीक्षाओं की औपचारिकता को एक तरह से निष्प्रभावी बना दिया,लेकिन अगला प्रश्न मूल्यांकन पद्धति की रचना का है। इसी के साथ राज्यों के शिक्षा बोर्ड किस तरह चलते हैं या इसी का अनुपालन करते हैं, यह भी देखना होगा। कुछ राज्य शिक्षा बोर्ड परीक्षा के अभियान में उतरने का संकेत दे चुके हैं, इसलिए राष्ट्रीय सहमति से अब एक जैसी परीक्षा मूल्यांकन पद्धति अमल में लाई जानी चाहिए, ताकि हर बोर्ड और हर राज्य के छात्र राष्ट्रीय स्तर पर, भविष्य के लिए न्यायोचित और एक समान उड़ान भर सकें। हिमाचल में इसकी पूरी संभावना है कि करीब डेढ़ लाख छात्र बिना परीक्षा दिए अगले मुकाम तक पहुंच जाएंगे।
इससे पहले दसवीं कक्षा के लिए भी सीबीएसई के साथ हिमाचल स्कूल शिक्षा बोर्ड चला था, लिहाजा अब करियर की भागदौड़ में छात्रों को बिना परीक्षा दिए अपने भविष्य के दीये जलाने पड़ेंगे। हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने तीव्रता से केंद्र सरकार का अनुसरण करते हुए जमा दो की परीक्षा रोक दी है, लेकिन देखना यह होगा कि कालेज परीक्षाओं के बारे में अगला कदम क्या लिया जाता है। पिछले सत्र से कोरोना महामारी में फंसी शिक्षा अभी मुक्त नहीं हुई है, फिर भी छात्रों की एक सीढ़ी को निश्चित रूप से रास्ता मिला होगा। शिक्षा क्षेत्र अब घर की शरण और अभिभावकों व छात्रों की निजी क्षमता का ऐसा आरोहण है, जो स्वविवेक को निर्धारित कर रहा है। इस दौरान ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली के आसरे सारा देश शिक्षा के अर्थ ढूंढ रहा है। यह स्वयं में विकास है जो आगे चलकर वर्तमान जरूरत से कहीं आगे निकलकर एक नई परिपाटी के रूप में स्वीकार होगा। अतीत में पढ़ाई के तरीकों और स्कूल प्रबंधन की कसौटियों में शिक्षा का निजीकरण जिस व्यापकता से हुआ, क्या अब ऑनलाइन पढ़ाई इस चक्र को बदल देगी। कम से कम हिमाचल के परिदृश्य में यह हलचल बढ़ी है और सबसे अधिक निजी स्कूलों के प्रचलन में आगे चल रहे हमीरपुर जिला में भी छह हजार से अधिक छात्रों ने सरकारी स्कूलों की राह पकड़ ली है। कमोबेश यही स्थिति कांगड़ा से शिमला और सिरमौर से किन्नौर तक के अभिभावकों के मन में उथल पुथल मचा रही है। कोरोना काल ने न शिक्षा के नए पैगंबर छोड़े और न ही पैबंद बरकरार रहे और अब बिना औपचारिक परीक्षा आ रहे परिणामों ने छात्र समुदाय के आसपास ऐसी खुली हवाएं पहुंचा दीं हैं, जो भविष्य की शिक्षा पर अपना प्रभाव डालेंगी।
देखना यह होगा कि ऑनलाइन शिक्षा के क्षितिज पर शिक्षा विभाग किस तरह खुद को रेखांकित करता है। हिमाचल के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा विभाग को इस तैयारी को मुकम्मल करते हुए, ऑनलाइन पढ़ाई के कक्ष में सरकारी स्कूल और शिक्षकों को इस नवाचार का वास्तव में गुरु बनाना होगा। यह अवसर है कि पाठ्यक्रम की शैली में शिक्षा के वृतांत सीधे छात्रों को प्रेरित-प्रोत्साहित व संवाद को आगे बढ़ाएं। घर में बैठे छात्रों के मुगालते किसी अदृश्य संसार में भटक न जाएं, यह सबसे बड़ी चुनौती है। शिक्षा विभाग को छोटी कक्षाओं के अभिभावकों खासतौर पर माताओं के लिए ऑनलाइन पढ़ाई के स्पष्ट दिशा-निर्देश व प्रशिक्षण टूल किट तैयार करनी होगी। इसके अतिरिक्त स्कूल व शिक्षा बोर्ड भी इस कालअवधि में, खुद को ऑनलाइन अकादमी के विकल्प में संस्थागत परिवर्तन लाकर, अतिरिक्त क्लासें चला सकता है। बहरहाल परीक्षा के भंवर से कुछ तिनके हटे हैं बाकी मूल्यांकन की पद्धति से ही पता चलेगा कि छात्र जीवन की यह करवटें किस तरह हल होंगी।
2.बर्बादी के बावजूद लक्ष्य!
देश में कोरोना के औसतन 6.3 फीसदी टीके बर्बाद कर दिए जाते हैं। झारखंड में करीब 37 फीसदी टीके बर्बाद किए गए हैं, तो छत्तीसगढ़ में यह औसत 31 फीसदी से ज्यादा है। तमिलनाडु में संक्रमित मरीजों के आंकड़े अभी तक डराते रहे हैं, लेकिन वहां भी 15 फीसदी से अधिक टीके बर्बाद किए गए हैं। जम्मू-कश्मीर और मध्यप्रदेश सरीखे क्षेत्रों में करीब 11 फीसदी टीके बेकार कर दिए गए हैं। राजस्थान में तो लापरवाही अपनी पराकाष्ठा छू गई है, जहां कोरोना टीके की 500 शीशियां कूड़ेदान में पाई गईं। उन शीशियों में औषधि शेष थी, जो किसी भी व्यक्ति के लिए ‘संजीवनी’ साबित हो सकती थी। यकीनन यह आपराधिक लापरवाही है। टीके की बर्बादी कई और राज्यों में भी हुई है अथवा की गई है। इसकी नैतिक और प्रशासनिक जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। एक ओर बर्बादी है, तो दूसरी तरफ केरल के मुख्यमंत्री पी.विजयन ने 11 गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा है कि एकजुट होकर केंद्र सरकार पर दबाव बनाया जाए और लगातार आग्रह किया जाए कि सभी नागरिकों को कोरोना टीका मुफ्त में मुहैया कराया जाए। इस पत्र में भी राजनीति निहित है और विपक्ष अपने को लामबंद करते हुए भविष्य की ताकत बनने पर आमादा दिखाई देता है। फिलहाल हकीकत बहुत दूर है। बहरहाल किसी भी पत्र में विपक्ष ने टीकों की बर्बादी का सरोकार नहीं जताया है। मुफ्त टीके की मांग मुख्यमंत्रियों से लेकर कांग्रेस सांसद राहुल गांधी तक करते रहे हैं। यह हास्यास्पद आग्रह है, क्योंकि केंद्र सरकार ने राज्यों को अभी तक जो करीब 23 करोड़ खुराकें दी हैं, वे बिल्कुल निःशुल्क ही थीं। यह आलेख लिखने तक 21 करोड़ 85 लाख 46,667 खुराकें लोगों को दी जा चुकी हैं और कई राज्य सरकारों के पास खुराकें अभी शेष हैं, लेकिन टीके की लगातार मांग करना भी राजनीति है, ताकि उससे आभास होता रहे कि टीकों की किल्लत है।
टीके का विकेंद्रीकरण भी विपक्षी नेताओं के बार-बार आग्रह पर किया गया। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी समेत कई विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखे थे कि कोरोना टीकों की खरीद और वितरण राज्य सरकारों के सुपुर्द किया जाए। अकेली केंद्र सरकार के अधीन पूरी खरीद और आवंटन नहीं होना चाहिए। अब झारखंड और ओडिशा के मुख्यमंत्रियों ने प्रधानमंत्री से गुहार करनी शुरू की है कि टीकों का मामला भारत सरकार ही देखे। इसमें कुछ और विपक्षी नेताओं की आवाज़ भी शामिल हो सकती है। अब विपक्ष चाहने लगा है कि केंद्र ही टीकों का बंदोबस्त करे, खरीद भी करे और राज्य सरकारों को मुहैया कराए। यदि ऐसी केंद्रीकृत व्यवस्था दोबारा लागू हो जाएगी, तो फिर टीकों की किल्लत, कम खुराकों का आवंटन, भाजपा बनाम गैर-भाजपा, टीकाकरण केंद्रों की तालाबंदी सरीखे मुद्दों पर विपक्ष का रुख क्या रहेगा? क्या फिर भी वे चिल्ल-पौं करते रहेंगे? केंद्र सरकार बार-बार आंकड़े जारी कर देश को भी ब्रीफ करती रही है कि राज्यों के पास अब भी 1.57 करोड़ खुराकें शेष हैं। वे टीकाकरण जारी रखें, क्योंकि और खुराकें भेजी जा रही हैं। कमोबेश एक पक्ष तो झूठ बोल रहा है। केंद्र सरकार के तमाम आंकड़े स्वास्थ्य मंत्रालय की वेबसाइट पर मौजूद हैं और सर्वोच्च न्यायालय में भी दिए गए हैं।
टीकों की आपूर्ति लगातार जारी है, हालांकि इसकी गति मंथर जरूर है, क्योंकि टीकों का उत्पादन और उनकी उपलब्धता फिलहाल सीमित है। अपने देश की आबादी के आंकड़ों पर भी गौर करना चाहिए। ऐसे यथार्थ विपक्ष भी जानता है, फिर भी चीखता रहता है। कोरोना महामारी और टीकाकरण भी चिल्लाहट के मुद्दे हो सकते हैं? इन्हीं विरोधाभासों के बीच टीकाकरण का लक्ष्य रखा गया है कि जुलाई-अगस्त से एक करोड़ लोगों में हररोज़ टीकाकरण हो सकेगा, लिहाजा दिसंबर तक देश की अधिकतम आबादी टीकाकृत हो सकेगी। यह खूबसूरत लक्ष्य माना जा सकता है, लेकिन टीकों की बर्बादी, टीकों के कम उत्पादन और आधे-अधूरे ढांचे के कारण अक्तूबर तक 50 लाख लोगों में टीकाकरण का औसत लक्ष्य भी हासिल किया जा सका, तो बड़ी उपलब्धि होगी। फिलहाल रूसी टीके की 30 लाख खुराकों की नई खेप हैदराबाद में आई है। अमरीकी टीकों का आयात अभी तय नहीं है। कोविशील्ड और कोवैक्सीन अपने तय लक्ष्यों से कम उत्पादन कर रहे हैं। हमारा मानना है कि यदि मंथर गति से ही टीकाकरण की निरंतरता बरकरार रहे, तो 2022 के मध्य तक हमारा देश लगभग टीकाकृत हो चुका होगा। इस मुद्दे पर भद्दी राजनीति जरूर बंद होनी चाहिए।
3.तर्कसंगत मूल्यांकन हो
सीबीएसई ने 10वीं के बाद 12वीं की बोर्ड परीक्षा भी रद्द कर दी। इस बात की मांग बहुत सारे छात्र, अभिभावक और कई संगठन कर रहे थे, हालांकि इसके विरोध में भी काफी स्वर उठ रहे हैं। विरोधियों का मानना है कि कोरोना की लहर कमजोर पड़ रही है और शायद कुछ अरसे बाद परीक्षाएं हो सकती थीं। लेकिन जिस तरह का माहौल कोरोना की दूसरी लहर के चलते देश में बना है, उसमें सरकार ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती है, जिससे कोरोना के फैलने का जरा भी खतरा हो, इसलिए उसने सुरक्षित रहने में भलाई समझी। अब राज्य सरकारें भी अपने-अपने बोर्ड की परीक्षाओं पर फैसला कर रही हैं। कुछ राज्यों ने परीक्षाएं रद्द कर दी हैं, और हो सकता है कि बाकी भी जल्दी ही ऐसा करें।
परीक्षाएं रद्द होने से एक समस्या तो खत्म हो गई, लेकिन कुछ अन्य समस्याएं खड़ी हो गई हैं, जो कम जटिल नहीं। हमारी शिक्षा प्रणाली पूरी तरह परीक्षा केंद्रित है और उसमें भी बोर्ड परीक्षाओं का महत्व सबसे ज्यादा है। अब सबसे जटिल सवाल यह होगा कि इन परीक्षाओं का विकल्प क्या होगा? विकल्प भी ऐसा होना चाहिए, जो न्यायसंगत और सर्वमान्य हो। बोर्ड की परीक्षाओं से नौजवानों का भविष्य काफी हद तक तय होता है। 10वीं की परीक्षा के नतीजे से यह तय होता है कि छात्र आगे क्या पढ़ सकता है और 12वीं के नतीजे से यह तय होता है कि छात्र को आगे की पढ़ाई के लिए कहां दाखिला मिल सकता है। हमारे यहां शिक्षा में जिस कदर प्रतिस्पद्र्धा है, उसमें ये फैसले बहुत ज्यादा महत्व रखते हैं। बोर्ड की परीक्षा कोई बहुत अच्छी कसौटी नहीं है, और इस प्रणाली की आलोचना सभी शिक्षाविद करते हैं, लेकिन इसके विकल्प के बारे में कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया। अब महामारी ने अचानक यह संकट खड़ा कर दिया है। वैकल्पिक व्यवस्था में दिक्कतें बहुत हैं। 10वीं की परीक्षा की जगह स्कूल के आंतरिक मूल्यांकन के जरिये बच्चों को आंकने का एक पैमाना सीबीएसई ने बनाया है, जिसे दिल्ली हाईकोर्ट में एक संस्था ने चुनौती दी है। हाईकोर्ट ने इस सिलसिले में सीबीएसई, केंद्र और दिल्ली सरकार को नोटिस भेजा है। जो पैमाना बनाया गया है, उसमें स्कूल के आंतरिक मूल्यांकन के अलावा पिछले तीन साल की बोर्ड परीक्षाओं में स्कूल के नतीजों को भी ध्यान में रखा जाएगा। सीबीएसई का इसके पीछे यह विचार हो सकता है कि स्कूल अपने बच्चों को अंक देने में मनमानी न करें, इसलिए उनके पिछले तीन साल के नतीजों को भी एक मानक माना जाएगा। इसे अदालत में चुनौती देने वाली संस्था का कहना है कि यह बच्चों के साथ अन्याय है कि उनके प्रदर्शन को स्कूल व शिक्षकों के प्रदर्शन के आधार पर भी आंका जाए। एक मायने में यह तार्किक बात लगती है, क्योंकि सीबीएसई की परीक्षा में तो परीक्षार्थियों का अपना प्रदर्शन मायने रखता है। उनका स्कूल कैसा था या फिर स्कूल में उन्होंने क्या किया के बजाय एकमात्र कसौटी यही होती है कि परीक्षा के दिन उन्होंने अपनी उत्तर पुस्तिका में क्या लिखा। अब अगर स्कूल के औसत प्रदर्शन के आधार पर उनके अंक कम या ज्यादा होते हैं, तो यह उन्हें अन्यायपूर्ण लग सकता है। ऐसे कई सवाल और भी होंगे, जिनका न्यायसंगत हल निकालना जरूरी है, क्योंकि इस महामारी में बच्चे पहले ही बहुत भुगत चुके हैं, और फिर यह मसला तो सीधे उनके भविष्य से जुड़ा हुआ है।
4.वक्त का फैसला
जीवन अनमोल, शैक्षिक गुणवत्ता भी जरूरी
आखिरकार केंद्र सरकार ने सीबीएसई की बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं को रद्द करने का निर्णय ले ही लिया। निस्संदेह, कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर की भयावहता को देखते हुए अभिभावक अपने बच्चों के लिये चिंतित थे। यह चिंता तब और बढ़ी जब खुद शिक्षा मंत्री ही प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई बैठक से पहले कोविड संक्रमण के बाद के प्रभाव के चलते एम्स में भर्ती हो गये। बहरहाल, मौजूदा संकट में यह मुद्दा कितना महत्वपूर्ण हो गया था कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उच्चस्तरीय बैठक की अध्यक्षता की। उन्होंने बच्चों के जीवन को अनमोल बताते हुए, परीक्षाएं रद्द करने का निर्णय लिया। यह जरूरी भी हो गया था क्योंकि इस मुद्दे पर जमकर राजनीति होने लगी थी। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तक परीक्षा करवाने के मुद्दे को लेकर केंद्र सरकार पर हमलावर थे। वहीं छात्रों के कुछ समूह भी परीक्षा रद्द करवाने को लेकर सोशल मीडिया पर मुहिम चला रहे थे। बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी ने परीक्षा रद्द करने की घोषणा के बाद अधिकारियों को परीक्षा परिणाम तैयार करने को लेकर निर्देश दिये। अधिकारियों से कहा गया है कि परिणाम पूर्णत: निष्पक्ष और समयबद्ध तरीके से तैयार किये जाएं। अब केंद्रीय शिक्षा बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारियों की एक समिति इससे जुड़े मानदंड तैयार करेगी। संभव है छात्रों के पिछले शैक्षिक प्रदर्शन के आधार पर उनका परीक्षा परिणाम तैयार किया जाये। सरकार की कोशिश होगी कि समय रहते परीक्षा परिणाम घोषित किया जाये ताकि अगले सत्र को शुरू करने में कोई व्यवधान न आये। साथ ही उच्चस्तरीय मीटिंग में यह भी तय किया गया कि यदि गत वर्ष की ही तरह कुछ छात्र परीक्षा में बैठने की इच्छा रखते हैं तो परिस्थिति सामान्य होने पर उन्हें इसका विकल्प उपलब्ध कराया जाये। यद्यपि अभी परीक्षा परिणाम घोषित करने की तिथि का जिक्र नहीं किया गया है।
दरअसल, सरकार का कहना है कि कोरोना संकट से व्याप्त अनिश्चितता और इससे जुड़े सभी पक्षों से फीडबैक लेने के बाद ही यह निर्णय लिया गया कि इस बार बारहवीं की परीक्षाएं आयोजित नहीं की जायेंगी। इससे पहले भी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में आयोजित एक उच्चस्तरीय बैठक में मंत्रियों और अधिकारियों ने इस मुद्दे पर मंथन किया था। उसके उपरांत भी रक्षा मंत्री की अध्यक्षता में आयोजित बैठक में राज्यों के शिक्षा मंत्रियों की राय ली गई थी; जिसमें सभी विकल्पों पर विचार-विमर्श किया गया था, जिसमें परीक्षा के ऑनलाइन विकल्प, परीक्षा विद्यार्थियों के स्कूल में ही कराने, परीक्षा केंद्र बढ़ाने तथा परीक्षा की अवधि को कम करने जैसे विकल्पों पर विचार किया गया था। जबकि कुछ पक्षों का मानना था कि बिना वैक्सीन के परीक्षाओं का आयोजन नहीं करना चाहिए। बहरहाल, अब सीबीएसई की परीक्षा रद्द होने के बाद आईसीएसई ने भी बारहवीं की परीक्षा रद्द करने की घोषणा कर दी है। उम्मीद है कि राज्यों के बोर्ड भी इसी तरह के निर्णय लेंगे। कोशिश यही है कि कोरोना संकट के कारण यह दूसरा सत्र भी बाधित न हो। बहरहाल, इस संकट के अन्य विकल्पों से जुड़ी कई समस्याएं सामने आ रही थीं। यदि परीक्षा ऑनलाइन करायी जाती तो उसमें नकल होने की संभावना बढ़ सकती थी। यदि ऑफ वक्त का फैसला जीवन अनमोल, शैक्षिक गुणवत्ता भी जरूरी आखिरकार केंद्र सरकार ने सीबीएसई की बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं को रद्द करने का निर्णय ले ही लिया। निस्संदेह, कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर की भयावहता को देखते हुए अभिभावक अपने बच्चों के लिये चिंतित थे। यह चिंता तब और बढ़ी जब खुद शिक्षा मंत्री ही प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई बैठक से पहले कोविड संक्रमण के बाद के प्रभाव के चलते एम्स में भर्ती हो गये। बहरहाल, मौजूदा संकट में यह मुद्दा कितना महत्वपूर्ण हो गया था कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उच्चस्तरीय बैठक की अध्यक्षता की। उन्होंने बच्चों के जीवन को अनमोल बताते हुए, परीक्षाएं रद्द करने का निर्णय लिया। यह जरूरी भी हो गया था क्योंकि इस मुद्दे पर जमकर राजनीति होने लगी थी। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तक परीक्षा करवाने के मुद्दे को लेकर केंद्र सरकार पर हमलावर थे। वहीं छात्रों के कुछ समूह भी परीक्षा रद्द करवाने को लेकर सोशल मीडिया पर मुहिम चला रहे थे। बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी ने परीक्षा रद्द करने की घोषणा के बाद अधिकारियों को परीक्षा परिणाम तैयार करने को लेकर निर्देश दिये। अधिकारियों से कहा गया है कि परिणाम पूर्णत: निष्पक्ष और समयबद्ध तरीके से तैयार किये जाएं। अब केंद्रीय शिक्षा बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारियों की एक समिति इससे जुड़े मानदंड तैयार करेगी। संभव है छात्रों के पिछले शैक्षिक प्रदर्शन के आधार पर उनका परीक्षा परिणाम तैयार किया जाये। सरकार की कोशिश होगी कि समय रहते परीक्षा परिणाम घोषित किया जाये ताकि अगले सत्र को शुरू करने में कोई व्यवधान न आये। साथ ही उच्चस्तरीय मीटिंग में यह भी तय किया गया कि यदि गत वर्ष की ही तरह कुछ छात्र परीक्षा में बैठने की इच्छा रखते हैं तो परिस्थिति सामान्य होने पर उन्हें इसका विकल्प उपलब्ध कराया जाये। यद्यपि अभी परीक्षा परिणाम घोषित करने की तिथि का जिक्र नहीं किया गया है।
दरअसल, सरकार का कहना है कि कोरोना संकट से व्याप्त अनिश्चितता और इससे जुड़े सभी पक्षों से फीडबैक लेने के बाद ही यह निर्णय लिया गया कि इस बार बारहवीं की परीक्षाएं आयोजित नहीं की जायेंगी। इससे पहले भी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में आयोजित एक उच्चस्तरीय बैठक में मंत्रियों और अधिकारियों ने इस मुद्दे पर मंथन किया था। उसके उपरांत भी रक्षा मंत्री की अध्यक्षता में आयोजित बैठक में राज्यों के शिक्षा मंत्रियों की राय ली गई थी; जिसमें सभी विकल्पों पर विचार-विमर्श किया गया था, जिसमें परीक्षा के ऑनलाइन विकल्प, परीक्षा विद्यार्थियों के स्कूल में ही कराने, परीक्षा केंद्र बढ़ाने तथा परीक्षा की अवधि को कम करने जैसे विकल्पों पर विचार किया गया था। जबकि कुछ पक्षों का मानना था कि बिना वैक्सीन के परीक्षाओं का आयोजन नहीं करना चाहिए। बहरहाल, अब सीबीएसई की परीक्षा रद्द होने के बाद आईसीएसई ने भी बारहवीं की परीक्षा रद्द करने की घोषणा कर दी है। उम्मीद है कि राज्यों के बोर्ड भी इसी तरह के निर्णय लेंगे। कोशिश यही है कि कोरोना संकट के कारण यह दूसरा सत्र भी बाधित न हो। बहरहाल, इस संकट के अन्य विकल्पों से जुड़ी कई समस्याएं सामने आ रही थीं। यदि परीक्षा ऑनलाइन करायी जाती तो उसमें नकल होने की संभावना बढ़ सकती थी। यदि ऑफ लाइन करायी जाती तो अभिभावकों की चिंता वाजिब थी। डर था कि कहीं उनके घर के बड़े-बुजुर्ग संक्रमित न हो जायें। लेकिन इस समाधान का एक नकारात्मक पहलू यह भी है कि जो बच्चे टॉपर होने के लिये साल भर कड़ी मेहनत करते रहे, उन्हें इस फैसले से निराशा जरूर हुई होगी। दरअसल, आगे उच्च शिक्षा में बारहवीं की परीक्षा के ऊंचे स्कोर की दरकार होती है। सभी जगह इन नंबरों का महत्व होता है। इस फैसले से अच्छे अंक लाने की उम्मीद कर रहे मेधावी छात्र-छात्राओं को निराश होना पड़ेगा। लेकिन अच्छी बात यह है कि छात्रों का एक साल खराब होने से बच जायेगा। साथ ही यह भी कि अगला सत्र शुरू करने में दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ेगा। साथ ही स्कूल-कॉलेजों का वातावरण जल्दी से जल्दी सामान्य हो, यह भी उम्मीद रखनी चाहिए।
लाइन करायी जाती तो अभिभावकों की चिंता वाजिब थी। डर था कि कहीं उनके घर के बड़े-बुजुर्ग संक्रमित न हो जायें। लेकिन इस समाधान का एक नकारात्मक पहलू यह भी है कि जो बच्चे टॉपर होने के लिये साल भर कड़ी मेहनत करते रहे, उन्हें इस फैसले से निराशा जरूर हुई होगी। दरअसल, आगे उच्च शिक्षा में बारहवीं की परीक्षा के ऊंचे स्कोर की दरकार होती है। सभी जगह इन नंबरों का महत्व होता है। इस फैसले से अच्छे अंक लाने की उम्मीद कर रहे मेधावी छात्र-छात्राओं को निराश होना पड़ेगा। लेकिन अच्छी बात यह है कि छात्रों का एक साल खराब होने से बच जायेगा। साथ ही यह भी कि अगला सत्र शुरू करने में दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ेगा। साथ ही स्कूल-कॉलेजों का वातावरण जल्दी से जल्दी सामान्य हो, यह भी उम्मीद रखनी चाहिए।