इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.कोरोना काल ने समाज की मूल भावना को फिर से उकेरते हुए सामुदायिक व्यवहार को, नई परिस्थितियों के सांचे में परोसना शुरू किया है। सारे सरकारी तामझाम के पीछे कहीं समाज खुद के नजरिए को परखते हुए नए तर्क गढ़ रहा है। मानवीय व्यथा के नए अक्षर अपनी ही परंपराओं से हटकर नए अर्थ खोज रहे हैं, तो सामुदायिक जरूरतें अपने नजदीक जीने-मरने के विकल्प खड़ा कर रही हैं। मौतों के आंकड़ों में पुरातन कर्मकांड या मान्यताओं के पुण्य-पाप से हटकर एक ऐसा समाज विकसित हो रहा है, जो भविष्य का पुनर्लेखन कर सकता है। हमारे समीप यानी हिमाचल में भी अगर अस्थि विसर्जन के नए समाधान को देखें, तो एक साथ कई हरिद्वार फिर से खुद को स्थापित कर रहे हैं। हमीरपुर-कांगड़ा की सीमा से बहती ब्यास नदी पर स्थित कालेश्वर महादेव इसी परिवर्तन को लिखते हुए कोरोना प्रभावित परिवारों के आंसू पोंछ रहा है। वर्षों से अस्थि विसर्जन के विकल्प में कालेश्वर ने खुद को परिभाषित और परिमार्जित किया है, लेकिन कोरोना काल ने महाकाल को इस बार पूरी तरह रेखांकित कर दिया है। हर दिन करीब चालीस अस्थि विसर्जन हालांकि मानवीय पीड़ा का अति कठिन दौर है, लेकिन हमारी मान्यताएं कम से कम खुद से सवाल पूछ कर हल भी दे रही हैं।
जाहिर है प्रत्येक अस्थि विसर्जन, एक मार्मिक पहलू में लिपटी पारिवारिक व्यथा है, लेकिन जीवन की अंतिम मर्यादा में अगर परंपरापएं कालेश्वर में कबूल होने लगीं, तो यह सामाजिक सुधार का अनिवार्य अंग बन सकती हैं। इसी तरह कांगड़ा के खीर गंगा, गंगभैरो व चामुंडा, पांवटा साहिब और तांदी सहित कई अन्य संगम स्थल इस दौर में अपनी शिनाख्त कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों पहले चंद्रभागा तांदी संगम स्थल पर अस्थि विसर्जन की मान्यता को उस समय ज्यादा बल मिला जब 2016 में विश्व हिंदू परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक सिंघल और बाद में अटल बिहारी की अस्थियों का यहां विसर्जन हुआ। दिवंगत सांसद रामस्वरूप, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर व केंद्रीय पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री महेश शर्मा की उपस्थिति में देश के पूर्व प्रधानमंत्री का अस्थि विसर्जन, इस स्थल को अपनी आस्था से चिन्हित कर देता है। अस्थियों और नदी को वैज्ञानिक रूप से जोड़ने की वजह न केवल गंगा बल्कि हर हिमालयी नदी के अस्तित्व से प्रश्न पूछ रही है। स्वयं गंगा अपने तट पर प्रदूषण की विकरालता को ढोते-ढोते इतनी मैली हो रही है और कई परंपराएं उन्हीं घाटों पर हार रही हैं, जहां पीढ़ी दर पीढ़ी यह हस्ताक्षरित होता आया कि अपने सगे-संबंधियों की याद में यह स्थान हमेशा एक स्तंभ है। अब स्थिति भिन्न और कर्म कांड के व्यवसाय में धन की संलिप्तता ने सारे परिदृश्य को आस्था के बजाय, सामाजिक अभिप्राय की मजबूरी बना दिया।
इसी कोरोना काल में पवित्र गंगा के तट अपनी मजबूरियों में रो रहे हैं और जिन्होंने लाशों के बीच परंपराओं की खिल्ली उड़ती देखी होगी, उनके लिए कौनसी गंगा का सवाल पैदा होता है। सवाल यह कि गंगा में ही अस्थि विसर्जन क्यों और अगर पौराणिक कथाएं इस नदी को वैदिक आस्था से जोड़ती हैं, तो हिमाचल में बहती हर नदी या तमाम सहायक नदियां भी अपनी स्तुति को अंगीकार कराती हैं। गंगा में बहती लाशों के कारण मानव का चरित्र अगर नहीं पिघलता या इस काल खंड की फकीरी में हमें प्रायश्चित करने के लिए साफ गंगा जल भी नहीं मिलता, तो वे तमाम हिमाचली हमारे आदर्श होने चाहिएं जो कालेश्वर-तांदी सहित, अलग-अलग नदियों के संगम पर अपने प्रियजनों का अस्थि विसर्जन करके अपना ऋण उतार रहे हैं। अगर परंपराएं आगे बढ़कर अस्थि विसर्जन के नए विकल्पों को पूर्ण मान्यता देती हैं, तो यह वैदिक अध्ययन को ठिकाना देंगी। कालेश्वर के साथ गरली में स्थित राष्ट्रयि संस्कृत विश्वविद्यालय के वैदिक अध्ययन, शोध व ज्ञान की ऊर्जा से यह स्थान धर्म की उच्च परंपराएं स्थापित कर सकता है और इस तरह अपने प्रियजनों की याद में यह स्थान नया अवतार लेकर, हिमाचली आर्थिकी का हरिद्वार भी बन सकता है, जरा सोचिए।
2.जन-विरोधी फैसला
पंजाब सरकार ने जिस तरह कोरोना वायरस के टीके की खुराकें निजी और कॉरपोरेट अस्पतालों को बेचीं, वह उदाहरण है कि हमारी चुनी सरकारें और उनके मातहत नौकरशाह किस तरह काम करते हैं? उनके मानस में आम आदमी की बजाय पूंजीवाद मौजूद रहता है, क्योंकि कालाबाज़ारी और मुनाफाखोरी पूंजीवाद के ही हिस्से हैं। सरकारों के सरोकार पूंजीवादी नहीं होने चाहिए। सरकार होने के नाते सार्वजनिक कोष भी सरकार के ही पंजों और विशेषाधिकारों में जकड़ा रहता है। सार्वजनिक कोष का निर्माण आम आदमी और करदाता ही करते हैं। कोष की असीमित राशि बुनियादी तौर पर आम आदमी की जेब से ही वसूली जाती है-आयकर, अन्य कर, उपकर और सामाजिक राष्ट्रवाद के नाम पर अधिभारों के जरिए। पंजाब सरकार ने भारत बॉयोटैक से बीती 27 मई को ‘कोवैक्सीन’ की 1.14 लाख खुराकें 3.20 करोड़ रुपए में खरीदीं। जाहिर है कि भुगतान सार्वजनिक कोष, अर्थात सरकारी खजाने, से किया गया होगा। यदि ये खुराकें गरीब, पिछड़े, अनपढ़, ग्रामीण आम आदमी को दी जातीं और उन्हें कोरोना महामारी के खिलाफ सुरक्षा-कवच नसीब होता, तो उसे समाजवाद और मानवता की एक मिसाल माना जा सकता था, लेकिन पंजाब सरकार ने 42,000 खुराकें निजी और पंचतारा अस्पतालों को, 1060 रुपए प्रति खुराक के हिसाब से, बेच दीं। यही नहीं, उन्हें परोक्ष अनुमति भी दी गई कि वे एक खुराक की कीमत 1560 रुपए वसूल सकते हैं। किसी अस्पताल ने उससे भी ज्यादा जेब काटी होगी!
इस तरह 8.48 करोड़ रुपए में टीके की खुराकें बेचकर पंजाब सरकार ने 5.28 करोड़ रुपए का मुनाफा कमाया। बेशक वह राशि भी सार्वजनिक कोष में ही गई होगी! सवाल यह है कि क्या मुनाफाखोरी भी सरकारों का जनादेश और संवैधानिक दायित्व होती है? सरकारें दुकानदारी या उद्योग-धंधों की तरह चलाई जाएंगी अथवा औसत नागरिक के चौतरफा कल्याण के लिए…? पंजाब सरकार में खुराकें बेचने का फैसला किसी का भी हो, लेकिन सामूहिक दायित्व के मद्देनजर मुख्यमंत्री समेत पूरी कैबिनेट जिम्मेदार है। मुख्य सचिव खुद ऐसा फैसला नहीं ले सकते, जब तक मुख्यमंत्री ने आदेश न दिया हो। कोरोना की दूसरी लहर में संक्रमण और मौत के लिहाज से पंजाब पहले 2-4 राज्यों की श्रेणी में रहा है। फिलहाल वहां की मृत्यु-दर 2.5 फीसदी से भी अधिक है, जो राष्ट्रीय औसत 1.15 फीसदी से काफी ज्यादा है। ऐसे राज्य में कोरोना टीके की खुराक का महत्व किसी ‘संजीवनी’ से कमतर नहीं आंका जा सकता। पंजाब सरकार को टीकों की यथासंभव आपूर्ति भारत सरकार करती रही है और वह भी निःशुल्क…! यह राष्ट्रीय टीकाकरण की नीति है और सभी राज्यों को उनके कोटे के अनुसार टीके दिए जाते रहे हैं। कम-ज्यादा हो सकते हैं, क्योंकि देश में टीकों का उत्पादन और उपलब्धता सीमित है।
इस माह से सुधार संभव है। चूंकि टीकाकरण का विकेंद्रीकरण किया गया था, लिहाजा राज्य सरकारों को कंपनियों से सीधा ही टीके खरीदने की नीति भी तय की गई थी। लेकिन सरकारें निजी अस्पतालों को ही खुराकें बेचने लगेंगी, ऐसी नीति कभी भी तय नहीं की गई। अलबत्ता अस्पतालों को भी कंपनियों से सीधा खरीदने को अधिकृत किया गया था। अब बेशक खुराकें बेचने का फैसला वापस ले लिया गया है और शेष खुराकें भी वापस लेने का दावा किया जा रहा है, लेकिन ऐसा करके भी पंजाब सरकार दोषमुक्त नहीं हो सकती। उसकी स्थिति सवालिया बनी रहेगी कि उसने टीके बेचने का निर्णय क्यों लिया? सरकार का कुकर्म और चोरा-चोटी खत्म नहीं हो सकते। बेशक इसे घोटाले की परिभाषा में न रखा जाए, लेकिन पंजाब सरकार घोटाले की दहलीज़ पर जरूर खड़ी है। कोरोना टीका मिलना पंजाब के औसत नागरिक का अधिकार है। राज्य में किसान, मज़दूर और दलितों की आबादी ही सर्वाधिक है। वे कमज़ोर तबके हैं। निजी और महंगे अस्पताल ‘अमीरों’ के लिए हैं। ‘अमीर’ और ‘धन्नासेठ’ ही पूंजीवाद की बुनियादी इकाइयां हैं। वे कहीं भी और किसी भी कीमत पर कोविड का टीका लगवा सकते हैं। अस्पतालों का अपना कोटा है। पंजाब सरकार ने गरीबों और आम आदमी का हिस्सा बेचकर और मुनाफाखोरी कर गरीबों पर ही ठीकरा फोड़ा है। इस असामाजिक कृत्य के लिए सरकार को किस तरह और क्यों माफ किया जाना चाहिए? यह बड़ा सवाल पंजाब की जनता के बीच धधकता रहेगा। राजनीति भी होगी, तो कोई क्या कर सकता है? कठघरे में एक बार फिर कांग्रेस ही है।
3.एंटीबॉडी पर शोध
रोगों के इलाज का एक तरीका यह हो सकता है कि शरीर का बीमारियों से लड़ने का जो प्राकृतिक तरीका है, उसे दोहराया जाए या उस प्रक्रिया को और मजबूत किया जाए। शरीर का रोग प्रतिरोधक तंत्र रोगाणुओं से लड़ने के लिए एंटीबॉडी बनाता है, जो उस रोग के बैक्टीरिया या वायरस को नष्ट या प्रभावहीन कर देती हैं। टीके इसी सिद्धांत पर काम करते हैं। वे रोग पैदा करने वाले जीवाणु के कमजोर रूप को या उससे मिलती-जुलती जैविक संरचना को शरीर में प्रविष्ट कर देते हैं, शरीर का रोग प्रतिरोधक तंत्र उसे पहचानकर एंटीबॉडी बना लेता है, जो रोग होने से रोक देती हैं। एक अन्य तरीका, जो कम कारगर रहा, रोग होने पर शरीर में एंटीबॉडी डालना है। जब से कोरोना महामारी शुरू हुई है, वैज्ञानिक एंटीबॉडी पर आधारित इलाज खोजने में जुटे हुए हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमारे यहां हाल तक आजमाई गई प्लाज्मा थेरेपी है, जिसमें कोविड के ठीक हो चुके मरीज से प्लाज्मा लेकर कोविड-मरीज को चढ़ाया जाता है। अभी-अभी उबरे मरीज के रक्त में कोविड वायरस विरोधी एंटीबॉडी बड़ी संख्या में होती हैं। प्लाज्मा थेरेपी इसी उम्मीद में दी जाती थी कि ये एंटीबॉडी कोविड-मरीज के शरीर में वायरस से लड़ने में मददगार होंगी। इसके अलावा भी कई एंटीबॉडी आधारित इलाज दुनिया में आजमाए जा रहे हैं।
इन इलाजों के कारगर और लोकप्रिय न होने की एक वजह तो यह है कि एंटीबॉडी खून में चढ़ाई जाती हैं, जबकि कोरोना वायरस मुख्यत: फेफड़ों पर हमला करता है। इसकी वजह से फेफड़ों तक पहुंचने वाली एंटीबॉडी बहुत कम हो जाती हैं। दूसरे, एंटीबॉडी वायरस के कुछ रूपों पर ही आक्रमण करती हैं। इससे वायरस के नए रूप बनने और फैलने का खतरा बढ़ जाता है। इन्हीं वजहों से प्लाज्मा थेरेपी को रोक दिया गया। अब वैज्ञानिक ऐसी एंटीबॉडी बनाने की कोशिश में हैं, जिनमें ये दोनों कमियां न हों, यानी वे सीधे फेफड़ों में पहुंच सकें और वायरस के तमाम रूपों के खिलाफ कारगर हों। अमेरिका की टेक्सास यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा नेजल स्प्रे बनाया है, जो चूहों में कोरोना वायरस को नियंत्रित करने में कामयाब हुआ है। अब इस स्प्रे के मनुष्यों पर प्रयोग की तैयारी हो रही है। यदि यह सफल रहा, तो हमें ऐसी दवा मिल सकती है, जिसे नाक में स्प्रे करने से कोविड का इलाज सरल हो सकता है। नाक में स्प्रे करने की वजह से दवा सीधे हमारे श्वसन-तंत्र और फेफड़ों में जाएगी और वहां कोरोना वायरस का मुकाबला करेगी। इसके लिए वैज्ञानिकों ने तमाम कोरोना विरोधी एंटीबॉडी में से आईजीजी नामक एंटीबॉडी को सबसे ज्यादा मुफीद पाया। ये एंटीबॉडी कोरोना-मरीज के शरीर में काफी बाद में विकसित होती हैं। वैज्ञानिकों ने इन एंटीबॉडी के हिस्सों को आईजीएम नामक एंटीबॉडी से जोड़ दिया, जो कोरोना संक्रमण की स्थिति में शुरू में तेजी से बनती हैं। इस तरह, जो नई आईजीएम एंटीबॉडी बनीं, वे कोरोना के बीस से भी ज्यादा रूपों के विरुद्ध कारगर थीं, यानी इससे नए रूप विकसित होने का खतरा भी कम है। अब देखना यह होगा कि मनुष्यों में यह इलाज कितना कारगर और सुरक्षित है। यह भी देखना होगा कि ये एंटीबॉडी मानव शरीर में कितनी देर टिकती हैं। अच्छी बात यह है कि इन्हें नेजल स्प्रे की तरह दवा दुकानों में रखा जा सकता है। अगर यह तरीका कारगर सिद्ध हुआ, तो दूसरी बीमारियों के इलाज के लिए भी एक रास्ता खुल जाएगा।
4.देशद्रोह की ढाल
अभिव्यक्ति की रक्षा को कोर्ट का कदम
बीते सप्ताह सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों में सरकारों के कामकाज की आलोचना या टिप्पणी करने के मीडिया के अधिकार रक्षा का स्वर मुखर हुआ। अदालत का मानना था कि तब तक मीडियाकर्मियों की राजद्रोह के प्रावधानों से रक्षा की जानी चाहिए जब तक कि किसी का हिंसा को उकसाने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने का कोई इरादा न हो। एक वरिष्ठ पत्रकार द्वारा प्रधानमंत्री के विरुद्ध की गई टिप्पणी पर दर्ज राजद्रोह के मामले को रद्द करते हुए अदालत ने केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) में दिये गए ऐतिहासिक फैसले का हवाला देते हुए यह फैसला सुनाया कि यह आरोप तभी लग सकता है जब शब्दों अथवा अभिव्यक्ति में हानिकारक प्रवृत्ति होती है या फिर सार्वजनिक व्यवस्था या कानून-व्यवस्था में व्यवधान पैदा करने की मंशा हो। तभी आईपीसी की धारा 124ए यानी देशद्रोह और 505 यानी सार्वजनिक शरारत के आरोपों में कदम उठाया जा सकता है। शीर्ष अदालत ने तेलुगु समाचार चैनलों को भी उनके खिलाफ राज्य सरकार द्वारा दर्ज मामलों से संरक्षण प्रदान किया। इन चैनलों पर राज्य के मुख्यमंत्री की आलोचना करने पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया था। इस मामले में शीर्ष अदालत ने सटीक टिप्पणी की कि औपनिवेशिक युग के कानून के दायरे और मापदंडों की व्याख्या करने की आवश्यकता है। खासकर इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के अधिकारों के बाबत, जो देश में कहीं भी किसी भी सरकार से संबंधित जनहित में महत्वपूर्ण सामग्री प्रसारित प्रकाशित कर सकते हैं।
ऐसा भी नहीं है कि शीर्ष अदालत ने सत्ताधीशों द्वारा राजद्रोह कानून के दुरुपयोग की बाबत पहली बार टिप्पणी की हो। गाहे-बगाहे सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय वर्ष 1962 के फैसले के आलोक में इसे परिभाषित करने का प्रयास करते रहे हैं कि राष्ट्रद्रोह के क्या मायने हैं और इसकी सीमाएं क्या हैं। इसके अंतर्गत नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी और स्वतंत्रता काे संयमित करने के लिये बने कानूनों के दुरुपयोग को रोकने पर गंभीरता से ध्यान देने पर बल दिया गया। देश के संविधान में अनुच्छेद 19(1)ए के तहत अभिव्यक्ति की आजादी की स्वतंत्रता को परिभाषित किया गया है। लेकिन चिंता की बात यह है कि आलोचना के प्रति असहिष्णुता दिखाते हुए हाल के वर्षों में पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ बड़ी संख्या में राजद्रोह के मामले दर्ज किये गये हैं। हालांकि, ऐसे अधिकांश आरोप अदालतों में टिक नहीं पाते। दरअसल, इस कानून का दुरुपयोग राजनीतिक अस्त्र के रूप में असंतोष-आलोचना का दमन करने के लिये किया जाता है। निस्संदेह, नागरिकों को अपनी चुनी हुई सरकार की आलोचना करने का अधिकार है। आलोचना से सरकारों को आत्ममंथन का मौका मिलता है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2019 में दर्ज राजद्रोह के मुकदमों में सजा का प्रतिशत मात्र तीन था। सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसलों के बाद मीडियाकर्मियों को निर्भय होकर काम करने का अवसर मिलेगा। साथ ही उम्मीद है कि सत्ताधीशों को आईना दिखाने के बाद बात-बात में राजद्रोह के मामले दर्ज करके डराने की प्रवृत्ति घटेगी।