इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.मूल्यांकन का चक्रव्यूह
फैसलों की अहमियत में इंतजार के लक्षण कब तक रहेंगे, इससे पहले यह गौर करना होगा कि हिमाचल मंत्रिमंडल ने बिना किसी हील हुज्जत के बंदिशों को कर्फ्यू के साये में 14 जून तक बढ़ा दिया है। यानी बाजार का गौण पक्ष ही हमारी हिफाजत करेगा या हमें यह कबूल कर लेना होगा कि जब तक वैक्सीन की आपूर्ति नहीं हो पाती, सरकार के पास अंतिम उपाय यही है कि बढ़ते मामलों के सामने लगातार कर्फ्यू या लॉकडाउन की दीवारें खड़ी कर दे। इसी तरह शिक्षा के विकल्प या नवाचार के बजाय बारहवीं जैसी परीक्षा भी कोविड काल के ढक्कन में बंद हो गई। आश्चर्य यह कि बिना परीक्षा मूल्यांकन पद्धति सुनिश्चित किए बारहवीं के छात्रों को पास होने का मौका दे दिया। यह विमर्श का विषय है कि बारहवीं कक्षा में करियर ढूंढने, हासिल करने और प्रतिस्पर्धा में सबसे आगे होने का अवसर एक बार ही आता है। जाहिर है इसके लिए तैयारी का एक बड़ा तंत्र और पद्धति का कठिन मार्ग विकसित हुआ है। अतः मूल्यांकन के नए गठजोड़ में ऐसा चक्रव्यूह पैदा हुआ है, जिसे हर संजीदा छात्र नहीं तोड़ सकता। आशंकाओं का एक समाधान भले ही परीक्षाओं के वैकल्पिक मार्ग पर खड़ा है, लेकिन करियर की तलाश में वर्षों से तैयारियों का सबब इतना सरल नहीं कि हर तरह से दो जमा कर दिए जाएं या ऐसी औसत निकल आए, जो सभी को संतुष्ट कर दे। इसलिए स्कूल प्रवक्ता संघ का सुझाव भी हलचल पैदा करता है। मैट्रिक के अंकों से बारहवीं का परीक्षा परिणाम निकाला जा सकता है या स्कूलों में बच्चों का मूल्यांकन करती विविध परीक्षाओं में प्री बोर्ड एग्जामिनेश को आधार मान लिया जाए। बहरहाल शिक्षा के नए तराजू में फंसे छात्र अपने भविष्य की सबसे बड़ी आपदा का सामना तो कर ही रहे हैं। मंत्रिमंडल का यह फैसला पूरी तरह प्रधानमंत्री की छांव में सूरज उगाने का प्रयास हो सकता है, लेकिन भविष्य के अर्श पर इसे चिन्हित करना, हर छात्र की तपस्या, मेहनत और निरंतरता का प्रतिफल नहीं हो सकता। कुछ इसी तरह बाजार में कर्फ्यू का बढ़ता दखल उपचार के बजाय महामारी को रोकने का एक तरीका हो सकता है।
बेशक हिमाचल ने इसी तरीके से कोरोना की पहली लहर का दम तोड़ा था और अब भी दूसरी लहर के खंजर टूट रहे हैं, लेकिन इस तरह तो कोरोना की बरसात आती रहेगी और हम कर्फ्यू की छतरी के नीचे बंदिशों की पहरेदार को ही समाधान मानते रहेंगे। कर्फ्यू का एक मार्मिक पक्ष और इसकी शर्तों का उत्पीड़न भी तो दिखाई देता है। प्रदेश में कर्फ्यू के बीच भवन निर्माण क्षेत्र को मिली छूट प्रवासी मजदूरों की मददगार तो है, लेकिन कितने ही हिमाचलियों की दिहाड़ी सड़क या बाजार में बिखर गई है। प्रदेश में करीब पच्चीस हजार रेहड़ी-फड़ी वालों के लिए कर्फ्यू सिर्फ एक डंडा है, जबकि सवा लाख के करीब छोटे दुकानदारों के लिए अपने व्यवसाय के दरवाजे खोलना भी मुनासिब नहीं। ऐसे में कर्फ्यू ने एक ओर रेहड़ी-फड़ी या छोटे दुकानदार को तो जकड़ लिया, लेकिन प्रवासी मजदूर की दिहाड़ी में छूट वीआइीपी बन गई। कर्फ्यू या लॉकडाउन के सन्नाटों में भले ही हम कोरोना को पछाड़ने का भ्रम पाल लें, लेकिन असली उपलब्धि वैक्सीन हासिल करने तथा अधिक से अधिक जनसंख्या को इसका लाभ देने में है। इसलिए समाज की अपेक्षाएं किसी इम्युनिटी किट के सौहार्द में पूरी नहीं होंगी, बल्कि वैक्सीन की एक डोज भी किसी बड़े से बड़े परीक्षा के सफल परिणाम की तरह साबित होगी। सीधे कहें तो कर्फ्यू एक ऐसा चक्रव्यूह है जो शैतान कोरोना के कारनामों को कुछ देर तक रोक सकता है, लेकिन फैसलों की असली जमीन तो वैक्सीन आपूर्ति ही पूरा करेगी।
2.खाद्य सुरक्षा पर भी रार!
देश में खाद्य सुरक्षा कानून यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार के दौरान बनाया गया था। कानून अब भी प्रभावी और जारी है। खाद्य सुरक्षा का मकसद था कि कोई भी देशवासी भूखा नहीं सोना चाहिए। हर पेट और परिवार को समुचित अनाज उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इस मानवीय योजना पर भारत सरकार 47,000 करोड़ रुपए से अधिक की सबसिडी देती है, लिहाजा नीति आयोग ने सुझाव दिया था कि खाद्य सुरक्षा के दायरे में शहरी और ग्रामीण लाभार्थियों की संख्या कम की जाए, ताकि सबसिडी के बोझ को कम किया जा सके। नीति आयोग का सुझाव था कि 75 फीसदी ग्रामीण आबादी को 50 फीसदी और शहरी आबादी को 60 फीसदी से घटाकर 40 फीसदी किया जाए। यानी खाद्य सुरक्षा कानून के तहत खाद्यान्न प्राप्त करने वालों की संख्या घटाने का इरादा है नीति आयोग का। वैसे गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों को सरकार 2 रुपए किलो गेहूं और 3 रुपए किलो चावल के हिसाब से खाद्यान्न उपलब्ध कराती रही है। प्रत्येक परिवार को 35 किलो अनाज प्रति माह लगभग निःशुल्क ही मिलता है।
चूंकि बीते डेढ़ साल से देश पर कोरोना महामारी की घातक कालिमा छाई है, लिहाजा लंबी तालाबंदी भी करनी पड़ी है। अब भी अधिकतर राज्यों में लॉकडाउन लागू है, बेशक कुछ बंदिशों और ढील के साथ ताले खोलने की शुरुआत की गई है। तालाबंदी के कारण करोड़ों लोग और खासकर दिहाड़ीदार मजदूर बेरोज़गार हुए हैं, लिहाजा भारत सरकार ‘गरीब कल्याण योजना’ के तहत करीब 80 करोड़ देशवासियों को अनाज मुहैया करा रही है। इस योजना पर करीब 26,000 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है। कितने गरीबों को निःशुल्क अनाज नसीब हो रहा है और कितने खाद्यान्न की कालाबाज़ारी, जमाखोरी और मुनाफाखोरी राशन माफिया कर रहा है, इसका कोई पुष्ट और सत्यापित डाटा उपलब्ध नहीं है और न ही भारत सरकार के संबद्ध मंत्रालय ने डाटा उपलब्ध कराने की कोशिश की है। इसी कड़ी में दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ‘घर-घर राशन’ योजना का आगाज़ करना चाहते थे, जिस पर उपराज्यपाल के जरिए केंद्र सरकार ने रोक लगवा दी है और पुनर्विचार की दलील दी जा रही है। योजना में 4 किलो आटा, एक किलो चावल, एक किलो चीनी प्रति व्यक्ति, प्रति माह देने की व्यवस्था तय की गई थी। अनाज पैकेट में अच्छी तरह सीलबंद करके घर-घर मुहैया कराया जाना था। उससे करीब 73 लाख दिल्लीवासी लाभान्वित होते! गौरतलब यह है कि राज्यों में राशन डिपुओं के जरिए जो अनाज वितरित किया जाता है, उसकी सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर राज्य सरकार का विशेषाधिकार होता है। डिपुओं के अनाज को दिल्ली सरकार अपनी निगरानी में, सीलबंद करके, बांटना चाहती है। यह कोई खैरात नहीं है। केंद्र के अनाज में दिल्ली का भी अपना हिस्सा है।
उसे घर-घर प्रत्येक राशनकार्ड धारक तक अनाज सुनिश्चित कराना था। इसमें गलत क्या था? यदि दिल्ली को मिलने वाला खाद्यान्न का कोटा कम पड़ता, तो राज्य सरकार केंद्र से खरीद सकती थी। योजना को एकदम ‘घोटाला’ करार देना तो नैतिक, प्रशासनिक और सियासी रूप से गलत है। आखिर भारत की मोदी सरकार ने राज्य सरकारों के साथ रार के मोर्चे क्यों खोल रखे हैं? केंद्र सरकार की ‘गरीब कल्याण योजना’ के तहत भी अनाज राशनवाले ही बांटते हैं। जिस परिवार को खाद्यान्न नहीं मिलता अथवा कम मिलता है, क्या वह प्रधानमंत्री मोदी को शिकायत कर सकता है? संभव ही नहीं है। दरअसल खाद्य सुरक्षा कानून के तहत प्रत्येक राज्य सरकार में खाद्य आयोग गठित करने और अनाज के सोशल ऑडिट की व्यवस्था करने की हिदायत दी गई थी। वह व्यवस्था ही किसी ने नहीं की और न ही केंद्र सरकार ने किसी राज्य सरकार को बाध्य किया। यह भी तय नहीं है कि उच्च न्यायालय में जो केस विचाराधीन है, उसमें भी इन व्यवस्थाओं का जि़क्र है अथवा नहीं है। आगामी 20 अगस्त को सुनवाई की तारीख है, लेकिन अदालत में मामला होने के कारण किसी भी योजना को लागू करने से नहीं रोका जा सकता। भाजपा का ऐसा तर्क बेमानी है। अनाज न तो मोदी का है और न ही केजरीवाल का है। वह देश का है, जो करदाताओं के दिए गए पैसों से खरीदा जाता रहा है, लिहाजा आम नागरिक को खाद्यान्न मिलना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
3.सबको मुफ्त टीका
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फिलहाल देश के सबसे प्रभावी वक्ता और कम्युनिकेटर हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। वह अपनी इस शक्ति का इस्तेमाल अनेक उद्देश्यों के लिए करते हैं, इसलिए जब भी वह देश को सीधे संबोधित करते हैं, तब सबको यह उत्सुकता और कुछ व्यग्रता भी होती है कि आखिर इस बार प्रधानमंत्री क्या कहने वाले हैं? वैसे भी, वह संभवत: देश को सबसे ज्यादा बार सीधे संबोधित करने वाले प्रधानमंत्री हैं। उनका कल का संबोधन मुख्यत: दो नीतिगत घोषणाओं के लिए था, और इस मौके का एक और इस्तेमाल उन्होंने कोरोना से लड़ने की सरकार की रणनीति व टीकाकरण अभियान के क्रियान्वयन की आलोचना का जवाब देने के लिए किया। सरकार की कोरोना नियंत्रण और वैक्सीन नीति की कई वजहों से, खासकर दूसरी लहर के मद्देनजर आलोचना होती रही है और एक महत्वपूर्ण मामले में अब सरकार ने सही निर्णय लिया है। केंद्र सरकार ने यह तय किया है कि अब वैक्सीन निर्माताओं से 75 प्रतिशत वैक्सीन वह खुद ही खरीदेगी, यानी राज्यों के हिस्से की वैक्सीन खरीदने की जिम्मेदारी भी अब केंद्र सरकार की होगी। सिर्फ निजी अस्पताल ही अपना 25 प्रतिशत कोटा वैक्सीन निर्माताओं से सीधे खरीदेंगे और हर टीके पर डेढ़ सौ रुपये का सेवा-शुल्क ले सकते हैं। जब केंद्र सरकार ने पहले अपनी वैक्सीनेशन पॉलिसी घोषित की थी, जिसमें राज्यों को 25 प्रतिशत वैक्सीन सीधे खरीदनी थी, तभी यह बात सामने आई थी कि इससे राज्यों की मुसीबत बढ़ जाएगी। एक तो राज्यों को केंद्र के मुकाबले दोगुनी कीमत चुकानी थी और दूसरे, अलग-अलग राज्य को कितनी वैक्सीन मिल पाएगी, इसे लेकर भी अनिश्चय था। राज्यों पर 45 साल से कम उम्र के सभी नागरिकों को वैक्सीन लगाने की जिम्मेदार उठानी थी और दूसरी लहर के मद्देनजर लोगों में वैक्सीन लगाने की जो जल्दबाजी थी, उस वजह से कई राज्यों में वैक्सीन की कमी होने लगी। ऐसे में, कई राज्यों ने अंतरराष्ट्रीय बाजार से सीधे वैक्सीन खरीदने की कोशिश भी की, पर वे इसलिए नाकाम रहे कि वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां राज्यों से सीधे लेन-देन करने को तैयार न थीं। तभी से कई जानकार और राज्य सरकारें भी कहती आ रही थीं कि वैक्सीन खरीदने का काम केंद्र सरकार को ही करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार की टीकाकरण-नीति पर सवाल खड़े किए थे। अब सरकार ने यह फैसला करके अच्छा कदम उठाया है। इसके बाद दो बातें महत्वपूर्ण हैं- पहली, वैक्सीन वितरण की एक पारदर्शी और न्यायपूर्ण व्यवस्था तैयार करना और वैक्सीन की उपलब्धता बढ़ाने का युद्ध-स्तर पर प्रयास। प्रधानमंत्री के संबोधन में दूसरी बड़ी घोषणा गरीबों को मुफ्त राशन मुहैया कराने की योजना को नवंबर तक बढ़ाना है। यह भी अच्छा कदम है, क्योंकि अर्थव्यवस्था की स्थिति को देखते हुए अभी गरीबों के लिए रोजी-रोटी का ठीक-ठाक इंतजाम होने में वक्त लग जाएगा। अगर दो वक्त की रोटी का इंतजाम निश्चित हो, तो अन्य समस्याओं से लड़ने की शक्ति मिलती है। इसके साथ ही केंद्र सरकार को गरीबों को सीधे नकदी देने की योजनाओं पर भी जल्दी से विचार करना चाहिए। कोरोना की दूसरी लहर के उतार के साथ अब आर्थिक गतिविधियां धीरे-धीरे शुरू हो रही हैं, अगर लोगों के हाथों में पैसा होगा, तो निस्संदेह आर्थिक गतिविधियों को तेजी मिलेगी।
4.कांग्रेस की कलह
सत्ता की महत्वाकांक्षाओं से उपजा टकराव
ऐसे वक्त में जब पंजाब सरकार का कार्यकाल समाप्त होने में चंद माह ही बाकी हैं, सत्तारूढ़ कांग्रेस में टकराव अपने चरम पर दिखा। निस्संदेह, यह संघर्ष सत्ता की महत्वाकांक्षाओं से जुड़ा है। सत्ता में चौधराहट हासिल करने की कवायद है। सत्ता में बड़ी हिस्सेदारी की चाहत का पर्याय है। चार साल से अधिक के मौजूदा कार्यकाल में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह लगातार असंतुष्टों के निशाने पर ही रहे हैं, जिसमें कथित भ्रष्टाचार, बेअदबी के मामलों में अनिर्णीत जांच और बीते साल नकली शराब से हुई भयावह त्रासदी से राज्य सरकार की हुई किरकिरी जैसे विवादों को लेकर सरकार के मुखिया को निशाने पर लिया गया। हाल ही के दिनों में ये हमले तेज हुए और इसमें राज्य में नेतृत्व परिवर्तन तक की मांग की जाने लगी। दरअसल, इस आक्रमण की एक वजह यह भी है कि राज्य में कांग्रेस मजबूत स्थिति में है और उसके लिये आगामी चुनाव में बेहतर संभावनाएं बनी हुई हैं। हाल ही में लागू किये गये तीन विवादित कृषि सुधार कानूनों को लेकर राज्य में भाजपा शासित केंद्र के खिलाफ खासा आक्रोश है। ऐसे में राज्य में भाजपा की जमीन दरकती नजर आती है। भाजपा से जुड़ाव के कारण अकाली दल भी लोगों का विश्वास हासिल नहीं कर पाया है। आम आदमी पार्टी भी संगठन में जारी गुटबाजी के चलते जनाधार खोती नजर आ रही है। यही वजह है कि कांग्रेस नेता अगले साल की शुरुआत में होने वाले चुनाव में पार्टी की बढ़त को लेकर आश्वस्त नजर आते हैं। यही विश्वास पार्टी नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को हवा दे रहा है। महत्वाकांक्षी राजनेता सत्ता व पार्टी में बड़ी भूमिका की उम्मीद पाले हुए हैं, जिसके चलते पार्टी में टकराव की स्थितियां बनती नजर आ रही हैं। लेकिन राज परिवार से ताल्लुक रखने वाले कैप्टन अमरिन्दर राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी हैं और वे बचाव की मुद्रा में आने के बजाय असंतुष्टों के बाउंसरों को हिट कर रहे हैं।
हाल ही के दिनों में पार्टी में जारी असंतोष को असंतुष्ट नेताओं ने सार्वजनिक मंचों पर उजागर करना शुरू किया है। मीडिया के जरिये जोर-शोर से राज्य के मुखिया पर हमले बोले गये। असंतुष्ट नेता मुख्यमंत्री पर पार्टी नेताओं से दूरी बनाने और निरंकुश व्यवहार के आरोप लगाते रहे हैं। ये असंतुष्ट नेता राज्य में सक्रिय आपराधिक सिंडिकेट विशेष रूप से भूमि, रेत, नशा और अवैध शराब माफियाओं को संरक्षण देने के आरोप लगाते रहे हैं। अक्सर विवादों में रहने वाले पूर्व क्रिकेटर व पूर्व मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू वर्ष 2015 में हुए बेअदबी के मामले को जोर-शोर से उठाते रहे हैं। आरोप हैं कि मुख्यमंत्री दोषियों को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। यहां तक कि मामला कांग्रेस पार्टी हाईकमान तक पहुंचा है और कई कमेटियों ने मामला सुलझाने का प्रयास किया है। वहीं कैप्टन कहते हैं कि वे पार्टी में सत्ता के दो ध्रुव नहीं बनने देंगे। यह बयान उन संभावना पर था, जिसमें असंतुष्ट नेता को पार्टी अध्यक्ष बनाने की बात थी। अब मुख्यमंत्री के समर्थक भी आक्रामक मुद्रा में नजर आ रहे हैं। वे हाईकमान से मांग कर रहे हैं कि पार्टी के पुराने-वफादार लोगों को तरजीह दी जाए। वहीं कैप्टन अमरिन्दर सिंह व समर्थक आरोप लगाते रहे हैं कि सिद्धू अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिये पार्टी को कमजोर करने का प्रयास कर रहे हैं। केंद्रीय नेतृत्व की दखल के बावजूद विवाद का पटाक्षेप होता नजर नहीं आ रहा है। निस्संदेह, विवाद का मौजूदा विषम परिस्थितियों में जनता में अच्छा संदेश नजर नहीं जा रहा है। आखिर जब राज्य सदी की सबसे बड़ी महामारी से जूझ रहा है तो क्या ऐसे विवादों को हवा दी जानी चाहिए? यह वक्त तो महामारी से हलकान जनता के जख्मों पर मरहम लगाने का है। आर्थिक संकट से जूझ रहे राज्य को संबल देकर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का है। निस्संदेह, ऐसे वक्त में जब देश में सिर्फ तीन राज्यों में ही कांग्रेस के मुख्यमंत्री रह गये हैं, वर्ष 2022 में पार्टी को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है।