इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.आंदोलन से अलग होते गुट
तस्वीर एकदम बदल गई है। अवधारणाएं पलट चुकी हैं। सहानुभूति का परिदृश्य विरोध में तबदील हो रहा है। अब आम आदमी की आंख में आंसू नहीं है और न ही कोई मर्माहत दिखाई देता है। एक राष्ट्र-विरोधी गलती किसी ने भी की, लेकिन मोहभंग किसानों के प्रति हुआ है। विरोध में सैकड़ों मुट्ठियां भिंच रही हैं और नारे स्पष्ट हैं-मेरी सड़क खाली करो! मेरा इलाका खाली करो!! तिरंगे झंडे का अपमान, नहीं सहेगा हिंदुस्तान!!! किसान नेताओं के पुतले जलाए जा रहे हैं। उनके घरों के बाहर भी प्रदर्शन जारी हैं। इस देश की वह जनता, जो आंदोलनकारियों को ‘अन्नदाता’ मान रही थी, आज ‘खालिस्तानी उग्रवादी’ कहकर संबोधित कर रही है। दो और किसान संगठनों-भाकियू (एकता) और भाकियू (लोकशक्ति)-ने खुद को आंदोलन से अलग कर लिया है। कुल चार संगठन किसान की संगठित ताकत को तोड़ चुके हैं। सिंघु और टीकरी बॉर्डर के करीबी गांवों में महापंचायतें हुई हैं। अंततः उन्होंने धरना-स्थल खाली करने के अल्टीमेटम दे दिए हैं। पुलिस बल ने दिल्ली, उप्र और हरियाणा में किसान धरनों के कई तंबू उखाड़ दिए हैं। यह सिलसिला जारी है, लेकिन आंदोलन टुकड़ों में ही सही, फिलहाल जिंदा है।
गाजीपुर बॉर्डर पर किसान नेता राकेश टिकैत भावुक होकर और आत्महत्या की धमकी देकर धरने पर काबिज हैं। उनके समेत छह नेताओं को पुलिस की अपराध शाखा ने पेशी पर तलब किया है। बहरहाल किसान फिलहाल कन्नी काट सकते हैं। दूसरी तरफ किसानों के समर्थक धरना-स्थल पर आ-जा रहे हैं, लेकिन 26 जनवरी से पहले की भीड़ छंट चुकी है। पुलिस और अर्द्धसैन्य बलों ने बचे-खुचे आंदोलन की कड़ी घेराबंदी कर रखी है। आवाजाही के तमाम रास्ते बंद कर दिए गए हैं। परिदृश्य ऐसा लगता है मानो 26 जनवरी के लालकिला देशद्रोह के बाद सरकार ने कड़ा रुख अख्तियार कर लिया है कि अब किसान आंदोलन के खात्मे की शुरुआत करनी है! किसान संगठन लगातार आरोप चस्पां कर रहे हैं कि लालकिला कांड भारत सरकार की ही साजि़श थी। किसान नेता योगेंद्र यादव और कक्काजी इसे सरकार का ‘दमन-चक्र’ करार दे रहे हैं उनका भरोसा शेष है कि आंदोलन मजबूत होकर उभरेगा। सरकारें आंदोलनों के साथ ऐसी साजि़शें करती रही हैं। बहरहाल अधिकतर तंबुओं में कथित किसानों और समर्थकों की संख्या बेहद कम हुई है। फिलहाल संयुक्त किसान मोर्चा अपना बुनियादी तंबू बचाने की आखिरी कोशिशों में है, लेकिन सभी नेताओं के पासपोर्ट जब्त किए जा चुके हैं, लुकआउट नोटिस तंबुओं के बाहर चिपका दिए गए हैं और उन तक भेजे भी गए हैं और ‘राजद्रोह’ की कानूनी धाराओं में भी केस दर्ज किया जा चुका है। महत्त्वपूर्ण सवाल हैं कि क्या किसान आंदोलन अपनी मांगों की परिणति तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देगा अथवा ज्यादा एकीकृत होकर सामने आएगा? क्या किसान संगठनों के बीच फूट और दरारें भी हैं, क्योंकि देश के अधिकतर संगठन इस आंदोलन में शामिल नहीं हैं? क्या कृषि के खुले बाज़ार और एमएसपी को कानूनी दर्जा देने सरीखी बेहद महत्त्वपूर्ण मांगें फिर अधर में लटक कर रह जाएंगी? अंततः किसान की स्थिरता और आय का क्या होगा?
देश में किसान की औसत आय करीब 8600 रुपए है, जो न्यूनतम मजदूरी से भी बहुत कम है। करीब 85 फीसदी किसानों के पास औसतन 2 हेक्टेयर जोत की ज़मीन भी नहीं है। यह आंदोलन उनकी गरीबी को संबोधित नहीं करता। कोई कुछ भी कहे, यह आंदोलन पंजाब, कुछ हद तक हरियाणा और पश्चिमी उप्र के कुछ गन्ना किसानों का आंदोलन रहा है। हालांकि सरकार के साथ 11 दौर के संवादों में गन्ने से जुड़े विवादों पर एक बार भी चर्चा नहीं की गई। चर्चा तो एमएसपी पर भी नहीं की गई, लिहाजा अब इस आंदोलन पर गंभीर सवाल उठने लगे हैं। आंदोलन में शामिल नेताओं की भी खेती होगी, लेकिन उनका मानस राजनीतिक रहा है। हम आंदोलन में मौजूद अवांछित, असामाजिक और देश-विरोधी तत्त्वों की बात करते रहे हैं। उनका खंडन राजनीतिक आधार पर किया जा सकता है, लेकिन अब तो सच सामने आ रहे हैं कि खालिस्तानी ट्विटर हैंडल बनाए गए थे, जिनके जरिए दुष्प्रचार किया गया। जांच जारी है। इसी संदर्भ में एक संसदीय विडंबना सामने आई कि विपक्ष के 19 दलों ने, संसद के बजट सत्र की शुरुआत पर ही, राष्ट्रपति अभिभाषण का बहिष्कार किया। किसान आंदोलन और किसानों की मांगें भी प्रमुख मुद्दों में शामिल थीं। संसद में ऐसा पहली बार हुआ है। बहरहाल अब सरोकार किसान आंदोलन का है कि भविष्य क्या होगा? क्या किसान इस तरह फिर लामबंद हो पाएंगे?
2.वीरभद्र बनाम वीरभद्र
अपने मुख्यमंत्रित्व की छह पारियां खेल चुके वीरभद्र सिंह आज भी राजनीतिक हवाओं का रुख मोड़ सकते हैं या कांग्रेस के मजमून बदल रहे हैं, कुछ इसी अंदाज में वयोवृद्ध नेता ने गुरुवार के दिन सारे मीडिया को हक्का-बक्का किया। अपने संन्यास की चर्चाओं के बीच वह एक अनुमान लगाते हैं कि उनके बाद की पार्टी कैसी होगी और इसीलिए वह कांग्रेस की कमजोरियों में ‘गद्दारों’ के अदृश्य पटल पर चोट करते हैं। जाहिर तौर पर वीरभद्र सिंह की सियासत के संदर्भ कांग्रेस, भाजपा के अलावा हिमाचल के नागरिक समाज पर खासा असर रखते हैं। वह एकछत्र शक्ति का प्रतीक रहते हुए अपने विरोधियों को नचाते रहे और अपनी शासन पद्धति से प्रदेश को चलाते भी रहे। एक लंबा दौर हमेशा राजनीतिक तरकश पर चढ़े तीरों की तरह, उनकी भाव भंगिमा से भूमिका तक यादगार बनता है। इसलिए उनके अवश्यंभावी संन्यास की घोषणा कांग्रेस के भीतर सिहरन पैदा करती है और कई बाहुपाश तोड़ देती है। हालांकि आगामी चुनाव आने तक कांग्रेस की अपनी यात्रा में कई नए चेहरे प्रकट हैं, फिर भी वीरभद्र की परछाई में पार्टी अपने आश्रय की जमीन देखती है। इससे पूर्व वीरभद्र सिंह में कांग्रेस देखी जाती रही और इसके लिए उन्होंने परिस्थितियां एकत्रित कीं, लेकिन अब कांग्रेस के कितने भीतर वह हैं, इसके ऊपर चर्चा हो सकती है।
वीरभद्र सिंह को दरकिनार कर राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के कई उदय और पतन सामने हैं और यह भी कि उनके काटे से लहू तक नहीं बहा। वीरभद्र का एकछत्र साम्राज्य रहा और यह उनके लहजे का बार-बार कारवां बना। बार-बार कांग्रेस आलाकमान को उनके आगे झुकना पड़ा, तो इसके लिए उनकी सियासी बिसात को याद किया जाएगा। अपनी ही पार्टी के भीतर वीरभद्र सिंह के आगे पंडित सुखराम, ठाकुर कौल सिंह, मेजर विजय सिंह मनकोटिया, विद्या स्टोक्स, आनंद शर्मा, सुखविंद्र सिंह सुक्खू और जीएस बाली का राजनीतिक इतिहास अगर बौना होता रहा, तो यह एक हस्ती का आलम और लोकप्रियता का परचम था। कांग्रेस के प्रादेशिक नेतृत्व के मायने उन तक क्यों समाहित रहे या मंडी व कांगड़ा की दावेदारियां क्यों छिन्न-भिन्न हुईं, यह तथ्य हिमाचल की राजनीति में वीरभद्र सिंह को सबसे अनूठा बनाता है। यकीनन कोई दूसरा वीरभद्र सिंह नहीं हो सकता, लेकिन कांग्रेस में दूसरा कौन होगा, इस पर असमंजस है। पार्टी की बागडोर संभाले कुलदीप राठौर ने कुनबे को काफी हद तक जोड़ने का प्रयास किया है, लेकिन वीरभद्र सिंह की विरासत का हकदार कौन बनेगा, इस पर संशय है। मिशन रिपीट पर आमादा सत्ता पक्ष के सामने कांग्रेसी चुनौती का सबब बनकर अभी तक मुकेश अग्निहोत्री की भूमिका को अंगीकार किया जा सकता है, लेकिन नेताओं की नई नस्ल में कांगड़ा का मैदान सबसे कठिन परीक्षा सरीखा है।
मंडी से कौल सिंह तथा कांगड़ा से जीएस बाली व सुधीर शर्मा के बीच वर्चस्व का आमना-सामना है। वर्तमान सत्ता में अछूत सा रहा कांगड़ा अब अपने विरोध में कांग्रेस का ‘हाथ’ देख रहा है और जहां ओबीसी समाज तथा गद्दी समुदाय के नजदीक खड़े होने की वजह भी है। ऐसे में पूर्व मंत्री एवं सांसद चंद्र कुमार का आशीर्वाद खासी अहमियत रखता है। वर्तमान सत्ता के दौर में वीरभद्र सिंह के मिशन कांगड़ा का मुकाबला नहीं हुआ और न ही नए शिलालेख लिखे गए। ऐसे में वीरभद्र के प्रति व्यक्तिगत निष्ठाएं भले ही काम न आएं, लेकिन उनकी सियासी विरासत का सबसे बड़ा आयाम कांगड़ा के नैन नक्श संवार सकता है। वीरभद्र सिंह की विरासत का पंचायती चुनाव में एक असर शिमला में कबूल हुआ, तो उनके द्वारा पैदा की गई प्रदेश स्तरीय पौध का समर्थन ही किसी नेता को उत्तराधिकार सौंप सकता है। ऐसे में कांग्रेस की जद्दोजहद को अपने कंधों पर उठाते रहे वीरभद्र सिंह पुनः इशारा दे रहे हैं कि उन्हें नजरअंदाज करके कोई नया परिंदा अभी भी पूरी तरह उड़ नहीं सकता। संन्यास को खबर बनाकर भी वीरभद्र सिंह अपनी शोहरत का पुनर्वास कर रहे हैं। कहीं जिक्र इतिहास को लिख रहा है, तो कहीं अपनी विरासत का खूरेंजी अंदाज लिए यह शख्स आज भी इत्तला दे रहा है कि पार्टी कारवां बनाने से पहले उनकी राह को विस्मृत करने का ख्याल न पाले।
3. आर्थिक उम्मीदें
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण 2021 में जहां चिंता के अनेक पहलू हैं, तो दूसरी ओर, कुछ खुशनुमा संभावनाएं भी हैं। मुख्य आर्थिक सलाहकार के वी सुब्रमण्यन की टीम द्वारा तैयार आर्थिक सर्वेक्षण में अपेक्षाकृत ईमानदारी झलकती है और यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि यह ऐसा दौर नहीं, जब विकट आर्थिक स्थितियों को छिपाने की अनावश्यक कोशिश की जाए। कोरोना ने जिस तरह से अर्थव्यवस्था को समेटा है, उसके मद्देनजर आर्थिक सर्वेक्षण एक बेहतर इशारा हो सकता है। आर्थिक सर्वेक्षण में यह अनुमान लगाया गया है कि हमारी विकास दर चीन से भी ज्यादा रहेगी। पिछले दिनों ऐसी ही संभावना का इजहार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी किया था। वित्त वर्ष 2022 में वास्तविक जीडीपी विकास दर का अनुमान 11 प्रतिशत पर रखा गया है, तो कोई आश्चर्य नहीं। अभी जारी वित्त वर्ष के लिए सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर 7.7 प्रतिशत नकारात्मक रहने का अनुमान है, यह अनुमान भी पहले ही सामने आ चुका था। कोरोना के समय पेश अनेक पैकेज और रिपोर्ट का भी इशारा यही था।
वित्त वर्ष 2021-22 में जीडीपी के सकारात्मक होने की संभावना मजबूती से दर्शाई गई है। यह लक्ष्य थोड़ा मुश्किल लगता है, क्योंकि वित्त वर्ष 2020-21 में सेवा और विनिर्माण क्षेत्र नकारात्मक रहा है। आर्थिक सर्वेक्षण ने संकेत कर दिया है, सेवा और विनिर्माण क्षेत्र में विकास की रफ्तार लौटाना जरूरी है। आगामी बजट में अगर इन क्षेत्रों में पुनरोद्धार और प्रोत्साहन की कोशिश होती है, तो अचरज नहीं। सरकार तो यही अनुमान लगा रही है कि अगले वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था में पूरा सुधार देखने को मिलेगा, लेकिन सुधार देखने के लिए सरकार को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन, निवेश, निगरानी और नवाचार पर अपना ध्यान केंद्रित करना होगा। विकास में बिना उपाय तेजी नहीं आएगी। गौरतलब है कि दुनिया की दूसरी अर्थव्यवस्था में दिए गए पैकेज के नतीजे साफ तौर पर दिखे हैं, मगर भारत में दिए गए पैकेज के बावजूद हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से सिमटी है। खासतौर पर सरकार को निवेश बढ़ाने के उपायों पर जोर देना पड़ेगा। कर्ज को आसान बनाना होगा। जरूरी होगा कि केंद्र सरकार ही नहीं, राज्य भी इस दिशा में अपने-अपने बजट में ठोस उपाय करें और लक्ष्य पाने के लिए जुट जाएं। अर्थव्यवस्था में सुधार की उम्मीदें केवल अनुमान भर न रहें। विकास की रफ्तार लौटाने के लिए युवाओं को रोजगार और उद्यम में लगाना होगा। सही है कि भारत का वित्तीय आधार मजबूत है, मुद्रा भंडार भी शानदार है, लेकिन जमीन पर सकारात्मक असर देखने का इंतजार पूरे देश को है। अच्छी बात है कि 23 दिसंबर, 2020 तक सरकार ने 41,061 स्टार्टअप्स को मान्यता दी है। देश भर में 39,000 से ज्यादा स्टार्टअप्स के जरिए 4,70,000 लोगों को रोजगार मिला है। कृषि क्षेत्र में सुधार के लक्षण हैं और कृषि निर्यात भी बढ़ा है। जिन उत्पादों में निर्यात तेजी से बढ़ा है, उन पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। अर्थव्यवस्था में तेज सुधार के लिए लंबा रास्ता लेने के बजाय जल्दी में हम सुधार के लिए क्या कर सकते हैं, इसे प्राथमिकता से देखना चाहिए। आगामी बजट में मूलभूत ढांचा और सामाजिक क्षेत्र में ज्यादा आवंटन की उम्मीद गलत नहीं है, लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार।
4. उजला आर्थिक परिदृश्य
राष्ट्रपति का लोकतंत्र की गरिमा पर बल
राष्ट्रपति के बजट अभिभाषण के साथ आखिरकार बजट सत्र की शुरुआत हो गई। राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में लाल किले की घटना को दुखद बताते हुए कहा कि संविधान जहां अभिव्यक्ति की आजादी देता है और अभिव्यक्ति का सम्मान करता है, वहीं कानून के पालन की जरूरत को भी बताता है। कृषि सुधारों को दशकों से देश की जरूरत बताते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि विभिन्न राजनीतिक दलों ने समय-समय पर इन सुधारों का समर्थन भी किया है। राष्ट्रपति ने विश्वास जताया कि सरकार इन कानूनों को लेकर सुप्रीमकोर्ट के निर्देशों का पालन करेगी। वहीं राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने विश्वास जताया कि सरकार द्वारा चलाये जा रहे आत्मनिर्भर अभियान से खेती को मजबूती मिलेगी। साथ ही कहा कि सरकार ने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप न्यूनतम समर्थन मूल्य में डेढ़ गुना वृद्धि की है। दूसरी ओर सरकार एमएसपी पर अनाज की रिकॉर्ड खरीदारी भी कर रही है। आधुनिक सिंचाई तकनीकों का जिक्र करते हुए उन्होंने माइक्रो इरिगेशन तकनीक से किसानों को होने वाले लाभों का जिक्र भी किया। उन्होंने एलएसी पर भारतीय सैनिकों के पराक्रम को सराहा और गलवान में सैनिकों के बलिदान का भी जिक्र किया। हालांकि, कृषि सुधार कानूनों के विरोध में कांग्रेस समेत तमाम प्रमुख राजनीतिक दलों ने बजट सत्र की शुरुआत में राष्ट्रपति के संबोधन का बहिष्कार किया। विरोध करने वाले दलों में सपा, राजद, शिवसेना, तृणमूल कांग्रेस, माकपा,भाकपा, बसपा, अकाली दल व आम आदमी पार्टी शामिल रहे। इन राजनीतिक दलों का आरोप था कि पिछले सत्र में तीन कृषि कानूनों को पारित करने में पूरी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। वहीं सत्तारूढ़ दल का कहना था कि राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख हैं, उनका राजनीतिक कारणों से विरोध करना अनुचित है। ऐसे में अनुमान लगाया जा रहा है कि कृषि सुधार कानूनों और गणतंत्र दिवस पर लाल किले की घटना पर विपक्ष बजट सत्र में आक्रामक तेवर दिखाने के मूड में है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण आगामी एक फरवरी को आम बजट पेश करेंगी।
इससे पहले शुक्रवार को वित्त मंत्री ने लोकसभा में बजट से पहले आर्थिक सर्वे पेश करके भावी अर्थव्यवस्था की तस्वीर दिखाने की कोशिश की। दरअसल, हर साल पेश किये जाने वाले आर्थिक सर्वे को आर्थिकी पर आधिकारिक रपट माना जाता है, जिसमें जहां देश की वर्तमान अार्थिक स्थिति से अवगत कराया जाता है वहीं आगामी नीतियों व चुनौतियां का जिक्र होता है। जिसमें देश के विभिन्न क्षेत्रों की आर्थिक प्रगति का भी मूल्यांकन होता है। साथ ही सुधारों का खाका भी नजर आता है। हाल में कई अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों तथा आईएमएफ द्वारा अगले वित्तीय वर्ष में भारत को दुिनया की सबसे तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था बताये जाने से सरकार भी खासी उत्साहित है, जिसकी ध्वनि आर्थिक सर्वे में भी नजर आई है। निस्संदेह लॉकडाउन के बाद देश की अर्थव्यवस्था ने जिस तेजी से गोता लगाया था, उसके मुकाबले आर्थिकी की सेहत तेजी से सुधरना उम्मीद जगाने वाला है। वित्त वर्ष की पहली तिमाही में जहां 23.9 फीसदी की गिरावट देखी गई थी, वहीं दूसरी तिमाही में गिरावट अनुमान से कम ऋणात्मक रूप से 7.5 रही, जिसके पूरे वित्तीय वर्ष में ऋणात्मक रूप से 7.7 रहने का अनुमान है। आर्थिक सर्वेक्षण में देश की जीडीपी ग्यारह प्रतिशत से अधिक होने का अनुमान सरकार जता रही है। संकेत दिये जा रहे हैं कि सरकार बजट में जीडीपी का तीन फीसदी स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च करने का प्रावधान कर सकती है। बहरहाल, देश की अर्थव्यवस्था को कोविड संकट से पूर्व की अवस्था में आने में कुछ और वर्ष लगने के अनुमान हैं। यह भी एक हकीकत है कि राजकोषीय घाटा में कोरोना संकट से निपटने के उपायों के चलते वृद्धि हुई है। वहीं दूसरी ओर सरकार के करों और विनिवेश के लक्ष्य पूरे नहीं हो पाये हैं। लेकिन इसके बावजूद अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने हेतु क्रय शक्ति बढ़ाना तथा मांग व आपूर्ति में संतुलन कायम करना भी सरकार की प्राथमिकता होगी।