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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है

1.दिल्ली से खत का इंतजार-4

हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर इस समय भाजपा के तमाम मुख्यमंत्रियों के बीच अपनी रेटिंग सुधार पाए, तो यह सुरक्षा कवच पहनकर ही वह शिमला लौटे हैं। उत्तर प्रदेश में योगी और कर्नाटक में येदुरप्पा खुद को सत्ता का असली हकदार मानकर भाजपा आलाकमान को इस वक्त नचा रहे हैं। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीर्थ सिंह रावत और हरियाणा के मनोहर लाल खट्टर से कहीं बेहतर स्थिति में हिमाचल के मुख्यमंत्री का आकलन इसलिए भी हुआ है, क्योंकि वह केंद्र की नजरों में आज्ञाकारी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के अनुगततः हैं। राष्ट्रीय परिस्थितियों के बीच नड्डा की एक प्रयोगशाला का हिमाचली होना उन्हें हमेशा जयराम ठाकुर के नजदीक खड़ा करता है। यही एक वजह है कि मुख्यमंत्री के सामने न पार्टी और न ही सरकार के भीतर कोई चुनौती दिखाई देती है, भले ही कुछ लोग अति साहस में उनके विकल्प गिनते रहें। इतना ही नहीं जिस तरह पार्टी ने प्रदेशाध्यक्ष का चयन किया गया है, उससे मुख्यमंत्री के पास सत्ता और संगठन की असीम शक्तियां आ जाती हैं। अब तक दो उपचुनाव व स्थानीय निकाय चुनावों में उनकी राजनीतिक वास्तविकता पर कोई भी आंच नहीं आई है। यह दीगर है कि लोकतंत्र का असली समीक्षक तो आम मतदाता है, जो ऐन वक्त पर पाले बदल कर स्वतंत्र व निष्पक्ष फैसले देता है।

 सरकार के खिलाफ एंटी इंकमबैंसी का सही-सही मूल्यांकन होने में अभी वक्त है, लेकिन तीन दिशाओं में फैले उपचुनाव राजनीति की नई कहानी लिखने में सक्षम हैं। हिमाचल में अब तक के मुख्यमंत्रियों के पास असीम शक्तियां रही और इन्हें साबित करते हुए उनकी पकड़ प्रशासन से जनमानस तक रही है। जयराम ठाकुर इस मूल्यांकन में थोड़े से अलग दिखाई देते हैं, लेकिन उनकी कार्रवाइयों में अशांत सुर निद्रा में चले गए या उनकी स्थिति पतली हो गई। जयराम सरकार की संरचना में दिग्गज किशन कपूर, विपिन सिंह परमार, रमेश धवाला और दिवंगत नरेंद्र बरागटा कभी अपना स्थान हासिल नहीं कर सके। सत्ता लाभ के पदों पर मुख्यमंत्री की छवि की निजी मिलकीयत है या केंद्र की पटकथा में वह अहम किरदार पेश करते हैं। मुख्यमंत्री ने अपने किरदार की कुशल प्रस्तुति में अवश्य ही कुछ प्रयोग किए और इनमें जनमंच का अभिप्राय व कुछ हेल्प लाइन का मकसद पढ़ा जा सकता है। इन्वेस्टर मीट की तख्तियों पर जयराम कुछ ऐसा लिखना चाहते थे, जो उनके निजी आकार, संकल्प और इच्छा शक्ति का प्रतीक बनता, लेकिन कोरोना काल ने इसकी जमीन ही छीन ली। यह दीगर है कि उन्होंने अपनी वित्तीय मजबूरियों के बीच नए नगर निगमों का गठन और ऐसे ही कुछ फैसले लेकर पार्टी के पसंदीदा नेताओं की खुशामद की।

शांता कुमार का नाम इस कड़ी में सबसे ऊपर आता है जिन्होंने बाढ़ में डूबे सौरभ वन बिहार और तीन हजार आबादी की नगर परिषद को एक ही झटके में नगर निगम बना दिया, लेकिन राजनीतिक तौर पर यह सौदा घाटे का ही रहा। हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के बीच बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार जैसी छवि का अवलोकन अगर करेें, तो वह ब्यूरोक्रेसी के जरिए आगे बढ़ रहे हैं। नितीश कुमार का यह हुनर उन्हें सात बार मुख्यमंत्री बना सकता है, तो हो सकता है जिस जयराम ठाकुर को हिमाचल की राजनीति पढ़ने की कोशिश कर रही है, वह शेष कार्यकाल में कुछ अलग कर दिखाएं। कोविड की दूसरी लहर में वह कुछ भिन्न दिखे और अपने कंधों पर सारा बोझ उठा कर चले भी, लेकिन अभी कारवां बनाना शेष है। ब्यूरोक्रेसी अगर नजदीक व उनके बाजुओं का करिश्मा है, तो इसे साबित करके ‘सुशासन बाबू’ बनने की तहरीर अभी बाकी है। कोविड काल का यह दौर राजनीति की ऐसी शर्तें लिख रहा है, जो अतीत से कहीं अलग नेताओं की काबिलीयत लिखेगा। यह परीक्षा अगर हिंदुत्व के मैदान पर उत्तर प्रदेश के सीएम योगी को कमजोर कर रही है, तो हिमाचल के मैदान में जयराम ठाकुर को अवसर भी दे रही है। देखें वह अपने पक्ष में वर्तमान हवाओं को कहां तक ले जा पाते हैं।

2.मौत के आंकड़ों में ग़फलत!

बिहार में कोरोना-मौतों का आंकड़ा अचानक 3951 बढ़ गया है। मौतों की कुल संख्या 9429 हो गई है। नतीजतन देश भर में कोरोना से हुई मौतें 6100 के पार चली गई हैं। महाराष्ट्र के एक बड़े अख़बार के अनुसार, मौत के सरकारी आंकड़ों और जिलेवार डाटा के बीच 11,671 मौतों का अंतर है। गुजरात के स्थानीय मीडिया ने ऐसी रपटें छापी हैं कि करीब 61,000 मौतें छिपाई गई हैं। मृतक प्रमाण-पत्रों और श्मशान घाट तथा कब्रिस्तान के रिकॉर्ड से यह फासला सत्यापित किया जा सकता है। राजधानी दिल्ली में भी कोविड के कारण मौतों के आंकड़ों का सत्य सवालिया है। कर्नाटक भी करीब 4000 अतिरिक्त मौतें अपने रिकॉर्ड में जोड़ने जा रहा है। उत्तराखंड सरीखे छोटे राज्य को भी 868 मौतें कुल संख्या में जोड़नी पड़ी हैं। हालांकि ये प्रयास ‘बैकलॉग’ के तौर पर किए जा रहे हैं। पहाड़ी राज्यों में तो स्वास्थ्य सुविधाएं भी बेहद सीमित हैं और दूरदराज के गांवों में तो ‘राम भरोसे’ जीवन चल रहा है, लिहाजा मौत के आंकड़े अंतिम नहीं हो सकते। दरअसल अपने-अपने राज्यों के उच्च न्यायालयों के दबाव हैं कि कोरोना-मौतों का ऑडिट किया जाए और हलफनामा अदालत में दाखिल किया जाए, लिहाजा अब सरकारों को निजी अस्पतालों, घर में क्वारंटीन के दौरान, अस्पताल जाते हुए बीच रास्ते में ही कोविड के कारण जो मौतें हुई थीं, उनके आंकड़े भी जोड़ने पड़ रहे हैं।

 अभी तो मौतों का अर्द्धसत्य ही सामने आया है। राष्ट्रीय स्तर पर कोरोना-मौतों की कुल संख्या करीब 6.20 लाख होनी चाहिए, लेकिन सरकारी आंकड़ा 3.63 लाख से ज्यादा बताया जा रहा है। लगभग आधी मौतें…! वैश्विक महामारी में मौतों का डाटा छिपा कर या फर्जी बताकर सरकारों को क्या हासिल होगा? हमारा तो मानना है कि मौतों का ऑडिट देश भर में किया जाना चाहिए। उसे सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में टीम बनाकर किया जाना चाहिए, ताकि सरकारों और नौकरशाहों के स्तर पर कोई ग़फलत या गोलमाल की गुंज़ाइश न रहे। मौत तो अंतिम सत्य है। मौत का सम्मान किया जाना चाहिए। दुनिया के सबसे ताकतवर और सम्पन्न देश-अमरीका-में भी छह लाख से अधिक मौतें (सरकारी आंकड़ों के अनुसार) हो चुकी हैं। यूरोप में भी कोविड से कम लोग नहीं मरे हैं। यह वैश्विक महामारी के क्रूर प्रहारों का दौर है। तो मौतों के सच को क्यों दफन किया जाए? भारत के विभिन्न राज्यों में कोरोना-मौतों के असल आंकड़े अब बेनकाब हो रहे हैं। क्या मौतों का सही डाटा इसलिए छिपाया गया अथवा ग़फलत में गोलमाल जारी रहा, ताकि कम लोगों को मुआवजा देना पड़े। मुआवजा सरकारें अपनी जेब से देती हैं क्या? देश के नागरिकों का ही पैसा है! कोरोना-मौतों पर श्रेय लूटने की सियासत भी जारी है। अमरीका के ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने 12 विश्व स्तरीय विशेषज्ञों के सौजन्य से एक रपट प्रकाशित की थी, जिसमें दावा किया गया था कि भारत की 50 फीसदी आबादी, अर्थात् करीब 70 करोड़ लोग, कोरोना संक्रमण के शिकार हो चुके हैं।

विशेषज्ञों के आकलन थे कि सामान्य और बहुत खराब स्थितियों में 6 लाख से 42 लाख के बीच मौतें हो सकती हैं। यह विश्लेषण भारत के तीन सीरो सर्वे के आंकड़ों के आधार पर किया गया था। रपट के मुताबिक, भारत में संक्रमितों का असली आंकड़ा 13.5 से 28.5 गुना तक अधिक हो सकता है। भारत सरकार और उसके विशेषज्ञों ने यह आकलन खारिज कर दिया था। तब तक मौत के आंकड़ों का गोलमाल सामने नहीं आया था। चूंकि अब मौतों की संख्या 6.20 लाख के करीब आंकी जा रही है, जो ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ की रपट से मिलती है। संक्रमण के सही आंकड़ों का भी रहस्योद्घाटन हो सकता है। तब भारत सरकार क्या कहेगी? सरकारें डाटा छिपाती रही हैं, यह कोई नई बात नहीं है, लेकिन अब संदर्भ कोविड महामारी का है। देश में गंगा नदी में और अन्य नदियों में लाशें तैरती हुईं सामने आई थीं। वे भी मौत ही थीं। उन्हें किस खाते में गिना गया था? बेशक लावारिस हों, लेकिन भारतीय नागरिकों के शव ही थे। उनकी सम्यक टेस्टिंग होनी चाहिए थी। जांच तो आम गांवों तक में नहीं की गई, तो मौत का असल आंकड़ा सामने कैसे आएगा? लिहाजा राष्ट्रीय ऑडिट ही अंतिम विकल्प लगता है।

3.शिक्षा का सफर

अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण के नतीजे जहां कुछ मोर्चों पर खुशी देते हैं, वहीं कुछ मोर्चों पर चुनौती भी पेश करते हैं। सबसे बड़ी खुशी की बात यह है कि उच्च शिक्षा में छात्राओं का नामांकन पिछले वर्षों में बढ़ा है। साल 2015-16 से 2019-20 तक पांच वर्षों में उच्च शिक्षा में महिला नामांकन में 18.2 फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि कुल नामांकन में 11.4 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी यह सर्वेक्षण भारत में महिला शिक्षा सुधार की गति दर्शाता है। वैसे हम इस मोर्चे पर ज्यादा बेहतर प्रदर्शन कर सकते थे और हमें ऐसा करना ही चाहिए था, इसलिए यह प्रगति तुलनात्मक रूप से बेहतर भले लगे, पर समग्रता में पर्याप्त नहीं है। उच्च शिक्षा में महिलाओं के बढ़ते नामांकन से हमें अभिभूत नहीं होना चाहिए। अभी महिलाओं को शिक्षा के क्षेत्र में लंबी खाई को पाटना है। पुरुषों के साथ मिलकर शिक्षा के स्तर को ऊंचा उठाना है। अभी इतना जरूर कहा जा सकता है कि उच्च शिक्षा में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी उनकी बुनियादी मजबूती का संकेत है। शिक्षित महिलाएं ही श्रेष्ठ विकसित समाज का आधार बन सकती हैं। शिक्षा का यह मजबूत आधार महिला शिक्षा के साथ ही पुरुषों की शिक्षा को भी बल प्रदान करेगा और भारत की चमक बढ़ेगी। हालांकि, सर्वेक्षण में यह भी पाया गया है कि राष्ट्रीय महत्व के शिक्षा संस्थानों में छात्राओं की हिस्सेदारी कम है। सर्वेक्षण में यह भी पाया गया है कि व्यावसायिक पाठ्यक्रमोंमें महिलाओं की भागीदारी अकादमिक पाठ्यक्रमों की तुलना में कम है। सर्वेक्षण स्पष्ट संकेत कर रहा है कि लड़कियों को राष्ट्रीय महत्व के शिक्षा संस्थानों में अपनी पैठ बढ़ानी चाहिए। ऊंचे सपने और परिश्रम से पढ़ाई के बूते राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में लड़कियों के लिए पर्याप्त जगह बन सकती है। लेकिन आज के समय में भी अगर ज्यादातर महिलाएं व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के प्रति लगाव नहीं दर्शा रही हैं, तो चिंता वाजिब है। आर्थिक, सामाजिक मजबूती के लिए लड़कियों को रोजगार के जोखिम और मेहनत भरे पाठ्यक्रमों में भी जोर आजमाना चाहिए। अकादमिक पढ़ाई से एक स्तर तक ही लाभ है, जबकि व्यावसायिक पढ़ाई उद्यम के ज्यादा मौके प्रदान करती है। इसके अलावा, भारत में पीएचडी में अगर एक प्रतिशत छात्र-छात्राओं का भी नामांकन नहीं हो पा रहा है, तो हमें सोचना होगा। पीएचडी का आकर्षण क्यों कम हुआ है? क्या पीएचडी से वाजिब नौकरी मिल जाती है? प्रस्तुत सर्वेक्षण में कुल 1,019 विश्वविद्यालयों, 39,955 कॉलेजों और 9,599 एकल संस्थानों ने भाग लिया है, यह दायरा बड़ा होना चाहिए। खुशी की बात है, उच्च शिक्षा में नामांकित कुल छात्रों में से अनुसूचित जाति के छात्र 14.7 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति के 5.6 प्रतिशत और 37 प्रतिशत छात्र अन्य पिछड़ा वर्ग से थे। 5.5 प्रतिशत छात्र मुस्लिम अल्पसंख्यक और 2.3 प्रतिशत छात्र अन्य अल्पसंख्यक समुदायों से थे। एक बात गौर करने की है कि भारत में 78.6 प्रतिशत से अधिक कॉलेज निजी क्षेत्र द्वारा चलाए जा रहे हैं, जो कुल नामांकन का 66.3 प्रतिशत है। भारत जैसे देश में ज्यादातर शिक्षा का काम सरकार के जिम्मे ही होना चाहिए, अगर ऐसा होता, तो शायद हमारे यहां शिक्षा की स्थिति ज्यादा बेहतर और समावेशी होती।

4.नाकामी का पर्दा

हर गई जान को जानने का हक

यूं तो देश-विदेश के मीडिया में यह बात आम थी कि कोरोना संक्रमण से होने वाली मौतों की वास्तविक संख्या सामने नहीं आ रही है। कई देशी-विदेशी संस्थानों के अध्ययन से भी खुलासा हुआ था कि मरने वालों के सरकारी आंकड़ों तथा वास्तविक आंकड़ों में बहुत अंतर है। खासकर ग्रामीण इलाकों में जहां जांच व इलाज का नितांत अभाव रहा है, वहां बड़ी संख्या में लोगों के मरने की आशंका जतायी गई। एक वास्तविकता यह भी थी कि उपचार व ऑक्सीजन न मिलने से उपजी बेबसी, श्मशान घाटों पर शवों का दबाव व गंगा में तैरती व घाटों पर दफन लाशों की संख्या सरकारी आंकड़ों से मेल नहीं खा रही थी। बुधवार को बिहार सरकार ने जिस तरह कोरोना संक्रमण से मरने वालों की संख्या को संशोधित किया, उसने पूरे देश को चौंकाया। इन आंकड़ों से राज्य में एक दिन में कोरोना से मरने वालों की संख्या में करीब चार हजार की बढ़ोतरी हुई। यह वृद्धि कुल आंकड़ों में 73 फीसदी थी, जिसके चलते राष्ट्रीय स्तर मरने वालों का प्रतिदिन का आंकड़ा छह हजार से अधिक हो गया। यह आंकड़ा पूरी दुनिया में एक दिन में मरने वालों का सबसे बड़ा आंकड़ा है। दरअसल, पटना हाईकोर्ट ने मृतकों की वास्तविक संख्या सामने न आने के आरोपों पर राज्य को अप्रैल-मई में कोरोना से मरने वालों की संख्या का ऑडिट करने का आदेश दिया। उसके बाद जिलास्तर पर समितियों का गठन किया गया था। जिसके चलते बुधवार को मरने वालों का 3971 का आंकड़ा सामने आया। दरअसल, इन आंकड़ों में उन मौतों को भी जोड़ा गया जो निजी अस्पतालों तथा होम क्वारंटीन में हुईं। एक बार कोरोना से ठीक हो जाने के बाद होने वाली जटिलता के प्रभावों से हुई मौतें भी इसमें शामिल रही। इसके अलावा वे मौतें भी जो अस्पताल ले जाने के वक्त रास्ते में हुई। निस्संदेह, पहले ही महामारी के दौरान हुई हर मौत आंकड़ों में दर्ज होनी चाहिए थी।

निस्संदेह, ऐसे संकट में आंकड़ों का विश्वसनीय होना बहुत जरूरी है। यहां सवाल बिहार का ही नहीं है, पूरे देश में नये सिरे से संशोधित आंकड़े सामने आने चाहिए। बिहार जैसी पहल हर राज्य में होनी चाहिए। इससे पता चलता है कि राज्य सरकारें अपनी नाकामी पर पर्दा डालने के लिये सही आंकड़ों को सामने नहीं आने देना चाहती। निस्संदेह कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर भयावह थी और देश का पहले से कमजोर चिकित्सा ढांचा इससे चरमरा गया, लेकिन सरकारों की तरफ से गंभीर पहल तो होनी ही चाहिए थी। लंबे समय से विपक्षी दल और विदेशी मीडिया भारत में कोरोना संक्रमण, ठीक होने वालों तथा मृतकों के आंकड़ों पर सवालिया निशाना लगाता रहा है। जो बताता है कि राज्य सरकारें महामारी से जुड़े आंकड़ों को सहेजने में गंभीर व सतर्क नहीं रहीं। होना तो यह चाहिए था कि गांव, ब्लॉक व जिलास्तर पर ऐसे आंकड़ों को जुटाने के लिये ईमानदार कोशिश होती। स्थानीय प्रशासन, निजी प्रयासों व अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से समय रहते वास्तविक आंकड़े जुटाये जाते तो सरकारों की नीति-नीयत पर ऐसे सवाल न उठाये जाते। निस्संदेह, दूसरी लहर की समाप्ति के बाद सरकारों की आंकड़ों की विश्वसनीयता को लेकर हमले और तेज होंगे। सूचना क्रांति और सोशल मीडिया के दौर में आंकड़ों पर पर्दा डालना मुश्किल है। वहीं दूसरी ओर महामारी के इस दौर में आंकड़ों का भविष्य में भी विशेष महत्व होगा। संक्रमितों व मृतकों के आंकड़ों से हासिल जानकारी से हमें भविष्य में आने वाली किसी आपदा से लड़ने की तैयारी में भी मदद मिलेगी। यह सरकारों की विश्वसनीयता का सवाल भी है। एक हकीकत यह भी है कि भारत जैसे विशाल व जटिलताओं वाले देश में हर आंकड़ा जुटाना आसान नहीं है, लेकिन सरकारों की तरफ से उपलब्ध संसाधनों के आधार पर ईमानदार कोशिश तो होती नजर आनी चाहिए। अन्यथा सरकारी आंकड़ों के मायने अविश्वास कहा जाने लगेगा। देश को महामारी में गई हर जान के बारे में जानने का हक है।

 

 

 

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