इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.डलहौजी के नाम में क्या रखा है
कभी खजियार को स्विट्जरलैंड बनाने चले शांता कुमार डलहौजी का नाम बदलवाकर किसी समस्या का समाधान कर रहे हैं या किसी समस्या का विकास कर रहे हैं। आखिर क्यों डलहौजी अब राजनीति की आंख में किरिच पैदा कर रहा है और शांता सरीखे नेता को इतिहास के गड्ढे खोदने पड़ रहे हैं। न इतिहास के कब्जे में भूगोल और न ही भूगोल के कब्जे में इतिहास जिंदा रह सकता है, बल्कि प्रतीक बदलने के वर्तमान दौर और असफलताओं के द्वंद्व में सत्ता कमजोर नजर आती है, तो इबारत और इबादत के झगड़ों की पनाह में ऐसे मुद्दे उछल रहे हैं। इतिहास को दीवारों पर लिखना या किसी चमचमाती होर्डिंग को इतिहास समझ लेना, वर्तमान की संतुष्टि में कुछ अर्जित करना है, तो सुब्रह्मण्यम स्वामी से शांता कुमार तक के नेता अपना नाक ऊंचा कर सकते हैं। पूरे देश की तरह नाम बदलने के बहाने तो हिमाचल में गढ़े जा सकते हैं, फिर 1854 में अस्तित्व में आए डलहौजी का 167 साल का इतिहास ही क्यों न हो।
बेशक रविंद्र नाथ टैगोर, नेता जी सुभाष चंद्र बोस या अजीत सिंह के कदमों की आहट उन देवदारों को मालूम होगी, जो आज भी आजादी की हवाओं का गीत सुनाते हैं। भारतीय इतिहास को लिखती विभूतियों का स्मरण और उनकी याद में डलहौजी का स्पर्श चिरस्थायी स्तंभों के मानिंद आज भी गौरव में अपनत्व देखता है। ऐसे में इतिहास को संजोए स्मारक बनने ही चाहिएं, लेकिन शहर के संदूक में नाम परिवर्तन का गूदड़ भरकर हम कौन सी संपत्ति अर्जित करना चाहते हैं। अगर यही सच है तो सर्वप्रथम शिमला को श्यामला बनाते हुए यह गौर फरमाएं कि वहां की आबोहवा में पली ब्रिटिश काल की इमारतों के बिना हमने क्या सिंचित किया है। हिमाचल के जिन शहरों के साथ किसी ब्रिटिश हस्ती का नाम चस्पां है या गंज की आवाज गूंजती है, फिर इन्हें भी हटाना होगा। नूरपुर जैसे नाम या अलहिलाल जैसा छावनी क्षेत्र फिर अपने अर्थ में विषाक्त हैं।
मकलोडगंज के सिर पर भूत सवार हो, तो इसे भी आजादी की तलवारें धारण करने की मनाही तो नहीं हो सकती, लेकिन शांता कुमार यह बताएं कि क्या अंग्रेजों के लौटने के 74 सालों बाद भी हम कोई एक नया हिल स्टेशन बना पाए। आप कांगड़ा घाटी रेल को अपने इतिहास के पुरुषों से जोड़ दें या रेलवे स्टेशनों के नाम बदल दें, लेकिन इन पटरियों पर अभी भी अंग्रेजी हुकूमत का लोहा मेहनत कर रहा है। ऐसा नहीं है तो आप पठानकोट से मंडी ब्रॉडगेज रेल लाइन के सपने दिखाने के बजाय क्या कर पाए। अगर पौंग बांध में कांगड़ा की कुर्बानियों का दर्द है, तो फिर इसका नामकरण अंग्रेजों के खिलाफ पहली बगावत का बिगुल फूंकने वाले वजीर राम सिंह पठानिया के नाम पर क्यों नहीं हुआ। इसी तरह पालमपुर का नाम मेजर सोमनाथ कर देने के तर्क भी तो पैदा होते हैं। क्या कृषि विश्वविद्यालय या बैजनाथ कालेज का नाम राजनेताओं के साथ जुड़ना भारतीयता या राष्ट्रीयता है। जांबाज तो कई होंगे, फिर पहाड़ी गांधी कांशी राम के नाम पर स्थापित धर्मशाला के लेखक गृह से जब उनका नाम हटाया गया, तो एक स्वतंत्रता सेनानी के खिलाफ आपकी ही सरकार द्वारा पारित आदेश धन्य कैसे हो गया। अगर अतीत को पौंछा लगा देने से ही भारत सोने की चिडि़या हो जाता है, तो हजारों नाम, लाखों इमारतें और करोड़ों लोगों की पहचान मिटा दें, वरना डलहौजी कल किसी और नाम से भी पुकारा जाए तो न वहां के बेरोजगार को नौकरी मिलेगी, न चंबा को आपके द्वारा घोषित सीमेंट प्लांट मिलेगा। अगर आपकी पार्टी नाम परिवर्तन को विकास का शिलालेख बना सकती है, तो हर दीन-दुखी, पिछड़े व अगड़ों के भी नाम बदल कर उन्हें अच्छी जिंदगी का हक दिलाइए, वरना डलहौजी तो किसी दिन अपनी ही मौत इसलिए मर जाएगा, क्योंकि आजादी के बाद जिन्हें सत्ता मिलती रही है, वे तमाम ‘हीरे’ हमें कोयले की खान बना कर ही छोड़ेंगे।
2.370 की बहाली संभव नहीं
जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 संविधान में एक ‘अस्थायी व्यवस्था’ के तौर पर लागू किया गया था। संविधान सभा में हमारे राजनीतिक पुरखों ने इस व्यवस्था पर व्यापक विमर्श किया था। नतीजतन 14 मई, 1954 को राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने ऐसी ‘अस्थायी व्यवस्था’ को स्वीकृति दी थी और जाहिर है कि उसे अधिसूचित भी किया गया। संविधान सभा को 1956 में समाप्त घोषित किया गया, क्योंकि तब तक देश में संविधान पूरी तरह लागू किया जा चुका था। संविधान सभा की उत्तरदायी संस्था संसद को स्वीकार किया गया, लिहाजा उसे ही संवैधानिक संशोधन, बदलाव या किसी अन्य स्थिति के लिए अधिकृत किया गया। तब से भारत में संसद ही ‘सुप्रीम’ मानी जा रही है, क्योंकि सांसदों के जरिए वह ही लोकतंत्र और संविधान की प्रतीक है। अनुच्छेद 370 और 35-ए की संवैधानिक ज़रूरत क्या थी और आज भी क्या है तथा भारत में जम्मू-कश्मीर रियासत के विलय की शर्तें क्या तय की गई थीं, हम उस ऐतिहासिक अतीत और गलतियों को खंगालना नहीं चाहते, क्योंकि इन अनुच्छेदों की विशेष व्यवस्था का उल्लेख और विश्लेषण असंख्य बार किया जा चुका है।
अहम और बुनियादी सवाल आज भी यह है कि संविधान की ‘अस्थायी व्यवस्था’ 65 लंबे सालों तक लागू क्यों रही? क्या ‘अस्थायी व्यवस्था’ की यही परिभाषा थी? दरअसल कश्मीर में भारत के राष्ट्र-ध्वज ‘तिरंगे’ की कोई मान्यता नहीं थी। कश्मीर का अपना झंडा था और संविधान भी अपना ही था। भारत के राष्ट्रपति को कश्मीर का संविधान बर्खास्त करने अथवा अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू कराने का संवैधानिक अधिकार नहीं था। अनुच्छेद 360 के तहत देश में वित्तीय आपातकाल चस्पा किया जा सकता है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में उसे प्रभावी नहीं बनाया जा सकता था। शहरी भूमि कानून और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम भी कश्मीर में लागू नहीं थे। अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं थी। संसद में पारित होने के बावजूद सूचना का अधिकार कानून भी कश्मीर में अप्रभावी था। परमिट लेकर कश्मीर में प्रवेश किया जा सकता था मानो भारत का राज्य न हो! नियंत्रक एवं महालेखाकार की ऑडिट व्यवस्था भी कश्मीर से परे रखी गई थी। यहां तक कि भारतीय दंड संहिता की धाराएं भी जम्मू-कश्मीर में अप्रासंगिक थीं। देश के प्रथम उद्योग, वाणिज्य मंत्री एवं ‘जनसंघ’ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर में ‘एक विधान, एक निशान, एक प्रधान’ का नारा बुलंद करते हुए आंदोलन खड़ा किया था और अंततः उनका बलिदान भी रहस्यमयी बना दिया गया। भारत का अभिन्न और अंतरंग हिस्सा होने के बावजूद जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के भूक्षेत्र शेष भारत से अलग, कटे हुए लगते थे। कश्मीरियत क्या गोरी, लाल चमड़ी वाली विशेष जमात थी, जिसे शेष हिंदुस्तान से अलग रखा गया। कमाल यह रहा कि यहां से चुने हुए सांसद भारतीय संसद में विराजते थे और सरकारी वेतन, भत्ते बटोरते थे! सवाल यह है कि कश्मीर में ही, देश के संविधान, तिरंगे और प्रधानमंत्री से अलग, व्यवस्था क्यों की गई? हम प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के तत्कालीन फैसलों की मीमांसा भी नहीं करेंगे। उन्होंने ही कश्मीर का प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को बना रखा था। दोस्ती, सियासत अथवा कोई विवशता थी? आज यह अनुत्तरित है, क्योंकि कांग्रेस तत्कालीन इतिहास की व्याख्या अपने तौर पर करती है। तभी पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं सांसद दिग्विजय सिंह यह बयान दे देते हैं कि कांग्रेस सत्ता में आई, तो अनुच्छेद 370 की बहाली पर पुनर्विचार करेगी।
संसद में 370 का प्रस्ताव दो-तिहाई बहुमत से ज्यादा मतों के बाद ही संभव हुआ था। कांग्रेस इतनी छिन्न-भिन्न स्थिति में है कि सरकार में आना दिवास्वप्न ही है और वह भी संविधान संशोधन के तौर पर दोबारा पारित कराना संभव नहीं लगता। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री से सवाल कर सकते हैं कि इस संशोधन की जरूरत क्या है? अगस्त, 2019 में अनुच्छेद 370 और 35-ए खारिज कर दिए गए। सर्वोच्च न्यायालय समीक्षा कर सकता है, लेकिन फिलहाल यह व्यवस्था समाप्त है। जो पाबंदियां थीं, वे सभी हटाई जा चुकी हैं। विशुद्ध और संवैधानिक तौर पर जम्मू-कश्मीर आज भारत का संघशासित क्षेत्र है। मुट्ठी भर स्वार्थी और राजनीतिक चेहरों को छोड़ कर किसी ने भी 370 की बात नहीं की है। न कोई आंदोलन है, न अराजकता, न हिंसा, न पत्थरबाजी और न ही जेहादी आतंकवाद की क्रूरता…। आर्थिक विकास के प्रयास जारी हैं। पंचायत स्तर के चुनाव हुए हैं, तो जम्हूरियत का इससे जीवंत उदाहरण और क्या हो सकता है? दिग्विजय ने बयान दिया है, तो कांग्रेस ही उनसेस्पष्टीकरण मांगे। कांग्रेस की ऐसी मानसिकता है, तो यह देश देख लेगा कि जनादेश किसे देना है!
3.अंतरिक्ष में यूरोप
अंतरिक्ष अभियानों का वैज्ञानिक ही नहीं, बहुआयामी महत्व होता है। यह उत्साहजनक है कि यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) ने तीन व्यापक अंतरिक्ष अभियानों की घोषणा की है। एक अरब यूरो से ज्यादा इन अभियानों पर खर्च होंगे और ये अभियान 2035 से 2050 के बीच साकार होंगे। यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी बृहस्पति व शनि ग्रह के आसपास के बर्फीले चंद्रमाओं को करीब से देखने के लक्ष्य के साथ आगे बढ़ रही है। इन ग्रहों और इनके चंद्रमाओं के आसपास के वायुमंडल की पड़ताल जरूरी है। सितारों, आकाशगंगाओं और ब्लैक होल की दिशा में भी खोज का लक्ष्य है। यूरोप की अंतरिक्ष योजनाएं काफी महत्वाकांक्षी और अनुकरणीय हैं। ईएसए के विज्ञान निदेशक गुंथर हसिंगर ने एक बयान में कहा है, ‘हमें उन मिशनों के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी की योजना बनानी चाहिए, जिन्हें हम आज से दशकों बाद लॉन्च करना चाहते हैं।’ वाकई ऐसे अभियानों में वक्त लगता है। ईएसए लगभग हर दशक या दो दशक में विज्ञान अभियान की नई इबारत लिखना चाहता है। कॉस्मिक विजन नामक वर्तमान कार्यक्रम में तीन प्रमुख अभियान हैं- बृहस्पति व शनि के चंद्रमाओं के अध्ययन के लिए एक अंतरिक्ष यान, एक एक्स-रे टेलीस्कोप और एक गुरुत्वाकर्षण तरंग डिटेक्टर अभियान।
यह प्रशंसा की बात है कि यूरोपीय देशों की लंबी-चौड़ी टीम अंतरिक्ष विज्ञान की दिशा में दिन-रात तरक्की में जुटी है। यूरोप भी सौर मंडल में जीवन की तलाश के लिए उत्सुक है। यूरोपीय वैज्ञानिकों को लगता है कि उन चंद्रमाओं के जमे हुए गोले के नीचे पानी के महासागर छिपे हो सकते हैं। इस अभियान में इन चंद्रमाओं की न सिर्फ परिक्रमा संभव बनाई जाएगी, बल्कि इसमें लैंडर और ड्रोन भी शामिल होंगे। यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के वैज्ञानिकों के बीच दूसरे ग्रहों के चंद्रमाओं को लेकर बड़ी जिज्ञासा रही है। एजेंसी ने वर्ष 2005 में भी शनि के चंद्रमा टाइटन पर अपने अभियान को आगे बढ़ाया था। यूरोपीय एजेंसी के अलावा नासा भी चंद्रमाओं और उन पर जीवन की खोज में जुटा है। यूरोपीय वैज्ञानिक प्रारंभिक ब्रह्मांड की भी जांच करना चाहते हैं। ब्रह्मांड के विस्तार और आकाशगंगाओं के गठन की पड़ताल आने वाले वर्षों में बहुत महत्वपूर्ण होने वाली है। वैज्ञानिकों ने जिज्ञासा की लंबी सूची तैयार कर रखी है, वे अपने अभियान में किसी भी संभावना को खारिज नहीं करना चाहते।
4.आफत में राहत
उपचार के साधनों पर जीएसटी छूट
ऐसे वक्त में जब कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर उतार पर है, अब जाकर केंद्र सरकार ने कोरोना उपचार में काम आने वाले उपकरणों व दवाओं पर जीएसटी दरों को घटाया है। यह छूट सितंबर माह तक ही रहेगी। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण की अध्यक्षता में हुई जीएसटी परिषद की 44 वीं बैठक में यह निर्णय लिया गया। जीएसटी दरों को आवश्यकता अनुसार अलग-अलग ढंग से घटाया गया। परिषद ने कोविड वैक्सीन पर जीएसटी दर पांच फीसदी रखने का निर्णय लिया। वहीं एम्बुलेंस पर जीएसटी दर 28 फीसदी से घटाकर बारह फीसदी कर दी गई। कोरोना संक्रमण में काम आने वाली कुछ दवाओं मसलन रेमडेसिविर पर जीएसटी दर बारह फीसदी से पांच फीसदी कर दी गई। अन्य उपकरणों मसलन मेडिकल ग्रेड ऑक्सीजन, ऑक्सीजन कंसंट्रेटर, जनरेटर, वेंटिलेटर, वेंटिलेटर मास्क आदि की दर बारह फीसदी से पांच फीसदी कर दी गई। इसके अतिरिक्त कोविड टेस्टिंग किट, पल्स ऑक्सीमीटर, थर्मामीटर व डायग्नॉस्टिक किट पर भी यह दर बारह से घटाकर पांच फीसदी कर दी गई। वहीं विद्युत शवदाहगृह की जीएसटी घटाकर पांच फीसदी कर दी गई है। दूसरी ओर देश में ब्लैक फंगस का प्रकोप देखते हुए इसके उपचार में काम आने वाली दवाओं पर जीएसटी दर शून्य कर दी गई है। ये दरें इसी हफ्ते लागू हो जायेंगी।
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण कह रही हैं कि केंद्र वैक्सीन खरीद रही है और लोगों को मुफ्त मुहैया करायी जायेगी। लेकिन आम राय है कि महामारी के दौर में वैक्सीन को जीएसटी से मुक्त किया जाता। जीएसटी के चलते निजी अस्पतालों में वैक्सीन लगाने वालों को ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी। निस्संदेह निजी अस्पताल जीएसटी का बोझ टीका लेने वालों पर डाल देंगे। ऐसे में जब देश को तेज टीकाकरण की जरूरत है, टीकाकरण को इस महामारी से बचने और देश की स्थिति सामान्य बनाने का अंतिम उपाय बताया जा रहा है तो वैक्सीन को पूरी तरह जीएसटी से मुक्त किया जाना चाहिए। कुछ मध्यमवर्गीय लोग भी भीड़-भाड़ में संक्रमण के भय और सरकारी अस्पतालों की लंबी प्रतीक्षा सूची के चलते निजी अस्पतालों को टीकाकरण हेतु प्राथमिकता दे सकते हैं। उन पर भी जीएसटी का भार पड़ेगा। वैसे भी सरकार ने ये कदम देर से उठाये हैं। ऐसे हालात में जब देश में तीसरी लहर की बात की जा रही है, कुछ और जरूरी चिकित्सा उपकरणों व कोविड रोधी दवाओं को जीएसटी से छूट देने की जरूरत थी। जिससे देश में मजबूत चिकित्सा ढांचा बनाने में मदद मिलती। खासकर हमारे ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा तंत्र में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। सरकार को विद्युत शवदाह गृहों को भी जीएसटी से मुक्त करना चाहिए था। दूसरी लहर में जिस तरह लकड़ी का संकट पैदा हुआ और लोगों ने जैसे मजबूरी में शवों को नदियों में बहाया तथा तटों पर दफन किया, उसे देखते हुए देश में विद्युत शवदाह गृहों की कमी को महसूस किया जा रहा है। सरकार को ऐसे फैसले लेते वक्त संवेदनशील व मानवीय दृष्टिकोण को तरजीह देनी चाहिए।