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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है

1.सत्ता की आकृति में-1

मंथन की मधुशाला में सत्ता का नशा जितना उतर जाए, उसी को मंथन कहते हैं, फिर भी ताश की गड्ढियां लिए अपने-अपने पत्ते छिपाने का हुनर बरकरार है। इसी हुनर को पेश करता रिपोर्ट कार्ड ऐसी रस्में चुन रहा है, जिसके कारण हिमाचल की भाजपा सरकार का पुनःभाग्योदय होगा। एक बड़े खाके पर सत्ता की आकृतियां और दूर अपनी ही परछाई के आगोश में प्रदर्शन। लोग अपने ही विधायकों की लुका छिपी में कोविड काल के अंधेरों से वाकिफ होते रहे या भाग्य को मांजने की चिरस्थायी कोशिश में यह देखते गए कि सरकारी बदलियों के आलम में दफ्तरों के बोर्ड कितने बदल गए। फिर एक नई पीढ़ी रोजगार के इंतजार में बढ़ गई, लेकिन इन्हीं खट्टी-मीठी यादों को चुराने की अदा में राजनीति ने अपने करामात कर दिखाए। कमोबेश हर सरकार एक वातावरण खड़ा करती है, जाहिर है जयराम सरकार ने भी किया और अब उसी के धरातल पर उपचुनावों से आगामी विधानसभा चुनावों तक की फेहरिस्त में अपनी ही आंधियों से मुलाकात होगी।

 हर विधायक खुद अपने राजनीतिक कारोबार का मूल्यांकन करता रहता है, लेकिन पार्टी को आगामी चुनावों में विजयश्री दिलाने के लिए क्या और कितना काम किया, इसका विश्लेषण वर्तमान मंथन की तासीर बता रही है। हिमाचल में हर विधायक की किस्मत नहीं कि वह सत्ता का शिरोमणि बने, यहां तक कि सत्तारूढ़ दल में भी कई पंछी पिंजरे में ही रहते हैं। दुखती रग के रूप में हिमाचल की हर सत्ता के सामने कुछ असफल चेहरे, विक्षुब्ध नेता और भारहीन प्रवक्ता रहे हैं। अब तो सोशल मीडिया के दौर में कितनी खिचडि़यां पक जाएं, यह अंदाजा लगाना भी मुश्किल है, इसलिए राजनीतिक नमक-हलाली में हिमाचल निरंतर कमजोर पड़ रहा है। पिछली वीरभद्र या धूमल की सरकार हो, मिशन रिपीट को फांसी लगाने वाले सरकार के विधायक ही नहीं, मंत्री भी रहे। वीरभद्र सिंह सरकार के दिग्गज मंत्रियों जीएस बाली, कौल सिंह या सुधीर शर्मा सरीखे नेताओं की हार का दोष निकालें, तो कांग्रेस के पांव में अपनों की ही कीलें चुभीं। कुछ ऐसी ही कुल्हाड़ी धूमल सरकार के मिशन रिपीट ने खुद अपने पांव में दे मारी थी। अब देखना यह है कि जयराम सरकार ने पूर्ववर्ती सरकारों के असफल मिशन रिपीट से क्या सीखा और भाजपा इस बार कितनी भिन्न सत्ता को जी रही है। क्या पार्टी के भीतर एकजुटता के साथ-साथ सत्ता की ऐसी कर्मठता भी है, जो समाज के आईने बदल देगी या कोविड काल की अनिश्चितता में कारवां बदल रही है। जो भी हो भाजपा के चिंतन में सबसे अहम विषय, सुशासन की दरकार में सरकार का रिपोर्ट कार्ड ही होना चाहिए।

राजनीति की पुडि़या से कहीं अलग सरकार की जरूरतें और प्रदर्शन की लोकतांत्रिक सीढि़यां रहती हैं। कई नेता ‘खुल जा सिम सिम’ की तरह अपनी सरकार पाकर फकीर हैं, तो कई अपने वजन को दिखाने में आज भी मजबूर हैं। सरकार में पार्टी की एडजस्टमेंट, कई नेताओं को लाभार्थी बना गई, लेकिन साढ़े तीन साल के लंबे इंतजार में जो पिछड़ गए, उनका मंथन कौन सुनेगा। जो समर्थक, भाजपा प्रशंसक या नेता अपनी ही सत्ता की सीढि़यों पर फिसले हैं, उनके घाव कैसे भरेंगे। जो मंत्री पद पर होते हुए भी, मंत्री दिखाई नहीं दिए या जिनका मंत्री पद चला गया, वे अपना मूल्यांकन क्या कभी कर पाएंगे। भाजपा के भीतर भी जो नेता अपने परिवार की ही विरास्त को सुदृढ़ करने में जुटे हैं, क्या वे सत्ता की वापसी के लिए ईंटें चिन पाएंगे। साफ नजर आता है कि सत्ता की इस भीड़ में किस नेता का बेटा, बेटी या रिश्तेदार चमक रहा है। कुछ इसी तरह विधायकों की जिन मेहरबानियों से अधिकारी-कर्मचारी, ठेकेदार या रोजगार के अवसर सामने आए, उनके विरोध में भी तो कई सक्षम, उपेक्षित और ईमानदार लोग दिन गिन रहे होंगे। कई रिपोर्ट कार्ड होंगे, जो कभी टूटी सड़क का हवाला देंगे, तो कभी ढहते विकास के बीच ठेकेदार की खबर लेंगे। कार्यालयों में सुशासन का उत्पादन अगर फाइलों के उत्पात से हार गया, तो किस विधायक में दम होगा कि उलझी कार्य संस्कृति को शेष बचे कार्यकाल में सुधार दे।

2.विवाद का टीका

कोरोना वायरस के कोवैक्सीन टीके में गाय के नवजात बछड़े का खून (सीरम) नहीं है। अलबत्ता यह टीका बनाने की वैज्ञानिक और तकनीकी प्रक्रिया का एक वैश्विक घटक जरूर है। गोवंश के अलावा बंदर आदि जानवरों का सीरम भी टीके बनाने की प्रक्रिया में इस्तेमाल किया जाता रहा है। यह कोई ऐसा रहस्योद्घाटन नहीं है कि लोगों की आस्था और विश्वास से जोड़ कर जिसका मूल्यांकन किया जाए। यह सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने का भी मुद्दा नहीं है। दरअसल जो कोवैक्सीन टीका लोगों को लगाया जा रहा है, उसमें बछड़े के खून का अंश तक भी नहीं है। यह पूर्णत: शुद्ध और सुरक्षित टीका है, जिसका डाटा अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका ‘द लांसेटÓ में छप चुका है। दुनिया की चिकित्सा बिरादरी भी उसे स्वीकार कर चुकी है। भारत में ही प्रधानमंत्री मोदी समेत करोड़ों नागरिक यह टीका लगवा चुके हैं, लेकिन मौत या शारीरिक गड़बड़ी की एक भी पुष्ट सूचना नहीं है। दरअसल कांग्रेस ने जिस तरह इस मुद्दे को हवा दी है, वह देश-विरोधी हरकत है। बेशक सूचना के अधिकार कानून ने अपनी पेशेवर ईमानदारी के तहत, इस संदर्भ में, सवाल का जवाब दिया था।

 उसे सार्वजनिक करने और ट्विटर पर पोस्ट करने की ज़रूरत क्या थी? कोवैक्सीन के वैज्ञानिकों ने ऐसी कौन-सी आपत्तिजनक और अमानवीय वस्तु का इस्तेमाल किया था, जिसे कांग्रेस सोशल मीडिया के राष्ट्रीय समन्वयक गौरव पांधी ने साझा किया? इस विषय के जानकार विशेषज्ञों और चिकित्सकों ने भी स्पष्टतः खुलासा किया है कि पोलियो, रैबीज और इनफ्लूएंजा आदि के टीकों में भी सीरम और ऐसे घटकों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। यही नहीं, कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने भी खुलासा किया है कि डेयरी उत्पादों में भी सीरम या ऐसे पदार्थों का प्रयोग किया जाता रहा है। तो कांग्रेस के मंसूबे क्या थे कि उसके एक राष्ट्रीय प्रतिनिधि ने सोशल मीडिया के मंच पर इस जानकारी को साझा किया? वह अर्द्धसत्य था। क्या पार्टी को एहसास था कि ऐसा दुष्प्रचार करने से टीकाकरण का राष्ट्रीय अभियान पटरी से उतर सकता है? यदि टीकाकरण नाकाम रहा, तो देश में कोरोना संक्रमण के हालात कैसे होंगे, क्या कभी कल्पना की है? एक पक्ष टीके में बछड़े के खून की बात कहेगा और एक अन्य पक्ष सुअर की चर्बी के भ्रम फैलाएगा, तो ऐसे दुष्प्रचार की राष्ट्रीय नियति क्या हो सकती है? अब भी हमारे ग्रामीण, पिछड़े और अनपढ़ इलाकों में लोग कोरोना टीका लगवाने के आग्रह के नाम पर पत्थर उठाने लगते हें। लाठियां और डंडे भी दिखाने लगते हैं। उन लोगों को खोखला भय है कि टीके से मौत हो जाएगी अथवा कोई गंभीर बीमारी पैदा हो सकती है या वे नपुंसक हो सकते हैं। ऐसे आशंकित माहौल में ‘बछड़े के खून’ का दुष्प्रचार किया जाएगा, तो उसके फलितार्थ क्या हो सकते हैं?

दरअसल कोरोना टीका बनाते हुए वेरो कोशिकाएं तैयार करने और उनके विकास के लिए बछड़े के सीरम का इस्तेमाल किया जाता है। सीरम एक मानक संवर्धन संघटक है, जिसका इस्तेमाल पूरी दुनिया में वेरो कोशिकाओं के लिए किया जाता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि ऐसी कोशिकाएं विकसित होने के बाद उन्हें पानी और रसायनों से अच्छी तरह साफ किया जाता है, ताकि वे नवजात बछड़े के सीरम से मुक्त हो सकें। उसके बाद वेरो कोशिकाओं को कोरोना से संक्रमित किया जाता है, ताकि वायरस विकसित हो सके। इस प्रक्रिया में कोशिकाएं पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं। बाद में वायरस भी खत्म हो जाता है। नष्ट वायरस का इस्तेमाल टीका बनाने में किया जाता है। यही कोवैक्सीन का बुनियादी फॉर्मूला है। दशकों से टीका बनाने में इसी तकनीक का इस्तेमाल किया जाता रहा है। अंतिम टीके में न तो बछड़े के खून का अंश होता है और न ही वह टीके का घटक है। कमोबेश विज्ञान और तकनीक के ऐसे मामलों को सियासत से मुक्त रखा जाना चाहिए। वही जनहित में है। फिलहाल देश और सरकार का मकसद टीकाकरण और आम जिंदगी बचाने का है। कोई भी दवा या टीका लेते हुए हम उसकी गहराई में नहीं जाते कि उसमें क्या-क्या मिलाया गया है। सरोकार जीवन बचाने का होता है और आम आदमी डॉक्टर पर ‘भगवान’ जैसा भरोसा करता है। लिहाजा ऐसी हरकतों को देश को भी खारिज कर देना चाहिए और कोवैक्सीन टीका भी ग्रहण करना चाहिए।

3.न्यायपूर्ण परिणाम

कोरोना के दौर में प्रत्यक्ष पढ़ाई और परीक्षा के अभाव में बच्चों को उत्तीर्ण करने का जो तरीका मंजूर हुआ है, समग्रता में उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। परीक्षा परिणाम निकालने का यह फॉर्मूला भविष्य में भी हमारे काम आएगा। आशा के अनुरूप ही 12वीं कक्षा का परिणाम 10वीं, 11वीं और 12वीं कक्षा में प्रदर्शन के आधार पर जारी किया जाएगा। केंद्र सरकार ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में यह जानकारी दी और सुप्रीम कोर्ट ने इस तरीके को मान लिया। 10वीं और 11वीं के अंकों को 30-30 प्रतिशत वेटेज और 12वीं कक्षा में प्रदर्शन को 40 प्रतिशत वेटेज दिया जाएगा। यह तरीका तार्किक है, इसके आधार पर छात्रों का बहुत हद तक न्यायपूर्ण आकलन किया जा सकता है। वैसे यह बात सही है कि ज्यादातर छात्र फाइनल परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करने का इंतजार करते हैं। इस मामले में 10वीं की परीक्षा के परिणाम का महत्व कुछ ज्यादा हो सकता था, क्योंकि 10वीं की परीक्षा के प्रति ज्यादातर छात्रों में बहुत गंभीरता होती है। 10वीं की तुलना में 11वीं की परीक्षा का विशेष महत्व नहीं होता है। ज्यादातर छात्रों में यह प्रवृत्ति होती है कि वे फाइनल परीक्षा को गंभीरता से लेते हैं। अत: परिणाम निकालने का कोरोना-काल का यह सलीका छात्रों के लिए सबक होना चाहिए। जब प्रत्यक्ष कक्षाएं नहीं लगेंगी, जब प्रत्यक्ष परीक्षाएं नहीं होंगी, तब हर कक्षा और हर छोटी-बड़ी परीक्षा का महत्व बढ़ जाएगा। हर परीक्षा भविष्य पर असर डालेगी। 
अब 31 जुलाई तक सीबीएसई द्वारा 12वीं के नतीजे घोषित कर दिए जाएंगे और उसके बाद उच्च व व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में भी प्रवेश में तेजी आएगी। प्रतियोगी परीक्षाओं का क्रम तेज होगा, जिससे समग्र शिक्षा क्षेत्र में सक्रियता बढ़ेगी। एक खास बात यह भी है कि 10वीं के पांच में से श्रेष्ठ तीन विषयों के अंकों के आधार पर आकलन किया जाएगा। यह उदार फैसला पूरी तरह से छात्रों के अनुकूल है। सीबीएसई या सरकार से यही उम्मीद थी कि वह संकट के दौर में छात्रों के प्रति उदारता बरतेगी। आगे के समय में भी यह ध्यान रखना होगा कि ऐसे परिणाम से गुजरे छात्रों के प्रति नाइंसाफी न हो। एक जुमला इन दिनों चलन में आने लगा है ‘कोरोना बैच’। इसके उपयोग या चलन से बचना चाहिए। जिन छात्रों को ऐसे परिणाम से गुजरना पड़ा, उनकी कोई गलती नहीं थी, अत: उनकी चिंता सरकार को आगे भी करनी पडे़गी। वैसे भी जो बच्चे परिणाम से संतुष्ट नहीं होंगे, उन्हें हालात सामान्य होने पर दोबारा परीक्षा देने का मौका दिया जाएगा। 
लगे हाथ अदालत ने यह साफ कर किया है कि परीक्षा रद्द करने के आदेश पर कोई सुनवाई नहीं होगी। यदि कोई परीक्षा देना चाहता है, तो आगे दे सकता है। प्रत्येक स्कूल को तीनों परीक्षाओं में छात्रों को मिले अंकों पर विचार करने के लिए एक परिणाम समिति बनानी पड़ेगी, जिसे सीबीएसई की मॉडरेशन कमेटी द्वारा जांचा जाएगा। उम्मीद है, सभी राज्यों की बोर्ड परीक्षाएं भी रद्द हो जाएंगी और सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंजूर फॉर्मूले के आधार पर ही उनसे संबद्ध छात्रों को परीक्षा परिणाम दे दिए जाएंगे। हालांकि, राज्य बोर्डों की परीक्षा रद्द करने के आग्रह वाली याचिका पर सुनवाई होने वाली है। कुल मिलाकर, सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने अपना काम कर दिया है, अब स्कूलों को निष्पक्ष और न्यायपूर्ण ढंग से परिणाम निकालने के इस तरीके को सफल बनाना चाहिए।

4.गलवान के बलवान

विश्वास बहाली के लिए गंभीर प्रयास जरूरी

पूर्वी लद्दाख में स्थित गलवान घाटी में एक साल पहले निहत्थे भारतीय जवानों ने जिस वीरता के साथ चीनी हमले को नाकाम किया, उसके लिये सदा उन्हें याद किया जाएगा। हमने बीस जवानों को खोया था, लेकिन जमकर मुकाबला करते हुए चीनी सेना को भी बड़ी क्षति पहुंचायी। हालांकि, चीन ने अपने हताहतों की संख्या नहीं बतायी थी, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में इस तरह की खबरें तैरती रही हैं कि चीनी जवानों की क्षति भारत से ज्यादा रही थी। कमोबेश लद्दाख की गलवान घाटी में एक साल पहले हुई झड़पों के बावजूद बहुत कुछ नहीं बदला है। इलाके में तनाव जारी है और विश्वास की कमी बरकरार है। सेना प्रमुख भी कह चुके हैं कि सभी विवाद के बिंदुओं का समाधान किये बिना तनाव दूर करना संभव नहीं है। भारत इस बाबत व्यापक दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ना चाहता है। यद्यपि दोनों पक्षों के बीच ग्यारह दौर की चर्चा इन मुद्दों को लेकर हो चुकी है। पैंगोंग त्सो इलाके से वापसी के अलावा चीन अन्य इलाकों से पीछे हटने को तैयार नहीं है। ऐसे में चिंता जतायी जा रही है कि आगे की राह टकराव भरी हो सकती है। निस्संदेह, गलवान के घटनाक्रम ने चीन की अविश्वसनीयता को और पुख्ता किया है। साथ ही देश को चीन के प्रति सैन्य, कूटनीतिक और आर्थिक रणनीति नये सिरे से पारिभाषित करने के लिये बाध्य किया है। वहीं चीन को अहसास भी कराया है कि वॉर व व्यापार साथ-साथ नहीं चल सकते। हालांकि, तमाम जटिलताओं के चलते चुनौतियां भी बढ़ रही हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि जैसे भारत चीन के धोखे से हैरान हुआ, वैसे ही चीन भी भारत की सामरिक प्रतिक्रिया से हैरान हुआ। हाल-फिलहाल में सीमा की स्थिति में तत्काल बदलाव के कोई संकेत नहीं हैं और चीन की साम्राज्यवादी सैन्य नीति देश की सुरक्षा के लिये नये सिरे से चुनौती पैदा कर रही है, जिसके निहितार्थों को लेकर गंभीर मंथन की जरूरत है।

बहरहाल, भारत ने गलवान घटनाक्रम को चीनी अतिक्रमण के एक सबक के रूप में लेते हुए आधुनिक हथियारों, सैन्य उपकरणों के आधुनिकीकरण पर ध्यान केंद्रित किया है। साथ ही सड़क व रेल मार्ग के विस्तार को प्राथमिकता बनाया है। इसके अलावा बुनियादी सैन्य ढांचे को विस्तार दिया गया है। जाहिरा तौर पर भारतीय सेना को लंबे समय तक चीनी मंसूबों का मुकाबला करने के लिये हरदम तैयार रहने की जरूरत है। ताकत और संपन्नता के बूते जिस तरह अपने तमाम पड़ोसियों को आतंकित करने का प्रयास चीन करता रहा है, वह हमारे लिये सबक व सतर्कता का विषय भी होना चाहिए। यही वजह है कि लद्दाख की कड़ाके की सर्दी के मुकाबले के लिये भारतीय सैनिकों के लिये आवास व कपड़ों की उपलब्धता हेतु रक्षा प्रतिष्ठान स्थायी रूप से प्रयास कर रहे हैं। निस्संदेह, इस मुद्दे पर केंद्र सरकार की नीति के कुछ अंतर्विरोध भी सामने आए हैं, जिसके चलते कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने इस पर सवाल उठाये हैं। वक्त की नजाकत भी है कि देश में सैन्य प्रयासों के साथ ही राजनीतिक स्तर पर एकता का प्रदर्शन किया जाये। निस्संदेह, चीन इस वक्त हमारे सबसे बड़े विरोधी के रूप में उभरा है। इसे इस नजरिये से देखा जाना चाहिए कि यह भारतीय राष्ट्र के सामने बड़ी समस्या है, यह महज किसी राजनीतिक दल विशेष की समस्या नहीं है। केंद्र के लिये जरूरी है कि वह इस मुद्दे पर विपक्षी दलों को विश्वास में लेने में हिचकिचाहट न दिखाये। किसी मुद्दे पर रचनात्मक आलोचना करना स्वस्थ परंपरा है। लेकिन देश के समक्ष मौजूद गंभीर चुनौती की संवेदनशीलता से खिलवाड़ करना राष्ट्रहित में नहीं है। सही मायनों में राष्ट्रीय सरोकारों से जुड़े विषयों पर ‘वन नेशन, वन वॉयस’ के नारे को सार्थक बनाने की जरूरत है। पिछले दिनों एक सर्वेक्षण में इस बात का खुलासा किया गया था कि गलवान घाटी के घटनाक्रम के बाद बड़ी संख्या में भारतीयों ने एक साल से कोई भी चीनी उत्पाद नहीं खरीदा। जो चीन के लिये भी सबक है कि वॉर व कारोबार की रणनीति एक साथ नहीं चल सकती।

 

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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है

1.सत्ता की आकृति में-1

मंथन की मधुशाला में सत्ता का नशा जितना उतर जाए, उसी को मंथन कहते हैं, फिर भी ताश की गड्ढियां लिए अपने-अपने पत्ते छिपाने का हुनर बरकरार है। इसी हुनर को पेश करता रिपोर्ट कार्ड ऐसी रस्में चुन रहा है, जिसके कारण हिमाचल की भाजपा सरकार का पुनःभाग्योदय होगा। एक बड़े खाके पर सत्ता की आकृतियां और दूर अपनी ही परछाई के आगोश में प्रदर्शन। लोग अपने ही विधायकों की लुका छिपी में कोविड काल के अंधेरों से वाकिफ होते रहे या भाग्य को मांजने की चिरस्थायी कोशिश में यह देखते गए कि सरकारी बदलियों के आलम में दफ्तरों के बोर्ड कितने बदल गए। फिर एक नई पीढ़ी रोजगार के इंतजार में बढ़ गई, लेकिन इन्हीं खट्टी-मीठी यादों को चुराने की अदा में राजनीति ने अपने करामात कर दिखाए। कमोबेश हर सरकार एक वातावरण खड़ा करती है, जाहिर है जयराम सरकार ने भी किया और अब उसी के धरातल पर उपचुनावों से आगामी विधानसभा चुनावों तक की फेहरिस्त में अपनी ही आंधियों से मुलाकात होगी।

 हर विधायक खुद अपने राजनीतिक कारोबार का मूल्यांकन करता रहता है, लेकिन पार्टी को आगामी चुनावों में विजयश्री दिलाने के लिए क्या और कितना काम किया, इसका विश्लेषण वर्तमान मंथन की तासीर बता रही है। हिमाचल में हर विधायक की किस्मत नहीं कि वह सत्ता का शिरोमणि बने, यहां तक कि सत्तारूढ़ दल में भी कई पंछी पिंजरे में ही रहते हैं। दुखती रग के रूप में हिमाचल की हर सत्ता के सामने कुछ असफल चेहरे, विक्षुब्ध नेता और भारहीन प्रवक्ता रहे हैं। अब तो सोशल मीडिया के दौर में कितनी खिचडि़यां पक जाएं, यह अंदाजा लगाना भी मुश्किल है, इसलिए राजनीतिक नमक-हलाली में हिमाचल निरंतर कमजोर पड़ रहा है। पिछली वीरभद्र या धूमल की सरकार हो, मिशन रिपीट को फांसी लगाने वाले सरकार के विधायक ही नहीं, मंत्री भी रहे। वीरभद्र सिंह सरकार के दिग्गज मंत्रियों जीएस बाली, कौल सिंह या सुधीर शर्मा सरीखे नेताओं की हार का दोष निकालें, तो कांग्रेस के पांव में अपनों की ही कीलें चुभीं। कुछ ऐसी ही कुल्हाड़ी धूमल सरकार के मिशन रिपीट ने खुद अपने पांव में दे मारी थी। अब देखना यह है कि जयराम सरकार ने पूर्ववर्ती सरकारों के असफल मिशन रिपीट से क्या सीखा और भाजपा इस बार कितनी भिन्न सत्ता को जी रही है। क्या पार्टी के भीतर एकजुटता के साथ-साथ सत्ता की ऐसी कर्मठता भी है, जो समाज के आईने बदल देगी या कोविड काल की अनिश्चितता में कारवां बदल रही है। जो भी हो भाजपा के चिंतन में सबसे अहम विषय, सुशासन की दरकार में सरकार का रिपोर्ट कार्ड ही होना चाहिए।

राजनीति की पुडि़या से कहीं अलग सरकार की जरूरतें और प्रदर्शन की लोकतांत्रिक सीढि़यां रहती हैं। कई नेता ‘खुल जा सिम सिम’ की तरह अपनी सरकार पाकर फकीर हैं, तो कई अपने वजन को दिखाने में आज भी मजबूर हैं। सरकार में पार्टी की एडजस्टमेंट, कई नेताओं को लाभार्थी बना गई, लेकिन साढ़े तीन साल के लंबे इंतजार में जो पिछड़ गए, उनका मंथन कौन सुनेगा। जो समर्थक, भाजपा प्रशंसक या नेता अपनी ही सत्ता की सीढि़यों पर फिसले हैं, उनके घाव कैसे भरेंगे। जो मंत्री पद पर होते हुए भी, मंत्री दिखाई नहीं दिए या जिनका मंत्री पद चला गया, वे अपना मूल्यांकन क्या कभी कर पाएंगे। भाजपा के भीतर भी जो नेता अपने परिवार की ही विरास्त को सुदृढ़ करने में जुटे हैं, क्या वे सत्ता की वापसी के लिए ईंटें चिन पाएंगे। साफ नजर आता है कि सत्ता की इस भीड़ में किस नेता का बेटा, बेटी या रिश्तेदार चमक रहा है। कुछ इसी तरह विधायकों की जिन मेहरबानियों से अधिकारी-कर्मचारी, ठेकेदार या रोजगार के अवसर सामने आए, उनके विरोध में भी तो कई सक्षम, उपेक्षित और ईमानदार लोग दिन गिन रहे होंगे। कई रिपोर्ट कार्ड होंगे, जो कभी टूटी सड़क का हवाला देंगे, तो कभी ढहते विकास के बीच ठेकेदार की खबर लेंगे। कार्यालयों में सुशासन का उत्पादन अगर फाइलों के उत्पात से हार गया, तो किस विधायक में दम होगा कि उलझी कार्य संस्कृति को शेष बचे कार्यकाल में सुधार दे।

2.विवाद का टीका

कोरोना वायरस के कोवैक्सीन टीके में गाय के नवजात बछड़े का खून (सीरम) नहीं है। अलबत्ता यह टीका बनाने की वैज्ञानिक और तकनीकी प्रक्रिया का एक वैश्विक घटक जरूर है। गोवंश के अलावा बंदर आदि जानवरों का सीरम भी टीके बनाने की प्रक्रिया में इस्तेमाल किया जाता रहा है। यह कोई ऐसा रहस्योद्घाटन नहीं है कि लोगों की आस्था और विश्वास से जोड़ कर जिसका मूल्यांकन किया जाए। यह सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने का भी मुद्दा नहीं है। दरअसल जो कोवैक्सीन टीका लोगों को लगाया जा रहा है, उसमें बछड़े के खून का अंश तक भी नहीं है। यह पूर्णत: शुद्ध और सुरक्षित टीका है, जिसका डाटा अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका ‘द लांसेटÓ में छप चुका है। दुनिया की चिकित्सा बिरादरी भी उसे स्वीकार कर चुकी है। भारत में ही प्रधानमंत्री मोदी समेत करोड़ों नागरिक यह टीका लगवा चुके हैं, लेकिन मौत या शारीरिक गड़बड़ी की एक भी पुष्ट सूचना नहीं है। दरअसल कांग्रेस ने जिस तरह इस मुद्दे को हवा दी है, वह देश-विरोधी हरकत है। बेशक सूचना के अधिकार कानून ने अपनी पेशेवर ईमानदारी के तहत, इस संदर्भ में, सवाल का जवाब दिया था।

 उसे सार्वजनिक करने और ट्विटर पर पोस्ट करने की ज़रूरत क्या थी? कोवैक्सीन के वैज्ञानिकों ने ऐसी कौन-सी आपत्तिजनक और अमानवीय वस्तु का इस्तेमाल किया था, जिसे कांग्रेस सोशल मीडिया के राष्ट्रीय समन्वयक गौरव पांधी ने साझा किया? इस विषय के जानकार विशेषज्ञों और चिकित्सकों ने भी स्पष्टतः खुलासा किया है कि पोलियो, रैबीज और इनफ्लूएंजा आदि के टीकों में भी सीरम और ऐसे घटकों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। यही नहीं, कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने भी खुलासा किया है कि डेयरी उत्पादों में भी सीरम या ऐसे पदार्थों का प्रयोग किया जाता रहा है। तो कांग्रेस के मंसूबे क्या थे कि उसके एक राष्ट्रीय प्रतिनिधि ने सोशल मीडिया के मंच पर इस जानकारी को साझा किया? वह अर्द्धसत्य था। क्या पार्टी को एहसास था कि ऐसा दुष्प्रचार करने से टीकाकरण का राष्ट्रीय अभियान पटरी से उतर सकता है? यदि टीकाकरण नाकाम रहा, तो देश में कोरोना संक्रमण के हालात कैसे होंगे, क्या कभी कल्पना की है? एक पक्ष टीके में बछड़े के खून की बात कहेगा और एक अन्य पक्ष सुअर की चर्बी के भ्रम फैलाएगा, तो ऐसे दुष्प्रचार की राष्ट्रीय नियति क्या हो सकती है? अब भी हमारे ग्रामीण, पिछड़े और अनपढ़ इलाकों में लोग कोरोना टीका लगवाने के आग्रह के नाम पर पत्थर उठाने लगते हें। लाठियां और डंडे भी दिखाने लगते हैं। उन लोगों को खोखला भय है कि टीके से मौत हो जाएगी अथवा कोई गंभीर बीमारी पैदा हो सकती है या वे नपुंसक हो सकते हैं। ऐसे आशंकित माहौल में ‘बछड़े के खून’ का दुष्प्रचार किया जाएगा, तो उसके फलितार्थ क्या हो सकते हैं?

दरअसल कोरोना टीका बनाते हुए वेरो कोशिकाएं तैयार करने और उनके विकास के लिए बछड़े के सीरम का इस्तेमाल किया जाता है। सीरम एक मानक संवर्धन संघटक है, जिसका इस्तेमाल पूरी दुनिया में वेरो कोशिकाओं के लिए किया जाता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि ऐसी कोशिकाएं विकसित होने के बाद उन्हें पानी और रसायनों से अच्छी तरह साफ किया जाता है, ताकि वे नवजात बछड़े के सीरम से मुक्त हो सकें। उसके बाद वेरो कोशिकाओं को कोरोना से संक्रमित किया जाता है, ताकि वायरस विकसित हो सके। इस प्रक्रिया में कोशिकाएं पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं। बाद में वायरस भी खत्म हो जाता है। नष्ट वायरस का इस्तेमाल टीका बनाने में किया जाता है। यही कोवैक्सीन का बुनियादी फॉर्मूला है। दशकों से टीका बनाने में इसी तकनीक का इस्तेमाल किया जाता रहा है। अंतिम टीके में न तो बछड़े के खून का अंश होता है और न ही वह टीके का घटक है। कमोबेश विज्ञान और तकनीक के ऐसे मामलों को सियासत से मुक्त रखा जाना चाहिए। वही जनहित में है। फिलहाल देश और सरकार का मकसद टीकाकरण और आम जिंदगी बचाने का है। कोई भी दवा या टीका लेते हुए हम उसकी गहराई में नहीं जाते कि उसमें क्या-क्या मिलाया गया है। सरोकार जीवन बचाने का होता है और आम आदमी डॉक्टर पर ‘भगवान’ जैसा भरोसा करता है। लिहाजा ऐसी हरकतों को देश को भी खारिज कर देना चाहिए और कोवैक्सीन टीका भी ग्रहण करना चाहिए।

3.न्यायपूर्ण परिणाम

कोरोना के दौर में प्रत्यक्ष पढ़ाई और परीक्षा के अभाव में बच्चों को उत्तीर्ण करने का जो तरीका मंजूर हुआ है, समग्रता में उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। परीक्षा परिणाम निकालने का यह फॉर्मूला भविष्य में भी हमारे काम आएगा। आशा के अनुरूप ही 12वीं कक्षा का परिणाम 10वीं, 11वीं और 12वीं कक्षा में प्रदर्शन के आधार पर जारी किया जाएगा। केंद्र सरकार ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में यह जानकारी दी और सुप्रीम कोर्ट ने इस तरीके को मान लिया। 10वीं और 11वीं के अंकों को 30-30 प्रतिशत वेटेज और 12वीं कक्षा में प्रदर्शन को 40 प्रतिशत वेटेज दिया जाएगा। यह तरीका तार्किक है, इसके आधार पर छात्रों का बहुत हद तक न्यायपूर्ण आकलन किया जा सकता है। वैसे यह बात सही है कि ज्यादातर छात्र फाइनल परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करने का इंतजार करते हैं। इस मामले में 10वीं की परीक्षा के परिणाम का महत्व कुछ ज्यादा हो सकता था, क्योंकि 10वीं की परीक्षा के प्रति ज्यादातर छात्रों में बहुत गंभीरता होती है। 10वीं की तुलना में 11वीं की परीक्षा का विशेष महत्व नहीं होता है। ज्यादातर छात्रों में यह प्रवृत्ति होती है कि वे फाइनल परीक्षा को गंभीरता से लेते हैं। अत: परिणाम निकालने का कोरोना-काल का यह सलीका छात्रों के लिए सबक होना चाहिए। जब प्रत्यक्ष कक्षाएं नहीं लगेंगी, जब प्रत्यक्ष परीक्षाएं नहीं होंगी, तब हर कक्षा और हर छोटी-बड़ी परीक्षा का महत्व बढ़ जाएगा। हर परीक्षा भविष्य पर असर डालेगी। 
अब 31 जुलाई तक सीबीएसई द्वारा 12वीं के नतीजे घोषित कर दिए जाएंगे और उसके बाद उच्च व व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में भी प्रवेश में तेजी आएगी। प्रतियोगी परीक्षाओं का क्रम तेज होगा, जिससे समग्र शिक्षा क्षेत्र में सक्रियता बढ़ेगी। एक खास बात यह भी है कि 10वीं के पांच में से श्रेष्ठ तीन विषयों के अंकों के आधार पर आकलन किया जाएगा। यह उदार फैसला पूरी तरह से छात्रों के अनुकूल है। सीबीएसई या सरकार से यही उम्मीद थी कि वह संकट के दौर में छात्रों के प्रति उदारता बरतेगी। आगे के समय में भी यह ध्यान रखना होगा कि ऐसे परिणाम से गुजरे छात्रों के प्रति नाइंसाफी न हो। एक जुमला इन दिनों चलन में आने लगा है ‘कोरोना बैच’। इसके उपयोग या चलन से बचना चाहिए। जिन छात्रों को ऐसे परिणाम से गुजरना पड़ा, उनकी कोई गलती नहीं थी, अत: उनकी चिंता सरकार को आगे भी करनी पडे़गी। वैसे भी जो बच्चे परिणाम से संतुष्ट नहीं होंगे, उन्हें हालात सामान्य होने पर दोबारा परीक्षा देने का मौका दिया जाएगा। 
लगे हाथ अदालत ने यह साफ कर किया है कि परीक्षा रद्द करने के आदेश पर कोई सुनवाई नहीं होगी। यदि कोई परीक्षा देना चाहता है, तो आगे दे सकता है। प्रत्येक स्कूल को तीनों परीक्षाओं में छात्रों को मिले अंकों पर विचार करने के लिए एक परिणाम समिति बनानी पड़ेगी, जिसे सीबीएसई की मॉडरेशन कमेटी द्वारा जांचा जाएगा। उम्मीद है, सभी राज्यों की बोर्ड परीक्षाएं भी रद्द हो जाएंगी और सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंजूर फॉर्मूले के आधार पर ही उनसे संबद्ध छात्रों को परीक्षा परिणाम दे दिए जाएंगे। हालांकि, राज्य बोर्डों की परीक्षा रद्द करने के आग्रह वाली याचिका पर सुनवाई होने वाली है। कुल मिलाकर, सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने अपना काम कर दिया है, अब स्कूलों को निष्पक्ष और न्यायपूर्ण ढंग से परिणाम निकालने के इस तरीके को सफल बनाना चाहिए।

4.गलवान के बलवान

विश्वास बहाली के लिए गंभीर प्रयास जरूरी

पूर्वी लद्दाख में स्थित गलवान घाटी में एक साल पहले निहत्थे भारतीय जवानों ने जिस वीरता के साथ चीनी हमले को नाकाम किया, उसके लिये सदा उन्हें याद किया जाएगा। हमने बीस जवानों को खोया था, लेकिन जमकर मुकाबला करते हुए चीनी सेना को भी बड़ी क्षति पहुंचायी। हालांकि, चीन ने अपने हताहतों की संख्या नहीं बतायी थी, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में इस तरह की खबरें तैरती रही हैं कि चीनी जवानों की क्षति भारत से ज्यादा रही थी। कमोबेश लद्दाख की गलवान घाटी में एक साल पहले हुई झड़पों के बावजूद बहुत कुछ नहीं बदला है। इलाके में तनाव जारी है और विश्वास की कमी बरकरार है। सेना प्रमुख भी कह चुके हैं कि सभी विवाद के बिंदुओं का समाधान किये बिना तनाव दूर करना संभव नहीं है। भारत इस बाबत व्यापक दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ना चाहता है। यद्यपि दोनों पक्षों के बीच ग्यारह दौर की चर्चा इन मुद्दों को लेकर हो चुकी है। पैंगोंग त्सो इलाके से वापसी के अलावा चीन अन्य इलाकों से पीछे हटने को तैयार नहीं है। ऐसे में चिंता जतायी जा रही है कि आगे की राह टकराव भरी हो सकती है। निस्संदेह, गलवान के घटनाक्रम ने चीन की अविश्वसनीयता को और पुख्ता किया है। साथ ही देश को चीन के प्रति सैन्य, कूटनीतिक और आर्थिक रणनीति नये सिरे से पारिभाषित करने के लिये बाध्य किया है। वहीं चीन को अहसास भी कराया है कि वॉर व व्यापार साथ-साथ नहीं चल सकते। हालांकि, तमाम जटिलताओं के चलते चुनौतियां भी बढ़ रही हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि जैसे भारत चीन के धोखे से हैरान हुआ, वैसे ही चीन भी भारत की सामरिक प्रतिक्रिया से हैरान हुआ। हाल-फिलहाल में सीमा की स्थिति में तत्काल बदलाव के कोई संकेत नहीं हैं और चीन की साम्राज्यवादी सैन्य नीति देश की सुरक्षा के लिये नये सिरे से चुनौती पैदा कर रही है, जिसके निहितार्थों को लेकर गंभीर मंथन की जरूरत है।

बहरहाल, भारत ने गलवान घटनाक्रम को चीनी अतिक्रमण के एक सबक के रूप में लेते हुए आधुनिक हथियारों, सैन्य उपकरणों के आधुनिकीकरण पर ध्यान केंद्रित किया है। साथ ही सड़क व रेल मार्ग के विस्तार को प्राथमिकता बनाया है। इसके अलावा बुनियादी सैन्य ढांचे को विस्तार दिया गया है। जाहिरा तौर पर भारतीय सेना को लंबे समय तक चीनी मंसूबों का मुकाबला करने के लिये हरदम तैयार रहने की जरूरत है। ताकत और संपन्नता के बूते जिस तरह अपने तमाम पड़ोसियों को आतंकित करने का प्रयास चीन करता रहा है, वह हमारे लिये सबक व सतर्कता का विषय भी होना चाहिए। यही वजह है कि लद्दाख की कड़ाके की सर्दी के मुकाबले के लिये भारतीय सैनिकों के लिये आवास व कपड़ों की उपलब्धता हेतु रक्षा प्रतिष्ठान स्थायी रूप से प्रयास कर रहे हैं। निस्संदेह, इस मुद्दे पर केंद्र सरकार की नीति के कुछ अंतर्विरोध भी सामने आए हैं, जिसके चलते कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने इस पर सवाल उठाये हैं। वक्त की नजाकत भी है कि देश में सैन्य प्रयासों के साथ ही राजनीतिक स्तर पर एकता का प्रदर्शन किया जाये। निस्संदेह, चीन इस वक्त हमारे सबसे बड़े विरोधी के रूप में उभरा है। इसे इस नजरिये से देखा जाना चाहिए कि यह भारतीय राष्ट्र के सामने बड़ी समस्या है, यह महज किसी राजनीतिक दल विशेष की समस्या नहीं है। केंद्र के लिये जरूरी है कि वह इस मुद्दे पर विपक्षी दलों को विश्वास में लेने में हिचकिचाहट न दिखाये। किसी मुद्दे पर रचनात्मक आलोचना करना स्वस्थ परंपरा है। लेकिन देश के समक्ष मौजूद गंभीर चुनौती की संवेदनशीलता से खिलवाड़ करना राष्ट्रहित में नहीं है। सही मायनों में राष्ट्रीय सरोकारों से जुड़े विषयों पर ‘वन नेशन, वन वॉयस’ के नारे को सार्थक बनाने की जरूरत है। पिछले दिनों एक सर्वेक्षण में इस बात का खुलासा किया गया था कि गलवान घाटी के घटनाक्रम के बाद बड़ी संख्या में भारतीयों ने एक साल से कोई भी चीनी उत्पाद नहीं खरीदा। जो चीन के लिये भी सबक है कि वॉर व कारोबार की रणनीति एक साथ नहीं चल सकती।

 

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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है

1.सत्ता की आकृति में-1

मंथन की मधुशाला में सत्ता का नशा जितना उतर जाए, उसी को मंथन कहते हैं, फिर भी ताश की गड्ढियां लिए अपने-अपने पत्ते छिपाने का हुनर बरकरार है। इसी हुनर को पेश करता रिपोर्ट कार्ड ऐसी रस्में चुन रहा है, जिसके कारण हिमाचल की भाजपा सरकार का पुनःभाग्योदय होगा। एक बड़े खाके पर सत्ता की आकृतियां और दूर अपनी ही परछाई के आगोश में प्रदर्शन। लोग अपने ही विधायकों की लुका छिपी में कोविड काल के अंधेरों से वाकिफ होते रहे या भाग्य को मांजने की चिरस्थायी कोशिश में यह देखते गए कि सरकारी बदलियों के आलम में दफ्तरों के बोर्ड कितने बदल गए। फिर एक नई पीढ़ी रोजगार के इंतजार में बढ़ गई, लेकिन इन्हीं खट्टी-मीठी यादों को चुराने की अदा में राजनीति ने अपने करामात कर दिखाए। कमोबेश हर सरकार एक वातावरण खड़ा करती है, जाहिर है जयराम सरकार ने भी किया और अब उसी के धरातल पर उपचुनावों से आगामी विधानसभा चुनावों तक की फेहरिस्त में अपनी ही आंधियों से मुलाकात होगी।

 हर विधायक खुद अपने राजनीतिक कारोबार का मूल्यांकन करता रहता है, लेकिन पार्टी को आगामी चुनावों में विजयश्री दिलाने के लिए क्या और कितना काम किया, इसका विश्लेषण वर्तमान मंथन की तासीर बता रही है। हिमाचल में हर विधायक की किस्मत नहीं कि वह सत्ता का शिरोमणि बने, यहां तक कि सत्तारूढ़ दल में भी कई पंछी पिंजरे में ही रहते हैं। दुखती रग के रूप में हिमाचल की हर सत्ता के सामने कुछ असफल चेहरे, विक्षुब्ध नेता और भारहीन प्रवक्ता रहे हैं। अब तो सोशल मीडिया के दौर में कितनी खिचडि़यां पक जाएं, यह अंदाजा लगाना भी मुश्किल है, इसलिए राजनीतिक नमक-हलाली में हिमाचल निरंतर कमजोर पड़ रहा है। पिछली वीरभद्र या धूमल की सरकार हो, मिशन रिपीट को फांसी लगाने वाले सरकार के विधायक ही नहीं, मंत्री भी रहे। वीरभद्र सिंह सरकार के दिग्गज मंत्रियों जीएस बाली, कौल सिंह या सुधीर शर्मा सरीखे नेताओं की हार का दोष निकालें, तो कांग्रेस के पांव में अपनों की ही कीलें चुभीं। कुछ ऐसी ही कुल्हाड़ी धूमल सरकार के मिशन रिपीट ने खुद अपने पांव में दे मारी थी। अब देखना यह है कि जयराम सरकार ने पूर्ववर्ती सरकारों के असफल मिशन रिपीट से क्या सीखा और भाजपा इस बार कितनी भिन्न सत्ता को जी रही है। क्या पार्टी के भीतर एकजुटता के साथ-साथ सत्ता की ऐसी कर्मठता भी है, जो समाज के आईने बदल देगी या कोविड काल की अनिश्चितता में कारवां बदल रही है। जो भी हो भाजपा के चिंतन में सबसे अहम विषय, सुशासन की दरकार में सरकार का रिपोर्ट कार्ड ही होना चाहिए।

राजनीति की पुडि़या से कहीं अलग सरकार की जरूरतें और प्रदर्शन की लोकतांत्रिक सीढि़यां रहती हैं। कई नेता ‘खुल जा सिम सिम’ की तरह अपनी सरकार पाकर फकीर हैं, तो कई अपने वजन को दिखाने में आज भी मजबूर हैं। सरकार में पार्टी की एडजस्टमेंट, कई नेताओं को लाभार्थी बना गई, लेकिन साढ़े तीन साल के लंबे इंतजार में जो पिछड़ गए, उनका मंथन कौन सुनेगा। जो समर्थक, भाजपा प्रशंसक या नेता अपनी ही सत्ता की सीढि़यों पर फिसले हैं, उनके घाव कैसे भरेंगे। जो मंत्री पद पर होते हुए भी, मंत्री दिखाई नहीं दिए या जिनका मंत्री पद चला गया, वे अपना मूल्यांकन क्या कभी कर पाएंगे। भाजपा के भीतर भी जो नेता अपने परिवार की ही विरास्त को सुदृढ़ करने में जुटे हैं, क्या वे सत्ता की वापसी के लिए ईंटें चिन पाएंगे। साफ नजर आता है कि सत्ता की इस भीड़ में किस नेता का बेटा, बेटी या रिश्तेदार चमक रहा है। कुछ इसी तरह विधायकों की जिन मेहरबानियों से अधिकारी-कर्मचारी, ठेकेदार या रोजगार के अवसर सामने आए, उनके विरोध में भी तो कई सक्षम, उपेक्षित और ईमानदार लोग दिन गिन रहे होंगे। कई रिपोर्ट कार्ड होंगे, जो कभी टूटी सड़क का हवाला देंगे, तो कभी ढहते विकास के बीच ठेकेदार की खबर लेंगे। कार्यालयों में सुशासन का उत्पादन अगर फाइलों के उत्पात से हार गया, तो किस विधायक में दम होगा कि उलझी कार्य संस्कृति को शेष बचे कार्यकाल में सुधार दे।

2.विवाद का टीका

कोरोना वायरस के कोवैक्सीन टीके में गाय के नवजात बछड़े का खून (सीरम) नहीं है। अलबत्ता यह टीका बनाने की वैज्ञानिक और तकनीकी प्रक्रिया का एक वैश्विक घटक जरूर है। गोवंश के अलावा बंदर आदि जानवरों का सीरम भी टीके बनाने की प्रक्रिया में इस्तेमाल किया जाता रहा है। यह कोई ऐसा रहस्योद्घाटन नहीं है कि लोगों की आस्था और विश्वास से जोड़ कर जिसका मूल्यांकन किया जाए। यह सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने का भी मुद्दा नहीं है। दरअसल जो कोवैक्सीन टीका लोगों को लगाया जा रहा है, उसमें बछड़े के खून का अंश तक भी नहीं है। यह पूर्णत: शुद्ध और सुरक्षित टीका है, जिसका डाटा अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका ‘द लांसेटÓ में छप चुका है। दुनिया की चिकित्सा बिरादरी भी उसे स्वीकार कर चुकी है। भारत में ही प्रधानमंत्री मोदी समेत करोड़ों नागरिक यह टीका लगवा चुके हैं, लेकिन मौत या शारीरिक गड़बड़ी की एक भी पुष्ट सूचना नहीं है। दरअसल कांग्रेस ने जिस तरह इस मुद्दे को हवा दी है, वह देश-विरोधी हरकत है। बेशक सूचना के अधिकार कानून ने अपनी पेशेवर ईमानदारी के तहत, इस संदर्भ में, सवाल का जवाब दिया था।

 उसे सार्वजनिक करने और ट्विटर पर पोस्ट करने की ज़रूरत क्या थी? कोवैक्सीन के वैज्ञानिकों ने ऐसी कौन-सी आपत्तिजनक और अमानवीय वस्तु का इस्तेमाल किया था, जिसे कांग्रेस सोशल मीडिया के राष्ट्रीय समन्वयक गौरव पांधी ने साझा किया? इस विषय के जानकार विशेषज्ञों और चिकित्सकों ने भी स्पष्टतः खुलासा किया है कि पोलियो, रैबीज और इनफ्लूएंजा आदि के टीकों में भी सीरम और ऐसे घटकों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। यही नहीं, कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने भी खुलासा किया है कि डेयरी उत्पादों में भी सीरम या ऐसे पदार्थों का प्रयोग किया जाता रहा है। तो कांग्रेस के मंसूबे क्या थे कि उसके एक राष्ट्रीय प्रतिनिधि ने सोशल मीडिया के मंच पर इस जानकारी को साझा किया? वह अर्द्धसत्य था। क्या पार्टी को एहसास था कि ऐसा दुष्प्रचार करने से टीकाकरण का राष्ट्रीय अभियान पटरी से उतर सकता है? यदि टीकाकरण नाकाम रहा, तो देश में कोरोना संक्रमण के हालात कैसे होंगे, क्या कभी कल्पना की है? एक पक्ष टीके में बछड़े के खून की बात कहेगा और एक अन्य पक्ष सुअर की चर्बी के भ्रम फैलाएगा, तो ऐसे दुष्प्रचार की राष्ट्रीय नियति क्या हो सकती है? अब भी हमारे ग्रामीण, पिछड़े और अनपढ़ इलाकों में लोग कोरोना टीका लगवाने के आग्रह के नाम पर पत्थर उठाने लगते हें। लाठियां और डंडे भी दिखाने लगते हैं। उन लोगों को खोखला भय है कि टीके से मौत हो जाएगी अथवा कोई गंभीर बीमारी पैदा हो सकती है या वे नपुंसक हो सकते हैं। ऐसे आशंकित माहौल में ‘बछड़े के खून’ का दुष्प्रचार किया जाएगा, तो उसके फलितार्थ क्या हो सकते हैं?

दरअसल कोरोना टीका बनाते हुए वेरो कोशिकाएं तैयार करने और उनके विकास के लिए बछड़े के सीरम का इस्तेमाल किया जाता है। सीरम एक मानक संवर्धन संघटक है, जिसका इस्तेमाल पूरी दुनिया में वेरो कोशिकाओं के लिए किया जाता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि ऐसी कोशिकाएं विकसित होने के बाद उन्हें पानी और रसायनों से अच्छी तरह साफ किया जाता है, ताकि वे नवजात बछड़े के सीरम से मुक्त हो सकें। उसके बाद वेरो कोशिकाओं को कोरोना से संक्रमित किया जाता है, ताकि वायरस विकसित हो सके। इस प्रक्रिया में कोशिकाएं पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं। बाद में वायरस भी खत्म हो जाता है। नष्ट वायरस का इस्तेमाल टीका बनाने में किया जाता है। यही कोवैक्सीन का बुनियादी फॉर्मूला है। दशकों से टीका बनाने में इसी तकनीक का इस्तेमाल किया जाता रहा है। अंतिम टीके में न तो बछड़े के खून का अंश होता है और न ही वह टीके का घटक है। कमोबेश विज्ञान और तकनीक के ऐसे मामलों को सियासत से मुक्त रखा जाना चाहिए। वही जनहित में है। फिलहाल देश और सरकार का मकसद टीकाकरण और आम जिंदगी बचाने का है। कोई भी दवा या टीका लेते हुए हम उसकी गहराई में नहीं जाते कि उसमें क्या-क्या मिलाया गया है। सरोकार जीवन बचाने का होता है और आम आदमी डॉक्टर पर ‘भगवान’ जैसा भरोसा करता है। लिहाजा ऐसी हरकतों को देश को भी खारिज कर देना चाहिए और कोवैक्सीन टीका भी ग्रहण करना चाहिए।

3.न्यायपूर्ण परिणाम

कोरोना के दौर में प्रत्यक्ष पढ़ाई और परीक्षा के अभाव में बच्चों को उत्तीर्ण करने का जो तरीका मंजूर हुआ है, समग्रता में उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। परीक्षा परिणाम निकालने का यह फॉर्मूला भविष्य में भी हमारे काम आएगा। आशा के अनुरूप ही 12वीं कक्षा का परिणाम 10वीं, 11वीं और 12वीं कक्षा में प्रदर्शन के आधार पर जारी किया जाएगा। केंद्र सरकार ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में यह जानकारी दी और सुप्रीम कोर्ट ने इस तरीके को मान लिया। 10वीं और 11वीं के अंकों को 30-30 प्रतिशत वेटेज और 12वीं कक्षा में प्रदर्शन को 40 प्रतिशत वेटेज दिया जाएगा। यह तरीका तार्किक है, इसके आधार पर छात्रों का बहुत हद तक न्यायपूर्ण आकलन किया जा सकता है। वैसे यह बात सही है कि ज्यादातर छात्र फाइनल परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करने का इंतजार करते हैं। इस मामले में 10वीं की परीक्षा के परिणाम का महत्व कुछ ज्यादा हो सकता था, क्योंकि 10वीं की परीक्षा के प्रति ज्यादातर छात्रों में बहुत गंभीरता होती है। 10वीं की तुलना में 11वीं की परीक्षा का विशेष महत्व नहीं होता है। ज्यादातर छात्रों में यह प्रवृत्ति होती है कि वे फाइनल परीक्षा को गंभीरता से लेते हैं। अत: परिणाम निकालने का कोरोना-काल का यह सलीका छात्रों के लिए सबक होना चाहिए। जब प्रत्यक्ष कक्षाएं नहीं लगेंगी, जब प्रत्यक्ष परीक्षाएं नहीं होंगी, तब हर कक्षा और हर छोटी-बड़ी परीक्षा का महत्व बढ़ जाएगा। हर परीक्षा भविष्य पर असर डालेगी। 
अब 31 जुलाई तक सीबीएसई द्वारा 12वीं के नतीजे घोषित कर दिए जाएंगे और उसके बाद उच्च व व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में भी प्रवेश में तेजी आएगी। प्रतियोगी परीक्षाओं का क्रम तेज होगा, जिससे समग्र शिक्षा क्षेत्र में सक्रियता बढ़ेगी। एक खास बात यह भी है कि 10वीं के पांच में से श्रेष्ठ तीन विषयों के अंकों के आधार पर आकलन किया जाएगा। यह उदार फैसला पूरी तरह से छात्रों के अनुकूल है। सीबीएसई या सरकार से यही उम्मीद थी कि वह संकट के दौर में छात्रों के प्रति उदारता बरतेगी। आगे के समय में भी यह ध्यान रखना होगा कि ऐसे परिणाम से गुजरे छात्रों के प्रति नाइंसाफी न हो। एक जुमला इन दिनों चलन में आने लगा है ‘कोरोना बैच’। इसके उपयोग या चलन से बचना चाहिए। जिन छात्रों को ऐसे परिणाम से गुजरना पड़ा, उनकी कोई गलती नहीं थी, अत: उनकी चिंता सरकार को आगे भी करनी पडे़गी। वैसे भी जो बच्चे परिणाम से संतुष्ट नहीं होंगे, उन्हें हालात सामान्य होने पर दोबारा परीक्षा देने का मौका दिया जाएगा। 
लगे हाथ अदालत ने यह साफ कर किया है कि परीक्षा रद्द करने के आदेश पर कोई सुनवाई नहीं होगी। यदि कोई परीक्षा देना चाहता है, तो आगे दे सकता है। प्रत्येक स्कूल को तीनों परीक्षाओं में छात्रों को मिले अंकों पर विचार करने के लिए एक परिणाम समिति बनानी पड़ेगी, जिसे सीबीएसई की मॉडरेशन कमेटी द्वारा जांचा जाएगा। उम्मीद है, सभी राज्यों की बोर्ड परीक्षाएं भी रद्द हो जाएंगी और सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंजूर फॉर्मूले के आधार पर ही उनसे संबद्ध छात्रों को परीक्षा परिणाम दे दिए जाएंगे। हालांकि, राज्य बोर्डों की परीक्षा रद्द करने के आग्रह वाली याचिका पर सुनवाई होने वाली है। कुल मिलाकर, सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने अपना काम कर दिया है, अब स्कूलों को निष्पक्ष और न्यायपूर्ण ढंग से परिणाम निकालने के इस तरीके को सफल बनाना चाहिए।

4.गलवान के बलवान

विश्वास बहाली के लिए गंभीर प्रयास जरूरी

पूर्वी लद्दाख में स्थित गलवान घाटी में एक साल पहले निहत्थे भारतीय जवानों ने जिस वीरता के साथ चीनी हमले को नाकाम किया, उसके लिये सदा उन्हें याद किया जाएगा। हमने बीस जवानों को खोया था, लेकिन जमकर मुकाबला करते हुए चीनी सेना को भी बड़ी क्षति पहुंचायी। हालांकि, चीन ने अपने हताहतों की संख्या नहीं बतायी थी, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में इस तरह की खबरें तैरती रही हैं कि चीनी जवानों की क्षति भारत से ज्यादा रही थी। कमोबेश लद्दाख की गलवान घाटी में एक साल पहले हुई झड़पों के बावजूद बहुत कुछ नहीं बदला है। इलाके में तनाव जारी है और विश्वास की कमी बरकरार है। सेना प्रमुख भी कह चुके हैं कि सभी विवाद के बिंदुओं का समाधान किये बिना तनाव दूर करना संभव नहीं है। भारत इस बाबत व्यापक दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ना चाहता है। यद्यपि दोनों पक्षों के बीच ग्यारह दौर की चर्चा इन मुद्दों को लेकर हो चुकी है। पैंगोंग त्सो इलाके से वापसी के अलावा चीन अन्य इलाकों से पीछे हटने को तैयार नहीं है। ऐसे में चिंता जतायी जा रही है कि आगे की राह टकराव भरी हो सकती है। निस्संदेह, गलवान के घटनाक्रम ने चीन की अविश्वसनीयता को और पुख्ता किया है। साथ ही देश को चीन के प्रति सैन्य, कूटनीतिक और आर्थिक रणनीति नये सिरे से पारिभाषित करने के लिये बाध्य किया है। वहीं चीन को अहसास भी कराया है कि वॉर व व्यापार साथ-साथ नहीं चल सकते। हालांकि, तमाम जटिलताओं के चलते चुनौतियां भी बढ़ रही हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि जैसे भारत चीन के धोखे से हैरान हुआ, वैसे ही चीन भी भारत की सामरिक प्रतिक्रिया से हैरान हुआ। हाल-फिलहाल में सीमा की स्थिति में तत्काल बदलाव के कोई संकेत नहीं हैं और चीन की साम्राज्यवादी सैन्य नीति देश की सुरक्षा के लिये नये सिरे से चुनौती पैदा कर रही है, जिसके निहितार्थों को लेकर गंभीर मंथन की जरूरत है।

बहरहाल, भारत ने गलवान घटनाक्रम को चीनी अतिक्रमण के एक सबक के रूप में लेते हुए आधुनिक हथियारों, सैन्य उपकरणों के आधुनिकीकरण पर ध्यान केंद्रित किया है। साथ ही सड़क व रेल मार्ग के विस्तार को प्राथमिकता बनाया है। इसके अलावा बुनियादी सैन्य ढांचे को विस्तार दिया गया है। जाहिरा तौर पर भारतीय सेना को लंबे समय तक चीनी मंसूबों का मुकाबला करने के लिये हरदम तैयार रहने की जरूरत है। ताकत और संपन्नता के बूते जिस तरह अपने तमाम पड़ोसियों को आतंकित करने का प्रयास चीन करता रहा है, वह हमारे लिये सबक व सतर्कता का विषय भी होना चाहिए। यही वजह है कि लद्दाख की कड़ाके की सर्दी के मुकाबले के लिये भारतीय सैनिकों के लिये आवास व कपड़ों की उपलब्धता हेतु रक्षा प्रतिष्ठान स्थायी रूप से प्रयास कर रहे हैं। निस्संदेह, इस मुद्दे पर केंद्र सरकार की नीति के कुछ अंतर्विरोध भी सामने आए हैं, जिसके चलते कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने इस पर सवाल उठाये हैं। वक्त की नजाकत भी है कि देश में सैन्य प्रयासों के साथ ही राजनीतिक स्तर पर एकता का प्रदर्शन किया जाये। निस्संदेह, चीन इस वक्त हमारे सबसे बड़े विरोधी के रूप में उभरा है। इसे इस नजरिये से देखा जाना चाहिए कि यह भारतीय राष्ट्र के सामने बड़ी समस्या है, यह महज किसी राजनीतिक दल विशेष की समस्या नहीं है। केंद्र के लिये जरूरी है कि वह इस मुद्दे पर विपक्षी दलों को विश्वास में लेने में हिचकिचाहट न दिखाये। किसी मुद्दे पर रचनात्मक आलोचना करना स्वस्थ परंपरा है। लेकिन देश के समक्ष मौजूद गंभीर चुनौती की संवेदनशीलता से खिलवाड़ करना राष्ट्रहित में नहीं है। सही मायनों में राष्ट्रीय सरोकारों से जुड़े विषयों पर ‘वन नेशन, वन वॉयस’ के नारे को सार्थक बनाने की जरूरत है। पिछले दिनों एक सर्वेक्षण में इस बात का खुलासा किया गया था कि गलवान घाटी के घटनाक्रम के बाद बड़ी संख्या में भारतीयों ने एक साल से कोई भी चीनी उत्पाद नहीं खरीदा। जो चीन के लिये भी सबक है कि वॉर व कारोबार की रणनीति एक साथ नहीं चल सकती।

 

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