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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है

1.सत्ता की आकृति में-2

सत्ता के दम पर सत्ता वापसी की राह यकीनन पहले से कठिन होती है, फिर भी हिमाचल में तो सरकार बनाने के मुद्दे ही पूरी तरह केंद्र या अन्य राज्यों से भिन्न रहे हैं। यहां जनता की भूमिका में, सरकारों से अपेक्षाओं का ज्वारभाटा हर बार हिमाचल के सियासी किनारों से टकराता है और इसलिए परिणाम कई बार इतने घातक होते हैं कि मतदाता अपने ही नायक को भूल जाते हैं। अगला मिशन रिपीट ‘हथेली पर सरसों जमाना’ जैसा होगा या नहीं, इसका आकलन कोविड काल के वर्तमान में फंसा है। जाहिर है हिमाचल की जनता जब तख्ता पलट के कारण ढूंढती है, तो भूल जाती है कि विकास के आंकड़ों में कितना रंग है। बेशक हर मुख्यमंत्री ने आसपास की असीम शक्तियों में रहते हुए, अपने लिए हवाएं एकत्रित कीं, लेकिन हर बार सत्ता का तंबू उड़ा, तो इस बार भाजपा क्या नया कर पाती है या केंद्र से ले पाती है, देखना होगा। विधायकों से रिपोर्ट कार्ड लेने के साथ यह भी सोचना होगा कि उन्हें सत्ता में कितनी भागीदारी मिली। अमूमन सत्ता पक्ष के अधिकांश विधायक और यहां तक कि ऊर्जा मंत्री तक ने कहा है कि उनकी बात अधिकारी नहीं सुनते, दूसरी ओर जनमंच पर चढ़े कई मंत्रियों ने जनता के सामने सारे ठीकरे इन्हीं अधिकारियों पर फोड़े। जनता चुनाव में हर बार क्षेत्रवाद की टोह लेते हुए यह आकलन कर लेती है कि राज्य का खजाना किन क्षेत्रों और किन नेताओं की तरफ झुका रहा।

 विडंबना यह है कि सत्ता बदलते ही पिछला विकास कसूरवार हो जाता है या नेताओं की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। सर्वेक्षण बदल जाते हैं, कार्यालय स्थानांतरित हो जाते हैं या विकास की फाइल पर वन संरक्षण अधिनियम को कुंडली मार कर बैठा दिया जाता है। भ्रम के चंगुल में सरकारें न तो अपनी पार्टी के विधायकों के बीच समन्वय बना पाती हैं और न ही प्रदेश की संवेदना को सही-सही पढ़ पाती हैं। अगर ऐसा नहीं है, तो भाजपा मंथन में मंत्रियों से यह पूछा जाए कि उन्होंने अपने विभागों का कितना बजट अपने-अपने क्षेत्र में लगाया और इसके बाहर प्रदेश भर के लिए क्या किया। किस विभाग ने पूर्व सरकारों की प्रस्तावित परियोजनाओं को आगे बढ़ाते हुए बजट का सदुपयोग किया या कितनी फाइलें हार गईं। केंद्र या अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से किस मंत्री ने पूरे प्रदेश को मालामाल किया या नवाचार की कोई नई लौ पैदा की। भाजपा अपने मिशन रिपीट की फाइल में यह जरूर देखे कि पिछली बार सत्ता के निर्माता रहे प्रेम कुमार धूमल अपने ही चुनाव क्षेत्र से क्यों हारे। भाजपा यह भी देखे कि राज्य के कोटे से वित्त राज्य मंत्री बने अनुराग ठाकुर पूरे प्रदेश के लिए क्या कर पाए या बाकी सांसदों ने सत्ता की कितनी जमीन तैयार की। भाजपा यह भी देख सकती है कि उसके कितने नेता, विधायक, पूर्व विधायक या सांसद अपने क्षेत्र में केवल औलाद के पांव जमाने को मशक्कत कर रहे हैं। पार्टी को अपने उस अभिशाप से बचना है जो शांता कुमार के बाद दो बार धूमल की सत्ता को लगातार रिपीट न कर पाई।

 ऐसे कई उलझे प्रश्न हैं जो शांता,धूमल के बाद जयराम सरकार से पूछे जाएंगे। इसी तरह भाजपा को वर्तमान सरकार के बजट आबंटन में, दायित्व बंटवारे में खड़े मंत्रियों की विभागीय क्षमता का अवलोकन करते हुए यह गौर फरमाना होगा कि किसके अधीन अधिक बजट आया। क्या मंडी से मुख्यमंत्री के अलावा महेंद्र सिंह के विभागों का बजट जोड़ कर यह देखा जाएगा कि इसके मुकाबले कांगड़ा के बिक्रम सिंह, सरवीण चौधरी और राकेश पठानिया के पल्ले उसके करीब बजट आया। भाजपा को क्षेत्रीय संतुलन के साथ-साथ अपने जातीय आधार पर यह देखना होगा कि इस बार ओबीसी व गद्दी नेतृत्व को इस बार की सत्ता में क्या मिला। भाजपा यह भी देख सकती है कि फोर लेन के कौन से प्रस्ताव किस क्षेत्र विशेष में हार गए। किसी जिला में अधिक बेरोजगार क्यों बढ़ गए और हर जिला के लिए इससे पहले कब चिंतन-मनन और विकास मॉडल पर मंथन हुआ। जाहिर है हर सरकार एक जैसी नहीं हो सकती और न ही नेताओं की क्षमता एक सरीखी होगी, लेकिन साढ़े तीन साल की खामियों या उपलब्धियों के बीच अंतिम परीक्षा का गणित बहुत बड़ा और नए वादों की पेशकश है। हिमाचल में मिशन रिपीट में अगली सरकार का ढांचा व कवायद खड़ी करने की कोशिश में भाजपा को कम से कम सत्ता के नए सेतु और संतुलन पैदा करने ही पड़ेंगे। वक्त आ गया है कि मुख्यमंत्री के अलावा उपमुख्यमंत्री व स्वतंत्र वित्त मंत्री के चयन में माथा पच्ची की जाए, वरना अपने-अपने शहर बसाते सत्ता के शीर्ष पुरुष राज्य में खालीपन पैदा करते रहेंगे।

2.असहमति, विरोध आतंकवादनहीं

सही मायनों में अब नागरिक स्वतंत्रता को परिभाषित किया गया है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 की नए सिरे से व्याख्या की गई है। अनुच्छेद 19-22 तक अलग-अलग संदर्भों में नागरिक स्वातंर्त्य की व्याख्या करते हैं। अलबत्ता ताकतवर और निरंकुश सत्ता और उसकी पुलिस ने विरोध करने के अधिकार, असहमति, विरोध-प्रदर्शन बनाम आतंकवाद के दरमियान लकीर को धुंधला और दाग़दार कर दिया है। यदि आप नौजवान हैं और किसी मुद्दे पर सत्ता का विरोध कर रहे हैं, तो आपको ‘आतंकवादी’ करार दिया जा सकता है। आप पर यूएपीए सरीखे कठोरतम और बेरहम कानून की धाराएं चस्पा कर जेल में ठूंसा जा सकता है। सालों जेल में सड़ते रहें, कोई इंसाफ नहीं, कोई जमानत नहीं। यदि 10-15 साल जेल की यातनाएं झेलने के बाद आपको बाइज्जत बरी किया जाता है, तो जेलबंदी के सालों और सजा का हिसाब कौन देगा, जो अपराध आपने किया ही नहीं था? लिहाजा विधि आयोग की 277वीं सिफारिश को अब क्रियान्वित करना बेहद जरूरी लगता है, जिसमें कहा गया है कि यदि बिन अपराध किए सजा मिलती है और न्याय निष्फल रहता है, तो ऐसे मामलों में सरकार आरोपित को हर्जाना देगी। क्या कोई भी सरकार ऐसी अनुशंसाओं को स्वीकार करेगी? दिल्ली उच्च न्यायालय ने बीते दिनों दिल्ली दंगों के कथित आरोपितों-नताशा नरवाल, देबांगना कालिता और आसिफ इकबाल तन्हा-को जमानत देते हुए स्पष्ट किया है कि विरोध-प्रदर्शन, चक्काजाम, भड़काऊ भाषण आदि आतंकवादी गतिविधियां नहीं हैं। ऐसी गतिविधियां देश के औसत नागरिक के मौलिक अधिकार हैं और लोकतंत्र असहमति तथा विरोध के जरिए ही परिभाषित होता है। वर्ष 2016 के अनीता ठाकुर केस में सर्वोच्च न्यायालय ने विरोध, असंतोष, असहमति को मौलिक अधिकार की मान्यता दी थी। ये मौलिक अधिकार ही किसी भी आत्म-सम्मानी लोकतंत्र की बुनियाद हैं। जमानत पर रिहा किए गए नौजवान जागरूक और शिक्षित हैं। इस जमात में प्रख्यात नागरिकों और बुजुर्गों को भी नहीं छोड़ा गया है, क्योंकि वैचारिक आधार पर वे सरकार के विपरीत रहे हैं।

 बहरहाल अब जेल में बंद की गई और जमानत पर बाहर आईं नताशा नरवाल तो जेएनयू से पीएचडी कर रही हैं। आसिफ जामिया विश्वविद्यालय का छात्र रहा है और देबांगना भी जेएनयू की छात्र हैं। क्या उनकी पृष्ठभूमि आतंकवाद की रही है? वे युवा हैं, लिहाजा आक्रामक हो सकते हैं, लेकिन किसी पर जानलेवा हमला उन्होंने नहीं किया था। दिल्ली के एक खास हिस्से में उपद्रव मचाया गया था, कमोबेश उससे भारत जैसे विशाल देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता को चुनौती नहीं दी जा सकती। सरकार के खिलाफ भी साजि़श करना असंभव है। ऐसे ही आरोपों में एक दर्जन से अधिक नौजवान चेहरे अभी तिहाड़ जेल में कैद हैं। उन पर भी यूपा, रासुका सरीखे कठोर कानूनों की धाराएं चस्पा की गई हैं। अदालत ने उन पर सवाल उठाए हैं और सत्ता, पुलिस को फटकार लगाई है। सरोकार नागरिक स्वतंत्रता का है। हालांकि दिल्ली पुलिस अपने पेशेवर व्यवहार के लिए प्रख्यात रही है। तो फिर दिल्ली दंगों के दौरान उसे इन वैचारिक विरोधियों की गतिविधियों में आतंकवाद के कौन-से लक्षण दिखाई दिए थे कि यूपा जैसा कानून थोप दिया गया, ताकि जमानत भी मुश्किल से हो सके? क्या अब भारतीय लोकतंत्र में जेल ही संविधान, कानून और मौलिक अधिकार हैं? बेशक उच्च न्यायालय ने आरोपित युवाओं को जमानत दी है। अभी आरोप-पत्र के साक्ष्यों, गवाहों, आपराधिक बिंदुओं पर बहस और अंततः अदालत का फैसला शेष हैं, लेकिन अदालत के अंतरिम आदेश और टिप्पणियों ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत में जंगल-राज या तानाशाही नहीं, बल्कि कानून का राज है और कानून की व्याख्या करने वाली न्यायपालिका सशक्त और तटस्थ है। आपराधिक कानून में अब भी न्याय की गुंज़ाइश है। सत्ता की ताकत का ‘ब्लैक होल’ नागरिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों को निगल नहीं सकता। आतंकियों पर इस्तेमाल किया जाने वाला यूपा के जरिए आम नागरिक को धमकाना, डराना लोकतंत्र को ही कमज़ोर करने के समान है, लिहाजा ऐसे कानूनों को लेकर पुलिस और सरकार को संयम बरतना चाहिए।

3. स्विस बैंकों में बढ़ा धन

जब-जब स्विस बैंकों का जिक्र आता है, काला धन का मुद्दा सतह  पर आ जाता है। हालांकि, स्विस बैंकों में जमा सभी धनराशि काला धन नहीं है। उनसे कई औद्योगिक कंपनियों के वैध खाते भी संचालित होते हैं, जो कारोबारी लेन-देन के उद्देश्य से खोले गए हैं। वैसे, आम लोगों को यह कुछ अजीब लग सकता है कि जिस कोरोना-काल में यहां लोगों की आय घट रही थी, इस दौरान स्विस बैंकों में भारतीयों की पूंजी-वृद्धि ने पिछले तेरह वर्षों का रिकॉर्र्ड तोड़ दिया। इन बैंकों में भारतीयों का धन बढ़कर 20,700 करोड़ रुपये से भी अधिक हो गया है। स्विट्जरलैंड के केंद्रीय बैंक के मुताबिक, भारतीयों का धन नगदी के रूप में नहीं, बल्कि सिक्योरिटी, विभिन्न बॉन्ड और कई अन्य तरह की वित्तीय होल्डिंगके कारण बढ़ा है। बहरहाल, इन ब्योरों से स्विस बैंकों में कितने भारतीयों का कितना काला धन जमा है, इसका संकेत नहीं मिलता, बल्कि इनसे बस यही जानकारी मिलती है कि भारतीय खाताधारकों के प्रति स्विस बैंकों की कितनी देनदारी बनती है। काला धन के मुद्दे ने कई बार देश की राजनीति की दशा-दिशा बदली। साल 2014 के आम चुनाव में तो यह एक बहुत बड़ा मुद्दा बना था। नेताओं द्वारा चुनावी रैलियों में अतिरंजित दावे किए गए थे। इसीलिए, जब इस पर लगाम लगाने के लिए नवंबर 2016 में प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का एलान किया, तब देशवासी काफी तकलीफें उठाकर भी सरकार के फैसले के साथ अडिग रहे। लेकिन कुछ ही महीनों में यह साफ हो गया कि इससे कोई फायदा नहीं हुआ। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है- चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बड़े पैमाने पर नगदी, शराब व आभूषणों की बरामदगी। बताने की जरूरत नहीं कि कुछ मायनों में नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को नुकसान ही पहुंचा। उसके बाद काला धन का मुद्दा न सरकार के लिए लोक-लुभावन बचा, और न लोगों के लिए किसी उम्मीद का बाइस रहा। फिर भी, इसको नियंत्रित करने की शासन-प्रशासन की कोशिशें बंद नहीं हुईं, हो भी नहीं सकतीं, क्योंकि यह अंतत: देश की अर्थव्यवस्था को खोखला करता है। यह एक कटु सच्चाई है कि भारत ही नहीं, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में भी कोरोना-काल में आम लोगों की जिंदगी दुश्वार हुई, पर शीर्ष के धनपतियों व उनकी कंपनियों के खजाने में अरबों की दौलत बढ़ी। ऐसे में, स्विस बैंकों में भारतीयों के धन में बॉन्ड, सिक्योरिटी आदि के जरिए बढ़़ोतरी समझी जा सकती है। लेकिन यह खुला सच है कि जितने भी ‘टैक्स हैवेन’ देश हैं, उनके बैंकों में दुनिया भर के रसूखदारों और धनपतियों ने विशाल धनराशि छिपा रखी है। पनामा पेपर्स लीक इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। दिक्कत यह है कि ये देश किसी प्रकार की वित्तीय जानकारी साझा नहीं करते। सरकारों के लिए लंबे समय से यह बड़़ी चुनौती बनी हुई है कि कैसे कर-चोरी के इस रास्ते को बंद किया जाए? जाहिर है, कूटनीतिक तरीकों से ही ऐसे खाताधारकों तक पहुंचना होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति इस वक्त अच्छी नहीं है और आने वाले कुछ वर्षों में उसके आर्थिक अनुशासन की कड़ी परीक्षा होगी। इसलिए हरेक स्तर पर वित्तीय पारदर्शिता सुनिश्चित करने के साथ-साथ सरकार को विदेश में काला धन रखने वालों से सख्ती से निपटना होगा। देश जानना चाहेगा कि कितना काला धन उसके खजाने में लौटा?

4.महामारी से राहत

हरियाणा सरकार की पहल का दोहरा लाभ

देश के अर्थशास्त्री और समाज विज्ञानी लगातार कहते रहे हैं कि कोरोना संकट से हलकान लोगों की मदद और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये राहत पैकेज दिये जाने की सख्त जरूरत है। पैकेज ऐसा हो कि लोगों के हाथ में पैसा आये। कमजोर वर्ग के लोगों, छोटे दुकानदारों, श्रमिकों आदि को ऐसी मदद से संबल मिलेगा। उनकी खर्च करने की क्षमता बढ़ेगी तो बाजार में मांग बढ़ेगी, जो आर्थिकी को गति देगी। सही मायनो में यही पैकेज ही असल में राहत महसूस करायेगा। इस मुश्किल वक्त में प्रदेशवासियों को राहत देने की दिशा में हरियाणा सरकार ने सार्थक पैकेज की घोषणा कर दी है। सरकार के दूसरे कार्यकाल के छह सौ दिन पूरे होने के मौके पर कुछ ऐसे ही राहतकारी कदमों की घोषणा की गई है। यह राहत पैकेज ग्यारह सौ करोड़ का बताया जा रहा है। इसमें गरीब परिवारों को दी जाने वाली छह सौ करोड़ की राहत भी शामिल है। योजना का लाभ कोरोना महामारी से प्रभावित गरीब परिवारों व दुकानदारों के अतिरिक्त रेहड़ी-फड़ी वालों, रिक्शा-ऑटो चलाने वालों व मजदूरों को मिलेगा। मुख्यमंत्री ने कोरोना व लॉकडाउन से प्रभावित हुए गरीब परिवारों को पांच-पांच हजार रुपये देने का ऐलान किया है। हालांकि, इस बार देश में पिछली बार की तरह सख्त लॉकडाउन तो नहीं लगा, लेकिन महामारी की रोकथाम के नियमों के चलते श्रमिकों व छोटे दुकानदारों पर खासा प्रतिकूल असर देखने में आया है, जिन्हें तुरंत राहत दिये जाने की जरूरत थी। सबसे अच्छी बात यह है कि स्वास्थ्य विभाग के अधीन कार्यरत आशावर्करों के अलावा नेशनल हेल्थ मिशन के बाइस हजार कर्मियों को भी पांच-पांच हजार रुपये की मदद मिलेगी। सरकार का कहना है कि इस योजना पर ग्यारह करोड़ रुपये खर्च होंगे। निस्संदेह आशा वर्कर व स्वास्थ्यकर्मी अपनी जान जोखिम में डालकर जिस जज्बे से कोरोना की लड़ाई में सहभागी रहे हैं, इस घोषणा से उनका मनोबल बढ़ेगा। इस मुश्किल वक्त में अन्य राज्यों को भी ऐसी ही पहल करने की जरूरत है।

निस्संदेह, कोरोना संकट से प्रभावित कमजोर वर्गों व छोटे कामधंधे वाले लोगों को केंद्र सरकार के स्तर पर राहत दिये जाने की सख्त आवश्यकता महसूस की जा रही थी। ये राहत टुकड़ों-टुकड़ों में दिये जाने के बजाय समग्र रूप में दी जाती तो अधिक प्रभावी होती। बेशक इस संकट के चलते केंद्र सरकार के आय के स्रोतों का भी संकुचन हुआ है, लेकिन फिर भी लोगों को तत्काल राहत पहुंचाने की जरूरत है। भय व अवसाद के लंबे दौर के बाद आर्थिक राहत उनका मनोबल बढ़ाने में सहायक होगी। वहीं क्रय शक्ति बढ़ने से बाजार में मांग बढ़ेगी। मांग बढ़ने से उद्योग-धंधों को गति मिलेगी। चलन में मुद्रा का प्रवाह बढ़ने से अर्थव्यवस्था को मंदी से उबरने में मदद मिलेगी। वह भी ऐसे वक्त में जब कोरोना संकट की तीसरी लहर आने की आशंका जतायी जा रही है। हमें तो जान व जहान दोनों का ही ख्याल रखने की जरूरत है। सुरक्षा उपायों व वैक्सीन के कवच के साथ अर्थव्यवस्था को गति देने के प्रयास तेज किये जायें। प्रधानमंत्री घोषणा कर चुके हैं कि गरीबों को मिलने वाला मुफ्त अनाज दिवाली तक मिलता रहेगा। सरकार ने पिछले साल भी ऐसी ही घोषणा की थी, जिसके चलते हम एक बड़ी आबादी को महामारी में भुखमरी के खतरे से बचा सके हैं। केंद्र सरकार ने पहली कोरोना लहर के बाद बीस लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा भी की थी। निस्संदेह इस मुश्किल वक्त में राहत पैकेज जीवन की रोजमर्रा की दिक्कत को कुछ कम करने में मदद तो करते ही हैं। देश में बढ़ती बेरोजगारी की दर के बीच छोटे व्यवसायों को वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने की जरूरत है ताकि रोजगार के नये अवसर सृजित किये जा सकें। अर्थशास्त्री भी नसीहत दे रहे हैं कि सरकारों को इस वक्त ज्यादा खर्च करना चाहिए, इसके लिये राजकोषीय घाटा बढ़ने की चिंता नहीं करनी चाहिए। कोशिश हो कि निवेश व खपत आधारित मांग में वृद्धि की जाये। इससे अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में मदद मिलेगी।

 

 

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