इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.सिर पर न चढ़े पर्यटन
अन्नदाता को बुलाएं कितना, यह हिसाब होने लगा, कोविड काल में चूल्हा कितना जलाएं, यह भी इंतखाब है। कुछ इसी तरह के गणित में टूरिज्म और ट्रैवल के धंधे की फिर से पैमाइश शुरू है। लंबे कर्फ्यू के बाद गुजरे सप्ताह का अंतिम पड़ाव, हिमाचल के पर्यटक स्थलों पर वाहनों का शोर, टै्रफिक जाम और एक आश्वासन जैसा माहौल कि सैलानी इस बार अन्नदाता बनकर आएंगे। कमोबेश हर पर्यटक स्थल के खामोश होटलों ने अपनी खिड़कियों से झांकना तो शुरू किया। करीब दस हजार होटल कर्मियों को जब मालूम होता है कि परवाणू बैरियर से चार हजार वाहन या अन्य प्रवेश द्वारों से करीब बीस हजार पर्यटक गाडि़यां हिमाचल में आ गईं, तो यह खबर फिर से नौकरी पाने की उम्मीद बढ़ा देती है। कहीं शिमला मिर्च, बंद गोभी या खीरे उगा रहे किसान के लिए भी तो कुल्लू-मनाली या रोहतांग टनल का खुलना उसके उत्पादन को संभावनाओं से भर देता है। मकलोडगंज या डलहौजी के बंद तिब्बती बाजार, फिर से शटर उठा देते हैं और इसी तरह होम स्टे की लगभग सारी इकाइयां कहीं आर्थिक मातम से बाहर निकलकर स्वागत कक्ष में तबदील हो जाती हैं।
गिफ्ट सेंटरों में आर्टिफिशियल झुमके नाचते हैं, तो शिमला के लक्कड़ बाजार में रखी लाठियां खुद को ही पर्यटन की लाठी मानकर चलाने लगती हैं। जैसे हर पर्यटक स्थल में काफी देर बाद सुबह हो रही हो या ग्रह-नक्षत्र पूरी तरह बदल रहे हों। यही है ऐसी रौनक जो कर्ज में डूबे होटलों को अचानक अपनी रीढ़ पर भरोसा करने का अवसर देती है। बेशक लौटते पर्यटक के कारण चिंताएं खड़ी होती हैं, लेकिन सप्ताहंत जो परिदृश्य बना उससे पर्यटक आर्थिकी का रक्तचाप फिर से जिंदा होने की उम्मीद से भर गया है। हम इसे रफ्तार नहीं मान सकते और न ही बढ़ती उम्मीदों के आगे कोविड शर्तों को कुर्बान कर सकते हैं। एम्स दिल्ली के डायरेक्टर डा. रणदीप गुलेरिया ने लॉकडाउन से छूट को सिर्फ जिंदगी की आक्सीजन की तरह देखा है और इसीलिए वह कहते हैं कि अगर लापरवाह हुए या भीड़ में निरंकुश होने की छूट महसूस की तो हर गति में तीसरी लहर का अंदेशा बढ़ रहा है। तीसरी लहर अब सीधे रूप से एक ऐसा गणित है जो हमारे चेहरे पर चढ़ी मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग और सीमित व्यवहार का दैनिक आकलन कर रही है।
आश्चर्य यह कि पहली व दूसरी लहर हमें जो सिखा गई, उसे ग्रहण करने के बजाय हम नई लहर की प्रतीक्षा में खड़े हो जाते हैं। यही सीमा रेखा पुनः बाजार से पर्यटन के हर रास्ते पर खड़ी होकर हमारी परीक्षा ले रही है, लेकिन अनलॉक माहौल में खिड़कियों के बजाय हम सारे दरवाजे खोल रहे हैं। पर्यटन को फिलहाल एक ही दरवाजे से गुजरना होगा और इसके लिए हिमाचल अपनी चौकसी को खुर्दबुर्द नहीं कर सकता। पिछली दोनों लहरों ने सबसे अधिक नुकसान टै्रवल और टूरिज्म सेक्टर का ही किया है, लेकिन करीब डेढ़ साल की प्रतिकूलता से सीखते हुए राज्य ने कुछ विशेष नहीं किया। अब भी वक्त है कि पर्यटन आवाजाही को सुनिश्चित करने के लिए प्रवेश से ही पंजीकरण व ऐप के जरिए यह तय हो जाए कि हर मनोरंजन का सलीका है। पर्यटक की हर गतिविधि और राज्य की क्षमता में नियमों के पालन के लिए एक पूरी प्रक्रिया तैयार करने की जरूरत है ताकि आगंतुक को सुविधा और होटल उद्योग को कारोबार मिलने के साथ-साथ इतना जिम्मेदार बना दिया जाए कि कोविड काल की हिदायतें लागू रहें। पर्यटन न तो होटलों-रेस्तरां व खाने-पीने की जगहों और न ही सैलानियों के सिर पर चढ़े। यह अगर एक अवसर है, तो इससे जुड़े संयम की परिपालना आवश्यक है, क्योंकि आगे चल कर जब धार्मिक स्थल खुलेंगे तो आस्था के हर पड़ाव पर प्रदेश की नैतिक जिम्मेदारी और बढ़ जाएगी।
2.‘ओउम’ ब्रह्मनाद है
ओउम’ कोई शब्द या उच्चारण नहीं है। यदि आप किसी दैवीय शक्ति में आस्था रखते हैं और उसे ही ‘परमात्मा’, ‘भगवान’, ‘वाहे गुरु’, ‘ईसा मसीह’ आदि मानते हैं, तो ब्रह्मांड में उसी की गूंज की ध्वनि ‘ओउम’ है। ‘ओउम’ ब्रह्मांड में विचरती और समाहित वह आवाज़ है, जिसे सूक्ष्म इंद्रियों के जरिए ही अनुभूत किया जा सकता है। सौरमंडल में विभिन्न ग्रहों की गति से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वह ‘ओउम’ ही है। यह सिर्फ ध्वनि या नाद ही नहीं, अनंत शक्ति का प्रतीक है। यह पूरी सृष्टि में व्याप्त है, लिहाजा इसे ‘सार्वभौमिक आवाज़’ भी माना जाता है। इस नाद को ‘प्रणव’ की संज्ञा भी दी जाती है। ‘ओउम’ की महिमा और व्याप्ति इतनी अनंत है कि वेदों, पुराणों में उसे ‘ब्रह्मनाद’ माना गया है। अर्थात परमात्मा का स्वर। बहरहाल ‘ओउम’ की व्याख्या एक संपादकीय में नहीं की जा सकती। उसके विश्लेषण में असंख्य ग्रंथ भी सीमित साबित हुए हैं। जो राजनीतिक दल, नेता अथवा धर्मगुरु ‘ओउम’ को हिंदू-मुस्लिम के संदर्भ में आंकते हैं, वे अज्ञानतावश ऐसा कर रहे हैं। ‘ओउम’ और योग का समन्वय सनातन है और उसका आधार सांप्रदायिक नहीं है। कांग्रेस नेता एवं सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ‘ओउम’ का महत्त्व न जानते हों, ऐसा हम नहीं मान सकते, क्योंकि उनके पिता स्व. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी भारतीय इतिहास और संस्कृति के ‘स्कॉलर’ थे।
प्रख्यात वकील और राज्यसभा सांसद भी थे। वह ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त भी रहे। ऐसे सांस्कृतिक और शिक्षित माहौल में पलने-बढ़ने के बाद भी अभिषेक को ‘ओउम’ और योग की पारस्परिकता की जानकारी न हो, ऐसा मानना असंभव-सा है। फिर भी योग की शक्ति के संदर्भ में उन्होंने ‘ओउम’ के साथ ‘अल्लाह’ को भी रखने की बचकाना और संकीर्ण हरकत की है, जाहिर है कि उसमें भी मुस्लिम सियासत का आभास हुआ होगा! किसी भी योगासन में ‘अल्लाह’ का नाद ध्वनित नहीं होता, लेकिन ऐसे कई योगासन और योग-क्रियाएं हैं, जिनमें आंखें मूंदने और नाक से श्वास छोड़ने पर ‘ओउम’ की ध्वनि महसूस होती है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में भी सऊदी अरब, पाकिस्तान, मलेशिया सरीखे इस्लामी देशों ने ‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ तय करने का विरोध किया था। प्रस्ताव भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने पेश किया था। फिर भी 193 में से 177 देशों ने भारत का समर्थन किया और बीते सात सालों से दुनिया ‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ मना रही है। मुस्लिम देशों में भी कई संगठन ऐसे हैं, जो दशकों से योग करते आए हैं, क्योंकि वे इसे ‘वेलनेस स्पोर्ट’ की भावना से ग्रहण करते हैं। क्षुद्र सियासत तो तब सामने आई, जब देश के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने ‘योग दिवस’ आयोजन का विरोध किया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसे ‘हिंदू एजेंडा’ करार दिया। इस बार अभिषेक मनु सिंघवी ने गैर-जरूरी और सांप्रदायिक बयान दे दिया। गौरतलब है कि अमरीका सरीखे पश्चिमी देशों में योग-क्रियाएं दशकों से की जा रही हैं और वहां डॉक्टरों ने इसे मान्यता दी है।
भारत में इस बार कई मुस्लिम युवतियों, बच्चियों और महिलाओं को योगासन करते हमने टीवी चैनलों पर देखा। क्या उन्हें इस्लाम से बेदखल कर दिया गया है, क्योंकि वे ‘ओउम’ वाले योगासन भी कर रही थीं? यदि अभिषेक मनु ने भाजपा-विरोध के नाम पर और मुसलमानों का समर्थन हासिल करने के मद्देनजर ऐसा विवादित बयान दिया है, तो वह और कांग्रेस दोनों ही मुग़ालते में हैं। ‘ओउम’ और योग भाजपा और संघ परिवार की बपौती नहीं हैं। अलबत्ता इन संगठनों की छवि हिंदूवादी जरूर है। योग बेहद सनातन है और तन-मन की एकाग्रता के जरिए आत्मा को शांत करने की विलक्षण प्रक्रिया है। सदियों से हमारे ऋषि-मुनियों और योग-साधकों ने योगासन के असंख्य तरीकों का आविष्कार किया है। सांस लेने की प्रक्रिया हमारे शारीरिक अंगों को किस कदर स्वस्थ रख सकती है, यह शिक्षा विश्व को हमने प्रदान की है। पतंजलि गुरु से अयंगार तक और श्रीश्री रविशंकर से बाबा रामदेव तक का ध्येय यही है कि मनुष्य स्वस्थ रहे। योगासन देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी करते थे। क्या वे हिंदू हो गए और उनकी मुस्लिम प्रतिबद्धता सवालिया हो गई? इस सवाल पर कांग्रेस को जरूर सोचना है, क्योंकि बौद्धिक और सांस्कृतिक प्रतिबद्धता के स्तर पर कांग्रेस का पतन लगातार जारी है। भाजपा से लड़ते-लड़ते कांग्रेस देश-विरोधी और राष्ट्रवाद-विरोधी होती जा रही है। कोई अपने सनातन मूल्यों और परंपराओं पर गर्व नहीं कर सकता, तो फिर वह भारतीय कैसा है? इस पर सोचना पड़ेगा।
3.श्वेत पत्र के जरिये संवाद
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने कोविड-19 पर श्वेत पत्र जारी करते हुए कल जो बातें कहीं, उनके अपने राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं, लेकिन कुछ बिंदुओं को महज राजनीति कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। यह एक कटु तथ्य है कि महामारी की पहली लहर में देश की अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान उठाना पड़ा, और सरकार के तमाम इंतजामों के बावजूद गरीबों की जिंदगी मुश्किल हुई, इसलिए दूसरी लहर की आशंकाओं व चेतावनियों के प्रति जैसी संजीदगी की अपेक्षा केंद्र और राज्य सरकारों से की जा रही थी, उसे बरतने में उनसे चूक हुई, जबकि उनके सामने यूरोप के कई देशों के उदाहरण थे, जहां सर्दियों में ही दूसरी लहर आ गई थी। अपने पुराने त्रासद अनुभव से सबक लेते हुए उन्होंने दूसरी लहर में बेहतर प्रबंधन के जरिये नुकसान को काफी हद तक रोक लिया। इटली इसका बड़ा उदाहरण है। इसके विपरीत दूसरी लहर के दौरान भारत में एक वक्त हमने तंत्र को बिल्कुल असहाय पाया। निस्संदेह, भारत की विशाल आबादी बड़ी चुनौती थी, लेकिन यह आबादी न तो रातोंरात पैदा हुई थी और न ही सरकारें महामारी की भयावहता से अनभिज्ञ थीं।
इस महामारी से संघर्ष में जो शुरुआती प्रशासनिक-नागरिक व संघीय अनुशासन दिखे थे, वे लॉकडाउन हटने के साथ टूटते चले गए। इस वजह से दूसरी लहर के क्षेत्रफल को तीव्र विस्तार मिला और महामारी बड़े पैमाने पर ग्रामीण इलाकों में पसरी। देश ने इसकी कितनी बड़ी कीमत चुकाई है, इसके सटीक आकलन में तो वर्षों लगेंगे। लेकिन अब जब दूसरी लहर उतार पर है, और दूसरे लॉकडाउन की पाबंदियां हटाई जा रही हैं, तब वही अंदेशे फिर मुंह बाए खड़े हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री और दूसरे जिम्मेदार मंचों ने भी आगाह किया है कि महामारी अभी खत्म नहीं हुई है, और पिछली गलतियों को दोहराने से हर सूरत में बचा जाए। विशेषज्ञ तो शुरू से चेता रहे हैं कि वैक्सीन लेने के बाद भी अभी कोविड-प्रोटोकॉल का पालन अनिवार्यत: करना होगा। राहुल गांधी महामारी की शुरुआत से ही प्रेस कॉन्फ्रेंस और ट्वीट के जरिये इसके बारे में अपनी बात रखते रहे हैं। श्वेत पत्र को इसी कड़ी में देखा जाएगा। वैसे, प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठकों में अन्य विरोधी दलों की ओर से भी कई सुझाव आए, लेकिन दुर्योग से किसी सकारात्मक विपक्षी सुझाव और अच्छी सरकारी पहल से ज्यादा विवाद ही सुर्खियां बटोरते रहे। असल में, न सत्ता पक्ष में अब इतनी उदारता रही कि विपक्ष के साथ वह कोई श्रेय साझा करे और न विपक्ष में इतना धैर्य बचा है कि वह सत्ता की गरिमा का ख्याल रखे। बहरहाल, राहुल ने श्वेत पत्र में तीसरी लहर की आशंका के मद्देनजर मुकम्मल तैयारी का अहम मुद्दा उठाया है। तीसरी लहर की आशंका वरिष्ठ स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी जता चुके हैं। इसी तरह, महामारी से सबसे ज्यादा बेहाल गरीबों व छोटे कारोबारियों की आर्थिक मदद की बात भी कई अर्थशास्त्री पहले से कह रहे हैं। जहां तक कोविड मुआवजा कोष बनाने का सुझाव है, तो आने वाले दिनों में केंद्र पर इसका दबाव बढ़ सकता है, क्योंकि कई राज्य सरकारें पहले ही मुआवजे घोषित कर चुकी हैं। जो भी हो, लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष की अपनी-अपनी भूमिका है। दोनों के रिश्ते आरोपों-प्रत्यारोपों में गर्क न हों, और उनमें रचनात्मक संवाद की भरपूर गुंजाइश रहे, तो इससे जनता का ही भला होता है।
4.इलाज का बोझ
उपचार खर्च में हिस्सेदारी बढ़ाए सरकार
किसी देश के नागरिकों का स्वास्थ्य उसके नागरिकों को मिलने वाली सस्ती चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता पर निर्भर करता है। सरकारों का दायित्व है कि नागरिकों को सस्ता व सहज इलाज उपलब्ध हो। कोरोना संकट ने देश के चिकित्सातंत्र की विफलता को उजागर किया है। पहले ही देश में करोड़ों लोग महंगे उपचार के चलते गरीबी के दलदल में धंस चुके थे, जिसे कोरोना संकट की भयावहता ने और विकट बना दिया है। विडंबना यह है कि देश में आम आदमी को इलाज का सारा खर्च खुद ही वहन करना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में किसी व्यक्ति को सौ रुपये के इलाज में त्रेसठ रुपये का खर्च वहन करना पड़ता है। इस मामले में हमारे छोटे पड़ोसी देश बेहतर स्थिति में हैं। चीन में जहां सौ में तीस फीसदी, ब्रिटेन-अमेरिका में बीस तो फ्रांस में नौ फीसदी खर्च नागरिकों को वहन करना पड़ता है, शेष राशि सरकारी योजनाओं के जरिये आती है। देश में सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की कमी के चलते चिकित्सा सुविधाओं का नितांत अभाव बना हुआ है, जिसके चलते करोड़ों लोग गरीबी के दलदल में धंस जाते हैं। देश की चार फीसदी आबादी ऐसी है, जिसके कुल खर्च में पच्चीस फीसदी इलाज का खर्च शामिल है। कोरोना संकट के दौरान जो दवा, चिकित्सा उपकरणों की कालाबाजारी हुई व निजी चिकित्सालयों के उपचार में मनमानी हुई, उसके चलते कई लोगों को घर, जमीन व जेवर तक बेचने की खबरें आईं। कोरोना संकट के दौरान लोगों ने मोटी रकम अपने पीएफ व सेवानिवृत्ति कोषों से निकाली। चिकित्सा व आर्थिक विशेषज्ञ लंबे समय से मांग करते रहे हैं कि देश के चिकित्सा बजट पर जीडीपी का ढाई से तीन फीसदी खर्च किया जाये। अनुमान है कि इससे आम नागरिकों को चिकित्सा खर्च का महज तीस फीसदी वहन करना पड़ेगा जिसे न्यायसंगत माना जा सकता है।
कोरोना संकट की दूसरी लहर के दौरान अस्पतालों के बाहर दम तोड़ते मरीजों, ऑक्सीजन संकट से होने वाली मौतों व दवाओं की किल्लत व कालाबाजारी के चलते दुनिया में देश की जगहंसाई हुई। इस घटनाक्रम को सबक मानते हुए सरकार को नये सिरे से चिकित्सा बजट निर्धारित करने और रणनीति में बदलाव लाने की जरूरत है। यह महज नागरिकों की सेहत का प्रश्न नहीं बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था और देश की सेहत का सवाल भी है। देश के संविधान के तहत जीवन रक्षा के लिये उपचार हासिल करना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। ऐसे में सरकारों का दायित्व बनता है कि पूरे देश में सस्ते उपचार की व्यवस्था करे। हालिया संकट ने बताया है कि इंश्योरेंश आधारित चिकित्सा सुविधाएं नाकाम रही हैं। बड़े जोर-शोर से प्रचारित आयुष्मान योजना का लाभ पात्र लोगों को पर्याप्त नहीं मिल पाया है। जब अस्पतालों में बेड व वेंटिलेटर की सुविधा ही उपलब्ध नहीं तो किसी भी योजना का लाभ कैसे मिल सकता था, जिसकी जेब भारी थी, बेड उसी को मिला। या फिर राजनीतिक रसूख वाले लोगों की सुनी गई। ऐसे में व्यक्ति का इलाज का अधिकार उसकी जेब की क्षमता के अनुरूप होना चाहिए। पिछले दिनों जो लोग अपनों का अंतिम संस्कार न कर पाने के चलते शवों को गंगा-यमुना में बहा रहे थे और नदियों के तटों पर दफन कर रहे थे, उनके लिये कहां तक संभव था कि वे अपनों का महंगा इलाज दे पायें। ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि गरीब आदमी की पहुंच में सस्ते इलाज की व्यवस्था करे। स्थानीय प्रशासन द्वारा संचालित अस्पतालों की संख्या में इजाफा किया जाये। रह-रहकर सिर उठा रही कोरोना संक्रमण की लहरें और रूप बदलता वायरस देश के लिये नित नयी चुनौती पैदा कर रहा है। तीसरी लहर की आशंकाओं के बीच यह काम युद्धस्तर पर किया जाना जरूरी है, जिसके लिये देश में उपलब्ध सभी चिकित्सा पद्धतियों का संकट काल में उपयोग करने की जरूरत है। इसमें भारतीय जीवन शैली व परिवेश के अनुरूप सदियों से अपनायी गई व गरीब की पहुंच वाली चिकित्सा पद्धतियों के अनुभव का लाभ उठाने में गुरेज नहीं करना चाहिए।