इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.विकास के नए सरोकार
सरकार के उद्देश्यों की प्रतीक्षा में जनता अपने भविष्य का सांचा निर्धारित करती है। हिमाचल में जनता के लिए घोषणाओं के पहर तय हैं और जहां सत्ता की सवारी जब कभी लक्ष्य चुनती है, तो सन्नाटे टूट कर बताते हैं कि कहां स्कूल, कहां कालेज या कहां कोई कार्यालय अपने वजूद की कहानी लिख रहा है। विकास के संदर्भों में हिमाचल की गाथा, जनापेक्षाओं के जहाज उड़ाती रही है और इस तरह काबिलीयत या सहूलियत से कहीं अधिक सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार हो चुका है। अब इसी रथ को नए मुकाम की तरफ अग्रसर करना होगा ताकि भविष्य की पैरवी में हम अन्य साहसिक कदम उठा सकें। कुछ इसी तरह के अंदाज में, जब प्रदेश के शिक्षा मंत्री हमीरपुर में संस्कृति के लिए विकास के नए सरोकार पैदा करते हैं, तो हमारे सामने एक नई दुनिया प्रवेश कर जाती है। घोषणा के अनुसार हमीरपुर शहर में एक बहुआयामी सांस्कृतिक केंद्र का निर्माण होने जा रहा है। पच्चीस करोड़ की अनुमानित राशि से शहर में एक ऐसा परिसर विकसित होगा जिसके भीतर जनता का सांस्कृतिक पक्ष मजबूत होगा।
एक ही परिसर में ऑडिटोरियम, संग्रहालय, कला वीथी, पुस्तकालय तथा लेखक गृह का होना, किसी भी सभ्यता के आदर्शों में इजाफा कर सकता है।
घोषणाओं की भीड़ और प्रगति के अब तक के मॉडलों से भिन्न अगर सरकार सांस्कृतिक पक्ष का कद ऊंचा करना चाहती है, तो ऐसी हर पहल को साधुवाद। अमूमन राजनीतिक दस्तावेज लिखता विकास ऐसे संदर्भों से दूर ही रहना पसंद करता है क्योंकि कला, संस्कृति व भाषा जैसे विषय चुनावी अभियान नहीं बनते। ऐसे में अगर विकास की मांग पुस्तकालय या सभागृह चुन रही है और बजट की सूची में ऐसी प्राथमिकताएं उभर रही हैं, तो यह परिवर्तन की परिभाषा मानी जाएगी। हमने अपने ही सर्वेक्षण में पाया कि हिमाचल के युवा अब पुस्तकालय की संगत में करियर की उड़ान भरने को तत्पर हैं। कमोबेश हर जिला पुस्तकालय की पुस्तकों में करियर की तलाशी बढ़ी है और बच्चों की मांग पर परिसर के सक्रिय रहने का समय बढ़ गया है। ऐसे में पुस्तकालयों के डिजाइन, सुविधाओं व सामग्री में परिवर्तन आवश्यक हो जाते हैं। पुस्तकालयों को करियर का मंच बनाने के लिए नए काडर व भवनों की जरूरत है। दूसरी ओर हर शहर में ऑडिटोरियम का निर्माण लोक कला केंद्र के रूप में किया जाए, तो इससे स्थानीय प्रतिभाओं को आगे बढऩे का अवसर मिलेगा।
इसी परिप्रेक्ष्य में राज्य के प्रमुख आधा दर्जन के करीब मंदिरों का विस्तार कला केंद्रों के रूप में होना चाहिए और वहां बाकायदा लोक गीत-संगीत व नाट्य कलाओं का संरक्षण-संवद्र्धन तथा प्रशिक्षण के लिए स्कूल या कालेज खोले जाएं। हर मंदिर परिसर में उच्च स्तरीय सुविधाओं से सुसज्जित ऑडिटोरियम के निर्माण से नियमित गीत-संगीत व भजन संध्याओं के आयोजन के साथ-साथ लोक संस्कृति संप्रेषण का कार्य हो पाएगा। अत: सरकार से अपेक्षा रहेगी कि कला-संस्कृति विभाग के मौजूदा प्रारूप को बदलते हुए इसे भविष्यगामी बनाएं जबकि भाषा विभाग को अलग करते हुए शिक्षा महकमे से जोड़ दिया जाए। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर द्वारा हर जिला में संवाद कक्ष स्थापित करने की पहल भी एक नई पांत की तरह है, जहां सरकार सीधे फीडबैक ले सकती है। जनता और सरकार के बीच संवाद की परंपराएं एकतरफा होती जा रही हैं, जबकि प्रदेश का अब बौद्धिक कक्ष सिकुड़ रहा है। अगर हर जिला में विभागीय तौर पर बुद्धिजीवियों या सेवानिवृत्त विशेषज्ञों से राय मशविरा करके योजनाएं-परियोजनाएं बनें, तो विकास की परिभाषा और प्रासंगिकता बढ़ेगी। हिमाचल में विकास के रथ को नई जमीन पर दौड़ाने की जरूरत है और यह तभी संभव होगा अगर नागरिक मांग का दायरा व्यापक और सोच की सतह अलग होगी।
- अंधेरे से उजाले का बजट!
आज संसद में सामान्य बजट का दिन है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण 2021-22 वित्त वर्ष के लिए बजटीय प्रस्ताव पेश करेंगी। कोरोना संक्रमण के यातना-काल के बाद यह पहला पूर्ण बजट होगा। हालांकि आर्थिक पैकेज की घोषणाएं की जाती रही हैं। बजट से पहले ‘आर्थिक समीक्षा’ के दस्तावेज में अर्थव्यवस्था से जुड़े खुलासे किए जा चुके हैं। हमारी आर्थिक स्थिति पलट कर पटरी पर कैसे आ सकती है, उसके लिए कुछ अनुशंसाएं की गई हैं और विकास दर के लक्ष्य भी तय किए गए हैं। ‘आर्थिक समीक्षा’ का अनुमान है कि विकास दर 11 फीसदी से भी ज्यादा हो सकती है। 2022-23 में बढ़ोतरी 6.5 या 7 फीसदी तक उछाल मार सकती है। ऐसे ही अनुमान आईएमएफ और विश्व बैंक के भी थे। लगता है हमने विश्व बैंक के डाटा पर अपनी अर्थव्यवस्था के आकलन किए हैं! लेकिन हमारा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) करीब 205 लाख करोड़ से घटकर करीब 195 लाख करोड़ रुपए हो गया है। जीडीपी ने 215 लाख करोड़ रुपए की बुलंदियां भी छुई थीं। 2017-18 से लगातार विकास दर घट रही है और हम 7 फीसदी की बढ़ोतरी के स्थान पर नकारात्मक 7.7 फीसदी की अर्थव्यवस्था पर आ गए हैं।
बहरहाल कोरोना के घोर संकटकाल के दौरान आर्थिक विकास दर नकारात्मक 23 फीसदी से भी ज्यादा लुढक़ गई थी। फिलहाल स्थिति यह है कि विनिर्माण और सेवा सरीखे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में विकास दर करीब 9 फीसदी नकारात्मक है। हालांकि अर्थव्यवस्था के कोर सेक्टर में कोयला, इस्पात, बिजली, पेट्रोलियम आदि में बढ़त दिखाई दे रही है। जीएसटी संग्रह भी 3 लाख करोड़ रुपए से अधिक हुआ है। रेल की माल ढुलाई में भी बढ़त दिखाई दे रही है।
अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यदि 11 फीसदी विकास दर का लक्ष्य साकार करना है, तो सरकार की कमाई बढ़ानी होगी और भयमुक्त माहौल बनाना होगा तथा आम आदमी की जेब में नकदी डालनी होगी। चूंकि देश में औसत प्रति व्यक्ति आय भी 1.34 लाख से घटकर करीब 1.27 लाख रुपए हो गई है, कोरोना-काल में जो 12 करोड़ के करीब नौकरियां और दिहाडिय़ां समाप्त हुई थीं, उनमें से करीब 9 करोड़ लोग काम पर लौट आए हैं, लेकिन उनके आर्थिक पैकेज कम हो गए हैं अथवा अनुबंध पर नौकरियां दी जा रही हैं। ऐसी स्थिति के मद्देनजर मांग, मुद्रास्फीति और रोजग़ार पर बजट में खास फोकस होना चाहिए। यदि मांग नहीं बढ़ेगी, तो फैक्टरियां, कारखाने बंद होने की नौबत आ सकती है। उत्पादन नहीं होगा, तो रोजग़ार कैसे बढ़ेगा? रोजग़ार नहीं होगा और आम आदमी की जेब में पैसा नगण्य होगा, तो जाहिर है कि मांग भी कम होगी। उसका सीधा असर बाज़ार और औद्योगिक उत्पादन पर पड़ेगा। यह ऐसा महत्त्वपूर्ण चक्र है, जो हमारी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का मूल मंत्र है। कोरोना वायरस का असर क्षीण होता जा रहा है, लेकिन मजदूरों के बाज़ार में अब भी मंदी का आलम है। सरकार को खर्च भी बढ़ाना होगा। बजट के मद्देनजर ‘आर्थिक समीक्षा’ में आधारभूत ढांचे, कृषि, औद्योगिक उत्पादन, रोजग़ार, कीमतें, आयात-निर्यात, विदेशी मुद्रा का विश्लेषण किया गया है, तो स्वास्थ्य और शिक्षा सरीखे सामाजिक क्षेत्र पर भी फोकस है।
सिर्फ आयकर की सीमा बढ़ाकर अर्थव्यवस्था का पुनरुत्थान नहीं किया जा सकता। यह मात्र 3 फीसदी आबादी तक ही सीमित है। यदि भारत को 2024 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य हासिल करना है, तो उन प्रासंगिक कारकों को भी साथ लाने की कोशिशें करनी होंगी, जिनका अर्थव्यवस्था पर अल्पकालिक अथवा दीर्घकालीन प्रभाव तय माना जाता है। कोरोना-काल औसत नागरिक के स्वास्थ्य से जुड़ा दौर रहा है, लिहाजा बजट में आत्मनिर्भर भारत के साथ-साथ स्वस्थ भारत का फोकस भी जरूर होगा। ‘आयुष्मान भारत’ एक सफल अभियान रहा है। देश के 10 करोड़ से अधिक परिवार इसके दायरे में हैं, लेकिन अब इसे समस्त भारतीयों के लिए लागू करना चाहिए। सामाजिक सुरक्षा का यह सबसे प्रभावी प्रयोग साबित होगा। फिलहाल भारत में जीडीपी का मात्र 1.3 फीसदी ही स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है, जबकि फिलीपींस, इंडोनेशिया, चीन, ब्राजील आदि देशों में बजट का 7-10 फीसदी खर्च किया जाता रहा है। ‘आर्थिक समीक्षा’ में भी स्वास्थ्य खर्च को 3 फीसदी तक करने की अनुशंसा की गई है। किसान और कृषि भी सबसे संवेदनशील मुद्दा है। इसका बजट बढ़ाकर 1.55 लाख करोड़ रुपए किया जा सकता है। करीब 11.5 करोड़ किसानों के लिए सम्मान राशि भी बढ़ाई जा सकती है। मांग 18-24 हजार सालाना की है। बहरहाल देशवासियों की उम्मीदों की फेहरिस्त लंबी है, लेकिन 2021-22 की पहली छमाही में विकास दर 14 फीसदी हासिल करनी है, तो हरेक क्षेत्र का पुनरुत्थान जरूरी है।
3.तेज पिघलती बर्फ
धरती पर प्राकृतिक रूप से जमी बर्फ का पिघलना अगर तेज हुआ है, तो यह न केवल विचारणीय, बल्कि चिंताजनक भी है। विगत कुछ दशकों में धरती के बढ़ते तापमान अर्थात ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के कुछ प्रयास होते दिख रहे हैं, लेकिन तब भी बर्फ का पिघलना रुकना तो दूर, तेज होता जा रहा है। द क्रायोस्फीयर जर्नल में प्रकाशित शोध में पाया गया है कि 1994 और 2017 के बीच पृथ्वी ने 28 ट्रिलियन टन बर्फ खो दी है। पूरे ग्रह में बर्फ के पिघलने की दर तेजी से बढ़ रही है। वर्ष 1990 में 0.8 ट्रिलियन टन बर्फ प्रतिवर्ष पिघल रही थी, लेकिन 2017 में प्रतिवर्ष 1.3 ट्रिलियन टन बर्फ पिघलने लगी है। अगर दुनिया में बर्फ को पिघलने से रोकने के प्रयास हो रहे हैं, तो फिर बर्फ का पिघलना भला क्यों तेज हुआ है? धरती को हो रहा यह नुकसान महज कागजी हिसाब-किताब पर आधारित नहीं है। ब्रिटेन के लीड्स विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं की टीम ने सैटेलाइट से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग करते हुए बर्फ के नुकसान का ठोस अनुमान लगाया है। इस अध्ययन से यह भी पता चलता है कि कुल 23 साल के सर्वेक्षण में बर्फ के नुकसान की दर में 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
बर्फ का पिघलना एक पूरी विनाश शृंखला का हिस्सा है। संक्षेप में अगर कहें, तो बर्फ के पिघलने से ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा मिलता है और ग्लोबल वार्मिंग से बर्फ का पिघलना तेज होता है। अत: परस्पर जुड़े इस सिलसिले को तोड़ना जरूरी है। बहुत से लोग अभी भी बर्फ के पिघलने को हल्के से लेते हैं, जबकि यह खतरा बहुत गंभीर और बड़ा है। बर्फ के पिघलने से समुद्र का जल स्तर बढ़ जाता है, जिससे तटीय क्षेत्र मुश्किल में पड़ते हैं। अनेक द्वीपों पर जीव-जीवन खतरे में पड़ता है, क्योंकि उनके प्र्राकृतिक आवास को नुकसान पहुंचता है। हम अक्सर पढ़ते रहते हैं कि यह द्वीप या देश आने वाले दशकों में डूब जाएगा, लेकिन वास्तव में इसकी गंभीरता को हममें से ज्यादातर लोग समझ नहीं पा रहे हैं। आज दुनिया अंतरिक्ष विज्ञान पर बहुत खर्च कर रही है, चांद-मंगल पर बस्ती बसाने का सपना है, लेकिन वैसा ही जुनून धरती को बचाने के लिए भी होना चाहिए। इस नुकसान पर गौर करना होगा। खासकर अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड में ध्रुवीय बर्फ की चादर खत्म होती जा रही है, नतीजा पूरी दुनिया को भुगतना पड़ेगा। लीड्स विश्वविद्यालय के रिसर्च फेलो थॉमस स्लेटर कहते हैं, ‘हमने हर क्षेत्र में बर्फ के नुकसान का अध्ययन किया है, लेकिन अंटार्कटिका व ग्रीनलैंड में पसरी बर्फ की चादरों को सबसे तेज और गहरा नुकसान हुआ है। वातावरण और महासागरों का गरम होना तेज हो रहा है। वातावरण व महासागरों का तापमान प्रति दशक क्रमश: 0.26 और 0.12 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ रहा है। अब इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं रही कि दुनिया को अपने बचाव के लिए जितना गंभीर होना चाहिए, वह नहीं है। अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को हमने जलवायु संबंधी अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते देखा था। वहां अब जो नई सरकार बनी है, वह जलवायु परिवर्तन को लेकर ज्यादा संवेदनशील प्रतीत हो रही है। बेशक, अमेरिका जैसे विकसित देश पर सर्वाधिक जिम्मेदारी है। धरती का दोहन नहीं रुक सकता, लेकिन धरती के साथ हो रहे अत्याचार को तत्काल रोकना चाहिए।
- टूटे गतिरोध
हठधर्मिता छोड़ें सरकार और किसान
भले ही देर से ही सही, प्रधानमंत्री ने सकारात्मक पहल की है कि किसानों और सरकार के बीच कृषि सुधारों के मुद्दे पर एक फोन कॉल की दूरी शेष है। वार्ता के दरवाजे खुले हैं और कृषि मंत्री द्वारा किसानों को बातचीत के लिये दिया गया न्योता अब भी बरकरार है। निस्संदेह लगातार विस्तार पाता किसान आंदोलन जहां सामाजिक आक्रोश का वाहक है, वहीं कानून व्यवस्था को भी बड़ी चुनौती मिल रही है। राजधानी को जोड़ने वाले मुख्य राजमार्गों पर किसान आंदोलन के चलते जहां नागरिक परेशान हैं, वहीं सरकार को भी रोज करोड़ों रुपये का नुकसान टोल टैक्स व अन्य कारोबार ठप होने से हो रहा है। सरकार को इस मुद्दे पर संवेदनशील पहल करने की जरूरत है। किसानों की भी जिम्मेदारी है कि वे समस्या का समाधान निकालने का प्रयास करें, लेकिन सरकार की जिम्मेदारी उससे अधिक है। राष्ट्रीय राजमार्गों पर दो माह से अधिक समय से जारी धरने का समाधान न निकल पाने से किसानों में आक्रोश है। वहीं यही आक्रोश धरना स्थल के आसपास के गांवों में दिखायी दे रहा है, जिनकी सामान्य गतिविधियां इस आंदोलन से बाधित हैं। निस्संदेह यह गतिरोध और टकराव देश के हित में कदापि नहीं कहा जा सकता। हम यह नहीं भूले कि अभी कोरोना संकट पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। इससे जुड़ी तमाम सावधानियां-सतर्कता आंदोलन के दौरान ध्वस्त हुई हैं। आशंका है कि जब किसान गांव लौटें तो संक्रमण का विस्तार दिखे।
दरअसल, सरकार और किसानों को बीच का रास्ता निकालने की जरूरत है। जिद न सरकार की तरफ से उचित है न ही किसानों की तरफ से। किसान नेता राकेश टिकैत का वह बयान स्वागतयोग्य है कि न सरकार को झुकना पड़े और न ही किसान की पगड़ी उछले। सरकार की मंशा कृषि सुधार के जरिये किसानों को लाभ पहुंचाने की हो सकती है, लेकिन सरकार ने जैसी जल्दबाजी इन कानूनों को बनाने और पारित करने में दिखायी, उसने किसान बिरादरी में संदेह के बीज बोये। निस्संदेह, इस मुद्दे के राजनीतिक निहितार्थ हैं। हारे-हताश राजनीतिक दलों ने इस विवाद को जनाधार जुटाने के मौके के रूप में लिया। शुरुआती दौर में राजनीतिक दलों से परहेज की बात किसान करते रहे हैं, लेकिन राकेश टिकैत के द्रवित होने के बाद राजनीतिक दल जिस तेजी से गाजीपुर आंदोलन स्थल पर जुटे और राहुल गांधी के एक इंच पीछे न हटने के बयान आये उसने राजनीतिक दलों की मंशा को उजागर किया। निस्संदेह 21वीं सदी की खेती पुराने ढर्रे पर नहीं चल सकती। भूमि के संकुचन, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, खाद्यान्न के विश्व बाजार के ट्रेंड, घटते जल स्रोत तथा ढर्रे की खेती के नुकसानों के मद्देनजर कृषि क्षेत्र में सुधारों की जरूरत है। बहुत संभव है इन बदलावों में कुछ असुविधा हो,लेकिन किसान का विश्वास हासिल करना भी जरूरी है। लोकतंत्र में उस बिरादरी पर कानून नहीं थोपे जा सकते, जो उनसे सहमत ही न हो। ऐसे में सरकार और आंदोलनकारियों को मिल-बैठकर बीच का रास्ता निकालना चाहिए।