इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.घाटे की एचआरटीसी के नखरे
सार्वजनिक परिवहन के क्षेत्र में हिमाचल परिवहन निगम फिर से अपने दांत के कीड़े हटाने के बजाय, नए दांत लगवा रहा है। कोविड काल के पंद्रह महीनों में परिवहन निगम का बढ़ता घाटा अपने लिए ‘फायदा’ चुन सकता है, यह निदेशक मंडल की बैठक साबित कर रही है। कुछ बसें रिटायर होंगी और इस तरह करीब 205 नए चमचमाते यात्री वाहन बेड़े में जोड़ लिए जाएंगे। आश्चर्य यह कि कोविड काल के अति निर्धन, कमजोर व असहाय दिनों के बावजूद हिमाचल 86.15 करोड़ खर्च करके नई बसें खरीद सकता है। नौ साल पुराने वाहनों को सड़क से हटाने का इरादा काफी प्रगतिशील है, फिर भी पिछले डेढ़ साल में बसें यकायक इतनी बूढ़ी कैसे हो गईं। इसी कोरोना काल ने करीब 105 करोड़ के घाटे से प्रबंधकीय व्यवस्था का संतुलन तोड़ा होगा और कुल नौ सौ पचास करोड़ के घाटे में पल रही एचआरटीसी को किस तर्क और उधार के पैसे से सजाया जा रहा है। जाहिर तौर पर 86.15 करोड़ रुपए परिवहन क्षेत्र के बजटीय प्रावधानों से ही आएंगे, लेकिन यह धनराशि केवल एचआरटीसी के लिए कुर्बान हो, इसका औचित्य प्रश्नांकित है। परिवहन के दूसरे पलड़े पर निजी क्षेत्र सवार है और उस तरफ भी बसों की तादाद लगभग पैंतीस सौ है।
ऐसे में राज्य के संसाधनों के इस्तेमाल पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए यह पूछा जा सकता है कि कोरोना के दंश तो निजी बसों के संचालन पर भी लगे, लेकिन सरकार ने उन्हें अपने हाल पर क्यों छोड़ दिया। नई बसों की खरीद की जरूरत टाली जा सकती थी, लेकिन परिवहन की अहमियत में पूरे क्षेत्र के घाव भरने कहीं अधिक कारगर होते। जवाहर लाल नेहरू मिशन के तहत आई बसों की बर्बादी बताती है कि हम संसाधनों की चिता जला कर किस तरह सियासी रोटियां सेंक रहे हैं। पहले से ही निजी बसों के मालिक अपने हथियार डाल चुके हैं और उनके लिए बार-बार लॉकडाउन व कर्फ्यू की स्थिति ने बेकारी व बेरोजगारी की परिस्थितियां पैदा कर दी हैं। अगर हाल ही में हिमाचल आए केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी की सलाह भी मानी होती, तो प्रदेश के परिवहन क्षेत्र को इसके समग्र रूप में देखा जाता। प्रदेश के बजट का जो हिस्सा एचआरटीसी के लगातार घाटे की पूर्ति में जाया हो रहा है, उसे सहेज कर परिवहन के नए मॉडल को विकसित करने में लगाना चाहिए। एक ओर रज्जु मार्गों, केबल कार व परिवहन के नए विकल्प तैयार करने के लिए निजी निवेश की ओर देखा जा रहा है और दूसरी ओर हजार करोड़ मिट्टी कर चुकी एचआरटीसी के पंख संवारने के लिए, कोविड काल के बावजूद नई पेशकश हाजिर है।
बहरहाल सरकारी उपक्रमों के बिगड़ते हालात पर पर्दा डालती कोशिशों के लिए सरकार को साधुवाद भी दिया जा सकता है और उस हिम्मत को दाद देनी होगी, जो लगभग फाके की हालत से गुजर रहे परिवहन को भूलते हुए एचआरटीसी की खाली झोली भर रही है। कोविड काल के सबक निजी क्षेत्र के लिए होंगे, जबकि सरकारी क्षेत्र के लिए तो बढ़ता कर्ज भी नियामत है। कोविड काल में कितने ही बस मालिक कंगाल होकर धंधा बंद कर चुके हैं, जबकि स्टॉफ बेरोजगार हो गया। इसी तरह प्रदेश भर में कई निजी होटल बिक चुके हैं और उनके कर्मचारी सड़क पर पहुंच गए, लेकिन जनता के पैसे से चलने वाली एचपीटीडीसी की इकाइयां इस दौर में विश्राम करके भी वित्तीय जवाबदेही से अछूती हैं। कमोबेश इसी तर्ज पर सरकार के सारे उपक्रम अपनी शान की कलगी में बजट के सारे फूल चुराने का दम रखते हैं। ऐसे में इन्वेस्टर मीट की तरफ हिमाचल के तमाम कदम ठोकरें खाने को मजबूर हैं, क्योंकि राज्य केवल सरकारी क्षेत्र के एकाधिपत्य में इजाफा करना जानता है। कोविड काल में निजी क्षेत्र को बचाने की रत्ती भर पहल भी हिमाचल में निजी निवेश की आस्था बढ़ा सकती है, लेकिन सरकारी कवायदों में केवल सार्वजनिक धन की बर्बादी लिखी है। एक साल नई बसों की खरीद रोक कर धन का उपयोग अगर हिमाचल के आर्थिक उपचार में लगाते, तो कई लोग बेरोजगार होने से बच सकते हैं। कम से कम एचआरटीसी को मिल रहा वित्तीय प्रश्रय इसकी सेहत के बजाय, समय की जरूरतों को तो कतई पूरा नहीं कर रहा।
2.मुआवजा तो देना होगा
वैश्विक महामारी कोरोना से जिसकी मौत हुई है, उसके परिजनों को मुआवजा जरूर मिलेगा। कुछ वक्त लग सकता है या अनुग्रह-राशि कुछ कम हो सकती है अथवा गरीबी-रेखा के नीचे वाले परिवारों को प्राथमिकता के स्तर पर आर्थिक राहत दी जा सकती है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि मुआवजा तो देना ही होगा। भारत सरकार ने कोविड के प्रत्येक मृतक के परिजनों को 4 लाख रुपए का मुआवजा देने में असमर्थता जताई थी, लिहाजा सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के विवेक पर ही यह निर्णय छोड़ दिया है कि मुआवजा कितना होगा। एनडीएमए को ही 6 सप्ताह में दिशा-निर्देश तय करने होंगे और राज्यों के साथ साझा करने होंगे। अब सरकारें यह रोना नहीं रो सकतीं कि मुआवजा देने में ही पूरा फंड समाप्त हो जाएगा। यह दलील भी नहीं चलेगी कि फिर कोरोना से लड़ने, स्वास्थ्य सुविधाओं और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के लिए धनराशि खर्च करना मुश्किल हो जाएगा। सरकार ने आपदा प्रबंधन के तहत 12 आपदाओं को तय कर रखा है, जिनमें मुआवजा देने की व्यवस्था है। भूकम्प, बाढ़, चक्रवात आदि ऐसी ही प्राकृतिक आपदाएं मानी गई हैं।
क्या कोविड जैसी महामारी सामान्य आपदा है? बहरहाल सर्वोच्च अदालत के न्यायमूर्ति अशोक भूषण सेवानिवृत्त होने से पहले यह ऐतिहासिक और मानवीय फैसला दे गए हैं कि मुआवजा देने के लिए फंड के कुतर्क नहीं दिए जा सकते। यह सरकार का प्राथमिक, बुनियादी और मौलिक दायित्व है कि आपदा-पीडि़तों के कष्ट साझा किए जाएं। उन्हें दोबारा उठने और खुद को संजोने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। आजीविका के संसाधन मुहैया कराए जाएं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि फिलहाल यह दायित्व निभाने में प्राधिकरण (और केंद्र सरकार भी) नाकाम रहे हैं। कोरोना वायरस के कारण कुल दर्ज मौतें 4 लाख के करीब हैं। यदि प्रत्येक मामले में 4 लाख रुपए का भी मुआवजा दिया जाता है, तो कुल राशि 16,000 करोड़ रुपए बनती है। जिस सरकार ने बीते साल पेट्रोलियम पदार्थों पर एक्साइज टैक्स लगाकर ही 4 लाख करोड़ रुपए वसूले हैं। जीएसटी के जरिए 1 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा जुटाया गया है। इस देश का प्रत्येक नागरिक प्रभारों, अधिभारों, उपकर, वैट, शिक्षा टैक्स आदि कोई न कोई टैक्स जरूर अदा करता रहा है। आयकर और कॉरपोरेट टैक्स देने वालों की जमात तो निश्चित है। करीब 3 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था वाले देश में 16,000 करोड़ रुपए का अनुग्रह क्या मायने रखता है? सरकार के पास देश के नागरिकों का ही पैसा है। उस पूंजी पर पहला अधिकार पीडि़त नागरिक का है।
वह सकल राशि किसी सरकार की बपौती नहीं है। यदि आपदाओं और त्रासदी में भी मुआवजा देकर सरकार अपने ही नागरिकों को संबल नहीं देगी, तो अनाम, असमय और अप्राकृतिक मौतों के सिलसिले सामने दिखाई देने लगेंगे। तब सरकार की जवाबदेही क्या होगी? भारत सरकार और हम नागरिक भी खासकर अमरीका, ब्रिटेन, यूरोप, जापान आदि से तुलनाओं के आदी हैं। हालांकि यह सैद्धांतिक रूप से गलत है। फिर भी कोरोना-काल की तुलना करें, तो अमरीका ने अपने नागरिकों में 2.20 लाख करोड़ रुपए मुफ्त में ही बांट दिए। औसतन नागरिक की जेब में 3000 डॉलर डाल दिए गए। बेशक उनकी नौकरी बरकरार थी या छूट गई थी। सामाजिक सुरक्षा का उदाहरण यह होता है। भारत में कोई भी निश्चित सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा नहीं है। ऐसी सुरक्षा के नाम पर कभी-कभार बीपीएल महिलाओं के खातों में 500 रुपए डाल दिए जाते हैं या किसानों को साल में 6000 रुपए दिए जाते हैं। हमारे देश में कर्जदार नागरिक को और कर्ज लेने की योजनाएं पेश की जाती हैं, ताकि वह जि़ंदगी भर सरकार और कर्ज के बोझ तले दबा रहे। कारखानों को लोन के लिए प्रेरित किया जाता है और बाज़ार में धंधा गुल है। ऐसी तरलता से कारोबारी क्या हासिल करेगा? आम उपभोक्ता के स्तर पर मांग नहीं है, क्योंकि उसकी जेब खाली है। देश की मौजूदा हालत दुनिया भर के सामने है। मध्य श्रेणी वालों को कोविड के थपेड़ों ने ‘गरीब’ बना दिया। बहरहाल शीर्ष अदालत के आदेश के बावजूद मुआवजा आसानी से मिल सकेगा, ऐसा नहीं होगा, क्योंकि नौकरशाही की पेचीदगियां असंख्य हैं। मृतक प्रमाण-पत्र में ‘कारण’ के कॉलम में ‘कोरोना’ लिखा होगा, हमें यह भी सहज नहीं लगता। अंततः सर्वोच्च अदालत को सख्त होकर बार-बार दखल देना होगा
3. कहीं गरमी, कहीं बारिश
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान भीषण गरमी और लू से तप रहे हैं, जबकि पूर्वोत्तर भारत और बिहार में थोड़ी और बारिश होने पर बाढ़ का खतरा है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने बुधवार को कहा कि 7 जुलाई तक उत्तर पश्चिम भारत के शेष हिस्सों में मानसून के आगे बढ़ने की संभावना नहीं। देश में मानसून की बारिश भी तब तक बेहद कमजोर रहेगी। मानसून की उत्तरी सीमा में 19 जून के बाद प्रगति नहीं हुई है। ऐसे में, वह अभी दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों, राजस्थान व पंजाब तक नहीं पहुंच पाया है। आईएमडी ने कहा है कि मध्य अक्षांश की पश्चिमी हवाओं के कारण मानसून कमजोर पड़ गया है। पूर्वी हवाएं आगे नहीं बढ़ पा रही हैं, तो मानसून भी ठहर गया है। अनुमान के अनुसार, पूर्वी हवाओं में 7 जुलाई से पहले जोर नहीं पैदा होगा। इसका अर्थ है, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब को बारिश के लिए करीब दस दिन तक इंतजार करना पड़ सकता है।
30 जून तक उत्तर-पश्चिम भारत में 10 प्रतिशत से अधिक बारिश दर्ज की गई है। मध्य भारत में 17 प्रतिशत अधिक, दक्षिण प्रायद्वीप पर चार प्रतिशत अधिक, पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में तीन प्रतिशत अधिक, पर दिल्ली तप रही है। और तो और, मौसम विभाग ने चेतावनी दी है कि पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में अगले दो दिन व उससे अधिक समय तक लू चलने की संभावना है। विडंबना देखिए, अगले छह-सात दिनों के दौरान बिहार, पश्चिम बंगाल, सिक्किम और पूर्वोत्तर राज्यों में भारी वर्षा की संभावना है। जिन इलाकों में बारिश हुई है, वहां जरूरत से कुछ ज्यादा है। ज्यादातर खेतों में पानी लगा है, तो धान की बुआई के लिए किसानों को इंतजार करना पड़ रहा है। नदी, नाले लबालब हैं। खराब सड़कों पर पानी भरने से चलना मुहाल हुआ है, लेकिन दिल्ली में लोग बारिश और राहत के लिए तरस रहे हैं। कहीं ज्यादा, तो कहीं कम बारिश की वजह से खेती पर भी असर पड़ रहा है। पिछले साल भी असमय बारिश या गैर-आनुपातिक बारिश के चलते फसलों और उत्पादन पर असर पड़ा था।
इसमें कोई शक की बात नहीं कि हम मौसम की अतिरेकी या प्रतिकूल स्थितियों से जूझने में बहुत सफल नहीं हैं। जब ज्यादा बारिश की स्थिति बनती है, तब भी हम आर्थिक या व्यावसायिक रूप से काफी प्रभावित होते हैं और जब कम बारिश होती है, तब भी हम जरूरत भर का पानी नहीं जुटा पाते। ऐसे में, अनेक बार नदियों को जोड़ने या नहरों का जाल बिछाने की बात होती है। सामूहिक रूप से किसानों और उनके साथ मिलकर स्थानीय प्रशासन को सोचना चाहिए कि खेतों में जमा होने वाले अतिरिक्त पानी को कैसे किसी सूखे तालाब या नदी तक पहुंचाया जाए। दूसरी ओर, गरमी और लू वाले इलाकों में भी जरूरी इंतजाम होने चाहिए। लोगों को राहत देने के लिए क्या प्रबंध किए जा सकते हैं? जल के अभाव से कैसे बचा जा सकता है? अधिक गरमी और लू की वजह से मौसमी बीमारियों में भी बढ़ोतरी होती है, अत: क्या व्यक्तिगत स्तर पर लोगों को पर्याप्त जागरूक किया गया है? क्या अस्पताल के स्तर पर तैयारियां पूरी हैं? अतिरेकी मौसम वाले देश भारत में प्राथमिक स्तर पर ही शिक्षण-प्रशिक्षण अनिवार्य रूप से मिलना चाहिए, ताकि लोग मौसम के साथ बेहतर तालमेल बिठा सकें।
4.अप्रिय टकराव
बनी रहे संवैधानिक पदों की गरिमा
पिछले कुछ वर्षों से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और राज्यपाल जगदीप धनखड़ के बीच चला आ रहा टकराव अपने चरम की ओर उन्मुख होता प्रतीत हो रहा है। आरोप-प्रत्यारोप का यह सिलसिला इस हद तक जा पहुंचा है कि कदाचार के जैसे गंभीर आरोप भी बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके लगाये जा रहे हैं। दरअसल पिछले दिनों राज्यपाल जगदीप धनखड़ उत्तर बंगाल के एक सप्ताह के दौरे के बाद जब कलकत्ता लौटे तो उन्होंने दार्जिलिंग के गोरखालैंड टेरीटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन यानी जीटीए में व्याप्त भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाये थे। साथ ही उसके खातों की जांच नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी कैग से कराने की बात कही थी। राज्यपाल के बयान से तमतमायी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में राज्यपाल पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए यहां तक कह दिया कि उनका नाम तीन दशक पुराने बहुचर्चित जैन हवाला कांड के आरोप पत्र में था। वहीं बाद में राजभवन में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने ममता बनर्जी के इन आरोपों को आधारहीन कहा। दरअसल, पश्चिम बंगाल में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच यह टकराव लंबे समय से चला आ रहा है, जिसका चरम पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनाव प्रक्रिया के दौरान तथा चुनाव के बाद हुई हिंसा के बाद नजर आया है। ममता आरोप लगाती रही हैं कि राज्यपाल केंद्र के उकसावे पर चुनाव के बाद हुई हिंसा को लेकर बयानबाजी कर रहे हैं। दरअसल, चुनाव के बाद की हिंसा पर एनएचआरसी समिति ने कोलकत्ता उच्च न्यायालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी है। ममता बनर्जी लगातार राज्यपाल को वापस बुलाने की मांग करती रही हैं और इस बाबत तीन बार पत्र भी लिख चुकी हैं। तृणमूल कांग्रेस पार्टी में इस बात पर मंथन चल रहा है कि राज्यपाल को कैसे हटाया जा सकता है। उसके सांसद मानसून सत्र में इस मुद्दे को उठाने की बात कह रहे हैं। दरअसल, चुनाव उपरांत हुई हिंसा का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। यह खुद ममता बनर्जी के लिये भी मुश्किल बढ़ाने वाला है क्योंकि गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी उनके ही पास है।
निस्संदेह, संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के व्यवहार में गरिमा व संयम की उम्मीद की जाती है। यूं तो मुख्यमंत्री और राज्यपालों के बीच टकराव की स्थिति नई बात नहीं है। जैसा कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने खुद भी कहा है कि किसी भी तरह के विवाद की प्रकृति गैर-राजनीतिक और लोकतांत्रिक होनी चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि राज्यपाल धनखड़ और ममता बनर्जी के रिश्ते हमेशा कड़वाहट भरे रहे हों। विगत में राज्यपाल ने त्योहारों पर सद्भावना के रूप में मुख्यमंत्री से मुलाकात की है। लेकिन यहां जरूरी है कि वैचारिक प्रतिबद्धताओं से इतर दोनों को काम के रिश्तों को प्रभावित किये बिना अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करना चाहिए। वहीं भाजपा आरोप लगा रही है कि सत्तारूढ़ पार्टी उन्हें इसलिये निशाना बना रही है क्योंकि वे राज्य में चुनाव परिणाम आने के बाद हुई हिंसा के शिकार लोगों के साथ खड़े रहे हैं। वहीं तृणमूल कांग्रेस के नेता राज्यपाल पर सत्ता के दुरुपयोग, राज्य को बांटने की कोशिश करने तथा संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन के आरोप लगा रहे हैं। कुल मिलाकर टकराव चरम की ओर बढ़ता जा रहा है। ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में राज्य में मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच टकराव का यह मुद्दा और मुखर होने जा रहा है। आज से राज्य विधानसभा का अधिवेशन शुरू होने जा रहा है। सरकार की ओर से अभिभाषण का मसौदा राज्यपाल को भेज दिया गया है जिस पर राज्यपाल जगदीप धनखड़ का कहना है कि अभिभाषण में लिखी बातों और हकीकत में कोई मेल नहीं है, जो कि आगे विवाद बढ़ने के ही संकेत हैं। टीएमसी के नेता भी राज्यपाल पर भाजपा का प्रवक्ता होने का आरोप लगा रहे हैं। ऐसे में टकराव के फिलहाल टलने के कोई संकेत नजर नहीं आते। एक बात तो तय है कि मुख्यमंत्री व राज्यपाल को न केवल अपने पदों की गरिमा बनाये रखनी होगी, बल्कि वाणी का संयम भी अपरिहार्य है।