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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है

1.शिक्षक का उपहास क्यों

सरकार के वरिष्ठ मंत्री महेंद्र सिंह के एक साहसिक बयान ने अध्यापक वर्ग के सम्मान को कितनी ठेस पहुंचाई, इसका अंदाजा आने वाले दिनों की सियासत में होगा, लेकिन कुछ सीमाओं का उल्लंघन जरूर हुआ है। सार्वजनिक सभाओं का मकसद कर्मचारियों, अधिकारियों और अध्यापकों को लांछित करना नहीं हो सकता है। यह दीगर है कि बेहतर शासन, सुशासन, चिकित्सा व शिक्षा के लिए आत्मचिंतन से सरकारों के विश्लेषण तक हर संभावना व कसौटी हमेशा रहेगी। विडंबना यह है नेताओं की जमात अपने निजी प्रभाव को बढ़ाने के लिए सार्वजनिक रूप से ऐसा प्रदर्शन करती है ताकि सिर्फ तालियां और वोट बटोरे जा सकें। विवादित बयान एक तरफा सोच की धौंस व सत्ता की अहंकारी भाषा हो सकती है और जहां हम दो वर्गों के बीच टकराव देख सकते हैं। क्या नेता इतने गुणी, आदर्श व सर्वमान्य व्यक्तित्व के स्वामी हो गए हैं कि उनकी वाणी को ब्रह्य वाक्य के तौर पर देखा जाए या अध्यापकों का दायित्व छुई मुई हो गया कि आलोचना नहीं हो सकती।

 प्रश्न यह भी है कि किस प्रोफेशन में आना श्रेष्ठ है। एक अध्यापक का चयन अपनी परिपाटी में कठोर मेहनत का ऐसा इम्तिहान है, जिसे जिंदगी भर छात्र से अभिभावक तक, तरह-तरह से वसूलते हैं। यह स्थायी भूमिका की अग्निपरीक्षा सरीखा प्रोफेशन है और इसलिए समाज जब खुद को भी आईने में देखता है, उसे सर्वप्रथम अध्यापक ही याद आता होगा। इसलिए समाज की अपेक्षाओं में अध्यापक को गुरु के रूप में परखा जाता है। गुरु की गरिमा को न कोई मंत्री और न ही समाज की अपेक्षा माप सकती है, लेकिन एक शिक्षक अवश्य ही आलोच्य है। महेंद्र सिंह ने जो बयान दिया उसे सामाजिक संदर्भों में भी देखना होगा और यह भी विचार करना होगा कि सामान्य तौर पर उनके आगे हर दिन कितने कर्मचारी, अधिकारी, शिक्षक व चिकित्सक अपने-अपने स्थानांतरण के लिए बिछ जाते होंगे। यह विडंबना है कि शिक्षकों के संगठन अमूमन अपने सम्मेलनों में सत्ता से नजदीकी का एहसास कराते हुए जो वरदान हासिल करते हैं, उसके बजाय बेहतर शिक्षा के लिए समाज के वरिष्ठ व विशिष्ठ लोगों के साथ चर्चाएं करनी चाहिएं। शिक्षक का समाज के साथ आत्मीय संवाद जितना सशक्त होगा, उतनी ही शिक्षा भी सार्थक होगी। हम महेंद्र सिंह के बयान को कतई सही नहीं ठहरा सकते और न ही यह मानते हैं कि कोरोना काल में शिक्षक मजा लूटते रहे हैं। हमारा पूर्ण विश्वास है कि इस काल में शिक्षा का दीया केवल अध्यापक के हाथ जलाते हुए ही बचा है। ऑनलाइन शिक्षा के तजुर्बे में हिमाचल के कमोबेश हर शिक्षक का योगदान सर्वोपरि रहा है और इसके मानसिक, आर्थिक, सामाजिक व शारीरिक दबावों से यह वर्ग गुजर रहा है। दुर्भाग्यवश हमने अपने आसपास ऐसी व्यवस्था बना ली है जहां राजनीतिक जी हुजूरी मौजूदा दौर की अनिवार्यता बन रही है। इसलिए जब मंत्री ने अध्यापक वर्ग को लांछित किया, तो विवेकहीन श्रोता, समाज और सियासी जमात इस हालात पर भी ताली पीट रही थी। अध्यापक  हमेशा से एकवचन में ही आदर्श होता रहा है, इसे बहुवचन में मंचों पर न घसीटा जाए। जाहिर है नेता बनना आसान है, लेकिन नेता की वंदना सिर्फ ढोंग है।

 बेशक महेंद्र सिंह ने यह साबित कर दिया कि वह राज्य, राज्य की परंपराओं, सरकार और सरकार के हर भागीदार से ऊपर व प्रभावशाली हैं, लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह हिमाचल के आदर्श पुरुष हैं। अब मुख्यमंत्री को यह बताना होगा कि इस प्रकरण में सरकार का नजरिया क्या है। अजीब बात यह कि सरकार के मंत्री ही शिक्षक को प्रताडि़त करने की हिम्मत रखते हैं, लेकिन प्रदेश में पनपते माफिया के खिलाफ बोलने की हिमाकत नहीं करते। अगर मसला शिक्षक और शिक्षा के प्रति किसी संवेदना का होता, तो कथनी और करनी का भेद मिटा कर इस दौर के हर मजमून को पढ़ते हुए ऑनलाइन शिक्षा की अब तक कोई नीति आ गई होती। शिक्षक को नचाने के लिए राजनीतिक आधार पर स्थानांतरण से बड़ी सजा क्या होगी, लेकिन कोई भी सरकार इस दिशा में न नियम और न ही नीति बनाना चाहती है। बेशक सुधार की गुंजाइश हर अध्यापक के आचरण में रहती है, लेकिन इसके लिए व्यवस्थागत तौर पर अहम फैसले लेने होंगे। हिमाचल में शिक्षा का मात्रात्मक विकास जिस गति से हुआ है, उससे व्यवस्था ही परास्त हुई। ऐसे में शिक्षक वर्ग को कोसने के बजाय नेता यह गौर करें कि उनके नेतृत्व की शिथिलता तथा विजन की कमजोरी के कारण ही उपहास की स्थितियां बन रही हैं। मंच पर आसीन होना, हर बात पर मुकर्रर-मुकर्रर सुनना या तालियों के भ्रम में खुद को शिखर पर देखना भी तो उपहास ही है।

2.मुख्यमंत्री बारी-बारी!

एक छोटे-से पहाड़ी राज्य-उत्तराखंड-में बीते चार महीनों में तीसरे मुख्यमंत्री ने कार्यभार संभाला है। देवभूमि में यह भाजपा की कौन-सी विलक्षण राजनीति है, इसका जवाब तो पार्टी आलाकमान को देना है। नेतृत्व या मुख्यमंत्री परिवर्तन का निर्णय ‘दिल्ली’ ही लेती है। पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत और फिर 115 दिनों में ही तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री के पद से हटना पड़ा, यह किसी महिमा या गरिमा का राजनीतिक निर्णय नहीं है, बल्कि भाजपा के भीतरी असंतोष के ही फलितार्थ हैं। गलत निर्णय आलाकमान ने लिए अथवा वह विधानसभा चुनाव की जिताऊ रणनीति के मद्देनजर एक सक्षम और सटीक चेहरा नहीं चुन पाया। यह असमर्थता भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व की है, जिसमें प्रधानमंत्री और गृहमंत्री भी शामिल हैं। इस बार एक युवा और अनजान-से चेहरे को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने कितनी कारगर चाल चली है, यह तो भविष्य और चुनावी माहौल ही तय करेगा, लेकिन यह गुण भाजपा में ही निहित है, जहां 46 वर्षीय पुष्कर सिंह धामी सरीखे अनुभवहीन नेता को मुख्यमंत्री बनाया गया है। अनुभवहीन के मायने हैं कि धामी किसी भी कैबिनेट में राज्यमंत्री तक नहीं रहे।

 आरएसएस, एबीवीपी और भाजपा युवा मोर्चे में रहने के अनुभव कुछ और ही होते हैं। संगठन और सरकार के अनुभव परस्पर-विरोधी होते हैं। सतपाल महाराज,  डॉ. हरक सिंह रावत, डॉ. धन सिंह रावत, बंशीधर भगत, यशपाल आर्य आदि वरिष्ठ विधायकों और नेताओं के असंतोष की परवाह तक पार्टी आलाकमान ने नहीं की। इस बार पिथौरागढ़ के चेहरे को मुख्यमंत्री बनाया गया है। शायद कुमाऊं, गढ़वाल सरीखे क्षेत्रों में भाजपा की स्थिति या तो बेहतर है अथवा वह पिथौरागढ़ के जरिए चुनावी जुआ खेलना चाहती है। नए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को असंतुष्टों को मनाने उनके आवास पर जाना पड़ा, लिहाजा साफ है कि उनकी राजनीतिक चुनौतियां बहुत हैं। बहरहाल अब शपथ-ग्रहण के बाद सभी असंतुष्ट और मतभेदी नेता सत्ता और आलाकमान के सामने पंक्तिबद्ध हो जाएंगे, यह भी राजनीति की अपनी नियति है। लेकिन लोकतंत्र की परंपरा के लिए मुख्यमंत्रियों को बारी-बारी बदलना कोई शुभ संकेत नहीं है। उत्तराखंड को अस्तित्व में आए 20 साल बीत चुके हैं, लेकिन इस दौरान 11 मुख्यमंत्रियों ने सरकारें चलाई हैं। संविधान के प्रावधानों के मुताबिक, अब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर 5वां चेहरा होना चाहिए था, लेकिन नारायण दत्त तिवारी को छोड़ कर कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। भाजपा के किसी भी मुख्यमंत्री को उनका कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया गया। पार्टी स्पष्ट कर सकती है कि यह कौन-सा संवैधानिक प्रावधान है? कमोबेश इसे लोकतंत्र की पावन परंपरा नहीं माना जा सकता, बल्कि उत्तराखंड भाजपा में भीतरी टकराव और असंतोष ऐसे रहे हैं, जिनके नतीजतन मुख्यमंत्री सबसे अनिश्चित और अस्थिर संवैधानिक पद बन गया है। हमारा आकलन है कि धामी चुनाव तक तो मुख्यमंत्री रहेंगे।

 जनादेश भाजपा के पक्ष में रहा, तो कुछ भी दावा नहीं किया जा सकता। धामी ‘तुरुप का पत्ता’ भी साबित हो सकते हैं। इतिहास में बंसीलाल और उनके बाद ऐसे कई मुख्यमंत्री हुए हैं, जो बैकबेंचर माने जाते थे, लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली, तो बड़े परिवर्तनकारी और चालाक नेता साबित हुए। बहरहाल उल्लेख भीतरी असंतोष और मतभेदों का था, तो भाजपा और उसके विपक्षी दलों को 2022 में ही पंजाब, गोवा, गुजरात, हिमाचल, मणिपुर और उप्र आदि चुनाव वाले राज्यों में भीतरी कलह का आस्वादन करना पड़ सकता है। कर्नाटक, त्रिपुरा, बंगाल और केरल आदि राज्यों की भाजपा इकाइयों में भी विक्षोभ और उबाल की स्थितियां हैं। बेहतर यह है कि भाजपा में कोई भी नेता अथवा गुट पार्टी आलाकमान की अवज्ञा का दुस्साहस नहीं कर सकता, लेकिन कांग्रेस में ऐसा नहीं है। पंजाब में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और उनके धुर विरोधी नवजोत सिंह सिद्धू के टकरावपूर्ण मतभेदों को अभी तक शांत नहीं किया जा सका है। उप्र में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बदलने की जो अटकलें चल रही थीं, भाजपा ने उन्हें शांत कर दिया है। अब चुनाव योगी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। इसी तरह कर्नाटक में मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के खिलाफ बगावत पनप रही है। लोकतंत्र में असंतोष और मत-भिन्नता की गुंज़ाइश रहती है, लेकिन मुख्यमंत्री का चेहरा व्यापक विमर्श के बाद तय किया जाना चाहिए, ताकि बदलाव बारी-बारी से न करना पड़े।

3. रद्द कानून का दुरुपयोग

सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त किए गए कानून का पुलिस द्वारा अभी भी इस्तेमाल न केवल दुखद, बल्कि शर्मनाक भी है। सूचना प्रौद्योगिकी कानून की निरस्त की गई धारा 66अ को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से उचित ही जवाब मांगा है। इस धारा को 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने हटा दिया था, लेकिन पुलिस अभी भी इसके तहत मामले दर्ज कर रही है और इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हैरानी जताई है। अब केंद्र सरकार को अदालत को यह बताना होगा कि देश भर में अब तक इसके तहत कितने मुकदमे दर्ज किए गए हैं। जिस कानून को निरस्त हुए करीब छह साल होने जा रहे हैं, उसके बारे में पुलिस प्रशासन का सूचित न होना बड़ी चिंता की बात है। पुलिस के स्तर पर जागरूक अफसरों की कमी नहीं है और अनेक पुलिस अफसर ऐसे होंगे, जो इस निरस्त कानून के बारे में भी जानते होंगे, पर इसके बावजूद बड़ी संख्या ऐसे पुलिस वालों की है, जिन्हें इस कानून के बारे में सूचना नहीं है। न जाने कितने लोगों को इस कानून के तहत परेशान किया गया होगा? जिन्हें पुलिस कार्रवाई से गुजरना पड़ा होगा, उनकी तकलीफ की भरपाई क्या मुमकिन है?
निरस्त धारा के तहत किसी भी व्यक्ति को वेबसाइट पर कथित तौर पर ‘अपमानजनक’ कंटेंट या सामग्री शेयर करने पर गिरफ्तार किया जा सकता था। यह कानून आईटी ऐक्ट के शुरुआती दौर में बिना ज्यादा सोचे गढ़ दिया गया था, लेकिन जब अदालत और कानून के जानकारों को एहसास हुआ कि इस कानून का ज्यादातर दुरुपयोग ही होगा, तब इसके विरुद्ध सुगबुगाहट शुरू हो गई। कानून की छात्रा श्रेया सिंघल ने इस कानून को पहली बार चुनौती दी थी और सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था। गौरतलब है कि साल 2012 में मुंबई में शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद पूरे शहर को बंद करने की आलोचना संबंधी पोस्ट के लिए दो युवतियों की गिरफ्तारी के बाद इस कानून की चर्चा तेज हुई थी। आईटी ऐक्ट का यह पहलू अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित कर सकता था। अच्छे शब्दों से भी किसी का अपमान हो सकता है, अपमानजनक शब्द की व्याख्या बहुत व्यापक है। व्यापकता में अगर हम जाएं, तो कुछ भी पोस्ट करना या शेयर करना मुश्किल हो सकता है। अगर 66अ का उपयोग हो, तो एक-दूसरे के खिलाफ मुकदमों का ढेर लग सकता है। आज के समय में लोगों में उग्रता और आलोचना का भाव तेजी से बढ़ा है और सोशल मीडिया पर खास तौर पर किसी की निंदा बहुत आसान हो गई है। वैसे तो हमारे देश के महापुरुष यही मानते रहे हैं कि निंदक नियरे राखिए, लेकिन वास्तविक जमीन पर निंदा को कथित असभ्यता की श्रेणी में गिना जाने लगा है। 
कानून के इस पहलू के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाने वाले एनजीओ ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’ की सराहना की जानी चाहिए कि अब जमीनी स्तर पर इस निरस्त कानून का दुरुपयोग रुक सकेगा। यह प्रकरण फिर एक बार स्पष्ट कर देता है कि पुलिस सुधार आज कितने जरूरी हो गए हैं। समय-समय पर पुलिस का विधि-संबंधी प्रशिक्षण कितना जरूरी है, शायद हम भूल गए हैं। कानून और पुलिस लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए है। सरकारों को अपने ही स्तर पर प्रयास करने चाहिए, ताकि ऐसे मामले देश की सर्वोच्च अदालत का कीमती समय बर्बाद न करें।

  1. में बदलाव

सरकार की छवि सुधारने को नेतृत्व परिवर्तन

उत्तराखंड के पिछले विधानसभा चुनाव में भारी जीत दर्ज करने वाली भाजपा को चार माह में यदि दो मुख्यमंत्री बदलने पड़े तो जाहिर है कि पार्टी में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। राज्य बनने के दो दशक के दौरान यदि ग्यारहवें मुख्यमंत्री को शपथ दिलायी गई तो यह राजनीतिक अस्थिरता का ही पर्याय है। पिछले चुनाव में जनता ने 57 सीटें देकर पार्टी में पूरा विश्वास जताया था, लेकिन पार्टी में कोई ऐसा चेहरा नजर नहीं आया जो पूरे पांच साल तक राज्य को कुशल नेतृत्व दे सकता। हालांकि, राज्य में तीरथ सिंह रावत के इस्तीफे की वजह जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 151 के चलते उत्पन्न संवैधानिक संकट को बताया जा रहा है, लेकिन राजनीतिक पंडित बता रहे हैं कि इसके मूल में पार्टी का असंतोष ही है। बताते हैं कि पार्टी के अंदरूनी सर्वेक्षण में यह बात सामने आयी थी कि तीरथ सिंह रावत 2022 में होने वाले चुनाव में पार्टी के खेवनहार साबित नहीं हो सकते। यही वजह है कि कुल 114 दिन के कार्यकाल के बाद तीरथ सिंह रावत ने बीते शुक्रवार को इस्तीफा दे दिया। वैसे भी रावत अपने विवादित बयानों के कारण खासे सुर्खियों में रहे। महिलाओं की फटी जीन्स पर की गई उनकी टिप्पणी की खासी आलोचना हुई। फिर भारत के अमेरिका के अधीन रहने के बयान पर पार्टी की किरकिरी हुई। कुंभ मेले के आयोजन व कोरोना संकट पर उनके विवादित बयान सुर्खियां बनते रहे। सवाल यह है कि ग्याहरवें मुख्यमंत्री बनने वाले युवा पुष्कर सिंह धामी पार्टी की साख को संवारते हुए आसन्न विधानसभा चुनाव में पार्टी की नैया पार लगा पाएंगे? उन्हें पार्टी की छवि संवारनी है और खुद को भी साबित करना है। उनके पास किसी मंत्री पद का अनुभव भी नहीं है। साथ ही पार्टी के दिग्गज नेताओं को साथ लेकर भी चलना है जो उनके मुख्यमंत्री बनने की घोषणा के बाद तेवर दिखा रहे थे। पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के ओएसडी रहे धामी भारतीय जनता युवा मोर्चे के प्रदेशाध्यक्ष व विद्यार्थी परिषद के विभिन्न पदों पर रहे हैं।

बहरहाल, राज्य में नेतृत्व परिवर्तन के संकट ने उत्तराखंड में विपक्षी कांग्रेस को हमलावर होने का मौका दे दिया है। कांग्रेसी कह रहे हैं कि राज्य में डबल इंजन वाली सरकार का फायदा राज्य की जनता को नहीं मिला और पार्टी अपने चुनावी वादे पूरे नहीं कर पायी है। निस्संदेह, जब राज्य में विधानसभा चुनाव के लिये कुछ ही महीने बाकी हैं, पुष्कर सिंह धामी के लिये कई चुनौतियां सामने खड़ी हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि धामी को मुख्यमंत्री के रूप में कांटों का ताज मिला है। राज्य में भाजपा सरकार के कामकाज पर कई प्रश्नचिन्ह हैं। जहां उन्हें एक ओर पार्टी के असंतुष्टों को साथ लेकर चलना है, वहीं सरकार की छवि सुधारनी है ताकि 2022 के समर में वे जनता से अधिकार से वोट मांग सकें। उनके पास समय कम है और काम ज्यादा है। भाजपा की कोशिश है कि उत्तर प्रदेश के साथ ही उत्तराखंड में भी फिर से उसकी सरकार लौटे। उत्तर प्रदेश में हालिया जिला पंचायत चुनावों के परिणामों से जहां भाजपा उत्साहित है, वहीं उत्तराखंड की स्थिति उसकी चिंता बढ़ाने वाली है। मौजूदा बदलाव उसी चिंता का परिचायक है। दरअसल, पार्टी की दिक्कत यह है कि पश्चिम बंगाल की तरह उसके पास उत्तराखंड में कोई सर्वमान्य चेहरा नहीं है; जिसके चलते असंतोष के सुर उभरते हैं, जिसका समाधान पार्टी नेतृत्व परिवर्तन के रूप में देखती है। कमोबेश यही स्थिति कांग्रेस की भी रही है, जिसने 2013 की केदारनाथ आपदा में सरकार की नाकामयाबी के बाद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को बदलकर हरीश रावत को सरकार की बागडोर सौंपी थी। बहरहाल, आने वाला वक्त बताएगा कि राज्य में नेतृत्व परिवर्तन पार्टी के भविष्य के लिये कितना कारगर साबित होता है। आसन्न चुनाव में भाजपा के लिये परंपरागत विरोधी पार्टी कांग्रेस तो मौजूद है, लेकिन इस बार राज्य में आम आदमी पार्टी की चुनौती का भी उसे सामना करना पड़ेगा क्योंकि आप ने जमीनी स्तर पर काम करना शुरू कर दिया है

 

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