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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.बजट की झोली में हिमाचल

केंद्रीय बजट को देखती हिमाचली निगाहों को इस बार अपने लिए सुरमा चुराना थोड़ा कठिन होगा। बेशक फिर से केंद्रीय बजट की प्रतिछाया में हिमाचल की कलम अपना बजट लिखेगी, लेकिन पर्वतीय राज्य की उम्मीदों में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का भाषण असमंजस के शब्द भर देता है। मसला प्रदेश की कनेक्टिविटी का नहीं, बल्कि केंद्र से हिमाचल की राजनीतिक कनेक्टिविटी का भी है। सीधे तौर पर यह कहें कि राष्ट्र में जहां-जहां विधानसभा चुनाव हैं, वहीं-वहीं झोली भर रही है तो इस दृष्टि से हिमाचल की बारी तो अगले साल ही आएगी। बहरहाल यहां सवाल तो यह पैदा होता है कि पिछली बार विधानसभा चुनावों से करीब एक साल पहले जिन 69 नेशनल हाई-वे की घोषणा स्वयं केंद्रीय भूतल-परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने की थी, उनका लगातार पांचवें साल के बजट में क्या हुआ। जिस शिलान्यास पर पठानकोट-मंडी फोरलेन के सपने लिखे गए थे, उसको वर्तमान बजट कितना आधार देता है या मटौर-शिमला फोरलेन की पलकें खुल पाती हैं, यह कसौटी फिलहाल उभर कर सामने नहीं आई है। जिस मंडी एयरपोर्ट पर अंतरराष्ट्रीय उड़ानों का संकल्प लेते-लेते हिमाचल सरकार का रुतबा परवान चढ़ता है, उसके सामने केंद्रीय बजट का वित्तीय घाटा खड़ा है।

 विडंबना यह भी कि केंद्रीय बजट में ग्रामीण विकास और किसान सम्मान निधि के लिए वित्तीय आबंटन घट रहा है, तो इसका अर्थ हिमाचल की चिंताओं में इजाफा ही करेगा। पूर्व की कई योजनाओं-परियोजनाओं पर निर्मला सीतारमण की खामोशी, हिमाचल के पर्यटन ताज को हिला देती है। कोविड संकट के दौर ने हिमाचल के पर्यटन उद्योग को चोट नहीं पहुंचाई, बल्कि राज्य के सकल घरेलू उत्पाद और रोजगार के अवसर भी गंवाए हैं। ऐसे में केंद्र से पर्यटन हानि की दुरुस्ती नहीं होती है, तो यह राज्य की तकदीर को गहरा धक्का पहुंचा सकता है। बेशक अपना बजट बुनने की तैयारी में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर केंद्रीय बजट की उपलब्धता में हिमाचल को नया बजट उपलब्ध कराने की तरकीबों पर विचार करेंगे, लेकिन वर्तमान स्थिति में प्रदेश पर वित्तीय दबाव बढ़ सकते हैं। मनरेगा जैसी योजनाओं में केंद्रीय संसाधनों की उपलब्धता निश्चित रूप से घटेगी, लेकिन सारी आशाएं पंद्रहवें वित्तीय आयोग के घुटनों पर चलेंगी। यानी राज्य के राजस्व घाटे की आपूर्ति के लिए अगर अनुदान राशि बढ़ती है, तो सत्ता के पौ बारह वरना हिमाचल की छोटी कलाइयों पर आर्थिक बोझ पड़ेगा। हिमाचल के लिए केंद्रीय बजट के सारे संबोधन मध्यम वर्गीय समाज से भी जुड़ते हैं। प्रदेश का मूड मध्यम वर्ग तय करता है और इस हिसाब से आयकर छूट का वही पुराना ढर्रा खुराफात करेगा। पेट्रोल, डीजल, दालों व मोबाइल पर खर्च बढ़ा रहे केंद्रीय बजट के असर से मध्यम वर्ग की कितनी चीख निकलती है, लेकिन दूसरा पहलू यह जरूर है कि वैक्सीन मामले में सरकार पैंतीस हजार करोड़ उपलब्ध करा कर राज्य के बाजू को कोविड के दायरे से बाहर करने का इरादा जाहिर करती है।

हिमाचल ने जिस तरह शहरी आबादी के नए घनत्व को स्वीकार किया है, उसे देखते हुए केंद्र द्वारा अर्बन ट्रांसपोर्ट तथा अर्बन क्लीन मिशन का आशीर्वाद जरूर मिलेगा। प्रदेश की सैन्य पृष्ठभूमि के लिए सौ नए सैनिक स्कूलों का खुलना, काफी उत्साहजनक है और इसी तरह स्वास्थ्य बजट में आ रहे बजट से बांछें खिल सकती हैं। केंद्रीय बजट को राष्ट्र अपनी बेचारगी में महसूस कर रहा है, तो हिमाचल के लिए कई वित्तीय लक्ष्मण रेखाएं खींची जा सकती हैं। खासतौर पर जिस हद तक केंद्र अपने सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेश करने पर तुला है, उससे हिमाचल की विवशताएं बढ़ती हैं। यह आर्थिक सुधारों के नए युग का प्रवेश भी है, तो हिमाचल की सरकार को अपना कद और बही-खाते छोटे करने की हिदायत भी स्पष्ट है। क्या प्रदेश भी अपने नालायक सार्वजनिक उपक्रमों का वजन घटाएगा या अगला साल कर्ज बोझ की यात्रा को और भयंकर बना देगा। केंद्रीय बजट की मर्यादा में हिमाचल अपने पांव अगर वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर के दायित्व की चादर में पसार पाता है, तो प्रदेश सही मायने में पूर्ण राज्यत्व की स्वर्ण जयंती मनाने का हकदार बन जाएगा।

  1. कितनी दूर हैं पीएम?

सर्वदलीय बैठक के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि वह किसानों से सिर्फ  एक फोन कॉल की दूरी पर हैं। अर्थात प्रधानमंत्री आंदोलित किसान संगठनों से संवाद करने को तैयार हैं। उन्होंने भारत सरकार की पेशकश भी दोहराई कि बीते प्रस्ताव पर बातचीत के आयाम खुले हैं। प्रधानमंत्री के कथन की प्रशंसा की गई। यह स्वाभाविक है कि आलोचना इस स्तर पर भी की गई कि चलो, 70 दिनों के बाद प्रधानमंत्री की नींद तो खुली। अंततः उन्हें किसानों की सुध लेनी पड़ी। विपक्ष का रवैया जो भी हो, लेकिन किसान नेता राकेश टिकैत की प्रतिक्रिया सम्मानजनक रही। उनका साफ कहना है कि देश के प्रधानमंत्री का सम्मान रखा जाएगा। न तो सरकार और संसद झुकेगी और न ही किसान की पगड़ी उछाली जाएगी। बंदूक की नोक पर दबाव में बातचीत नहीं की जाएगी। यह किसान की आन, बान, शान का सवाल है। गणतंत्र दिवस पर हिंसा और अराजकता का जो नंगा नाच किया गया, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को उसे दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद करार देना पड़ा, उस माहौल के बाद टिकैत किसान आंदोलन का सबसे सशक्त चेहरा बनकर उभरे हैं, लिहाजा प्रधानमंत्री के कथन पर उनका सकारात्मक रुख महत्त्वपूर्ण है।

 अब वह तीन विवादास्पद कानूनों के बजाय किसान के सम्मान को तवज्जो दे रहे हैं। सवाल है कि क्या किसान अब कानून को वापस लेने या निरस्त करने की मांग को नेपथ्य में रखकर सरकार से संवाद करेंगे कि यथाशीघ्र न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी वाला कानून पारित किया जाए? क्या एमएसपी को कानूनी दर्जा दिए जाने के बाद किसान आंदोलन समाप्त हो जाएगा? अथवा किसान आंदोलन अब विनम्र होने लगा है? प्रधानमंत्री के कथन को पूरे तीन दिन बीत चुके हैं। न तो प्रधानमंत्री दफ्तर या कृषि मंत्रालय ने बातचीत का आमंत्रण भेजा और न ही किसानों ने प्रधानमंत्री को फोन किया है। किसानों के जत्थे राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर पूर्ववत डटे हैं। सुरक्षा बलों की नाकेबंदी लगातार बढ़ रही है। अवरोधकों के साथ कंटीले तार भी बिछाए जा चुके हैं। टिकैत वाले धरना-स्थल पर धारा 144 भी लागू की गई है। उधर हरियाणा और पश्चिम उप्र के गांवों में किसान महापंचायतें की जा रही हैं। हर घर से एक किसान के आंदोलन में शामिल होने के आह्वान किए गए हैं। सरकार और किसानों के दरमियान भौतिक और मानसिक स्तर पर फासले खुदे हैं। संसद में बजट की घोषणाएं की जा चुकी हैं। किसान की आमदनी दोगुना करने का पुराना वायदा फिर दोहराया गया है। किसान और खेती के बजट का विश्लेषण बाद में करेंगे। फिलहाल दो मौजू सवाल हैं कि आखिर प्रधानमंत्री किसानों से बातचीत करने के लिए कितनी दूर हैं? और दोतरफा संवाद अब कब शुरू होगा? बजट के बाद भी हमारा मानना है कि करीब 86 फीसदी किसान गरीब हैं।

कर्ज़दार तो सभी हैं। बजट दस्तावेज से स्पष्ट है कि किसान की औसत आय 8931 रुपए माहवार है। बीते छह साल में 2505 रुपए बढ़ने के बावजूद यह आमदनी है, जो न्यूनतम मजदूरी से भी बहुत कम है। बीते 20 सालों के दौरान 4 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। अब भी वही रुझान बढ़ने के आसार हैं। 1970 के दशक से अब तक करीब 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान कृषि को हो चुका है। महत्त्वपूर्ण सवाल है कि किसानों को फिर भी पुराने कानूनों की ही दरकार है! वे एपीएमसी मंडियों के अस्तित्व पर अड़े हैं, लेकिन उनके भीतर के भ्रष्टाचार पर किसान बात करने को तैयार नहीं है। उन्हें सबसे भयानक खलनायक पूंजीपति लगते हैं, जबकि बहुराष्ट्रीय कंपनियां अथवा उद्योगपति ही किसानों के बीच सक्रिय थे और आज भी हैं। यह दोगलापन समझ के बाहर है। यदि अपने अडि़यल रवैये के साथ ही प्रधानमंत्री से संवाद करना है, तो हमारा मानना है कि वैसे संवाद भी बेनतीजा रहेंगे। किसानों को भी मंथन कर बीच का रास्ता अख्तियार करना पड़ेगा। अलबत्ता देश की अर्थव्यवस्था और खुद किसानों, खेती को जो नुकसान हो रहा है, उसके फलितार्थ दूरगामी होंगे। कमोबेश गरीबी किसान के साथ चिपकी रहेगी। किसानों को यह बात समझनी चाहिए कि इस मसले का हल केवल बातचीत से ही निकल सकता है, अतः उन्हें वार्ता के लिए आगे आना चाहिए।

  1. मुश्किलें और जरूरत

संसद में केंद्रीय बजट के जरिए अर्थव्यवस्था को बल देने की जो कोशिशें हुई हैं, उनका जमीनी असर न केवल योजनाओं और बजट के क्रियान्वयन, बल्कि सरकार के भावी निर्णयों पर निर्भर करेगा। जो प्रयास मूलभूत ढांचे में निवेश या उद्योग जगत को प्रोत्साहित करने के लिए किए गए हैं, उनसे हम उम्मीद कर सकते हैं। बजट से भी जाहिर है, सरकार लोगों को मिल रही प्रत्यक्ष आर्थिक मदद के अभी तक के प्रयासों से संतुष्ट है और इसका बखान बजट में बखूबी हुआ है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट में आत्मनिर्भर भारत पर जोर दिया है, तो कोई आश्चर्य नहीं। कोविड-19 महामारी का मुकाबला करने के लिए सरकार के 27.1 लाख करोड़ रुपये के आत्मनिर्भर भारत पैकेज से संरचनात्मक सुधारों को बढ़ावा मिला है। अब आम बजट में सरकार ने 64,180 करोड़ रुपये के परिव्यय के साथ आत्मनिर्भर स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू करने का प्रस्ताव रखा है। स्वास्थ्य ढांचा मजबूत करना कितना जरूरी है, यह हमने कोरोना के समय अच्छी तरह समझ लिया है। इसके अलावा राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन भी जारी रहेगा। बहरहाल, जब सरकारी खजाना दबाव में है, तब आयकरदाताओं को वैसे भी राहत की ज्यादा उम्मीद नहीं थी। सरकार ने 75 साल या उससे अधिक उम्र के पेंशनभोगियों को कुछ राहत दी है। 135 करोड़ लोगों के देश में करीब छह करोड़ लोग आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं, जबकि करीब तीन करोड़ लोग ही आयकर चुकाते हैं। मुश्किल समय में सरकार आयकर का दायरा बढ़ाने के लिए कुछ कर सकती थी। यह आयकर बढ़ाने का समय नहीं है, यह अन्य करों को बढ़ाने का भी समय नहीं है। ऐसे में, सरकार ने पेट्रोल पर 2.5 रुपये प्रति लीटर का अधिभार लगाया है, जबकि डीजल पर 4 रुपये। इससे पेट्रोल, डीजल की कीमतों को तीन अंकों में जाने और बने रहने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा, मतलब महंगाई बढ़ेगी। मोबाइल उपकरण पर कस्टम ड्यूटी बढ़ेगी, लेकिन इसका लाभ तभी है, जब देशी कंपनियां स्वयं पर्याप्त उपकरण बनाने लगें, वरना आज के समय में मोबाइल फोन को महंगा करने की दिशा में कोई भी निर्णय अनुकूल नहीं है। जब भारत को निर्यात बढ़ाने के लिए ज्यादा प्रयत्न करने हैं, तब आयात बढ़ाने के छोटे-मोटे उपाय भले किसी निजी कंपनी या उपभोक्ता के लिए फायदेमंद हों, लेकिन हमें व्यापकता में देश की आत्मनिर्भरता बढ़ाने के बारे में ज्यादा सोचना चाहिए। सस्ते घर की सुविधा, डूबते कर्ज का प्रबंधन, सरकारी बैंकों को पूंजी देने का प्रस्ताव, उज्ज्वला योजना का विस्तार, रेल व बस सेवा विस्तार, किसानों को फसल लागत से डेढ़ गुना मूल्य देने का इरादा इत्यादि अनेक प्रशंसनीय कोशिशें हैं। हम समझ सकते हैं, विनिवेश से भी सरकार पैसे जुटाना चाहती है, यह पुराना एजेंडा है। पिछले बजट में 2.1 लाख करोड़ रुपये विनिवेश से जुटाने का अनुमान था और इस बार 1.75 लाख करोड़ रुपये जुटाने का इरादा है, लेकिन यह एक ऐसा मोर्चा है, जहां सरकार को राजनीति और अनेक अड़चनों का सामना करना पडे़गा। ग्रामीण विकास, रोजगार और सामाजिक क्षेत्र में सरकार के खर्च का बढ़ना तय है, अत: सरकार को इस दौर में वित्तीय घाटे की चिंता ज्यादा नहीं करनी चाहिए। यह ज्यादा व सुनियोजित खर्च के साथ अर्थव्यवस्था में मांग और विकास की गति बढ़ाने का समय है।

4.सेहत-विकास को तरजीह

बुनियादी संरचना व कृषि को प्राथमिकता

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए प्रस्तुत बजट में एक बात साफ है कि बजट पर कोरोना संकट से उपजे आर्थिक संकुचन की गहरी छाया है।  इतना जरूर है कि संकट से सबक लेकर सरकार ने स्वास्थ्य बजट में अप्रत्याशित वृद्धि की है। यह जरूरी भी था क्योंकि संकट के दौरान हमारे स्वास्थ्य तंत्र की बदहाली और निजी चिकित्सातंत्र की मनमानी उजागर हुई है। दूसरे अभी देश में आम लोगों के लिए कोरोना टीकाकारण अभियान चलाया जाना है। बकौल प्रधानमंत्री बजट के दिल में गांव-किसान है। ऐसे वक्त में जब कृषि सुधार के विरोध के दौर में किसान गुस्से में हैं तो कृषि क्षेत्र में ध्यान देना जरूरी था। लेकिन ऐसा भी नहीं कि किसानों को छप्पर फाड़कर दिया गया हो। पीएम किसान सम्मान निधि स्कीम में मिलने वाले पैसे को बढ़ाने की भी चर्चा थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस योजना का लाभ साढ़े ग्यारह करोड़ किसान उठा रहे हैं। बहरहाल, कृषि क्षेत्र को मजबूती देने के लिए और किसानों की आय बढ़ाने के लिए कई कदम उठाये गये हैं। एमएसपी को और मजबूत करने के लिए एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड में मदद का प्रावधान किया गया है, जिसके लिए कुछ सामानों पर कृषि अवसंरचना उपकर लगाया गया। किसानों के लोन पर डेढ़ लाख रुपये तक की राशि पर ब्याज की छूट की स्कीम एक साल के लिए बढ़ा दी गई है। देशी कपास को प्रोत्साहन देने के लिए कपास के आयात पर कस्टम ड्यूटी को बढ़ाकर दस फीसदी किया गया है। इससे विदेश से आयात किये गये कपड़े अब महंगे हो जायेंगे। वहीं कच्चे रेशम और रेशमी सूत पर सीमा शुल्क पंद्रह फीसदी हो गया है। सरकार ने स्वदेशी वस्त्र उद्योग को प्रोत्साहन के लिए तीन वर्ष में सात टेक्सटाइल पार्क स्थापित करने की बात कही है। जैसा कि अपेक्षित था सरकार ने कोरोना संकट के बाद स्वास्थ्य बजट को बढ़ाकर 2,23,846 करोड़ किया है। स्वच्छ भारत मिशन के लिए भी करीब डेढ़ लाख करोड़ आवंटित किये हैं।

वहीं दूसरी ओर आयकर छूट की आस लगाये बैठे मिडल क्लास को निराशा हाथ लगी क्योंकि न तो कोई अतिरिक्त टैक्स छूट दी गई और न ही टैक्स स्लैब में कोई बदलाव किया गया। हां, इतना जरूर है कि 75 साल से अधिक उम्र के लोगों को आयकर रिटर्न भरने में छूट दी गई है। लेकिन यह छूट सिर्फ पेंशन से होने वाली आय पर ही है। मोदी सरकार ने इस बजट में इन्फ्रास्ट्रकचर और हाइवे निर्माण को लेकर बड़ी घोषणाएं की हैं। अन्य राज्यों के मुकाबले उन राज्यों पर कृपा कुछ ज्यादा है जहां हाल में चुनाव होने हैं। बंगाल से लेकर असम तक राजमार्गों का निर्माण होगा। निस्संदेह इस काम से रोजगार के अस्थायी अवसर सृजित होंगे। लेकिन बजट में रोजगार नीति को लेकर कुछ विशेष नहीं कहा गया है। न ही किसी रोडमैप का ही जिक्र है कि वित्तीय वर्ष में कितने रोजगार के अवसरों का सृजन किया जायेगा। दूसरी ओर मेट्रो के लिए ग्यारह हजार करोड़ का प्रावधान किया गया है। वहीं रेलवे के लिए एक बड़ी राशि 1,10,055 करोड़ का प्रावधान किया गया है। इसी तरह सड़क परिवहन मंत्रालय के लिए 1,18,101 करोड़ का अतिरिक्त प्रावधान किया गया है।  डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देने के लिए पंद्रह सौ करोड़ के वित्तीय प्रोत्साहन की व्यवस्था की गई है। इस बार के बजट में सरकार ने बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश बढ़ाने और कुछ  बैंकों के निजीकरण की घोषणा की है, जिसके जरिये सरकार धन जुटाना चाहती है। बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को 49 ‍फीसदी से बढ़ाकर 74 फीसदी करने का प्रावधान है। इसके साथ ही अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए राजकोषीय घाटा जीडीपी का 9.5 फीसदी निर्धारित किया गया है, जिसे 2021-22 में 6.8 फीसदी करने का लक्ष्य है। इसके साथ ही सरकार ने शिक्षा को भी बजट में प्राथमिकता देते हुए केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख को एक केंद्रीय विश्वविद्यालय देने के अलावा एनजीओ की भागीदारी के साथ सौ सैनिक स्कूल स्थापित करने की घोषणा भी की है। इसके साथ ही आदिवासी इलाकों में 758 एकलव्य स्कूल खोले जायेंगे।

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