इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
- ‘भारतीय’ की भागवत कथा
हम सभी भारतीयों का डीएनए एक ही है। बेशक हिंदू हों या मुसलमान, सभी एक ही पूर्वज के वंशज हैं। भारत मुसलमानों का भी है। बिना मुसलमानों के हिंदुस्तान की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यदि कोई मुस्लिमों को देश छोड़ कर पाकिस्तान चले जाने की बात करता है, तो वह ‘हिंदू’ नहीं है। हिंदू असहिष्णु और धर्मांध नहीं हो सकता। अपवादों को छोड़ते रहें। किसी की पूजा-पद्धति से कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है, क्योंकि सभी भारतीय एक ही सभ्यता, संस्कृति और सनातनता की ही देन हैं। बात हिंदू या मुस्लिम वर्चस्व की भी नहीं होनी चाहिए, बल्कि भारत के वर्चस्व की सोच रखें। एक उन्मादी भीड़ किसी की भी हत्या करती है, तो वह ‘हिंदू’ नहीं हो सकती। वे आततायी हैं और हिंदुत्व के खिलाफ हैं। उन्हें ऐसे जघन्य अपराधों के लिए कानून को सजा देनी चाहिए। न्याय को कानून पर छोड़ दें।
कट्टरता किसी के लिए भी उचित नहीं है। करीब 40,000 सालों से हम सभी भारतीय एक ही पूर्वजों के वंशज हैं। आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने हिंदू-मुस्लिम एकता और साझा पृष्ठभूमि का विमर्श एक बार फिर शुरू कर ‘राष्ट्रीय भूमिका’ निभाई है। ये सभी बिंदु उसी विमर्श का सारांश हैं। भागवत की सकारात्मक सोच को ग्रहण करना चाहिए। भारत में मुट्ठी भर लोग ही होंगे, जो संघ की सोच को मुस्लिम लिंचिंग से जोड़ कर देखते हैं। नाथूराम गोडसे की हत्यारी सोच को ‘हिंदुत्ववादी’ करार देते हैं, जबकि गोडसे को संघ से बहुत पहले निकाल दिया गया था। उसके करीब 16 साल बाद उसने महात्मा गांधी की हत्या की। कुछ जेहादी किस्म के नेता तथ्यों को गलत पेश करते रहे हैं। प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल ही यह साफ कर गए थे कि गांधी की हत्या में आरएसएस की कोई साजि़श नहीं थी। बहरहाल हम इस विषय के कारण भटकते नहीं हैं। लेकिन ऐसे कुछ तत्त्व हैं, जो नफरत की बात करते हुए हिंदू-मुसलमान एकता को खारिज करते रहे हैं। इसका बुनियादी स्वार्थ एक ही है-मुसलमान की आड़ में धु्रवीकरण की सियासत करना! विडंबना यह है कि इन अतिवादी चेहरों के पक्ष में एक फीसदी मुस्लिम भी वोट नहीं देता। अलबत्ता वे भारत के अस्तित्व में ही सुराख कर सकते थे। वे अकेले ही, स्वयंभू, मुसलमानों के पैरोकार बने हैं। हमारे देश की सनातनता हजारों वर्ष पुरानी है। इस्लाम तो 500 साल पुराना मज़हब है। उससे प्राचीन और प्रासंगिक तो हमारे कबीर, गुरु नानक, दादू, रहीम और मलिक मुहम्मद जायसी आदि हैं, जिनका डीएनए वाकई एक लगता था। उन्होंने हमारी सभ्यता, संस्कृति और अखंड भारतीयता पर सशक्त लेखन किया, जो आज भी प्रासंगिक और स्वीकार्य है। दरअसल सरसंघचालक ने जिस डीएनए की बात कही है और वह पहले भी इसका उल्लेख करते रहे हैं, वह मात्र जैविक और विज्ञानी नहीं है। उसके संदर्भ और सरोकार सांस्कृतिक और सामाजिक हैं। हिंदू-मुसलमान की बात करते हुए हम फिलहाल भारत-विभाजन के दंश और हत्यारे दौर को भूल जाएं। जिन्ना की हठधर्मिता और मज़हबी सोच को भी भूल जाएं।
‘डायरेक्ट एक्शन’ वाले जिन्ना के आह्वान और उसके बाद के रक्तपात को भी पीछे छोड़ दें। मुसलमानों के एक तबके की नफरत को भी बिसरा दें और ओवैसी के मुताबिक लिंचिंग को सिर्फ मुसलमानों तक ही सीमित करके न देखें। शर्मा, यादव, सक्सेना, त्यागी आदि हिंदू भी लिंचिंग के शिकार हुए हैं। इस विषय का दूसरा पक्ष यह है कि आज भी 90 फीसदी मुसलमानों को ‘भारतीय’ होने पर गर्व है। करीब 85 फीसदी मुस्लिम भारतीय संस्कृति को ‘महानतम’ मानते हैं। यह देश हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध, आदिवासी, दलित, पिछड़ों, दबे-कुचलों और वंचितों सभी का है। भीड़ ने जनजातीय, ईसाई, हिंदुओं और भारतीयों की भी हत्या की है। मोहन भागवत ने यह विमर्श इसलिए शुरू किया है, ताकि मुसलमानों में खौफ और डर समाप्त हो, वे मूलतः भारतीय समझें और देश के एक और विभाजन की नौबत न आए। ओवैसी और दिग्विजय सिंह किस किस्म के नेता हैं, पूरा देश जानता है। भारत ‘हिंदू राष्ट्र’ नहीं है, हालांकि देश के 83 फीसदी से ज्यादा नागरिक ‘हिंदू’ हैं। भारत धर्मनिरपेक्ष देश इसलिए है, क्योंकि हिंदुओं के साथ मुस्लिम भी सहज जि़ंदगी जी रहे हैं। कुछ वारदातों को भूल जाएं, यह भी भागवत का मूल आग्रह है। बहरहाल यह विमर्श जारी रहना चाहिए, सभी की आस्थाएं सुरक्षित हैं, लेकिन अपनी प्राचीनता का गौरव महसूस करें और सह-अस्तित्व के दर्शन को स्वीकार करें।
2.पानी पर हक किसका
प्राकृतिक जल स्रोतों पर पारंपरिक हक की लड़ाई अब समुदाय के बीच रेखांकित हो रही है। बैजनाथ विवाद के बाद अब धर्मशाला की मांझी खड्ड के अस्तित्व से प्रश्न जुड़ रहा है। जलशक्ति महकमे की एक परियोजना के खिलाफ लामबंद किसान सभा ने अपने सिंचाई के संसाधन को बचाने के लिए आवाज बुलंद की है। आरोप है कि खड्ड से अनावश्यक पानी खींच कर धर्मशाला की प्यास बुझाई, तो मांझी से निकलती 102 कूहलों का गला ही नहीं सूखेगा, बल्कि निचले क्षेत्रों की सिंचाई व्यवस्था ठप हो जाएगी। यह दोहरा प्रश्न एक ही पानी की मिलकीयत से हो रहा है और दोनों तर्कों में जिंदगी के सवाल नत्थी हैं। आश्चर्य यह कि न खेती के प्रबंधन और न ही पेयजल प्रबंधन के नाम पर कोई कारगर योजना अमल में आ रही। हिमाचल की जरूरतें तेजी से बदल रही हैं, लेकिन पानी का बंटवारा पुराने ढर्रे पर कैसे हो सकता है। यह पेयजल और सिंचाई व्यवस्था के बीच का बंटवारा नहीं है और न ही एक स्रोत को बार-बार खुरचने से पूरा होगा।
पानी के इर्द-गिर्द जरूरतें बढ़ रही हैं, लेकिन इसकी क्षमता व दोहन का आधार पुख्ता नहीं हो रहा है। अतीत में बिना सोचे समझे हैंडपंप खुदवा दिए और आज स्थिति यह है कि इसमें से अधिकतम सूख चुके हैं। इतना ही नहीं मनरेगा की दिहाड़ी में बिना किसी दक्षता और योग्यता के हुए अधिकतम कार्यों ने पारंपरिक जल स्रोतों के जरिए जलापूर्ति को लगभग ठप कर दिया है। पारंपरिक कूहलों पर हुए अतिक्रमण और राजस्व विभाग की मिलीभगत के कारण ये परंपराएं भी लोगों के स्वार्थ ने पूरी तरह लूट लीं या विभागीय तौर पर हुए मरम्मत कार्यों ने इनकी जान ले ली। हिमाचल में अंडर ग्राउंड वाटर, पारंपरिक जल स्रोतों व हर तरह की बिजली परियोजनाओं के कारण जल उपलब्धता पर डाका पड़ा है। बाकायदा परियोजनाओं का प्रारूप भी कातिल साबित हुआ। भागसूनाग वाटरफाल इसका एक उदाहरण है जहां प्राकृतिक वैभव व चरान खड्ड के प्रमुख स्रोत को ही धर्मशाला छावनी चूस गई, लेकिन पर्यावरण की इस खूबी पर कोई एतराज नहीं हुआ।
आरंभिक पेयजल योजनाओं के प्रारूप में जल स्रोतों से ही दोहन हुआ, जो आज के दौर में क्राइम है। पेयजल प्रबंधन के खाके में हिमाचल को बड़ी परियोजनाओं के जरिए जल भंडारण सुनिश्चित करना होगा। पेयजल को सिंचाई और सिंचाई को पेयजल से जोड़ती परियोजनाओं के लिए चैकडैम, बांध तथ तालाबों के निर्माण के साथ-साथ जल स्रोतों का संरक्षण भी जरूरी है। पेयजल व सिंचाई स्कीमों के साथ-साथ पर्यटन, विद्युत तथा मत्स्य पालन को जोड़ते हुए यह भी देखना होगा कि आधुनिक हिमाचल की नई बस्तियों, औद्योगिक शहरों, प्रमुख नगरों तथा पर्यटन व धार्मिक स्थलों की जरूरत के लिए अब पेयजल की नाली व नाले के बीच सामंजस्य कैसे पैदा किया जाए।
हिमाचल में स्थित बड़े व छोटे बांधों पर केंद्रित बड़ी सिंचाई व पेयजल परियोजनाओं का श्रीगणेश करने के अलावा प्रदेश के जल स्रोतों के जल बहाव का एकत्रीकरण तथा जल संरक्षण अधोसंरचना का निर्माण अति आवश्यक है। जलशक्ति विभाग की परियोजना फाइल को नए कवर, नए उद्देश्य व नए संकल्प की जरूरत है। शिमला जैसे शहर की पेयजल परियोजना से कहीं भिन्न धर्मशाला का ढांचा विकसित होना चाहिए। हर शहर और हर कस्बे के हालात और इसके परिवेश के हिसाब से जलापूर्ति, जलसंरक्षण तथा सिंचाई का प्रबंध होना चाहिए। हिमाचल के हिस्से का पानी ही जाया नहीं होता, बल्कि हर साल बरसात खेत से खाद और जल बहाव के साथ जल शक्ति महकमे की परियोजनाओं की संपत्ति को भी ले जाती है। आश्चर्य यह कि हर साल की गर्मी, बरसात और बर्फबारी से नुकसान होता है, लेकिन परियोजनाओं में कोई नवाचार दिखाई नहीं देता। हर साल गर्मियों में बाशिंदों के हलक और खेत का सीना सूखता है, लेकिन समाज के सामने हम खड्डों के मुहाने का सौदा करते दिखाई देते हैं। शहरीकरण, पर्यटन तथा औद्योगिक गतिविधियों के हिसाब से जल शक्ति महकमे को अपने इरादों को बुरादा बनने से रोकना है तो ‘आउट ऑफ द बॉक्स’ सोचना होगा।
3.नियम तो मानने पड़ेंगे
दिल्ली उच्च न्यायालय ने ट्विटर के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई करते हुए जो सख्त रुख दिखाया है, उसके बाद इस कंपनी को एहसास हो जाना चाहिए कि वह भारतीय नियम-कायदों को हल्के में नहीं ले सकती। अदालत ने कंपनी से न केवल दो-टूक शब्दों में पूछा कि आखिर ‘ग्रीवांस ऑफिसर’ की नियुक्त के लिए उसे कितना वक्त चाहिए, बल्कि आगाह भी कर दिया कि वह प्रक्रिया की आड़ में अपनी मनमानी नहीं कर सकती और न ही वक्त जाया कर सकती है। 21 जून को ही ट्विटर के भारत में नियुक्त शिकायत निवारण अधिकारी धर्मेंद्र चतुर ने इस्तीफा दे दिया था। उसके बाद से अब तक इस पद का खाली रहना बताता है कि कंपनी 25 मई से लागू नए नियमों को आत्मसात करने को लेकर बहुत गंभीर नहीं है। वह भी तब, जब इसकी कुछ बातों को लेकर भारत सरकार पहले ही कड़ी आपत्ति दर्ज करा चुकी है और इसके पास सरकारी प्रावधानों के तहत हासिल वैधानिक संरक्षण की रियायत भी अब नहीं है।
विडंबना यह है कि संवाद का मंच होते हुए भी यह कंपनी विवादों को अधिक न्योता दे रही है। अभी चंद रोज पहले एक अन्य मामले में संसदीय समिति के सामने भी उसका रुख समाधान निकालने वाला नहीं था। हालांकि, वहां भी सरकार ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया कि कंपनी को भारत के कानूनों का सम्मान करना ही पडे़गा। हैरानी की बात यह है कि ट्विटर कंपनी सोशल मीडिया के अन्य मंचों, यहां तक कि अपने साथी संगठन से भी सबक नहीं ले रही। हाल ही में केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने नए नियमों के आलोक में गूगल, फेसबुक और इंस्टाग्राम द्वारा आपत्तिजनक सामग्रियों के हटाए जाने की तारीफ की थी। ऐसे भी ब्योरे सामने आए हैं कि नए नियमों के लागू होने के बाद फेसबुक ने लगभग तीन करोड़ पोस्ट के खिलाफ कार्रवाई की है, तो वहीं गूगल ने यू-ट्यूब और अन्य प्लेटफॉर्मों से लगभग 60 हजार लिंक हटा दिए हैं।
ट्विटर एक लोकप्रिय मंच है। भारत में इसके करोड़ों यूजर्स हैं और विस्तार की अपार संभावनाएं भी। ऐसे में, उसे अधिक जिम्मेदारी का प्रदर्शन करना चाहिए, लेकिन अब तक का उसका रवैया इसके उलट नजर आ रहा है। भारत के लोग अपनी अभिव्यक्ति की आजादी ही नहीं, अपने राष्ट्रीय हितों और मानवीय गरिमा को लेकर भी बेहद सतर्क रहे हैं। अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के इस्तेमाल में वे ट्विटर का सकारात्मक इस्तेमाल भी खूब करते हैं, लेकिन यदि कोई शरारती तत्व देश के मानचित्र या इसके नायकों का अपमान करता हुआ कुछ पोस्ट करता है, तो उन्हें ट्विटर से त्वरित समाधान भी चाहिए। विवादास्पद बातों और सामग्रियों का अर्थशास्त्र चाहे जो भी हो, फर्जी खबरों, आपत्तिजनक व भड़काने वाली सामग्रियों से किसी भी देश और समाज को नुकसान पहुंचाने की छूट मान्य नहीं हो सकती। न अमेरिका में इसकी इजाजत है, और न भारत देगा। कोई लोकतांत्रिक देश अपने नागरिकों की आजादी में कटौती करके न तो आदर्श व्यवस्था रच सकता है और न ही सभ्य समाज गढ़ सकता है। लेकिन आजादी और अराजकता के बीच की रेखा सबको स्पष्ट दिखनी चाहिए। ट्विटर या किसी भी अन्य सोशल मीडिया मंच को अभिव्यक्ति की आजादी का दम भरते हुए यह हमेशा याद रखना चाहिए कि जिम्मेदारी का दामन उसके हाथ से छूटने न पाए।
- पानी की कसक
सरकार के साथ लोग भी जागरूक हों
हरियाणा के नूंह जिले में पानी का संकट और इसके चलते ग्रामीणों के पलायन की खबरें परेशान करने वाली हैं। यह नीति-नियंताओं पर भी सवाल है कि आजादी के सात दशक बाद भी लोग क्यों पेयजल संकट से जूझ रहे हैं। व्यवस्था का मजाक देखिये कि खेती से जीवनयापन करने वाले लोगों को दैनिक पेयजल की जरूरतों को पूरा करने के लिये टैंकरों से पानी खरीदना पड़ रहा है। बताते हैं कि प्रशासन ने इस इलाके में कुएं और तालाब खोदने की योजना बनाई है, लेकिन व्यवस्थागत खामियों के चलते समय रहते योजनाएं सिरे नहीं चढ़ पातीं। यदि वक्त पर इस दिशा में प्रयास किये जाते तो संकट को कम करने में मदद मिलती और ग्रामीणों को पलायन करने को मजबूर न होना पड़ता। दरअसल, हरियाणा का मेवात इलाका लंबे समय से भूजल की लवणता से जूझता रहा है। जो दर्शाता है कि यह इलाका विकास की प्राथमिकताओं में नहीं रहा है। शासन-प्रशासन को प्राकृतिक रूप से संपन्न उन इलाकों में विकास को तरजीह देनी चाहिए, जो राज्य की उत्पादकता में योगदान करते हैं। ऐसे समय में जब धान की फसल लगाने का मौसम है, जल संकट परेशान करने वाला है। कहीं न कहीं इसके मूल में मानसून की बेरुखी भी शामिल है। यदि समय रहते मानसूनी बारिश हो जाती तो शायद जल संकट की यह स्थिति न होती। यही वजह है कि जल संकट लोगों की जीविका को भी प्रभावित कर रहा है। कमोबेश ऐसी ही स्थिति पंजाब के संगरूर जिले में भी है जहां नूंह की तरह जल संकट बना हुआ है। डॉर्क जोन के रूप में घोषित इस इलाके में भूजल का स्तर तेजी से गिरा है। वहीं नलकूपों का पानी दूषित व उपभोग के लिये अनुपयुक्त होने की वजह से ग्रामीणों को पेयजल के लिये भाखड़ा नहर का सहारा लेना पड़ रहा है। इस कोविड संकट के दौरान ग्रामीणों द्वारा नहर का अनुपचारित पानी पेयजल के रूप में उपयोग करना चिंता बढ़ाने वाला है।
दूसरी ओर मानसून समय पर न आने और भूजल स्तर में गिरावट की वजह से धान की बुवाई की तारीखों को आगे बढ़ाया गया है। बिजली संकट के चलते ट्यूबवेल का पानी भी पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पा रहा है। यदि समय पर मानसून ने दस्तक दे दी होती तो इलाके के भूजल स्तर में सुधार आता। दरअसल, हर साल उत्पन्न होने वाले जल संकट को दूर करने के लिये योजनाबद्ध ढंग से काम होना चाहिए। ऐसी योजनाओं पर तब भी युद्धस्तर पर काम होना चाहिए जब जल संकट न हो। जनसंख्या की वृद्धि और भविष्य की चुनौती के मद्देनजर दीर्घकालीन योजनाएं बनें। जल संकट होने के मतलब विकास की दौड़ में पिछड़ना भी होता है। ऐसे में स्वच्छ जल आपूर्ति के मानक तय करके इस दिशा में गंभीर प्रयास हों। कोविड संकट में देश की अर्थव्यवस्था को संबल देने वाले कृषि क्षेत्र की जरूरत के मद्देनजर नीति-नियंताओं को सिंचाई व पेयजल की आपूर्ति को वरीयता देनी चाहिए। इसके साथ ही हमें विचार करना चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने पेयजल संकट का सदियों तक कैसे मुकाबला किया। हमारे गांवों के आसपास पेयजल के जो परंपरागत स्रोत अरसे तक सहेजे गये थे, हमने उन्हें बर्बाद होने दिया है। जींद के किला जफरगढ़ के निवासियों ने पेयजल संकट होने पर गांव के बाहरी इलाके में बने एक सदी पुराने कुएं को पुनर्जीवित करके राहत की सांस ली है। इस कुएं को पंद्रह साल पहले लावारिस छोड़ दिया गया था। जब सरकारी जल आपूर्ति बाधित हुई और नदी का जलस्तर गिरा तो लोगों ने कुएं की सुध ली। कभी यह कुआं पूरे गांव की जल आपूर्ति का एकमात्र स्रोत हुआ करता था। ग्रामीणों ने धन एकत्र किया और कुएं का जीर्णोद्धार किया। अब इसके पानी का प्रयोग पीने व घरेलू जरूरतों के लिये किया जा रहा है। बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिये पेयजल के वैकल्पिक उपायों पर विचार करना जरूरी है।