इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.आधी क्षमता से चले पर्यटन
भीड़ में पर्यटक को ढूंढती आंखें थक गईं, वे तो सारे जंगल में मंगल ढूंढने आए थे। यही हैं करवटें जिन्हें हम आधुनिक पर्यटन की ख्याति में नजरअंदाज कर दें, इस भीड़ को बांध दें या यूं ही बहने से रोक दें। जो भी हो कोविड काल की संकरी गली से गुजरते पर्यटन पर शर्तें अगर लागू नहीं हो सकतीं, तो इसे अतिथि का दर्जा भी नहीं दिया जा सकता। पर्यटन अगर सीजन है, तो इस सीजन ने सांसें रोक दी हैं। शिमला के रिज मैदान पर घूमते पर्यटकों को मास्क पहनाना कठिन हो रहा है या मंडी में हाथ में तलवार लिए कोई सैलानी घूमता है, तो इस मुकाम को पर्यटन कैसे कहें। सैलाब अटल टनल के बीच से गुजरता है या लौटते मंजर की डगर पर गंदगी का आलम बिखरता है, तो इन काफिलों की जरूरत क्या। हद है या हद से बाहर है, इसे कब समझेंगे। इस भीड़ के बीच सही को कैसे बचाएंगे। एक ओर पर्यटक को ग्राहक मानकर हिमाचल के रास्ते खुश हैं, तो दूसरी ओर मंजिलों के ऊपर यह अतिक्रमण सरीखा व्यवहार हो गया।
पर्यटक को बंदिशों से छूटकर अगर पर्यटन धंधे को चमकाना ही हमारी प्राथमिकता है, तो इसे आवारगी में बदलते देख चुप भी तो नहीं बैठा जा सकता। कहीं यह पानी सिर के ऊपर से न गुजर जाए, इसलिए सरकार को त्वरित प्रभाव से समूचे उद्योग को व्यवस्थित करना होगा यानी हमें अपनी क्षमता का पचास फीसदी पर्यटन ही चलाना होगा। बसों की क्षमता आधी हो सकती है, तो पर्यटक स्थलों को पचास फीसदी तक सीमित करने के लिए नियम, देखरेख, रखवाली और निगरानी चाहिए। इसके लिए तमाम प्रवेश द्वारों को इस काबिल बनाना होगा कि पर्यटक बाकायदा टोकन, पंजीकरण व ऐप के जरिए निश्चित तादाद में टूरिस्ट डेस्टिनेशन तक पहुंचे। विडंबना यह है कि ‘नई मंजिलें,नई राहें’ ढूंढते हुए हम यह भूल रहे हैं कि प्रवेश द्वार पर ही पर्यटक को किस तरह अनुशासित किया जाए। अगर एक साथ दो हजार पर्यटक बिलिंग जैसे स्थल पर चांद-सितारों से बात करना चाहें, तो कहीं आसमान टूटेगा। एक समय में कितने सैलानी डलहौजी, मनाली या मकलोडगंज पहुंचने चाहिएं, यह तय किए बिना हम केवल कानून-व्यवस्था सुनिश्चित नहीं कर पाएंगे, बल्कि कोविड संबंधी खतरों को न्योता दे डालेंगे। तीसरी लहर के विषय में आ रही तमाम चेतावनियों को नजरअंदाज करके न पर्यटक सुरक्षित है और न ही पर्यटन। दरअसल कई धु्रवों में बंटा पर्यटन अपने भीतर हर तरह के लोगों को इस व्यवसाय की उड़ान नहीं बना सकता।
धार्मिक यात्राओं को पर्यटन यात्रा बनाने की एक नई होड़, पड़ोसी राज्यों की गली सरीखा पर्यटन बन रही है। पुरानी गाडि़यों में हिमाचल की परिक्रमा अपने साथ ऐसी भीड़ जुटा रही है, जिसे पर्यटन के सांचे में फिट नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर इस भीड़ के बीच वास्तविक अतिथि भी कहीं हिमाचल के स्वाभाविक अतिथ्य से छूट रहा है। ऐसे में हिमाचली पर्यटन की व्यवस्था के सवाल के साथ पर्यटन व्यवसाय को भी व्यवस्थित करने की जरूरत है। तमाम पर्यटन योजनाओं-परियोजनाओं के मुहानों पर विकास का चित्रण जितना भी हो, अब जरूरत यह है कि हमारी अपेक्षाओं के अनुरूप सैलानी आएं। नजदीकी पड़ोसी राज्यों के लिए धार्मिक पर्यटक स्थलों का विकास अगर भीड़ को संतुष्ट करेगा, तो इससे इतर पर्यटन की महत्त्वाकांक्षा के अनुरूप सैलानियों की अनुशासित डगर व क्षमता भी दिखाई देगी। जाहिर है इसके लिए प्रवेश और प्रवेश द्वारों से ही पर्यटक स्थलों के लिए पंजीकरण करना होगा। भ्रमण के कार्यक्रम को देखते हुए पंजीकरण शुल्क तथा आवश्यक निर्देश स्थापित करने होंगे। इसके अलावा ‘पर्यटन पुलिस’ का प्रशिक्षण, प्रशासन व कॉडर अलग से परिमार्जित करना होगा। राज्य के प्रमुख पर्यटक स्थलों से कम से कम बीस किलोमीटर दूर ही पर्यटकों के वाहन रोकते हुए, आगे पर्यटक बसों, रज्जु मार्गों या केबल कार जैसी सुविधाओं से ही सैलानियों को भेजा जाए। हर पर्यटक स्थल अपनी दैनिक क्षमता के हिसाब से सैलानियों का निर्धारण करे और इसके लिए सूचना प्रौद्योगिकी का अधिकतम प्रयोग किया जाए।
2.एक संस्थानगत मौत
84 वर्षीय फादर स्टैन स्वामी की न्यायिक हिरासत में मौत हो गई। इस त्रासदी को टाला जा सकता था। अदालत उन्हें बुजुर्ग और बीमारी के आधार पर जमानत दे सकती थी। इस उम्र में, ऐसा व्यक्ति, भागकर कहां जा सकता था? फादर आतंकी नहीं, आंदोलनकारी थे और आदिवासियों के अधिकारों के लिए आक्रामक भी थे। यही उनकी शख्सियत थी। उनकी यह पृष्ठभूमि करीब 50 साल से ज्यादा की है। प्रधानमंत्री को मारने की साजि़श के आरोप अभी तो साबित होने थे। राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) आरोप-पत्र दाखिल कर चुकी थी। फिर हिरासत में सवाल-जवाब की भी जरूरत नहीं थी और जांच की निष्ठाओं से भी समझौता न करना पड़ता। सबसे अहम और मानवीय पक्ष यह है कि फादर पॉर्किन्संस के मरीज थे। वह ऐसी घोषणा करने लगे थे कि वह मरने वाले हैं। उन्हें मौत का मानो पूर्वाभास हो गया था! अंततः 84 साल के बुजुर्ग नागरिक की न्यायिक हिरासत में ही मौत हो गई और उसे न्याय भी नहीं मिल सका। यह हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली के छिद्रों का ही फलितार्थ है।
अब एक बार फिर विमर्श करना चाहिए कि क्यों न टाडा और पोटा कानूनों की तरह यूएपीए (यूपा) की भी परिणति हो? बेशक यूपा को संशोधित करना चाहिए, क्योंकि पुलिस, जांच एजेंसियां और नौकरशाही यूपा का दुरुपयोग करते रहे हैं। अदालत का सामान्य एहसास, बौद्धिकता और विवेक भी सवालिया हो रहे हैं, क्योंकि जमानत देना तो अदालत का ही विशेषाधिकार है। इधर कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें यूपा थोप दिया गया था, लेकिन अदालत में वे मामले टिक नहीं सके और अदालत ने जमानत पर आरोपितों को रिहा कर दिया अथवा बिल्कुल ही बरी कर दिया। नरवाल, गोगोई आदि के केस ऐसे ही हैं। फादर स्टैन स्वामी से सरकारों, अदालतों और अंततः प्रधानमंत्री की सत्ता को क्या खौफ थे? दरअसल फादर को तब गिरफ्तार किया गया, जब कोरोना महामारी लगातार बढ़ रही थी और कैदियों को छुट्टी दी जा रही थी। 84 साल का बीमार बुजुर्ग कहां भाग सकता था? ‘एलगार परिषद कोई आतंकी संगठन नहीं है। बहरहाल फादर तो मौत के बाद ‘आज़ाद’ हो गए, लेकिन अब भी कई बौद्धिक चेहरे सलाखों के पीछे कैद हैं। उनमें करीब 80 साल के माओवादी कवि और विचारक वरवर राव भी हैं।
उनकी नियति को सोच कर भी कंपकंपी छूटने लगती है। एक चेहरा सामने आया है, जिसे 23 लंबे सालों की जेल के बाद व्यवस्था को छोड़ना पड़ा है! यह कैसा दानवीय कानून है! टाडा और पोटा के यंत्रणा भरे दौर की यादें ताज़ा होने लगी हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के 2019 के आंकड़ों के मुताबिक, यूपा के 95 फीसदी से अधिक मामले आज भी भारत की कई अदालतों में लंबित पड़े हैं। करीब 2244 मामले ऐसे हैं, जिनमें आरोपित कई हैं। यूपा के तहत सजा की औसत दर करीब 29 फीसदी है। सरकार ने यूपा को एक ऐसा हथियार बना लिया है, जिसके जरिए लोगों को जेल में ठूंस कर मारा जा सके। नागरिकों और बंदियों को कानूनी प्रणाली तब तक अंगीकार करनी पड़े, जब तक सरकार और व्यवस्था चाहे। इस तरह फादर की मौत भी प्राकृतिक नहीं, संस्थानगत मौत है। कई व्यवस्थाओं ने मिल कर स्टैन स्वामी को मरने पर विवश किया है, क्योंकि उन्हें इलाज भी बेहतर नहीं मिला और अंततः उन्होंने जिद पकड़ ली कि वह जेजे अस्पताल नहीं जाएंगे, बेशक मर जाएंगे। बहरहाल अब आतंकियों के लिए इस कानून को नए सिरे से परिभाषित करना चाहिए। एनआईए ने भी 90 दिनों में बढ़ोतरी करने की मांग अदालत के सामने रखी थी और ट्रायल कोर्ट ने उसे मंजूरी भी दे दी। अब आरोप-पत्र 180 दिनों के अंतराल में दाखिल किया जा सकेगा। इस संदर्भ में बचाव पक्ष को नहीं सुना गया। ये कवायदें सरकार और संसद के स्तर पर होनी चाहिए कि यूपा के प्रावधान क्या हों और इसमें जमानत देने की व्यवस्था भी अपेक्षाकृत कठोर नहीं होनी चाहिए। अब यह चर्चा संसद के मॉनसून सत्र के दौरान होनी चाहिए। लोकतंत्र में नागरिक सर्वोपरि है। उसे किसी भी साजि़श में फंसा कर ‘बलि का बकरा’ नहीं बनाया जा सकता, लिहाजा इस राक्षसीय कानून में संशोधन जरूरी हैं।
3.उम्मीद के साथ बदलाव
केंद्रीय मंत्रिमंडल में बदलाव न केवल स्वाभाविक, बल्कि जरूरी सा हो गया था। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली इस दूसरी सरकार ने जहां अनेक महत्वपूर्ण फैसले लेकर दुनिया को चौंकाया, वहीं कुछ ऐसे मोर्चे भी रहे, जहां संतोषजनक परिणाम हाथ नहीं आए। अनेक दिग्गज मंत्रियों के इस्तीफे और कई नए नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल करने के पीछे के जो संकेत हैं, उनकी विवेचना जरूर होनी चाहिए। सरकार को यह यथोचित एहसास है कि उससे लोगों को कहीं ज्यादा उम्मीदें हैं। शेष रूप से चिकित्सा के मोर्चे पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और राज्य मंत्री के स्तर पर बदलाव साफ इशारा है। कोरोना ने पूरी अर्थव्यवस्था को तबाह किया, साथ ही, चिकित्सा व्यवस्था भी लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। मंत्रिमंडल में बदलाव की कुल व्यंजना यही है कि सरकार अपना चेहरा बदलकर आगे बढ़ना चाहती है। सहज ही कुछ बदलने लायक था, तभी तो बदला गया है। यह बदलाव जहां सरकार के पक्ष को मजबूत करेगा, वहीं लोगों के विश्वास को भी बढ़ाएगा। अमूमन देश में छोटे-छोटे बदलाव मंत्रिमंडल के स्तर पर होते थे, लेकिन यह बड़ा बदलाव बदली हुई मानसिकता को भी जाहिर करता है। शायद केंद्र सरकार प्रदर्शन के स्तर पर समझौते के लिए तैयार नहीं है।
ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री को मंत्रिमंडल में सब कुछ बदल देने लायक लगने लगा था। उन्होंने अच्छा काम करने वाले मंत्रियों को न केवल बनाए रखा है, बल्कि आगे भी बढ़ाया है। अनुराग ठाकुर और हरदीप सिंह पुरी समेत कई मंत्रियों को पदोन्नत किया गया है। उत्तर प्रदेश से सर्वाधिक नए मंत्री बनाए गए हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं। संगठन में अच्छा काम करने वाले भूपेंद्र यादव को भी कैबिनेट में शामिल किया गया है, तो यह भाजपा संगठन में काम करने वालों के लिए उत्साहजनक बात है। यह एक पहले से बेहतर मिली-जुली सरकार बनाने की कोशिश है। जनता दल यूनाइटेड, लोक जनशक्ति पार्टी और अपना दल को मंत्रिमंडल विस्तार में महत्व दिया गया है, यह गठबंधन और आगे की चुनावी राजनीति के लिहाज से भी जरूरी था। मंत्रिमंडल में महिलाओं की संख्या दोहरे अंकों में है। सभी प्रमुख मजहबों, जातियों और समुदायों के जगह मिली है। मंत्रिमंडल में शामिल नेताओं की औसत आयु भले ही 60 से कुछ ही नीचे हो, पर करीब 14 मंत्री पचास साल से कम उम्र के हैं, तो यह भी युवाओं के देश के लिए सकारात्मक बात है।
अब शासन-प्रशासन के मोर्चे पर जहां सरकार से लोगों को बहुत बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद होगी, वहीं राजनीतिक स्तर पर भी सरकार को संतुलन बनाकर चलना होगा। आगामी विधानसभा चुनावों में सत्ताधारी गठबंधन या पार्टी ही नहीं, सरकार की भी प्रतिष्ठा दांव पर लगेगी। जहां एक ओर कुछ नए मंत्री बनाकर क्षेत्रीय संतुलन को दुरुस्त करने की कोशिश हुई है, वहीं जिन दिग्गजों को मंत्रिमंडल से अलग किया गया है, उन्हें भी व्यस्त रखने के उपाय करने पड़ेंगे। हर नेता को राज्यपाल नहीं बनाया जा सकता, पर सबको खुश रखने की कोशिश तो हो ही सकती है। नए मंत्रियों के सामने लगभग तीन साल हैं, उन्हें न केवल प्रधानमंत्री, बल्कि देश की नजरों में भी कारगर दिखना होगा। जरूरी है कि ज्यादा ईमानदारी से जमीनी हकीकत के मद्देनजर सरकार की नई टीम लोगों के सपनों और उनसे किए गए वादों को साकार करे।
4. गृहयुद्ध की ओर
तालिबान के रहमोकरम पर अफगान
अफगानिस्तान में बीस साल तक तालिबान के खिलाफ लड़ाई का केंद्र रहे सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण बगराम एयरबेस को अमेरिकी सैनिकों द्वारा रातों-रात खाली करना बताता है कि वहां जल्दी ही विदेशी सेनाओं की वापसी का काम पूरा होने वाला है। बगराम एयरबेस के नये कमांडर जनरल असदुल्लाह कोहिस्तानी का तो आरोप था कि अमेरिकी सेना ने बगराम एयरबेस रात के अंधेरे में अफगानिस्तान को बताए बिना छोड़ा। हालांकि अमेरिका ने सफाई देते हुए चंद अफगान नेताओं व सुरक्षा बलों को इसकी जानकारी होने की बात कही। चरमपंथियों के खिलाफ अमेरिका व नाटो का बड़ा ठिकाना रहे बगराम एयरबेस के खाली होने का निष्कर्ष यह भी है कि अब तालिबान के हौसले बुलंद होंगे। उनकी नजर सैन्य साजो सामान के खजाने इस एयरबेस पर भी होगी। दरअसल, अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा 11 सितंबर तक अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी की घोषणा की गई थी। इसी दिन अमेरिकी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले की बरसी भी है, जिसके बाद अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में चरमपंथियों के खिलाफ युद्ध के लिये उतरी थी। अभी अमेरिका समेत नाटो के कुछ हजार सैनिक वहां मौजूद हैं, जिनकी संख्या बाद में 650 रह जायेगी, जो दूतावासों व काबुल के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की सुरक्षा करेंगे। बहरहाल, अमेरिका व नाटो सैनिकों की वापसी से उत्साहित तालिबानी लगातार अपने कब्जे वाले इलाके बढ़ा रहे हैं। करीब एक-तिहाई अफगान जिलों पर अब उनका कब्जा है। सरकारी सैनिकों ने इन इलाकों में कड़ा प्रतिरोध नहीं किया, बड़ी संख्या में सैनिकों ने तालिबान के सामने हथियार डाले हैं। करीब एक हजार सरकारी सैनिकों के ताजिकिस्तान भागने के समाचार हैं। तालिबान ने फिर इस्लामिक राज्य स्थापित करने की कवायद में अपने कब्जे वाले इलाकों में पुरुषों को दाढ़ी रखने, महिलाओं को घरों में रहने के निर्देश दिये हैं। स्कूलों पर ताले पड़ने लगे हैं और सरकारी इमारतों पर हमले हो रहे हैं। महाशक्तियों की लड़ाई का केंद्र बने अफगानिस्तान से अमेरिका खाली हाथ लौट रहा है और इस देश को फिर से गृहयुद्ध के मुहाने पर छोड़ गया है।
पूरी दुनिया के लिये यह चिंता की बात होनी चाहिए कि अफगानिस्तान में फिर से अल-कायदा और आईएसआईएस की वापसी हो रही है जो विश्व शांति के लिये बड़ा खतरा बन सकते हैं। अतीत में भी तालिबान से अल-कायदा के गहरे रिश्तों का खेल पूरी दुनिया ने देखा। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के जिस मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी सेना वर्षों तक अफगानिस्तान में तलाशती रही, वह बाद में पाकिस्तान के ऐबटाबाद में ऐशो-आराम फरमाता मिला। तालिबान के उदय-विस्तार में पाकिस्तान की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। यही वजह है कि अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते वर्चस्व के बाद भारत की चिंताएं गहरी हो गई हैं कि कहीं कट्टरपंथी आईएसआईएस को पाक खुफिया एजेंसियों की मदद से जम्मू-कश्मीर में चरमपंथ के विस्तार का मौका न मिल जाये। वैसे भी भारत ने इस देश में अनेक महत्वपूर्ण विकास योजनाओं में भारी निवेश कर रखा है, जिसकी सफलता अब संदिग्ध हो सकती है। चिंता अफगानिस्तान में बसे कुछ हजार भारतीय मूल के लोगों की सुरक्षा की भी है। पहली बार भी भारत ने तालिबानी शासन को मान्यता नहीं दी थी, भविष्य में ऐसे कोई आसार नजर नहीं आते। निश्चय ही आने वाले समय में अफगानिस्तान में खूनी संघर्ष तेज होने वाला है। निर्वाचित सरकार भी जल्दी से तालिबान के सामने झुकने वाली नहीं है और तालिबान भी पीछे हटने वाले नहीं हैं। तालिबान आत्मघाती हमले करके लोगों को भयभीत कर रहे हैं ताकि वे घर से बाहर न निकलें। बहरहाल, अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद निश्चित रूप से अफगानी सेना तालिबान के खिलाफ निहत्थी नजर आ रही है। वैसे तालिबान के लिये यह लड़ाई जीतना इतना आसान भी नहीं है क्योंकि सरकार ने अफगान सेना को राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिये उसमें अफगान ताजिक, उजबेकों व शिया कमांडरों को भी जगह दी है। लेकिन विदेशी सेनाओं की वापसी से उनका मनोबल जरूर प्रभावित होगा। दुनिया को चिंता इस बात को लेकर होनी चाहिए कि अफगानिस्तान में अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद की वापसी हो रही है।