इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.मंत्रिमंडल विस्तार के मायने
कमोबेश यह सबसे बड़ा और व्यापक कैबिनेट फेरबदल और विस्तार है। मंत्रिपरिषद के 77 सदस्यों में से 36 चेहरे नए हैं। यानी करीब 50 फीसदी मंत्रिपरिषद नई है, लिहाजा मोदी सरकार और उनकी टीम का चेहरा भी नया होगा। कैबिनेट विस्तार और फेरबदल प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है, लिहाजा वह किसी भी मंत्री को बाहर कर सकते हैं और किसी नए चेहरे को चुनौतीपूर्ण दायित्व सौंप सकते हैं, लेकिन विशेषाधिकार के मायने सिर्फ यही नहीं होने चाहिए। ऐसे विस्तार स्पष्ट करते हैं कि कई महत्त्वपूर्ण काम कहीं बीच में लटक गए हैं, जिन्हें प्राथमिकता के स्तर पर किया जाना चाहिए था। यह कोरोना संक्रमण सरीखी महामारी का दौर है, लिहाजा सिर्फ संबद्ध मंत्री को ही नालायक अथवा निकम्मा करार नहीं दिया जा सकता। चूंकि विपक्ष समेत एक तबके में सरकार-विरोधी रुख है और वे लगातार मंत्री को हटाने की मांग करते रहे हैं, नतीजतन उसी आधार पर मंत्री की छुट्टी जैसा रक्षात्मक रवैया भी प्रशंसनीय नहीं है। बहरहाल महामारी के इस दौर में स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रम, पेट्रोलियम, वित्त, नागर विमानन और सूचना प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।
वित्त को छोड़ कर सभी मंत्रालयों में नए मंत्री बिठाए गए हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन की कैबिनेट से छुट्टी या उन्हें इस्तीफा देने पर विवश करना सबसे चौंकाऊ ख़बर रही। प्रधानमंत्री के विशेषाधिकार के तहत सिर्फ स्वास्थ्य मंत्री को ही ‘बलि का बकरा’ बना देना न्यायोचित नहीं है। डॉ. हर्षवर्धन एक अनुभवी और पेशेवर डॉक्टर हैं। उन्हें पोलियो-पुरुष माना जाता है, क्योंकि दिल्ली सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए भारत को पोलियो-मुक्त कराने में उनकी अहम भूमिका रही। एक डॉक्टर के तौर पर हर्षवर्धन और मनसुख मंडाविया में कोई तुलना नहीं की जा सकती। नए स्वास्थ्य मंत्री के पास जादू और तिलिस्म की ऐसी कौन-सी छड़ी है कि कोरोना संक्रमण को साफ कर दे और नई लहरों के आगाज़ न होने दे? बेशक कोरोना महामारी के दौरान, आपदा प्रबंधन कानून के तहत, जो केंद्रीकृत व्यवस्था रही है, उसकी लगाम स्वास्थ्य मंत्रालय के बजाय प्रधानमंत्री दफ्तर के हाथ में रही है। स्वास्थ्य मंत्री ही नहीं, प्रधानमंत्री भी जवाबदेह हैं कि भारत में कोरोना वायरस का इतना भयावह विस्तार क्यों हुआ? वैसे किसी भी देश में सरकारें सामूहिक रूप से जवाबदेह रही हैं और आम जनता की भूमिका भी तय की गई है। स्वास्थ्य संवैधानिक तौर पर राज्यों का विषय है। यदि आज भी देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 2.5 फीसदी हिस्सा भी स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करने का लक्ष्य 2025 तक का तय किया गया है और उसे बजट में स्थान दिया गया है, तो अकेला स्वास्थ्य मंत्री ही ‘खलनायक’ कैसे करार दिया जा सकता है? उसकी बुनियादी जिम्मेदारी तो प्रधानमंत्री की है, क्योंकि वह ही सभी मंत्रालयों के ‘संचालक’ माने जाते हैं।
मंत्री तो संबद्ध मंत्रालयों की नीतियों और कार्यक्रमों के लागूकर्ता ही रहे हैं। सभी मंत्री खुले तौर पर मान रहे हैं कि वे प्रधानमंत्री के विजन को पूरा करने की भरपूर कोशिश करेंगे। अब रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावडे़कर, रमेश पोखरियाल निशंक, संतोष गंगवार आदि 12 कैबिनेट और राज्य मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाया गया है, तो उसका खुलासा और स्पष्टीकरण प्रधानमंत्री ही दे सकते हैं। शेष अटकलें ही हैं। यदि ये मंत्री प्रधानमंत्री का विजन और एजेंडा लागू करने में असमर्थ रहे हैं, तो वह नाकामी भी प्रधानमंत्री की ही है। ये नौसीखिया मंत्री और राजनेता नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने भरोसा जताया है कि अब ब्यूरोक्रेट और टेक्नोक्रेट, वकील और दूसरे पेशेवर, ओबीसी और दलित या आदिवासी ही उनके विजन को साकार करेंगे और उनकी गति के अनुरूप ही दौड़ेंगे, तो हम प्रधानमंत्री के भरोसे पर सवाल या आशंकाएं नहीं करेंगे, क्योंकि देश ने प्रधानमंत्री और उनकी सरकार को जनादेश दिया है। अलबत्ता हमारा मानना है कि प्रधानमंत्री ने 2022-23 के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर यह नई टीम बनाई है। यदि इन चुनावों में भाजपा ज्यादातर राज्यों में सफल रही, तो 2024 के लोकसभा चुनाव की रणनीति बनाना आसान होगा, लिहाजा तीसरे कार्यकाल पर भी प्रधानमंत्री की निगाहें अभी से हैं। नए मंत्रिमंडल की मीमांसा करना हमारा दायित्व है। नए मंत्री आगामी वर्षों में प्रधानमंत्री की सियासत के लिए कितना कारगर साबित होंगे, यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन इतना दिखने लगा है कि प्रधानमंत्री मोदी की ज़मीन खिसकने लगी है और उन्हें ढेरों सवालों के जवाब देश की जनता को देने हैं।
2.बदलता उत्तर प्रदेश
कुछ सप्ताह पूर्व नीति आयोग ने वर्ष 2020-21 के लिए स्थायी विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के सदंर्भ में भारत के 36 राज्यों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों की कार्यनिष्पादन रिपोर्ट प्रकाशित की है। इस रिपोर्ट के अनुसार जहां समस्त भारत के स्थायी विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के कुल अंक 2019 में 60 से बढ़ाकर 2020 में 66 तक पहुंच गए हैं, सभी राज्यों में यह वृद्धि कम या ज्यादा देखने को मिली है। एसडीजी के संदर्भ में सबसे शीर्ष में पूर्व की भांति 75 अंकों के साथ केरल है, जबकि सबसे नीचे भी पहले जैसे ही 52 अंकों के साथ बिहार है। सबसे तेज गति से आकांक्षी से बेहतर निष्पादक की श्रेणी में जाने वाला राज्य उत्तर प्रदेश बना, जो 2018 में मात्र 42 अंकों से आगे बढ़ता हुआ 2020 में 60 अंकों तक पहुंच गया, यानी 18 अंकों की बढ़त, जबकि अन्य 2018 के आकांक्षी राज्य बिहार और असम का कार्य निष्पादन उससे काफी कम रहा। बिहार इन दो सालों में 48 अंकों से बढ़कर 52 अंकों तक ही पहुंचा (यानी मात्र 4 अंकों की वृद्धि) और असम 49 अंकों से बढ़कर 57 अंकों तक पहुंचा यानी 8 अंकों की बढ़त। नीचे के पायदान के अन्य राज्यों में झारखंड 50 अंकों से 56 अंक, मध्यप्रदेश 52 अंकों से 62 अंक, राजस्थान 50 अंकों से 60 अंक तक पहुंचे।
पश्चिम बंगाल भी 56 अंकों से मात्र 62 अंकों तक ही पहुंचा। उत्तर पूर्व राज्यों में मेघालय 52 अंकों से 62 अंकों तक पहुंचा, जबकि अरुणाचल प्रदेश 51 अंकों से 60 अंकों तक। नागालैंड 51 अंकों से 61 अंकों तक और मणिपुर 59 अंकों से 64 अंकों तक। गौरतलब है कि हालांकि कुछ राज्य आकांक्षी से निष्पादक की श्रेणी में आ गए और कुछ अन्य पिछड़े राज्यों का भी कार्य निष्पादन ठीक रहा है, लेकिन अभी भी उनका स्तर बेहतर राज्यों से काफी नीचे है। अभी भी 7 राज्य 60 या उससे कम अंक ही प्राप्त कर पाए हैं। 6 राज्यों के अंक 60 से अधिक, लेकिन 65 से कम हैं। गौरतलब है कि 65 से ज्यादा अंक प्राप्त करने वाले राज्यों को फ्रंट रनर (यानी अगड़े) माना गया है। यानी अभी भी 13 राज्य ऐसे हैं, जिन्हें अगड़े की श्रेणी में आना अभी बाकी है। प्रश्न यह है कि हमारे सभी राज्य अगड़े की श्रेणी में कैसे आ सकते हैं। काफी लंबे समय से हमारा देश क्षेत्रीय आर्थिक असमानताओं से जूझ रहा है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के फार्मूले के आधार पर लंबे समय से विभिन्न देशों की रैंकिंग उनके मानव विकास के स्तर के आधार पर की जाती है। एसडीजी में कई कारकों को शामिल किया गया है जो मानव विकास सूचकांक में शामिल नहीं थे। मानव विकास सूचकांक में प्रतिव्यक्ति आय, स्वास्थ्य के स्तर और शिक्षा के स्तर को उनके संकेतकों के आधार पर शामिल किया गया था। उधर वर्तमान में एसडीजी में 17 लक्ष्यों को शामिल किया है। इन लक्ष्यों में गरीबी उन्मूलन, शून्य भुखमरी, अच्छा स्वास्थ्य और कुशल क्षेम, स्तरीय शिक्षा, लिंग समानता, स्वच्छ जल और सफाई, सस्ती और साफ ऊर्जा, अच्छा काम और ग्रोथ, असमानताओं में कमी, शांति और न्याय हेतु सबल संस्थाएं, जिम्मेदारी पूर्ण उपभोग एवं उत्पादन इत्यादि शामिल हैं।
इन लक्ष्यों के कार्य निष्पादन का आकलन करने के लिए 117 संकेतकों का इस्तेमाल किया जाता है। हमारे देश के पिछड़े राज्यों में अधिक जनसंख्या वाले राज्य बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा, के साथ-साथ कुछ उत्तर-पूर्वी राज्यों के साथ शामिल थे। कई बार इन राज्यों (बिहार, मध्यप्रदेश, असम, राजस्थान, उत्तर प्रदेश) के नामों को जोड़कर ‘बीमारू’ राज्य भी कहा जाता रहा है। यदि इन ‘बीमारू’ राज्यों का पिछला तीस वर्षों का आकलन करें तो देखते हैं कि वर्ष 1990-91 से 2004-05 के बीच बिहार की ग्रोथ की दर -1 प्रतिशत, मध्यप्रदेश की 1.78 प्रतिशत, असम की 3.18 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश की 2.79 प्रतिशत ही रही। लेकिन राजस्थान की ग्रोथ 5.11 प्रतिशत और उड़ीसा की 5.52 प्रतिशत रही। लेकिन यहां यह समझना होगा कि अगड़े राज्यों की ग्रोथ इस दौरान 6.03 प्रतिशत, जबकि पिछड़े राज्यों की मात्र 2.7 प्रतिशत ही रही। लेकिन 2004-05 से 2019-20 के दौरान पिछड़े राज्यों की ग्रोथ सम्मानजनक रही। बिहार में जीडीपी ग्रोथ 8.6 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 7.9 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 6.5 प्रतिशत, राजस्थान में 6.9 प्रतिशत और उड़ीसा में 5.9 प्रतिशत और झारखंड में 6.7 प्रतिशत की दर से दर्ज की गई। लेकिन यह भी सच है कि चूंकि इन राज्यों में प्रतिव्यक्ति आय बहुत कम है, इसलिए तेज आर्थिक संवृद्धि के बाद भी प्रतिव्यक्ति आय की दृष्टि से ये राज्य अभी भी बहुत पीछे हैं, जिसके कारण वहां के लोगों में गरीबी, भुखमरी इत्यादि अधिक है।
3. निजता के लिए
आज के समय में निजता की रक्षा सबसे जरूरी है और किसी भी कंपनी या संस्थान को यह रियायत नहीं मिलनी चाहिए कि वह किसी की निजी सूचनाओं का उपयोग करे। निजता-नीति पर जारी विवाद के बीच वाट्सएप ने दिल्ली हाईकोर्ट में कहा है कि वह अपनी निजता-नीति पर रोक लगा चुका है। वाट्सएप ने लगे हाथ दिल्ली हाईकोर्ट को यह भी बताया है कि जब तक डाटा संरक्षण विधेयक प्रभाव में नहीं आ जाता, तब तक वह उपयोगकर्ताओं (यूजर्स) को नई निजता-नीति अपनाने के लिए बाध्य नहीं करेगा और इस नीति पर अभी रोक लगा दी गई है। एक बड़ी चिंता यह थी कि वाट्सएप की निजता-नीति को न मानने वाले यूजर्स को कुछ सुविधाओं से वंचित किया जाएगा। ऐसा अक्सर सोशल मीडिया कंपनियां करती हैं, यूजर्स से ज्यादा से ज्यादा जानकारी जुटाकर उसका व्यावसायिक उपयोग नई बात नहीं है। जैसे-जैसे यूजर्स अपनी सूचनाएं साझा करता है, वैसे-वैसे उसकी सुविधा बढ़ाई जाती है। लेकिन यह अच्छी बात है कि वाट्सएप ने अदालत के समक्ष यह भी साफ कर दिया है कि इस बीच वह नई निजता-नीति को नहीं अपनाने वाले यूजर्स के लिए उपयोग के दायरे को सीमित नहीं करेगा।
हालांकि, इसका सीधा संकेत है, भविष्य में यूजर्स को उतनी ही छूट मिलेगी, जितनी सूचना वे साझा करेंगे। सोशल मीडिया मंचों पर यह स्वाभाविक चलन है। कई सोशल मंच तो भरपूर सूचनाएं लेने के साथ ही यूजर्स का प्रत्यक्ष आर्थिक दोहन भी करते हैं या दोहन के बारे में सोचते हैं। आम लोगों व अदालतों को भी सजग रहना होगा कि आने वाले समय में कोई ऐसी चालाकी न हो कि यूजर्स चौतरफा ठगे जाएं। बहरहाल, अदालत में वाट्सएप के रुख का नरम पड़ना कुछ उत्साहजनक है। वाट्सएप की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने कहा है कि हम स्वत: ही इस (नीति) पर रोक लगाने के लिए तैयार हो गए हैं। हम लोगों को इसे स्वीकारने के लिए बाध्य नहीं करेंगे। वैसे वाट्सएप इसके बावजूद अपने यूजर्स के लिए अपडेट का विकल्प दर्शाना जारी रखेगा। मतलब, निजता की रक्षा की लड़ाई लंबी चलने वाली है। सोशल मीडिया कंपनियां बहुत मजबूत हो गई हैं और अपनी मनमानी आसानी से नहीं छोड़ेंगी। गौरतलब है कि अदालत फेसबुक और उसकी सहायक कंपनी वाट्सएप की अपीलों पर सुनवाई कर रही है, जो वाट्सएप की नई निजता-नीति के मामले में जांच के भारतीय प्रतिस्पद्र्धा आयोग के आदेश पर रोक लगाने से इनकार के एकल पीठ के आदेश के विरुद्ध दाखिल की गई हैं।
केंद्र सरकार को पूरी तरह से सतर्क रहना होगा। ये सोशल मीडिया कंपनियां इस कोशिश में हैं कि सरकार द्वारा डाटा संरक्षण विधेयक को लागू करने से पहले ही वे अपनी व्यावसायिक सुरक्षा का इंतजाम कर लें। अगर इन कंपनियों ने यूजर्स से पहले ही निजता संबंधी समझौता कर लिया, तो फिर सरकार का डाटा संरक्षण संबंधी कानून निरर्थक हो जाएगा। आज सजग नागरिकों पर सर्वाधिक जिम्मेदारी है। निजता को जिस तरह की सुरक्षा अमेरिका या यूरोपीय देशों में हासिल होती है, वैसी ही सुरक्षा भारतीयों को भी हासिल होनी चाहिए। भारत एक विशाल बाजार है, हम अपना डाटा आसानी से या मुफ्त में किसी को हाथ लगने नहीं दे सकते। सरकार को पूरी तेजी के साथ जरूरी कदम उठाने चाहिए, ताकि निजता संबंधी विवाद का पटाक्षेप जल्द से जल्द हो।
4.फैसलों का संदेश
किसान व कोविड सरकार की प्राथमिकता
मोदी मंत्रिमंडल में हाल के भारी-भरकम बदलावों के बाद कैबिनेट की पहली बैठक में लिये गये फैसलों का साफ संदेश है कि कोविड संकट से निपटना और किसानों के गिले-शिकवे दूर करना सरकार की पहली प्राथमिकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई बैठक में कोरोना संकट की तीसरी लहर की आशंकाओं के बीच सरकार ने आपातकालीन पैकेज की घोषणा की है। दूसरी लहर की चुनौतियों से निपटने में सरकार की नीतियों को लेकर जिस तरह से तमाम सवाल उठे थे, उसके मद्देनजर सरकार सतर्क नजर आ रही है। महामारी से मुकाबले के लिये स्वास्थ्य का आधारभूत ढांचा मजबूत करने के मकसद से 23,123 करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा केंद्र सरकार ने की। हाल के मंत्रिमंडल विस्तार में जिन प्रमुख मंत्रियों की छुट्टी हुई है, उनमें स्वास्थ्य मंत्रालय संभाल रहे डॉ. हर्षवर्धन भी शामिल हैं। दूसरी लहर के दौरान जिस तरह देश में ऑक्सीजन संकट पैदा हुआ और अस्पतालों में उपचार नहीं मिला, उससे केंद्र सरकार की खासी किरकिरी हुई थी। जिस पर शीर्ष अदालत व उच्च न्यायालयों ने सख्त टिप्पणियां की थी और सरकारों को व्यवस्था में सुधार के लिये सख्त लहजे में संदेश दिया था। स्वास्थ्य मंत्री का बदलाव इस बात का संकेत भी है कि सरकार कोरोना संकट की दूसरी लहर के दौरान समय रहते मुकाबले में चूकी है। बहरहाल, नये स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्री मनसुख मंडाविया ने बताया कि यह पैकेज अगले नौ महीने यानी मार्च, 2022 तक लागू रहेगा। इसके तहत बीस हजार आईसीयू बैड तैयार करने का लक्ष्य है। उल्लेखनीय है कि यह आपातकालीन प्रक्रिया एवं स्वास्थ्य प्रणाली तैयारी पैकेज का दूसरा चरण है। इससे पहले केंद्र सरकार पूरे देश में कोविड केंद्रित अस्पताल एवं स्वास्थ्य केंद्र स्थापित करने के लिये 15000 करोड़ रुपये दे चुकी है। अब देखना होगा कि स्वास्थ्य मंत्रालय समय रहते महामारी की भयावहता रोकने के लिये कितना कारगर तंत्र विकसित करता है। जरूरत इस बात की भी है कि जमीनी हकीकत में भी बदलाव आये। साथ ही चिकित्सा सुविधाओं का लाभ शहर केंद्रित न होकर ग्रामीण भारत को पूरी तरह मिले।
बहरहाल मंत्रिमंडल में भारी फेरबदल के बाद केंद्र सरकार की पहली कैबिनेट बैठक का दूसरा साफ संदेश यह देने का प्रयास किया गया कि सरकार किसानों के मुद्दों को संबोधित करना अपनी प्राथमिकता समझती है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि विवादास्पद कृषि सुधारों को लेकर पंजाब, हरियाणा व पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलनरत हैं। लंबे अर्से से यह आंदोलन चल रहा है और विवाद को सुलझाने की गंभीर पहल न होने के आरोप लगते रहे हैं। हालांकि, केंद्र सरकार कहती रही है कि वह खुले मन से बात करने को तैयार है। वह एक फोन कॉल की दूरी पर है। लेकिन इस दिशा में गंभीर व निर्णायक पहल होती नजर नहीं आई। बहरहाल, नये मंत्रिमंडल की पहली बैठक में लिये गये फैसलों से केंद्र सरकार ने यह स्पष्ट संदेश देने का प्रयास किया है कि वह कृषि उपज मंडी समितियों यानी एपीएमसी को खत्म नहीं होने देगी। यह भी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की उपज की खरीद जारी रहेगी। सरकार ने मंडियों के जरिये किसानों तक एक लाख करोड़ रुपये पहुंचाने का फैसला लिया। यानी कि कृषि मंडी समितियों की क्रय शक्ति बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है, ताकि किसानों की उपज खरीदने में परेशानी न आये। संदेश यह भी कि किसान के पास मंडियों व खुले बाजार में फसल बेचने का विकल्प उपलब्ध रहेगा। बकौल कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम के तहत किसान आधारभूत संरचना कोष के लिये एक लाख करोड़ रुपये आवंटित किये गये हैं, जिसे कृषि उपज विपणन समिति किसानों की उपज खरीदने में खर्च कर सकेगी। निष्कर्ष स्पष्ट है कि किसानों की अधिक फसलों को खरीदने के लिये विपणन समितियों के पास अधिक तरलता उपलब्ध हो सकेगी। हालांकि, इन योजनाओं के क्रियान्वयन के बाद ही स्पष्ट होगा कि यह पहल कितनी कारगर है। यह भी कि सरकार की पहल पर आंदोलित किसान कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। बहरहाल, सरकार ने किसानों के मुद्दे पर मनोवैज्ञानिक बढ़त तो ले ली है।