इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.कितना कृषि योग्य हिमाचल
जब हिमाचल ने कृषि तथा बागबानी विश्वविद्यालयों के ताज पहने थे, तो उम्मीद थी कि पर्वतीय खेती और बागबानी की तासीर बदलेगी, लेकिन अध्ययन कक्ष से जमीन की दूरी बढ़ गई। जाहिर तौर पर कृषि एवं बागबानी से संबंधित वैज्ञानिक बढ़ गए, लेकिन पिछले दशकों में किसान घट गए। पढ़े लिखे नौजवान खेत में तो नहीं लौटे, अलबत्ता जमीन से जुड़ा किसान भी सरकारी नौकरी की परिक्रमा करने लगा है। हिमाचल में कृषि से जुड़ी आर्थिकी के मायने गांव की आबादी का दस्तूर तब तक जरूर थे, जब तक मेहनत का मूल्यांकन नहीं होता था। अब स्थिति और परिस्थिति ने विकास के नाम पर खेतों की बोली लगा दी, प्राकृतिक जल संसाधनों की उपयोगिता एवं उपलब्धता घटा दी और खेत बार-बार बंट कर इतना सिकुड़ गया कि अदालत में पैरवी की खेती होने लग पड़ी। ऐसे में वर्षों बाद भी भू-राजस्व से जुड़ी प्रक्रियाओं में न कोई सुधार लाने की चेष्टा हुई और न ही किसी ने सोचा कि हर सड़क के आने से खेत पर कितनी बजरी, रेत व सीमेंट चढ़ गया। पिछले एक दशक में कितने खेत बिके, अगर हिसाब लगाया जाए तो मालूम हो जाएगा कि कृषि विश्वविद्यालय का औचित्य कितना कमजोर व विवश है। हैरानी तो यह है कि भूमि रहित गरीबों को किसानी के लिए जो नौ तोड़ जमीन दी गई थी, वह कब से बिक चुकी है।
लैंड सीलिंग एक्ट ने जो जमीन मुजारों को अर्पित की, उसका काफी हिस्सा बिक कर कालोनियों में तबदील हो चुका है। सामाजिक उथल-पुथल ने खेती और खेती में शिक्षा के महत्त्व को ही गौण कर दिया है। बेशक हिमाचल में विभागीय व विश्वविद्यालय स्तर पर कृषि के नाम पर आंकड़े बेशुमार हैं और किसान से ज्यादा यही कसरतें सरकारी नौकरी में परिवर्तित आजीविका का साधन बन रही हैं। यह दीगर है कि समूचे परिवर्तन के बावजूद कृषि व बागबानी अपनाने की जिद्द में कुछ प्रगतिशील चेहरे सामने आए हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश पूर्व सैनिक, सेवानिवृत्त कर्मचारी या अधिकारी हैं। कृषि विश्वविद्यालय ने इनके ऊपर पुस्तिका छाप कर एक सुखद अनुभव का एहसास कराया है, लेकिन एक और वर्ग है जो हिमाचल में खेत और बागान को उत्साहित करता है। यह एक सर्वेक्षण का विषय भी है कि पिछले दस सालों में निजी नर्सरियों के विस्तार ने कृषि, बागबानी एवं फूलोत्पादन में प्रशंसनीय योगदान नहीं किया, बल्कि इस क्षेत्र में नवाचार बढ़ा दिया। आज किसान खेत में अधिक उत्पादन के लिए विभिन्न बीजों की तलाश कर पा रहा है, तो यह निजी तौर पर संभव हुआ। फूल उत्पादन में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के बाजार, व्यापार या अवसर पैदा हो रहे हैं, तो एक श्रृंखलाबद्ध प्रयास हो रहे हैं, जबकि विश्वविद्यालय के प्रदर्शनी खेत से उत्साहित होने की तो वजह भी दिखाई नहीं देती। बागबानी विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला से बाहर हरिमन शर्मा जैसे व्यक्ति अगर सेब उत्पादन से गर्म इलाकों को जोड़ पाया, तो कहीं वैज्ञानिक अध्ययन को जमीन पर चलना सीखना होगा।
यही वजह है कि चिलगोजा पर हुए आज तक के अध्ययन व शोध ने एक नया पौधा नहीं उगाया। कांगड़ा चाय की झाडि़यां आज भी सवा सौ साल पुरानी अंग्रेजों की जड़ों पर ही खड़ी हैं। इस दौरान चाय के बागीचे बिके या अब भी बेचने की अनुमति का इंतजार है, तो कल इसके तहत मापी गई भूमि का क्या होगा। कृषि विश्वविद्यालय के नए कुलपति डा. एच के चौधरी कुछ पुरानी फाइलों पर नई योजनाएं बना रहे हैं, तो जाहिर तौर पर उत्साह के झौंके पैदा होंगे। किसान गैलरी की स्थापना से अध्ययन के नए शिलालेख लिखे जा सकते हैं तथा ट्राउट या भेड़ पर फिर से शोध सवार हो जाएगा, यह जानकर अच्छा लगता है। कृषि विश्वविद्यालय अब कहीं जाकर अपने सामुदायिक रेडियों के लिए सुंदरनगर में जमीन पैदा कर पाया है, जबकि यह वर्षों से लटकी परियोजना रही है। बेशक कृषि विश्वविद्यालय में नए संकल्पों का प्रारूप बन रहा है और इस बहाने किसान परिसर में आ सकता है, लेकिन खेती के हिसाब से विज्ञानी जब तक खेत में श्रम नहीं करेगा, सारे उद्देश्य कागज़ी बने रहेंगे। हिमाचल को फिर अपनी योजनाओं व नीतियों पर गौर करते हुए यह देखना होगा कि कब तक वन क्षेत्र को बढ़ा कर हम कृषि योग्य जमीन का आधार कम करते रहेंगे। क्या हिमाचल की पैदावार में कल का जंगल अपनी प्राकृतिक जड़ी-बूटियां उगाने के साथ-साथ चाय-कॉफी की खेती भी कर पाएगा या खाद्य पदार्थों की नई पौध उगा कर वन की परिभाषा बदल जाएगी।
2.निजीकरण का बजट
जो हर बजट में होता है, कमोबेश इस बजट के संदर्भ में भी किया गया है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, परिवहन, ऊर्जा, निर्माण, रेलवे, स्वच्छ और आत्मनिर्भर भारत, लघु एवं सूक्ष्म उद्योग, जलजीवन और पोषण मिशन तथा कृषि आदि क्षेत्रों के लिए अनुमानित बजट के प्रस्ताव पेश किए गए हैं। ये अनुमान संसद में बहस के बाद संशोधित भी होंगे। चूंकि हम कोरोना महामारी के त्रासद प्रभावों से मुक्त होने की स्थिति में हैं, लिहाजा स्वास्थ्य बजट का करीब 137 फीसदी बढ़ाया जाना स्वाभाविक है, लेकिन करीब 2.24 लाख करोड़ रुपए के बजट में कई और मद भी शामिल हैं। भारत का कुल बजट 35 लाख करोड़ रुपए का भी नहीं है, उसमें राजकोषीय घाटा 9.5 फीसदी भी शामिल है। सरकार को उधार चुकता करने के लिए 12 लाख करोड़ रुपए की दरकार है। इसके अलावा, 2021-22 में घाटे का अनुमान 6.8 फीसदी है। ये वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की ही घोषणाएं हैं। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यदि केंद्र के घाटे में राज्य सरकारों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के घाटे भी शामिल कर लिए जाएं, तो वित्तीय घाटा 15 फीसदी से ज्यादा होगा। ऐसी विपरीत स्थितियों के बावजूद बजट में लोकलुभावन घोषणाएं नहीं की गई हैं। बल्कि पूंजीगत व्यय को 25 फीसदी से अधिक बढ़ाया गया है। बेशक कोरोना टीकाकरण की आर्थिक मदद के बहाने से ही सही, लेकिन सरकार ने किसी भी वर्ग पर संपत्ति कर या कोई विशेष उपकर नहीं थोपा है। आयकर में भी न तो कोई कटौती की गई और न ही रियायतें दी गईं। बजट में कोरोना टीकाकरण के लिए 35,000 करोड़ रुपए का प्रस्ताव रखा गया है। मोटे तौर पर कहें, तो यह मानना उचित होगा कि सरकार के पास पूंजी नहीं है और बेतहाशा खर्चों की घोषणाएं कर दी गई हैं। कोरोना के घोर संक्रमण-काल की बात अलग थी, लेकिन अब सवाल यह है कि खर्चों के मद्देनजर पूंजी कहां से आएगी?
क्या 34.8 लाख करोड़ रुपए के बजट में घाटा भी कम कर लिया जाएगा, विकास की परियोजनाएं भी जारी रहेंगी, किसानों और गरीबों के खातों में पैसा भी डाला जाएगा और प्रस्तावित बजट के मुताबिक राशि के आवंटन भी किए जा सकेंगे? इन सवालों के मद्देनजर पहली निगाह सरकार की विनिवेश और निजीकरण नीति पर पड़ती है। विनिवेश की प्रक्रिया डा. मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री रहते हुए शुरू की थी। प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी भी विनिवेश और निजीकरण के सशक्त पैरोकार थे, लिहाजा मोदी सरकार ने गलत फैसला नहीं लिया है। बजट में विनिवेश का लक्ष्य 1.75 लाख करोड़ रुपए तय किया गया है। बीते बजट में लक्ष्य करीब 2.50 लाख करोड़ का था, लेकिन संशोधित बजट में भी सरकार 32,000 करोड़ रुपए तक पहुंच पाई थी। अब सरकार राष्ट्रीय राजमार्ग, हवाई अड्डे, बंदरगाह, गैस और तेल पाइपलाइन, नई रेलवे लाइन और कॉरिडोर, बैंक और भारतीय जीवन बीमा निगम आदि का निजीकरण करना चाहती है। पवन हंस, एयर इंडिया, गेल, भारत और हिंदुस्तान पेट्रोलियम, दो सरकारी बैंक, कंटेनर और शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, इंडियन ऑयल और खेल स्टेडियम तक का पूरा या आंशिक विनिवेश तय किया गया है। एलआईसी के आईपीओ के जरिए सरकार अपनी हिस्सेदारी बेचेगी। अंतरिक्ष विभाग तक पर सरकार की कुटिल निगाहें हैं। वैसे नीति आयोग ने अनुशंसा की थी कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के 48 उपक्रमों का निजीकरण करे। तर्क दिया जा सकता है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं, देश के लिए नीतियां तय करना है। कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल हैं।
कुछ लाभ कमाने वाले ‘नवरत्न’ उपक्रम अचानक घाटे के अड्डे कैसे बन जाते हैं? बिक चुके बाल्को उपक्रम का मुनाफा 5000 करोड़ रुपए का था। तो फिर उसे क्यों बेच दिया गया? सवाल है कि सरकारी कंपनियों को बेचने या निजीकरण से क्या पर्याप्त पूंजी जुटाई जा सकेगी? और वह पूंजी किन क्षेत्रों को आवंटित की जाएगी? क्या यह पारदर्शी और सार्वजनिक नहीं होना चाहिए? सरकार खाली पड़ी ज़मीन को बेचकर भी पूंजी जुटाने पर आमादा है। मान लें कि सब कुछ बेचकर या निजी हाथों के हवाले कर सरकार ने 4-5 लाख करोड़ रुपए जुटा भी लिए, तो बेहद अहम सवाल है कि वह पूंजी कहां खर्च की जाएगी? क्या सरकार उसका रोडमैप देश को बताएगी, क्योंकि बुनियादी तौर पर पैसा तो देशवासियों का है? गौरतलब यह है कि बैंकों में एनपीए के तहत 9-15 लाख करोड़ रुपए के कर्ज फंसे हैं। उन्हें वसूलने या बट्टेखाते में डालने का निर्णय करने के लिए सरकार एक अलग कंपनी का गठन करेगी। क्या ऐसे कर्जों के मद्देनजर ही बैंक बेचे जा रहे हैं? अब तो सेबी को ‘गोल्ड एक्सचेंज’ का दायित्व भी सौंपा जा रहा है। यानी सोने के जरिए लेन-देन…! निवेश में भी करीब 13 फीसदी की कमी आई है। क्या खजाने की ‘गरीबियत’ को देखते हुए सब कुछ बेचने की नीति देशहित में है?
3.सेवा में शहादत
अब जब कोविड-19 के खिलाफ टीकाकरण अभियान रफ्तार पकड़ने लगा है, और लोग उसके खौफ के साये से निकल मार्च-पूर्व की जिंदगी की तरफ लौटने लगे हैं, तब संसद से आई एक सूचना सचमुच देश के मर्म को छूने वाली है। केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री ने राज्यसभा में एक लिखित प्रश्न के जवाब में बताया है कि बीती 22 जनवरी तक कोरोना के कारण देश में 162 डॉक्टर, 107 नर्स और 44 आशा वर्कर की मृत्यु हुई है। पहली कतार के कोरोना वॉरियर्स ने अपनी जान का जोखिम उठाते हुए मुल्क और मानवता की जिस तरह सेवा की है, वह सेवाभावी लोगों के लिए हमेशा एक ‘लैंपपोस्ट’ का काम करेगी। देश के कुशल मानव संसाधन को पहुंचे इस नुकसान की पृष्ठभूमि में यह आसानी से समझा जा सकता है कि आखिर क्यों टीकाकरण अभियानों में दुनिया भर में इन्हें प्राथमिकता दी जा रही है। एक डॉक्टर या नर्स की मौत देश और समाज की कितनी बड़ी क्षति है, महामारी ने पूरी दुनिया को इसका एहसास कराया है।
कोविड-19 ने पूरे संचार को कभी न भूलने वाली पीड़ा दी है, साथ ही कई बेशकीमती सबक भी दिए हैं। आशा की जानी चाहिए कि इन्हें बिसराया नहीं जाएगा। जिन देशों ने वायरस संक्रमण की पहली सूचना के साथ ही भरपूर संवेदनशीलता व सजगता का परिचय दिया, उनके यहां जान-माल का कम नुकसान हुआ। वहीं बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं का दंभ पाले विकसित देशों ने अपनी लापरवाही की भारी कीमत चुकाई है। अपने देश में भी हमने महामारी की शुरुआत में देखा कि कुछ शरारती तत्वों ने इसका संप्रदायीकरण करने की चेष्टा की, पर सामुदायिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के सक्रिय हस्तक्षेप और सरकार की सख्ती भरी मुस्तैदी ने जल्द ही इस मनोवृत्ति पर प्रभावी नियंत्रण पा लिया। इसके बावजूद देश में मेडिकल टीमों को कई जगह काफी परेशानी उठानी पड़ी। हमने शुरुआती कुछ चूकें न की होतीं, तो यकीनन आज कुछ बेहतर स्थिति में होते, क्योंकि कोलंबिया यूनिवर्सिटी समेत दुनिया के कई प्रतिष्ठित संस्थानों का शोधपरक अध्ययन अब हमारे सामने है, जो बताता है कि जिन समाजों में आपसी भरोसे व संस्थाओं में विश्वास का स्तर ऊंचा रहा, वहां महामारी बहुत नुकसान नहीं पहुंचा पाई है। महामारी के आगमन के साथ ही यह तय था कि वैज्ञानिक तरक्की के जिस सोपान पर आज का मानव समाज खड़ा है, विज्ञान की मदद से वह इस पर काबू पा लेगा, और अब साल भर के भीतर ही टीकों की ईजाद व उनकी प्रभावशीलता ने उस विश्वास को ठोस आधार दे दिया है। सुखद यह है कि हमारे देश के वैज्ञानिकों ने भी अपनी प्रतिभा क्षमता का लोहा मनवाया। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि कोविड-19 का उन्मूलन नहीं हुआ है और हमारे देश में उसका नया ‘स्ट्रेन’ भी पहुंच चुका है। इसलिए सरकार व विशेषज्ञों के दिशा-निर्देशों को आस्थावान नागरिक की तरह अपनाए रखने की जरूरत है। सरकार ने स्वास्थ्य ढांचे में भारी सुधार के मद्देनजर बजट में अभूतपूर्व बढ़ोतरी करके 300 से अधिक स्वास्थ्य वॉरियर्स सहित उन एक लाख, 54 हजार मृतकों को अपनी सच्ची श्रद्धांजलि दी है, जिन्हें यह महामारी हमसे छीन ले गई। अब बतौर नागरिक हमें किसी प्रकार की कोताही न बरतते हुए टीकाकरण अभियान को सफल बनाकर अपनी भूमिका निभानी है।
4.सू की पर शिकंजा
म्यांमार में तख्तापलट भारत के लिए चिंता
ऐसे वक्त में जब म्यांमार के नवंबर में हुए चुनाव में भारी मतों से जीती आंग सान सू की, की पार्टी सत्ता संभालने जा रही थी, सेना ने सत्ता अपने हाथ में ले ली। साथ ही देश में एक साल के लिये आपातकाल की घोषणा कर दी है। सेना ने सू की समेत कई शीर्ष नेताओं को हिरासत में लेकर मुख्य स्थानों पर सेना की तैनाती कर दी है। टीवी-रेडियो के प्रसारण बंद करके इंटरनेट पर रोक लगायी गई है। जिस संविधान के तहत दस साल पहले सत्ता का हस्तांतरण जनता की चुनी सरकार को किया गया था, उसी संविधान का सेना ने उल्लंघन किया है। म्यांमार के लोग पांच दशक के सैन्य शासन के दौरान जिस दमनकारी भय से मुक्त हुए थे, वह और गहरा हो गया है। दरअसल, सू की के नेतृत्व में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी पार्टी यानी एनएलडी को बीते सोमवार दूसरा कार्यकाल आरंभ करना था लेकिन इससे पहले कि संसद का पहला सत्र शुरू होता, उससे कुछ घंटे पहले ही सू की समेत पार्टी के कई शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। पर्दे के पीछे सेना का खेल जारी था। उसी ने यह संविधान बनाया और 25 फीसदी सीटें सेना के लोगों के लिये आरक्षित भी कर दी थी। इतना ही नहीं, म्यांमार के तमाम महत्वपूर्ण मंत्रालयों मसलन गृह, रक्षा व सीमाओं से जुड़े मंत्रालयों पर भी सेना का ही नियंत्रण रहता है। दरअसल, नवंबर में हुए चुनाव के बाद एनएलडी के अस्सी फीसदी से अधिक मत हासिल करने और सेना समर्थित राजनीतिक दल की पराजय के बाद सेना को भय था कि कहीं सू की संविधान में संशोधन करके और ताकतवर न हो जाये। इसके साथ ही सू की सरकार में म्यांमार की अर्थव्यवस्था के दरवाजे दुनिया के लिये खोलने के फैसले से भी सैन्य तानाशाह नाराज चल रहे थे, जो कि बंद अर्थव्यवस्था के पक्षधर रहे हैं। वे खुले कारोबार को देश के लिये खतरे के रूप में देखते हैं।
दरअसल, आजादी के बाद से ही म्यांमार की सत्ता में पकड़ रखने वाली सेना को म्यांमार में लोकतंत्र की बयार रास नहीं आती। यही वजह है कि सेना समर्थित विपक्षी पार्टी की हार के बाद धांधली के आरोप लगाकर सेना ने तख्तापलट कर दिया। हालांकि, सेना कोई भी धांधली के सबूत नहीं दे सकी। हाल के दिनों में कोरोना महामारी और चुनावों में अल्पसंख्यक समुदाय के रोहिंग्याओं को मताधिकार से वंचित रखने को लेकर हो रही आलोचनाओं के बीच अवसर पाकर सेना ने तख्तापलट किया है। भारत समेत अमेरिका आदि देशों ने म्यांमार में लोकतंत्र का गला घोटने पर चिंता जतायी है। ऐसे में सैन्य सत्ता से अाजिज आ चुके म्यांमार के लोगों का आक्रोश भी सामने आयेगा। वे आंग सू की को सेना के लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में देखते हैं। आशंकाएं जतायी जा रही हैं कि तख्तापलट में पर्दे के पीछे चीन की भूमिका हो सकती है। चीन अपनी पहुंच म्यांमार के रास्ते अंतर्राष्ट्रीय समुद्री सीमा तक बनाना चाहता है। वैसे भी चीन को तानाशाही सत्ताएं रास आती हैं। आशंकाएं हैं कि म्यांमार में जो कुछ हो रहा है, उसके पीछे चीन की भूमिका है। दरअसल, हाल के वर्षों में चीन ने म्यांमार में खनन, आधारभूत संरचना तथा गैस पाइप लाइन आदि परियोजनाओं में भारी निवेश किया है। सैन्य शासन के दौरान चीन को अपनी मनमानी करने का अवसर मिलता है। विगत में भी सैन्य शासकों से चीन के मधुर रिश्ते रहे हैं। हाल के बयानों में चीन ने सेना प्रमुख को देश का मित्र बताया है। भारत की चौतरफा घेराबंदी करने वाला चीन जानता था कि सू की के रहते वह अपने भारत विरोधी एजेंडे को क्रियान्वित नहीं कर सकता। निस्संदेह हालिया घटनाक्रम भारत के लिये चिंता की बात है क्योंकि भारत की लंबी सीमा म्यांमार से लगती है। भारत विरोधी अलगाववादी संगठन म्यांमार सीमा पर सक्रिय रहते हैं, जिन्हें चीन से भी मदद मिलती रही है।