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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है

1.अतीत से कितना निकलेगा विश्वविद्यालय

महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में अंतर पैदा करने के मैदान पर, सेंट्रल यूनिवर्सिटी के नए कुलपति अपने इरादों की जुंबिश में संकल्प ले रहे हैं। प्रो. एसपी बंसल ने आदर्श विश्वविद्यालय के खाके में सारे रंग चुन लिए और मीडिया के सामने वह उत्साहित दिखाई दिए हैं, लेकिन क्या वह इस संस्थान को इसके अतीत और राजनीति के भविष्य से बचा पाएंगे। अतीत का शैक्षिक व सियासी कचरा ढोता हिमाचल केंद्रीय विश्वविद्यालय अपने जन्म से ही एक टांग पर खड़ा तपस्या कर रहा है। इसको बचाने के लिए जो दीवारें चीख रही हैं, उनके खंडहर शाहपुर, देहरा से धर्मशाला तक हैं। यहां वन संरक्षण अधिनियम की नित नई व्याख्या होती रही और यह सब सियासत और सत्ता के बीच बनती और बिगड़ती दुरभि संधियां हैं, जिनका बोझ ढोते तीसरे पूर्णकालिक कुलपति कम से कम ‘कुलगीत’ तो सुनाने लगे।

हर छात्र, शिक्षाविद और प्रबुद्ध वर्ग चाहेगा कि जो नए कुलपति कह रहे हैं, उसे सही सिद्ध करने के लिए आजादी, अनुमति और अवसर मिले। प्रो. बंसल अपनी पृष्ठभूमि में कई विश्वविद्यालयों के कुलपित होने का अनुभव, संबोधन, क्षमता और कर्मठता का परिचय देते हुए अपनी इच्छाशक्ति को साक्ष्य बनाना चाहते हैं। उनका ‘विजन 2025’ किस तरह अवतरित होता है, यह देखना बाकी है, लेकिन इससे पूर्व हिमाचल ने शिमला विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति एडीएन वाजपेयी को विजन बनाने के बावजूद खाली हाथ लौटते देखा। आज वर्षों बाद और अस्तित्व के 52 वर्ष गुजारने के पश्चात भी शिमला विश्वविद्यालय अपने आरंभिक शिलालेख सुरक्षित नहीं रख सका, तो पिछले दस साल की सियासी गंदगी में पलता रहा सीयू कैसे खुद को इस हमाम से बाहर निकाल पाएगा। नियुक्तियां और अधोसंरचना को भटकती खिड़कियां, आज भी परिसर की गहन पीड़ा में अपना भविष्य सुनिश्चित नहीं करतीं। नवनियुक्त कुलपति किसी भी आदर्श विश्वविद्यालय के चार्टर को रेखांकित करते हुए अंतरराष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन केंद्र, खेलों का मक्का, अनुसंधान और जिज्ञासा का परिधान पहनें उच्च शिक्षा के आलंबरदार नजर आते हैं। वह पाठ्यक्रम में परिवर्तन और नवाचार में ऊर्जा के स्रोत पैदा करने के साथ-साथ फैकल्टी विकास की हर संभावना का उच्च शिखर खोजते हैं। किसी भी विश्वविद्यालय की परिधि में ज्ञान प्राप्ति का माहौल अपनी व्यवस्था का निष्पक्ष वर्णन देता है।

बावजूद इसके यह विश्वविद्यालय अपनी ही चादर में लिपटी ऐसी अदृश्य काया है, जो परिसर के अपहरण या चीरहरण से आतंकित है। यहां राजनीति का अतीत और राजनीति का भविष्य भयभीत करता रहा है। कमोबेश हर परिसर की बुनियाद के नीचे सियासत के हजारों मुर्दे गड़े हैं। क्या इन्हें उखाड़े बिना कुलपति महोदय आशाओं के बीज उगा पाएंगे। जिस विश्वविद्यालय के माथे पर राजनीतिक भविष्य की रेखाएं खींची जा चुकी हों, उसके भविष्य को गैरराजनीतिक बना पाएंगे। जहां हर नियुक्ति स्वयं में विचारधारा हो, वहां शैक्षिक माहौल के लिए कड़े कदम उठा पाएंगे। केंद्रीय विश्वविद्यालय को फुटबाल किन नेताओं ने बनाया या जिस तासीर में इसका पालन-पोषण हुआ, उससे हट चमत्कार दिखा पाएंगे। आश्चर्य यह कि उत्तराखंड में चार धाम सड़क परियोजना बनाने वाली केंद्र की सरकार हिमाचल से संबंधित मंत्री के इशारे पर धर्मशाला में विश्वविद्यालय की जमीन खारिज कराने में मददगार बनी हुई है। विडंबना यह है कि यह संस्थान केवल राजनीतिक विजन ढोते-ढोते हमीरपुर व कांगड़ा संसदीय क्षेत्रों में बंट गया या इसका बंटाधार हो गया। ऐसे में वीसी महोदय हमारे सामने इमारतें गिन सकते हैं या यह साबित कर सकते हैं कि कहां कितना हिस्सा आबाद होगा, लेकिन विश्वस्तरीय होने के लिए सर्वप्रथम परिसरों से अतीत की सियासी काई मिटानी होगी या भविष्य में राजनीति न हो, इसके लिए सफाई देनी होगी। क्या कोई कुलपति अपने विश्वविद्यालय के प्रांगण को राजनीति के वर्तमान इतिहास से अलग करके काम कर पाएगा, यह ऐसा प्रश्न है जो प्रो. बंसल के कार्यकाल की निगरानी जरूर करेगा।

2.भीख अस्तित्व के लिए

सर्वोच्च न्यायालय ने भीख और भिखारियों पर एक बेहद संवेदनशील और मानवीय फैसला सुनाया है। भीख कोई पसंदीदा पेशा नहीं है। वह एक सामाजिक और आर्थिक समस्या है। शिक्षा और रोज़गार के अभाव में भीख मांगना एक विवशता है, क्योंकि व्यक्ति और परिवार के अस्तित्व का सवाल है। बुनियादें जरूरतें भी पूरी करनी हैं। रोटी भी खानी है, लिहाजा जब जि़ंदगी विकल्पहीन हो जाए, तो आदमी के लिए भीख मांगना एक इनसानी मज़बूरी है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति डी.वाई.चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम.आर.शाह की न्यायिक पीठ ने भीख मांगने और भिखारियों के संदर्भ में जो कुछ कहा है, उपरोक्त वाक्य उसी का सारांश हैं। सुप्रीम अदालत ने साफ कहा है कि वह सड़कों, चौराहों और सार्वजनिक स्थलों से भिखारियों को हटाने का आदेश नहीं दे सकती। भीख पर प्रतिबंध भी थोपा नहीं जा सकता, क्योंकि वह निराश्रित और असहाय जमात है, जिसके पास आर्थिक रोज़गार का कोई जरिया नहीं है।

न्यायिक पीठ ने संभ्रांत वर्ग का नज़रिया भी अपनाने से इंकार कर दिया। इस तरह शीर्ष अदालत ने सरकारों और संसद के मंथन के लिए एक बेहद मानवीय और सामाजिक कल्याण का मुद्दा उछाल दिया है। भिखारी भारत में ही नहीं, अमरीका और यूरोप सरीखे विकसित देशों में भी हैं। उनका भीख मांगने का तरीका भिन्न है। वे अपने कुत्तों के नाम पर भीख मांगते हैं। यह दीगर है कि उन देशों में सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था है और भारत में शिक्षा तथा रोज़गार की बुनियादी, संवैधानिक ज़रूरतों की भी गारंटी नहीं है। नई परिभाषा के साथ ‘गरीबी हटाओ’ के प्रयास सरकारें कर रही हैं और रोज़गार मुहैया कराने के मोटे-मोटे दावे भी किए जाते रहे हैं, लेकिन भिखारी हमारी व्यवस्था की सामाजिक-आर्थिक नीतियों के बदसूरत यथार्थ हैं। भारत में 2011 की जनगणना के मुताबिक, 4,13,670 भिखारी हैं। उनमें पुरुष और महिलाएं दोनों ही शामिल हैं।

पश्चिम बंगाल में सर्वाधिक 81,224 भिखारी हैं और उप्र में यह गिनती 65,835 है। देश की राजधानी दिल्ली में भी 2187 भिखारी हैं। चूंकि ये आंकड़े 10 साल पुराने हैं, लिहाजा भिखारियों की संख्या कई गुना बढ़ चुकी होगी। निष्कर्ष 2021 की जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक होने के बाद ही  सामने आएगा। यह खुलासा तत्कालीन केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावर चंद गहलोत ने राज्यसभा में किया था। दिलचस्प है कि भीख के खिलाफ या उसके मद्देनजर भारत में कोई भी केंद्रीय कानून नहीं है। हालांकि देश के 20 राज्यों और 2 संघशासित प्रदेशों के अपने भीख रोधी कानून हैं। बॉम्बे भीख निरोधक कानून ही इन कानूनों का बुनियादी आधार है। वह पुलिस और सामाजिक कल्याण विभागों को अनुमति देता है कि बेघर लोगों को सिर्फ पकड़ा जाए और जो बिल्कुल निराश्रित हो, उसे हिरासत-केंद्र में भेजा जाए, लेकिन निर्मूलता और दस्तावेजों के अभाव में स्थानीय प्रशासन के लिए यह आसान नहीं है कि वह अपनी न्यूनतम जिम्मेदारी से ही पल्ला झाड़ ले। केंद्र सरकार ने भी भीख को गैर-आपराधिक बनाने के मद्देनजर एक बिल का मसविदा तैयार किया था, लेकिन सरकार स्वैच्छिक और गैर-स्वैच्छिक भीख के अंतर में ही उलझ कर रह गई।

ताज़ा कानूनी स्थिति क्या है, न्यायिक पीठ ने भी उसका उल्लेख नहीं किया। कुछ साल पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी रेखांकित किया था कि कोई भी व्यक्ति भीख मांगना पसंद नहीं करता या अन्य रोज़गार से भागना नहीं चाहता। दरअसल भीख मांगने में बहुत प्रयास करने पड़ते हैं, गिड़गिड़ाना पड़ता है, गुहार करनी पड़ती है, तब कुछ पैसा भीख में मिल पाता है। यह समस्या गरीबी, भूमिहीनता, भेदभावपूर्ण नीति, अयोग्यता और शिक्षा-रोज़गार के अभाव की कई व्याख्याएं करती है। यह समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। अभी तो कई ऐसे तथ्य हैं, जो भिखारियों के अपराधी और कामचोर होने की तरफ भी संकेत करते हैं। अदालत के संज्ञान में उन्हें नहीं लाया गया। वे रोजमर्रा के जीवन के अनुभव हैं। आमतौर पर महिलाएं शिशु को गोद में लेकर भीख मांगती हैं, लेकिन उन्हें काम की पेशकश देने पर वे गालियां देने लगती हैं। पुरुषों के संदर्भ में यह देखने को मिला है कि अच्छी कद-काठी के पुरुष भी भीख मांगते हैं। कई स्थानों पर ऐसे भिखारी समूह बनाकर अपराध भी करते हैं। हत्याओं के मामले भी सामने आए हैं। बेशक भीख सामाजिक-आर्थिक समस्या है, लेकिन अदालत को आपराधिक हरकतों पर भी टिप्पणी करनी चाहिए अथवा सरकारों को निर्देश देने चाहिए।

3.न्याय पर हमला

झारखंड में न्यायपालिका की सुरक्षा पर सवाल खडे़ करने वाली जो घटना हुई है, उसने पूरे न्याय जगत को झकझोर कर रख दिया है। पूरी न्याय बिरादरी न केवल दुखी, बल्कि नाराज भी है। धनबाद के जिला एवं सत्र न्यायाधीश उत्तम आनंद को सुबह की सैर के समय सड़क किनारे जिस तरह से टक्कर मारी गई है, उसे बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत है। अगर किसी अपराधी को जमानत न देने या किसी अपराधी को सजा सुनाने की वजह से जज को निशाना बनाया गया है, तो यह पूरी कानून-व्यवस्था के लिए चुनौती है। कानून के शासन पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है। आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है, लेकिन ऑटो का संतुलन बिगड़ने की दलील प्रथम दृष्टया सही मानी नहीं जा सकती। एक खाली सड़क पर पीछे से ऑटो अपनी लेन बदलते हुए सड़क के एकदम किनारे आता है और एक जज या व्यक्ति को टक्कर मारकर गिराने के बाद रुकता भी नहीं। यदि संतुलन बिगड़ने से यह दुर्घटना हुई होती, तो ऑटो वाले को टक्कर मारने के बाद रुकना चाहिए था, लेकिन वह टक्कर मारने के बाद आराम से चलता बना। वह तो भला हो कि सीसीटीवी फुटेज में सच सामने आ गया, वरना पुलिस तो इस मामले को सामान्य सड़क दुर्घटना मानकर ही चल रही थी। इस मामले में सीसीटीवी फुटेज की महत्ता एक बार फिर साफ हो गई है, जिसकी मदद से जज को न्याय मिलने की पूरी गुंजाइश है।    
पुलिस को जल्द से जल्द पता लगाना चाहिए कि जज की मौत महज एक दुर्घटना है या फिर सोची-समझी साजिश के तहत उनकी हत्या की गई है। जज की मौत को राज्य सरकार ने अगर गंभीरता से लिया है, तो सच्चाई जल्द ही सामने आनी चाहिए। यह पुलिस के लिए भी नाक का मामला होना चाहिए, क्योंकि इस मामले में न्याय बिरादरी पूरी तरह मुस्तैद है। सुप्रीम कोर्ट तक में इसकी गूंज होने वाली है, पूरे देश में वकीलों में चिंता की लहर है। अगर ऐसे अपराधी मनमानी करेंगे, तो कोई न्याय की राह पर कैसे चलेगा? क्या अपराधियों के हिसाब से ही न्याय करने की नौबत आ जाएगी? यह सवाल फिर ताजा हो गया है कि क्या देश में अपराधीकरण में इजाफा हो रहा है? पूरा न्याय हो, यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी स्वयं न्यायपालिका के साथ ही कार्यपालिका और विधायिका की भी है। लोकतंत्र के स्तंभों को मिलकर न्याय सुनिश्चित करना चाहिए। अपराधियों का दुस्साहस अगर इतना बढ़ गया है, तो माकूल कार्रवाई से उन्हें जवाब मिलना चाहिए। यह समग्रता में भी हमारी व्यवस्था के लिए सोचने का मौका है कि क्या हम अपराधियों के प्रति जरूरत से ज्यादा नरमी नहीं दिखाते हैं? आरोपी ऑटो चालक पहले भी जेल जा चुके हैं, मतलब, जेल जाने के बाद भी अपराधी बाज नहीं आ रहे। ऐसे में, जमानत पर छूटे तमाम अपराधियों के प्रति संवेदना खत्म हो जाती है। अपराधियों को कतई समाज में खुला नहीं छोड़ना चाहिए। कानून की उदारता का फायदा आम आदमी को मिलना चाहिए, लेकिन अपराधी ही उदारता का फायदा उठाते हैं। उन्हें शायद कानून या न्याय बिरादरी की उदारता से ही उम्मीद होगी कि वे अपराध करके या एक जज को निशाना बनाकर भी बच जाएंगे। अब हमारे तंत्र की सार्थकता इसी में है कि वह अपराध या अपराधियों की बुनियाद को जड़ से उखाड़ फेंके।

4.भीख की सीख

उत्थान को मानवीय नजरिया जरूरी

कोरोना संकट में बेघर लोगों और भिखारियों के टीकाकरण की आवश्यकता पर बल देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक स्थलों से भिखारियों को हटाने के बाबत जो मानवीय दृष्टिकोण दिखाया, वह मुक्तकंठ से प्रशंसा योग्य है। कोर्ट ने उन्हें हटाने की मांग करने वालों को दो टूक जवाब दिया कि कोर्ट भिक्षावृत्ति उन्मूलन के बाबत अभिजात्य दृष्टिकोण के बजाय मानवीय नजरिये को तरजीह देगा। अदालत ने कहा कि लोग शौक से भीख नहीं मांगते बल्कि शिक्षा व रोजगार की दौड़ में पिछड़ने के चलते अपनी जमीन से उखड़कर सड़कों पर भीख मांगने को मजबूर होते हैं। इसलिये सरकारों को इसे एक आर्थिक व सामाजिक समस्या मानते हुए उनके जीवनयापन और पुनर्वास के लिये दीर्घकालीन उपाय करने चाहिए। हालांकि, वर्ष 2011 की जनगणना चार लाख भिखारियों का होना बताती है लेकिन वास्तव में यह आकंड़ा बहुत बड़ा है। इनके उत्थान के लिये सरकारी स्तर पर जो प्रयास हुए, उनका लाभ इस तबके तक नहीं पहुंचा है। ऐसे में जब कोरोना संकट में समाज का अंतिम व्यक्ति ही दारुण स्थिति से गुजर रहा है, तो भीख मांगने वालों की त्रासदी का आसानी से अंदाज लगाया जा सकता है। ऐसे में जो लोग वास्तव में मुश्किल हालातों से गुजरकर, विस्थापन, पलायन, दुर्घटनाओं और प्राकृतिक आपदाओं के चलते भीख मांगने को मजबूर होते हैं, उनके उत्थान व पुनर्वास के लिये केंद्र-राज्य सरकारों को मिलकर काम करना चाहिए। शारीरिक दृष्टि से सक्षम लोगों को व्यावसायिक कौशल से लाभान्वित किया जाए ताकि वे समाज मंे सम्मानजनक जीवन जी सकें। यह भी है कि समाज की करुणा को भुनाने के लिये माफिया बच्चों-विकलांगों तथा महिलाओं का अपहरण करके सुनियोजित तरीके से भीख मंगवाते हैं। कोशिश हो कि भीख मांगना व्यवसाय न बने। हर साल देश में चालीस हजार बच्चों का अपहरण करके उन्हें भीख मांगने और अन्य आपराधिक गतिविधियों में इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे माफियाओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई करके इनके गढ़ों का सफाया हो।

यह अच्छी बात है कि देश का न्यायिक तंत्र और विधायिका का रुख इस वर्ग के प्रति संवेदनशील व करुणामय है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने वर्ष 2018 में भीख मांगने को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। दरअसल, हमने उन कारणों को संबोधित करते हुए कदम नहीं उठाये जो इस समस्या के मूल में हैं। यदि हम भीख मांगने को अपराध के दायरे में रखते हैं तो कहीं न कहीं व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है। हालांकि, कई राज्यों ने इस फैसले को निरस्त करने के लिये शीर्ष अदालत में दस्तक भी दी है। इस समस्या के निराकरण के मकसद से भिक्षावृत्ति उन्मूलन और भिखारियों का पुनर्वास विधेयक 2018 संसद में लाया गया था, जिसे पारित करने में तेजी की जरूरत है। इससे इस वंचित समाज की पीड़ा को किसी हद तक कम किया जा सकेगा। निस्संदेह, शीर्ष अदालत में न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम.आर. शाह की पीठ ने भिखारियों को हटाने के मामले में जो संवेदनशील रवैया दिखाया है, समाज को भी उसका अनुसरण करते हुए, इनके उत्थान के लिये प्रयास करने की जरूरत है। निस्संदेह किसी समाज में भिक्षावृत्ति का बड़े पैमाने में प्रचलन होना बताता है कि वह समाज सामाजिक न्याय की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। जाहिर-सी बात है कि किसी समाज में बड़ी संख्या में लोग शिक्षा-रोजगार से वंचित होने के बाद अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये भिक्षावृत्ति का सहारा लेते हैं। कह सकते हैं कि अदालत का संवेदनशील व्यवहार हमारे समाज में चलाये जा रहे गरीबी उन्मूलन अभियान को विस्तार देने और उसे इस समस्या के नजरिये संवेदनशील बनाने की जरूरत बताता है। जो यह भी दर्शाता है कि समाज में किसी व्यक्ति को भूखों मरने के लिये नहीं छोड़ा जा सकता है। उसका जीवन बचाने के लिये सरकार और समाज को संवेदनशील व्यवहार करना होगा। जहां तक चौराहों व भीड़भाड़ वाले इलाकों पर भीख मांगने का प्रश्न है, तो इसके लिये सुरक्षित स्थान निर्धारित करने का समाधान स्थानीय प्रशासन को निकालना होगा। साथ ही समाज के धनाढ्य व सक्षम वर्ग भी सरकारों के साथ इस समस्या के समाधान को आगे आएं।

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