इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.सवालों की रेत-बजरी
हिमाचल विधानसभा की बहस फिर से डा. राजीव बिंदल और रमेश धवाला को मुखर होते देख रही है, तो ऐसी चर्चाओं के कई आयाम स्थापित होंगे और यह समझना होगा कि दोनों बार उद्योग मंत्री को जवाबदेह बनाने की मेहनत की गई। डा. राजीव बिंदल ने इन्वेस्टर मीट के तकाजे पर अपनी ही सरकार की फेहरिस्त में हकीकत ढूंढने की कोशिश की। मसला अपनी प्रगतिशील सरकार के आईने के सामने नजर उठाकर देखने का है और यह भी कि साढ़े तीन साल बाद अपने ही वादों की गठरी खोलने की जरूरत रहेगी। यह विषय रोजगार के उस सत्य का है जो पिछले दो सालों में निजी क्षेत्र को उसी की विवशताओं के दंश झेलते देख रहा है। मानसून सत्र के दूसरे अध्याय पर फिर ज्वालामुखी के विधायक रमेश धवाला का आक्रोश अंकित है। धवाला अपने सवालों की रेत-बजरी तो वर्षों से ढो रहे हैं, लेकिन इस बार वह सदन के कठघरे में सरकार से सख्ती व तल्खी से पूछ रहे हैं। वह क्रशरों के अनायास बंद होने के आर्थिक व सामाजिक पहलू खोज रहे हैं, क्योंकि उपभोक्ता के लिए कई बार ‘पर्यावरण’ के संदेश घातक हो जाते हैं।
जाहिर है हिमाचल की खनन नीति या तो माफिया चलाता रहा या इसके नाम पर पर्यावरण संरक्षण की कीलें चुभती रहीं। यह एक बड़ा प्रश्न है और हिमाचल की तरक्की को वृत्ताकार के बाहर लाकर सीधे चलने का रास्ता अख्तियार करने जैसा है। पर्यावरण के नाम पर कलगी धारण करने की हजारों वजह हों, लेकिन नागरिक सहूलियतों की चादर फटनी नहीं चाहिए। सवाल हिमाचल के विकास मॉडल से पूछे जाएंगे कि क्यों कहीं तो वन संरक्षण कानून की पपड़ी हट जाती है और क्यों उन्हीं मानदंडों की हिफाजत कोई क्षेत्र विशेष या परियोजना विशेष हार जाती है। आखिर खनन और बरसात का रिश्ता भी तो समझा जाए। पहाड़ी खड्डों की प्रवृत्ति में उफनती रेत-बजरी को हासिल करने की वैज्ञानिक परिपाटी क्यों नहीं बनी। क्यों पहाड़ खोद कर रेत किए जाएं या क्यों नहीं खड्डों व नदी-नालों की गहराई सुनिश्चित करके इनसे बाढ़ से मुक्ति और पूरी प्रक्रिया के तहत रेत-बजरी हासिल की जाए। बेशक क्रशर तथा जेसीबी जैसी मशीनें एक संदर्भ में कातिल ठहराई जा सकती हैं, लेकिन इनके सामने जीने के विकल्प भी तो तैयार करने पड़ेंगे।
धवाला और बिंदल के सवाल अपने भीतर जीने की जिरह अपने लिए भी देख रहे हैं। दोनों का अतीत, पृष्ठभूमि और प्रदर्शन की बुनियाद पर भाजपा की सत्ताओं की दृष्टि को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। धवाला का अतीत, धूमल सरकार का शिल्पकार रहा है, तो बिंदल की पृष्ठभूमि में एक ऐसा प्रभावशाली व्यक्तित्व है जो तत्कालीन भाजपा सरकार की निर्णायक मशीनरी रहा। यह भी एक असमंजस है कि ये दोनों नेता खुद को जब असहाय पाते हैं, तो इनके राजनीतिक समीकरण बोलते हैं। सोलन से नाहन पहुंचे बिंदल से जनापेक्षाओं का एक महासागर केवल सिरमौर की राजनीति को नहीं छू रहा, बल्कि इस चरित्र की बेडि़यां वर्तमान सरकार से भी पूछ रही हैं। धवाला अपनी छवि के उन्मुक्त राही रहे हैं और यह सर्वविदित है। उनके द्वारा उठाए गए मुद्दे भले ही ठेठ देहाती, लेकिन उनके कथन का देशीपन जनता के दिल के करीब रहता है। बहरहाल प्रश्न पूछते इन दो नेताओं ने अपनी सरकार की काबिलीयत को परीक्षा में तो बैठा ही दिया। धवाला द्वारा यह कहा जाना कि प्रदेश में अफसरशाही हावी हो रही है, यह एक सच्ची जुबान का कड़वापन हो सकता है या जनता के एहसास का नजदीकीपन। यह प्रश्न कतई गौण नहीं हो सकता, बल्कि ऐसे मसलों की पड़ताल गैर राजनीतिक संवेदना को भी प्रबल कर सकती है। विधानसभा में कोविड काल के प्रश्नों का उठना स्वाभाविक है और इसलिए ढहते रोजगार, राज्य के बढ़ते उधार और लगातार घाटे के उद्गार को जो सदन में उठाएगा, वह सत्ता का विरोधी नहीं, बल्कि जनता का समर्थक माना जाएगा।
2.बेशकीमती हॉकी पदक
इस लम्हे का इंतज़ार था। हम कल्पना भी कर रहे थे कि हॉकी के हमारे जांबाज अब जीत के लम्हे को नहीं छोड़ेंगे। अंततः आंखों में वह इंतज़ार और कल्पनाएं साकार हो उठीं। सवाल स्वर्ण या कांस्य पदक का नहीं है। हमारी हॉकी की गरिमा, मेहनत और खेल की शैली दांव पर थी। नौ ओलंपिक के बाद हॉकी में यह पदक हासिल हुआ है। यह कांस्य पदक ओलंपिक में ही जीते कुल 8 स्वर्ण पदकों से अधिक बेशकीमती और महान है। दुर्लभ उपलब्धि है। जो टीम ओलंपिक में प्रवेश के लिए तरसी थी, लांछित हुई थी, असंख्य सवाल भी उठाए गए थे, वह आज टोक्यो ओलंपिक, 2020 में हॉकी की तीसरी विजेता टीम है। आज विश्व हॉकी की तीसरी बड़ी ताकत बन गई है। वह रियो ओलंपिक चैंपियन टीम अर्जेंटीना समेत जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन, न्यूज़ीलैंड और जापान सरीखी टीमों को भी पराजित करना सीख गई है। यह साबित भी कर दिया है। भारत ने जर्मनी की टीम को 5-4 गोल के रोमांचक और कांटेदार मुकाबले में शिकस्त देकर ओलंपिक का कांस्य पदक जीता है। भारत के लिए जर्मनी असंभव-सी टीम रही है। हम 3-1 से पिछड़ भी रहे थे, लेकिन भारतीय जांबाजों ने लगातार 4 गोल ठोंक कर खेल का रुख ही पलट दिया।
यह कोई तुक्का नहीं था। जर्मनी को 11 पेनल्टी कॉर्नर मिले थे। सोचिए, यदि दीवारनुमा श्रीजेश गोल-दर-गोल न बचाते, तो हम कितने गोल से हार जाते! यही नई हॉकी की नई और तकनीकी करवट है। नई उड़ान है। यकीनन वे अद्भुत, अभूतपूर्व और अतुलनीय लम्हे थे। बेहद शानदार और ऐतिहासिक जीत…! खिलाडि़यों के गांव-गांव में चारों ओर ‘तिरंगा’ झूम उठा था। ढोल-नगाड़ों की थाप पर पांव थिरक उठे थे। लड्डू और हलवा खिला कर उस अप्रतिम उपलब्धि और लम्हों को साझा किया जा रहा था। टोक्यो ओलंपिक के मैदान में विजयी जांबाज भी भावुक हो उठे। आंखें डबडबा आईं। उन्होंने एक-दूसरे को आलिंगनबद्ध किया और ‘भारत माता की जय’ का उद्घोष गूंजने लगा। भारतीय हॉकी की यह विरली जीत है, जो 1980 के बाद झोली में नसीब हुई है। यह पदक सिर्फ हॉकी के लिए ही नहीं है, बल्कि भारतीय खेल के लिए भी बेहद ज़रूरी था। इन लंबे 41 सालों में हमारी टीम ने कई सूखे झेले हैं। उपेक्षाएं देखी हैं। एस्ट्रो टर्फ बिछाने में सरकारों की आनाकानी और कोताहियां भी झेली हैं। हमारे लगभग तमाम खिलाड़ी गांव, गरीब और निम्न मध्य वर्ग की पृष्ठभूमि के हैं। कइयों ने बिना जूते, बिना हॉकी स्टिक और घसियाले मैदानों पर हॉकी खेलना शुरू किया था। खिलाडि़यों ने लंबे संघर्षों के बाद यह मुकाम हासिल किया है। सामने यूरोप की साधन-संपन्न और आक्रामक गति, शैली वाली टीमें मौजूद रही हैं। हमने उन्हें पराजित कर आज की उपलब्धि हासिल की है, लिहाजा यह जीत बहुत बड़ी जीत है।
प्रधानमंत्री मोदी ने तो यहां तक ट्वीट किया है कि देश यह दिन हमेशा याद रखेगा। उन्होंने सुबह-सवेरे मैच देखने के लिए आज अपना योग व्यायाम भी छोड़ दिया। प्रधानमंत्री ने एक और ट्वीट किया-प्रफुल्लित भारत! प्रेरित भारत !! गर्वित भारत!!! इस मौके पर ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बधाई भी गौरतलब है, जिनकी सरकार हॉकी इंडिया की 2023 तक प्रायोजक है। यानी आर्थिक संसाधन मुहैया करा रही है। विराट स्टेडियम बनवा रही है। अंतरराष्ट्रीय हॉकी आयोजन भी करवा रही है। ऐसे प्रायोजन भारत सरकार क्यों नहीं कर सकती? बजट में प्रावधान क्यों नहीं किए जा सकते? खेल के विकास का बजट ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ जैसा क्यों है? ओडिशा तो गरीब राज्यों की जमात में शामिल रहा है। आज इतिहास के नवलेखन के लम्हों में हॉकी की चर्चा सिर्फ तालियां बजाने, नाचने-झूमने और बधाई-संदेश देने तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए। भारत में एस्ट्रो टर्फ सिर्फ 45-50 ही होंगे, जबकि विदेशों में यह संख्या 1700-1800 के करीब है। वे भारत से छोटे देश हैं। सवाल खेल के प्रति प्रतिबद्धता का है। हम बचपन से पढ़ते आ रहे थे कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है, लेकिन अब आरटीआई के जरिए सरकार का जवाब सार्वजनिक हुआ है कि कोई भी राष्ट्रीय खेल नहीं है। बेहतर होगा कि भारत सरकार ही इस पर सफाई दे। शुक्रवार 5 अगस्त को हॉकी की ‘शेरनियां’ भी पदक के लिए जूझेंगी। अब इस जीत के बाद हमें लगता है कि हमारी छोरियां भी अप्रत्याशित परिणाम देंगी।
3.41 साल बाद
भारत के लिए अविस्मरणीय पल है। गुरुवार को जहां हॉकी खिलाड़ियों की कम से कम पांच पीढ़ियों के बाद भारत को ओलंपिक में कोई पदक हासिल हुआ है, तो वहीं भारतीय पहलवान रवि दहिया को कुश्ती में मिला रजत पदक सोने पर सुहागे की तरह है। सबसे खास बात यह है कि जर्मनी के खिलाफ 3-1 से पिछड़ने के बाद भारतीय टीम 5-4 से यह मुकाबला जीती है। उन सात मिनटों को हमेशा याद किया जाएगा, जब भारत ने चार गोल करके मैच को अपने कब्जे में कर लिया। देश जीत का जश्न मना रहा है और कप्तान मनप्रीत सिंह के साथ ही पूरी हॉकी टीम पर सौगातों की बारिश शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री न केवल मैच देख रहे थे, बल्कि उन्होंने मैच जीतने के बाद फोन करके पूरी हॉकी टीम को बधाई दी है। 41 साल और आठ प्रधानमंत्रियों के छोटे-बड़े कार्यकाल के बाद मिली स्वर्णिम जीत के महत्व को प्रधानमंत्री के शब्दों से भी समझा जा सकता है। उन्होंने कहा है, ‘टोक्यो में हॉकी टीम की शानदार जीत पूरे देश के लिए गर्व का क्षण है। यह नया भारत है, आत्मविश्वास से भरा भारत है।’ वाकई इस जीत से देश में खेल जगत में आत्मविश्वास बढ़ेगा। युवाओं में देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावना का संचार होगा। 1980 के मास्को ओलंपिक में स्वर्ण जीतने के बाद भारतीय टीम कभी ओलंपिक में पांचवें स्थान से ऊपर नहीं जा पाई थी। सातवें, आठवें और 12वें स्थान से भी उसे संतोष करना पड़ता था। टोक्यो ओलंपिक में कांस्य जीतने के बाद भारतीय गोलकीपर पी आर श्रीजेश का गोलपोस्ट पर चढ़ बैठना वह जरूरी जयघोष है, जिसकी भारत को जरूरत है। साल 2012 के लंदन ओलंपिक में भारतीय टीम पांच में से एक भी मुकाबला नहीं जीत पाई थी, तब श्रीजेश और मनप्रीत जैसे खिलाड़ियों को हर जगह सिर झुकाए रहना पड़ता था और लोग भारतीय खिलाड़ियों पर हंसते थे, उन तमाम हंसने वालों को गुरुवार को जवाब मिल गया, श्रीजेश ने बिल्कुल सही कहा कि मुझे मुस्कराने दीजिए।
भारतीय हॉकी एक लंबे संघर्ष से निकलकर आई है। इस टीम से दो-तीन साल पहले किसी को कोई उम्मीद नहीं थी, तभी तो कोई प्रायोजक साथ आने को तैयार नहीं था। ओडिशा सरकार और मुख्यमंत्री नवीन पटनायक बधाई के वास्तविक पात्र हैं कि साल 2018 में उन्होंने भारतीय हॉकी का हाथ थामा। नतीजा आज सामने है, यहां से भारतीय हॉकी में नए युग का आगाज हो सकता है। आज अगर नवीन पटनायक को हॉकी में मिली जीत का नायक बताया जा रहा है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। दूसरी राज्य सरकारों को भी इससे प्रेरणा लेनी चाहिए। खेलों को केवल निजी क्षेत्र या निजी प्रायोजकों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। जिन खेलों में पदक जीतने की ज्यादा संभावना है, या भरपूर प्रतिभाएं हैं, उन खेलों में राज्य सरकारों को भी प्रायोजक बनने के लिए आगे आना चाहिए। खेलों के लिए उतना नहीं किया जा रहा है, जितना दूसरे देश कर रहे हैं। हमें भूलना नहीं चाहिए कि हम स्वर्ण की दौड़ में उस बेल्जियम से हार गए थे, जिसकी आबादी डेढ़ करोड़ भी नहीं है। छोटे-छोटे देशों ने खेलों पर किस तरह से तन-मन-धन का निवेश किया है, भारत के लिए इसे देखने-परखने का माकूल मौसम है। भारतीय हॉकी में आई नई चमक बेकार नहीं जानी चाहिए। बेशक, आज कांस्य पदक हाथ लगा है, कल स्वर्ण बरसेगा।
4.कसौटी पर सच
शीर्ष अदालत में पेगासस मामला
संसद से सड़क तक हंगामे की वजह बनने वाला पेगासस मामला देश की शीर्ष अदालत तक जा पहुंचा है। इस बाबत दायर कई याचिकाओं पर दलीलें सुनने के बाद मुख्य न्यायाधीश का कहना था कि यदि रिपोर्ट वाकई सही है तो मामला गंभीर बनता है। याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने इस बाबत केंद्र को नोटिस देने की भी मांग की। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट मंगलवार को भी सुनवाई करेगा। दरअसल, राजनेताओं, एक्टिविस्ट, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया व कई वरिष्ठ पत्रकारों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। याचिकाओं में पेगासस मामले में कोर्ट की निगरानी में एसआईटी जांच की भी मांग की गई। इस मामले में मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण व न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ सुनवाई कर रही है। कोर्ट ने सभी याचिकाकर्ताओं से कहा कि वे अपनी याचिका की प्रति केंद्र सरकार को दें। याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि इस मामले में संपूर्ण व व्यक्तिगत गोपनीयता के रूप में नागरिकों की निजता के बाबत विचार किया जाये। साथ ही अदालत से स्वतंत्र जांच की भी मांग की गई। कहा गया है कि सरकार जवाब दे कि स्पाइवेयर को किसने खरीदा। कोर्ट ने भी माना कि यदि फोन इंटरसेप्ट हुए हैं तो मामला गंभीर है। ऐसी शिकायतें टेलीग्राफ अधिनियम के अंतर्गत आती हैं। याचिकाकर्ताओं के वकील कपिल सिब्बल का कहना था कि पेगासस का स्पाइवेयर केवल सरकारी एजेंसियों को बेचा जाता है। इसके जरिये नागरिकों के जीवन में बिना जानकारी का प्रवेश लोकतंत्र में निजता, गरिमा व मूल्यों का अतिक्रमण है। हाल ही में एक अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संघ ने दावा किया था कि देश में कई भारतीय मोबाइल पेगासस स्पाइवेयर के जरिये जासूसी के संभावित निशाने वाली सूची में शामिल थे। दलील दी गई कि यह सैन्य स्पाइवेयर नागरिकों की निगरानी के लिये इस्तेमाल करना अनुचित है जो नागरिकों की अभिव्यक्ति व निजी स्वतंत्रता के अधिकारों का भी अतिक्रमण है। बहरहाल, इन्हीं आरोपों के बीच संसद का मानसू्न सत्र हंगामे की भेंट चढ़ चुका है।
दरअसल, इस्राइली कंपनी एनएसओ समूह के पेगासस स्पाइवेयर से संबंधित विवाद कुछ वर्ष पूर्व भी प्रकाश में आया था। सरकार ने तब भी किसी तरह की अवैध निगरानी की बात से इनकार किया था। सरकार इन आरोपों को खारिज करते हुए दलील दे रही है कि सूचना और प्रौद्यगिकी कानून की सख्त व्यवस्था के चलते देश में ऐसा करना संभव नहीं है। लेकिन विपक्ष इस बाबत विश्वसनीय जवाब की मांग लंबे समय से कर रहा है। इस बाबत पर्याप्त जांच न होने तक संसद से सड़क तक हंगामे व सरकार की विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाने का खेल यूं ही चलता रहेगा। निस्संदेह, इसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। बिखरा विपक्ष इसे मोदी सरकार की घेराबंदी का सुनहरा अवसर मानकर चल रहा है। कुछ विपक्षी दलों की कोशिश है कि इस बहाने भाजपा के खिलाफ विकल्प तैयार करने के लिये विपक्ष को एकजुट कर लिया जाये। इसकी कोशिशें कोलकाता से दिल्ली तक बराबर जारी हैं। वैसे इससे जुड़े विवाद दुनिया के तमाम देशों में उठे हैं और फ्रांस समेत कई देशों में मामले की जांच भी करायी जा रही है। यहां तक कि दुनिया में खुद को सबसे मजबूत लोकतंत्र बताने वाले अमेरिका में भी पिछले दिनों एक अमेरिकी अदालत ने राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियों द्वारा नागरिकों की बड़ी पैमाने पर कराई गई फोन की जासूसी को संविधान के विरुद्ध बताया था। बहरहाल, लोकतंत्र में नागरिक अधिकारों के अतिक्रमण को सत्ता के स्वभाव के चलते हल्के में लेना लोकतांत्रिक मूल्यों की भी अवहेलना ही है क्योंकि सत्ता की मनमानी के खिलाफ ही दुनिया में लोकतांत्रिक व्यवस्था का उदय हुआ है। तभी नागरिक स्वतंत्रता का उपयोग कर पाते हैं। ऐसे में किसी विश्वसनीय जांच से किसी भी सरकार को पीछे नहीं हटना चाहिए। पिछले दिनों राजग गठबंधन के घटक दल जदयू के सुप्रीमो व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी कहा था कि सरकार को प्रासंगिक तथ्य और आंकड़े सामने रखकर वास्तविकता से देश को अवगत कराना चाहिए। वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस विवाद की जांच के लिये एक आयोग का गठन भी कर चुकी हैं।