इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.शिक्षा सर्कस नहीं
कोरोना काल के मसौदे जिंदा रहेंगे, जब तक लड़ाई सरीखा इम्तिहान जारी है। बरसात में महामारी के बादल फिर अपने आंकड़ों के सत्य को उस मोड़ पर ले आए कि हिमाचल मंत्रिमंडल लगातार बंदिशों के तसमे कस रहा है। कुछ विराम फिर चुने जा रहे हैं और 22 तक स्कूलों में ताले लटका कर संदेश गहरा होता जा रहा है। हैरानी यह कि सरकार की कठोरता का पैगाम हमेशा स्कूलों पर चस्पां होता है, तो सवाल यह उठता है कि क्या कोरोना की लौटती लहरों में सबसे कसूरवार लम्हे शिक्षा की व्यवस्था में छिपे हैं। हमारा मानना है कि छात्रों के साथ, मनोवैज्ञानिक तौर पर ऐसे फैसलों का प्रतिकूल असर होता है और यह भी कि शिक्षा विभाग एक सर्कस की तरह काम कर रहा है। कोरोना की लहरों को स्कूलों पर चस्पां करने की बजाय यह देखा जाए कि कौन सा समुदाय या समूह अधिक बिगड़ा है। राजनीतिक समारोहों की घोषणाएं, आमंत्रण पत्र तथा लहजा अपने आप में भयावह है। शादी समारोहों की रौनकें अपने निरंकुश अंदाज में बेपरवाह हैं, तो अंतिम संस्कार में रिश्तों की पड़ताल फिर से लंबी हो गई है। राजनीतिक ताजपोशियों का जोश अगर धाम में परोसा जाएगा, तो फिर इसे मानवीय भूल कौन कहेगा।
बहरहाल स्कूल, परिवहन व्यवस्था तथा बाजार का रुख अब चेतावनियों से भर रहा है। पर्यटकों को अनुशासित करना कठिन दायित्व का निर्वहन है और इसलिए गगरेट बैरियर पर हुई आजमाइश कई प्रश्नों को जन्म देती है। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में दो छात्र संगठनों के बीच कम से कम पढ़ाई का सिलसिला तो नहीं चला, बल्कि छात्र सियासत का यह चेहरा खुद ही मुजरिम घोषित हो जाता है। कोविड के मुजरिम हर छूट का आनंद लेते इतने उदासीन हो जाते हैं कि मास्क पहनना अब पुलिस की आंख में भी नहीं चुभता। दुकानदार खुद मास्क के बिना ग्राहक का स्वागत कर रहा हो, तो बाजार की भीड़ में कोरोना तो सवार होगा ही। हम मान सकते हैं कि सरकार के लिए बच्चों की हिफाजत सर्वोपरि है, लेकिन कोरोना की तमाम बंदिशों के बीच राजनीतिक, बाजार और सामुदायिक व्यवहार में अनुशासन की कमी पर सख्त होना पड़ेगा। बच्चों को केवल स्कूल का पहरा बचाएगा या समाज की लापरवाही से बार-बार लौट रहा कोरोना, कहीं अधिक खबरदार कर रहा है। दूसरी ओर सरकार ने कल विधानसभा में अपने फैसले को उद्धृत करते हुए यह स्पष्ट किया है कि अब किसी भी सूरत चाय के बागान नहीं बिक पाएंगे।
इससे पहले सरकार की अनुमति से चाय के बागानों का लैंड यूज बदलता रहा या इनकी बिक्री का द्वार खुलता रहा है। पालमपुर व धर्मशाला से सटे इलाकों की कई आवासीय कालोनियां इन्हीं बागीचों की जड़ें खोदकर बनी हैं और यह कार्य सियासी प्रभाव से होता रहा है। कुछ विवादित सौदे आज भी अदालतों या सरकार की फाइलों में दबे हैं, तो क्या सरकार कोई दस्तावेज लाकर सारी स्थिति स्पष्ट करेगी। लैंड सीलिंग एक्ट से छूट प्राप्त धनाड्य वर्ग ने सेब बागीचों से अपनी हैसियत बढ़ाई, तो चाय बागानों को बेच कर भी कमोबेश धनोपार्जन का जरिया बने लोग अभिजात्य माने गए। लैंड सीलिंग एक्ट ने समाज, कृषि, आर्थिकी व राजनीति को जिस तरह बदला, उससे सत्ता के बीच एक प्रभावी वर्ग पैदा हुआ। बागीचे बेचने या खरीदने वालों का ब्यौरा सामने आए तो मालूम हो जाएगा कि इस खेल में कैसे वसंत काटी जा रही थी। बहरहाल सरकार अगर यह चाहती है कि चाय के बागीचे न बिकें, तो चाय उत्पादन का समर्थन वित्तीय प्रोत्साहन के साथ हो और इसका क्षेत्र बढ़ाने के लिए सार्वजनिक भूमि का अधिकतम इस्तेमाल किया जाए। निचले क्षेत्रों में चाय उत्पादन के लिए सही पाई गई भूमि के ऊपर फिलवक्त जंगलों का अधिकार है, अतः वन नीति के तहत चाय, कॉफी, हर्बल प्लांट्स व जंगली फलोत्पादन को बल मिले, तो बाजार बनेगा। दुर्भाग्यवश बढ़ती मजदूरी, घटते उत्पादन और मौसम की प्रतिकूलता के कारण चाय बागान बेचना श्रेयस्कर हो रहा था। सरकार को चाहिए कि चाय के क्षेत्र में सीधा हस्तक्षेप करके इस उद्योग का प्रभावशाली ढंग से समर्थन करे।
2.मिश्रित टीकाकरण के मायने
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने स्पष्ट रूप से कहा है कि कोरोना वायरस के दो अलग-अलग टीकों की खुराकें ज्यादा प्रभावशाली हैं। वे बूस्टर डोज़ का काम भी कर सकती हैं। यानी एक खुराक कोविशील्ड की ली जाए और दूसरी खुराक कोवैक्सीन की ली जा सकती है। दावा किया जा रहा है कि मिश्रित खुराक लेने वाले 18 लोगों पर अध्ययन किया गया है। उसके परिणाम सुखद, बेहतर और उत्साहवर्द्धक रहे हैं। मिश्रित टीके व्यक्ति के शरीर में ज्यादा इम्युनिटी पैदा करते हैं, लिहाजा संक्रमण बेअसर साबित होता है। ये एंटीबॉडी शरीर में कब तक मौजूद रहते हैं और वायरस से लड़ने में सक्षम होते हैं, इसका स्पष्ट खुलासा फिलहाल किया जाना है। आईसीएमआर के अध्ययन को ही निष्कर्ष मान लिया जाए अथवा कोरोना विशेषज्ञ समूह और अन्य टास्क फोर्स के कथनों का भी इंतज़ार किया जाए? यह बेहद संवेदनशील सवाल है, क्योंकि आम आदमी का स्वास्थ्य जुड़ा है। अभी तक भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय का भी कोई बयान सार्वजनिक नहीं हुआ है। संसद में कोई लिखित जवाब दिया गया हो, उसकी जानकारी भी सामने नहीं है।
अलबत्ता कुछ चिकित्सकों ने टीवी चैनलों पर मिश्रित टीकाकरण की पैरवी करना जरूर शुरू कर दिया है। मिश्रित खुराक के अध्ययन का डाटा बेहद सीमित है, लिहाजा कई महामारी और संक्रमण विशेषज्ञों के अभिमत सामने आए हैं कि अभी विस्तृत और गहन विश्लेषण और शोध की ज़रूरत है। मिश्रित टीकों की खुराक को रणनीतिक तौर पर भी पेश करना तार्किक नहीं है। विशेषज्ञों का एक वर्ग सावधान कर रहा है, जबकि दो अलग-अलग टीकों की दो खुराकें लेने की स्थापना के पैरोकार मान रहे हैं कि इस तरह का टीकाकरण वायरस के अन्य रूपों के खिलाफ भी असरकारक साबित होगा। एक ही किस्म के दो टीकों की खुराक इतनी इम्युनिटी पैदा नहीं कर सकती, जितनी मिश्रित खुराकों से संभव होगी। अमरीका, ब्रिटेन, यूरोपीय देश और संयुक्त अरब अमीरात आदि देशों ने अपने कोरोना रोधी टीकों की मिश्रित खुराकों पर प्रयोग किए हैं। उनके निष्कर्ष भी बेहतर बताए जा रहे हैं, लेकिन भारत में यह मिश्रण कोवैक्सीन और कोविशील्ड टीकों का ही किया जा सकता है। दोनों अलग-अलग प्रक्रिया और प्रविधि से बनाए गए टीके हैं। उन पर अंतरराष्ट्रीय जर्नल्स में कोई भी डाटा और शोध नहीं छपे हैं। तो भारत में मिश्रित टीकाकरण को किन आधारों पर स्वीकार कर लिया जाए? यह सवाल सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि जब भारत सरकार के प्रख्यात संस्थान आईसीएमआर के दावेनुमा निष्कर्ष ऐसे हैं, तो उसे देश के भीतर ही लागू क्यों नहीं किया गया है? भारत में कोविशील्ड और कोवैक्सीन टीकों का घरेलू उत्पादन सीमित है। स्पूतनिक-वी की 25 करोड़ खुराकें अभी तक आयात नहीं हो सकी हैं।
भारत में उसकी पार्टनर डॉ. रेड्डी लैब संघर्ष कर रही है कि स्पूतनिक का आयात-आर्डर पूरा किया जा सके। इसके अलावा, अमरीका की मॉडर्ना कंपनी के टीके को जून में ही आपात मंज़ूरी दे दी गई थी। अब जॉनसन एंड जॉनसन के सिंगल खुराक टीके को भी भारत सरकार की मंज़ूरी मिल गई है। सवाल है कि हमें ये टीके कब उपलब्ध हो सकेंगे? फाइज़र के साथ सरकार की क्या बातचीत हुई या अंततः वह ठप्प हो गई, हमें कोई जानकारी नहीं है, लेकिन आज तक उसका कोरोना रोधी टीका हमें उपलब्ध नहीं है। यदि टीकों की यही स्थिति रहती है, तो तय है कि 31 दिसंबर तक का टीकाकरण का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकेगा। अभी 11 अगस्त तक हमने करीब 52 करोड़ खुराकें लोगों में दी हैं। बेशक यह आंकड़ा भी कम नहीं है, लेकिन हमारी आबादी करीब 139 करोड़ है। यदि हर्ड इम्युनिटी के मद्देनजर भी 100 करोड़ आबादी में टीकाकरण करना है, तो हमें कमोबेश 200 करोड़ खुराकों की ज़रूरत है। उस आंकड़े से हम अभी बहुत दूर हैं। पूर्ण टीकाकरण तो 10 फीसदी आबादी में भी नहीं किया जा सका है। टीकाकरण की प्रक्रिया अब भी आधी-अधूरी है। लोग कतारों में कई-कई दिन तक प्रतीक्षा करते हैं और टीका नहीं लग पाता। तो भारत कोरोना की संभावित तीसरी लहर से पहले संक्रमण-मुक्त कैसे हो सकेगा? मिश्रित टीकाकरण के जरिए सरकार कहीं आसान रास्ता तो तलाश नहीं कर रही है?
3.हंगामे से हासिल
संसद सत्र का तय समय से पहले स्थगित हो जाना न केवल अफसोस, बल्कि चिंता की भी बात है। लोकसभा की बैठक बुधवार को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी गई, तो इसके लिए संसद में पैदा गतिरोध को ही जिम्मेदार ठहराया जाएगा। पेगासस जासूसी मामला, तीन केंद्रीय कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग सहित अन्य कुछ मुद्दों पर विपक्षी दलों के हंगामे और सत्ता पक्ष के हठ के कारण पूरे सत्र में सदन का कामकाज प्रभावित हुआ है और सिर्फ 22 प्रतिशत काम ही हो सका। आम लोगों के मन में यह सवाल वाजिब ही उठेगा कि क्या हमने सांसदों को केवल 22 प्रतिशत काम के लिए भेजा है? दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद का यह व्यवहार क्या प्रशंसनीय है? भारतीय लोकतंत्र की तारीफ करने वाले बहुत लोग मिलेंगे, पर क्या ऐसी ही तारीफ भारतीय संसद की भी हो सकती है? लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने बुधवार सुबह सदन की कार्यवाही शुरू होने पर बताया कि 17वीं लोकसभा की छठी बैठक 19 जुलाई, 2021 को शुरू हुई थी और इस दौरान हुई 17 बैठकों में 21 घंटे 14 मिनट ही कामकाज हुआ। उन्होंने माना कि सदन में कामकाज अपेक्षा मुताबिक नहीं रहा, तो उपाय क्या है, कौन करेगा?
राज्यसभा में भी कमाबेश ऐसी ही स्थिति रही। यह उच्च सदन है और इससे ज्यादा गंभीरता की उम्मीद की जाती है, लेकिन जब ऐसे सदन के सभापति कार्यवाही का अपमान देखकर भावुक हो जाएं, तो फिर निराशा जताने के अलावा क्या रह जाता है? कृषि कानूनों और पेगासस जासूसी विवाद इत्यादि पर राज्यसभा की कार्यवाही भी लगातार बाधित होती रही है। यह कैसे भुलाया जाए कि कृषि कानूनों का विरोध करते हुए कुछ सांसद सदन की मेज पर बैठ गए और कुछ सदस्य मेज पर चढ़ गए? इस पर सभापति ने कहा कि राज्यसभा की सारी पवित्रता खत्म हो गई। उन्होंने कहा कि सदन में हंगामा करने वाले विपक्षी सांसदों को कार्रवाई का सामना करना होगा, लेकिन अब यह कैसे और कब होगा? सदन में विरोध जताना सही है, लेकिन मेज पर चढ़ जाना, मेज पर चढ़कर आसन की ओर रूल बुक फेंक देना कहां की परंपरा है? तो क्या अब समय आ गया है कि हम संसद के कामकाज को लेकर भावुक हो जाएं और आंसू बहाएं? अगर हम ऐसा करेंगे, तो दुनिया को क्या संदेश देंगे?
यह सोचना बहुत जरूरी है कि जब हम सदन में अच्छा माहौल नहीं बना सकते, तो देश में कैसे गरिमा बनाए रखेंगे? क्या भारतीय लोकतंत्र में व्यवहार का एक स्तर नहीं होना चाहिए? हंगामा करने वाले और हंगामे से लाभ उठाने वाले हर नेता को अपने गिरेबान में झांकना होगा। लोकतंत्र में सड़़क पर और चुनावी मैदानों में तो संघर्ष शोभा देता है, लेकिन जब ऐसा ही राजनीतिक संघर्ष सदन में आ जाए, तो सदन का महत्व कम हो जाता है। अभी पिछले सत्रों में अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति बनने लगी थी, लेकिन इस मानसून सत्र ने बेहद निराश किया है। बेशक, कोरोना पर एक व्यापक बहस होनी चाहिए थी, देश की तमाम उन कमियों पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए थी, जिन्होंने कोरोना की दूसरी लहर के समय देश को रुला दिया, लेकिन हम चूक गए। अब देश के लोग यही उम्मीद करेंगे कि अगली बार जब सांसद बैठें, तो दिल से महसूस करें कि देश को कहां-कहां दर्द है।
4.दागी नहीं मंजूर
कोर्ट की पहल पर चुनाव आयोग हो सख्त
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को दिये एक आदेश में देश के लोकतंत्र की शुचिता के लिये बड़ा व सख्त कदम उठाया है। अब जागरूक जनता व चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि पाक-साफ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये सजग-सतर्क रहकर कदम उठाये। कोर्ट ने मंगलवार को पिछले बिहार चुनाव के दौरान दागी उम्मीदवारों के बाबत अपने पिछले निर्देशानुसार जानकारी समय रहते सार्वजनिक न करने पर राजनीतिक दलों पर नकद जुर्माना लगाया। चुनावों के दौरान उम्मीदवारों का आपराधिक इतिहास सार्वजनिक करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन न करने पर भाजपा व कांग्रेस पर एक-एक लाख रुपये तथा एनसीपी व सीपीएम पर पांच-पांच लाख का जुर्माना लगाया गया। न्यायमूर्ति फली नरीमन और न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने विभिन्न दलों पर आदेश न मानने पर दर्ज अवमानना की याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान यह फैसला सुनाया। इस बाबत फरवरी, 2020 में कोर्ट ने दलों को यह बताने का निर्देश दिया था कि दागियों को चुनाव में खड़ा करना क्यों जरूरी है। साथ ही दागियों पर दर्ज मुकदमों का विवरण पार्टी वेबसाइट पर डालना जरूरी था। इस कदम को मतदाताओं के जानने के अधिकार को प्रभावी व सार्थक बनाने के लिए जरूरी बताया गया था। अब अदालत ने जरूरी कर दिया है कि दलों की वेबसाइट के होमपेज पर ‘आपराधिक इतिहास वाले उम्मीदवार’ कैप्शन डाला जाये। अदालत ने चुनाव आयोग से कहा है कि वह मतदाता जागरूकता अभियान चलाये। इसके लिये एक मोबाइल एप बनाने को कहा ताकि मतदाता दागी उम्मीदवारों का अतीत अपने मोबाइल पर आसानी से जान सकें। साथ ही एक सेल बनाने को भी कहा जो अदालत के फैसले के कि्रयान्वयन की निगरानी करेगा। सेल के जरिये उल्लंघन की जानकारी कोर्ट को देने को कहा गया है ताकि अवमानना की कार्रवाई हो सके। शीर्ष अदालत ने मतदाता जागरूकता के लिये सोशल मीडिया, वेबसाइटों, टीवी विज्ञापनों, प्राइम टाइम डिबेट, पैम्फलेट व विज्ञापन के जरिये अभियान चलाने को कहा।
इसके अतिरिक्त अदालत ने चुनाव आयोग को चार सप्ताह में एक फंड बनाने के भी निर्देश दिये, जिसमें अदालत की अवमानना पर लगने वाले जुर्माने की रकम को डाला जा सके। शीर्ष अदालत ने यह भी आदेश दिया कि दागी उम्मीदवारों के बारे में सूचना राजनीतिक दल 48 घंटों के भीतर जारी करें, न कि नामांकन दाखिल करने की तारीख से दो सप्ताह पहले। साथ ही चुनाव आयोग से कहा कि न्यायालय के निर्देश का पालन न करने का मामला संज्ञान में लायें ताकि अदालत की अवमानना के तहत कार्रवाई हो सके। निस्संदेह, कोर्ट की पहल एक सार्थक कदम है लेकिन आर्थिक दंड चुकाना साधन संपन्न राजनीतिक दलों के लिये बायें हाथ का खेल है। कोर्ट को आदेशों का उल्लंघन करने पर सख्त दंड का प्रावधान रखना चाहिए। अब नागरिकों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे कोर्ट व आयोग की पहल पर विवेकशील पहल करें। दरअसल, दागी जनप्रतिनिधि राजनीतिक दलों के लिये परेशानी नहीं अतिरिक्त योग्यता के वाहक बने हुए हैं। यही वजह है कि जहां देश में वर्ष 2004 में 24 फीसदी सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे, वहीं एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में इनकी संख्या 43 फीसदी हो गई है। दूसरी ओर शीर्ष अदालत ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि सत्तारूढ़ राजनीतिक दल अपने सांसदों व विधायकों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामले हाईकोर्ट की अनुमति के बगैर वापस नहीं ले सकते। निस्संदेह कोर्ट का यह कदम नैसर्गिक न्याय के अनुसार ही राजनीति व अपराध के अपवित्र गठबंधन को रोकने में सहायक होगा। हाल के दिनों में कई राज्य सरकारों ने अपने सांसदों व विधायकों के खिलाफ दर्ज मामले वापस लिये हैं। निस्संदेह कई मामले पिछले विपक्षी दल की सरकारों द्वारा राजनीतिक दुराग्रह के चलते दर्ज किये गये होंगे, लेकिन वास्तविकता का पता लगाना तो अदालतों का काम है। विषय की गंभीरता को देखते हुए शीर्ष अदालत ने हाईकोर्टों के रजिस्ट्रार जनरल को कहा है कि अपने क्षेत्र के ऐसे मामले वे संबंधित हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के संज्ञान में लायें। निश्चय ही न्यायिक सख्ती व जन दबावों से राजनीति की मैली धारा एक दिन साफ होगी।