इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.हिमाचल का थिंक टैंक-1
हिमाचल प्रदेश को पर्वतीय राज्यों का शिरोमणि और प्रगतिशील माना गया है, लेकिन सुनहरे शब्दों के ठीक नीचे प्रदेश के प्रति भविष्य की समझ या विजन की अस्पष्टता साफ जाहिर है। इसका एक कारण तो यह है कि राज्य में स्वतंत्र, मौलिक, गैर राजनीतिक तथा गैर सरकारी विवेचन नहीं होता या यूं कहें कि आज तक ऐसे थिंक टैंक स्थापित नहीं हुए, जो हिमाचल की संपूर्णता, संभावना और संकल्पों के सूत्रधार बन पाते हैं। राज्य के बजट से महामंडित दिशाओं में दीप जलाती हमारी आशाएं भी दरअसल सरकारी भुजाएं बनने की अजीबो-गरीब शिरकत हैं। बेशक हमने केंद्रीय योजनाओं का आवरण ओढ़ रखा है या इनके निपटारे में अव्वल अनुसरण करने का मतैक्य है, लेकिन हिमाचल को हिमाचल की आंख से कब देखेंगे। पश्चिम बंगाल जैसे राज्य ने कोविड की महामारी के दौरान अपने थिंक टैंक के बलबूते ऐसी परिकल्पना कर ली कि वहां ग्रामीण आर्थिकी को जनसहयोग के सहारे आत्मिक शक्ति मिल रही है। हिमाचल के नागरिक समाज जिसमें बहुतायत सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों या पेंशनर्ज की है, क्या कोरोना से हारते निजी क्षेत्र के लिए कोई सोच, विचार या पेशकश की।
आश्चर्य तो यह कि प्रदेश का हर मंच राजनीतिक, तालियां और शाबाशी राजनीतिक और भविष्य का ज्ञान व समाधान भी राजनीतिक। हिमाचल का प्रबुद्ध समाज भी प्रदेश की बेहतरी के बजाय, सरकार के अपव्यय में अपनी बेहतरी के अलावा कुछ नहीं सोचता। बेशक प्रदेश में मीडिया एक बड़े थिंक टैंक के रूप में उभरा है, लेकिन इस पक्ष को भी अब प्रतिक्रियात्मक दृष्टि से ही देखा जाता है। राज्य की तासीर में आलोचनात्मक टिप्पणियों को अपराध की दृष्टि से देखा जाता रहा है और यह अब प्रदेश की मानसिकता में सबसे बड़ा खोट है, जिसके कारण हिमाचल का विजन तैयार नहीं हो पाता। मंडी शहर में आजकल विजय हाई स्कूल प्रकरण को लेकर राजनीतिक व सामाजिक आक्रोश सामने आ रहा है, लेकिन इसके बरअक्स यह भी देखना होगा कि शहरी विकास में हिमाचल के पास कोई सैद्धांतिक रास्ता या विचार मंथन सामने नहीं आया है। टीसीपी कानून आए चार दशक से अधिक समय गुजर गया, लेकिन ऐसा कोई थिंक टैंक सामने नहीं आया जो हिमाचल के शहरी विकास को प्रदेश की दृष्टि से संपन्न कर पाता। ऐसे में मीडिया बहस का उद्देश्य भी सीमित हो जाता है। हालांकि प्रदेश के चिंतन मनन में कलम का योगदान पत्रकारिता से साहित्य तक रहा है, लेकिन आलोचना के प्रति समाज और सरकार के जनप्रतिनिधियों का रवैया नकारात्मकता से भरा है। नब्बे के दशक में बेशक मीडिया के संदर्भ अति प्रादेशिक हो गए और एक साथ कई समाचार पत्रों का प्रकाशन यहां से शुरू हुआ, लेकिन हिमाचल के परिप्रेक्ष्य में शब्द भी राजनीतिक अर्थों के अलावा जमीन नहीं खोज पाए।
यह दीगर है कि सोशल मीडिया के आगमन ने कुछ प्रबुद्ध लोगों के निजी विचारों की पलकें खोली हैं और सामाजिक समरूपता के फलक पर सरकार की नीतियों व कार्यक्रमों पर कुछ हटकर या आलोचनात्मक टिप्पणियां सामने आ रही हैं, लेकिन यहां आपसी द्वंद्व के खतरे हैं और यह भी कि पूरी सोच ही सत्ता के विरोध में खड़ी न हो जाए या इनके पीछे राजनीति कतारबद्ध न हो जाए। इससे क्षेत्रवाद व स्थानीयवाद के खतरे भी पनप सकते हैं। सोशल मीडिया के आगोश में थिंक टैंक की परिपक्वता इसलिए भी असंभव है, क्योंकि यह त्वरित मसलों पर ‘एक राय’ से अधिक कुछ नहीं। किसी शहर की पार्किंग समस्या या बाजार को माल रोड की तरह वाहन वर्जित करना एक अच्छा मुद्दा हो सकता है, लेकिन इसे अंजाम तक पहुंचाने के लिए नीतियों पर प्रादेशिक नेतृत्व की कमी है। किसी समय सामाजिक सोच का कटोरा केवल यह चाहता था कि गांव, कस्बे या शहर में सरकारी स्कूल-कालेजों के अलावा दफ्तर खुल जाएं या अब नगर निगम बनाने की होड़ में राजनीतिक मनोविज्ञान शिरकत कर रहा है। हिमाचल में शहरीकरण या ग्राम एवं नगर योजना के तहत क्या होना चाहिए, ऐसे विषयों पर विवेचन के लिए कोई थिंक टैंक नहीं। नागरिक सुविधाओं की लड़ाई जब तक राजनीतिक विषय बना रहेगा, प्रदेश बिना किसी मॉडल चलता रहेगा। मंडी के स्कूल को बचाना शहर की धरोहर से जुड़ा विषय है या विकास के नए कदमों को आगे बढ़ने के लिए ढांचा बदलना पड़ेगा, ये सवाल थिंक टैंक ही हल कर सकता है।
2.अमृत-काल का भारत
इस बार भारत का स्वतंत्रता दिवस, 15 अगस्त, कई मायनों में खास रहा। प्रधानमंत्री मोदी ने लालकिले की प्राचीर से देश को 8वीं बार संबोधित किया, तो उसके साथ ही आज़ादी का अमृत-काल आरंभ हो गया। देश की आज़ादी के मायने सिर्फ 15 अगस्त तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि 15 अगस्त, 2023 तक अमृत महोत्सव के समारोह जारी रहेंगे। लगातार 75 सप्ताह तक हम अपनी स्वतंत्रता को विशेष रूप से जिएंगे और आगामी 25 वर्षों, आज़ादी की शताब्दी सालगिरह तक, संकल्पों, सपनों और लक्ष्यों को साकार करने का अनथक प्रयास करेंगे, लिहाजा प्रधानमंत्री ने ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ वाले मंत्र के साथ ‘सबका प्रयास’ भी जोड़ दिया है। भारत का यही समय है, यही समय है, अनमोल भविष्य का समय है, एक कवि के शब्दों के जरिए प्रधानमंत्री मोदी का विश्वास भी बयां हुआ है।
यह विश्वास साझा संकल्पों और साझा प्रयासों पर टिका है। प्रधानमंत्री ने 88 मिनट के अपने संबोधन में उल्लेख से प्रधानमंत्री बच नहीं सकते थे, क्योंकि संक्रमण आज भी मौजूद है। उन्होंने कोरोना रोधी टीके के संदर्भ में और कोरोना के आपद्काल में सक्रिय योगदान के लिए देश के डॉक्टरों, नर्सों, पेरामेडिकल स्टाफ और सफाई कर्मियों का वंदन किया। यह बड़ी भावुक और संवेदनशील मुद्रा थी। अक्सर प्रधानमंत्री के संबोधन में कुछ नीतिगत फैसलों, उपलब्धियों और लक्ष्यों के उल्लेख किए जाते हैं, लिहाजा इस बार भी दोहराए गए। उसके लिए प्रधानमंत्री को कोसना नहीं चाहिए। यह पहले के प्रधानमंत्रियों की भी परंपरा रही है। यदि प्रधानमंत्री मोदी ने भविष्य की रूपरेखा के मद्देनजर 100 लाख करोड़ रुपए की ‘गति शक्ति नेशनल मास्टर प्लान’ की घोषणा की है, सैनिक स्कूलों में अब बेटियां भी पढ़ सकेंगी, ऊर्जा संबंधी आत्मनिर्भरता की बात कही है, शिक्षा में स्थानीय भाषा के इस्तेमाल को मान्यता देने का ऐलान किया है, दो हेक्टेयर से भी कम ज़मीन वाले 80 फीसदी से ज्यादा किसानों के प्रति सरोकार जताए हैं और देश के अस्पतालों में ऑक्सीजन प्लांट की स्थापना का आश्वासन पुख्ता किया है, तो प्रधानमंत्री की आलोचना इस आधार पर करना 15 अगस्त का अपमान है कि प्रधानमंत्री तो जुमले फेंकते रहते हैं। जब योजनाएं साकार होंगी, तब माना जाएगा।
यदि अमृत-काल में भी ऐसी नकारात्मक राजनीति जारी रहेगी, तो फिर देश के प्रगतिशील भविष्य का रोडमैप कैसे प्रस्तुत किया जाएगा? एक औसत घर भी भविष्य की योजनाएं तैयार करता है, फिर प्रधानमंत्री के सामने करीब 139 करोड़ की आबादी के देश का सवाल है। इस स्वतंत्रता दिवस तक देश के 4-5 करोड़ घरों तक ‘नल में जल’ पहुंचा दिया गया है, क्या यह बड़ा और व्यापक योजनागत मिशन नहीं है। ‘गति शक्ति’ इतनी व्यापक योजना है कि यदि उसका कुछ हिस्सा भी आने वाले वक्त में लागू हो गया, तो देश का बुनियादी ढांचा व्यापक होगा और निश्चित तौर पर रोज़गार के असंख्य अवसर पैदा होंगे। यदि प्रधानमंत्री ऐसे प्रयासों की शुरुआत करने का आह्वान करते हैं, तो हमारा मानना है कि एक दिन ऐसी योजनाएं ‘मास्टर स्ट्रोक’ साबित हो सकती हैं। यदि प्रधानमंत्री उत्पादन और निर्यात बढ़ाने का आह्वान करते हैं और लोगों से स्थानीय उत्पादों को अपनाने और प्रचार करने की अपील करते हैं, तो बाज़ार किसका व्यापक होगा? मांग किसकी बढ़ेगी? और रोज़गार किसके हिस्से आएगा? इन सवालों पर मंथन करना बेहद आसान है। देश में हजारों स्टार्टअप काम कर रहे हैं। एक दिन वे बड़ी कंपनी भी बन सकते हैं। ऊर्जा के विकास और आत्मनिर्भरता पर 12 लाख करोड़ रुपए खर्च होंगे। अमृत-काल के दौरान 75 ‘वंदे भारत’ टे्रन देश के 75 स्थानों को जोड़ेंगी। यह योजना अंतिम चरण में है। क्या यह रेलवे का विस्तार नहीं है? क्या इससे रोज़गार पैदा नहीं होगा? प्रधानमंत्री के पास जादू की कोई छड़ी नहीं है, लिहाजा उन्होंने साझा प्रयास का मंत्र भी फूंका है। यह अमृत-काल में नए भारत के निर्माण का मौका है।
3.शर्मसार न हो इंसानियत
अफगानिस्तान का फिर बर्बरता के शिकंजे में चले जाना पूरी दुनिया के लिए चिंताजनक है। कथित इस्लामी सत्ता की स्थापना के लिए तालिबान जो कर रहा है, उसकी दुनिया में शायद ही किसी कोने में प्रशंसा होगी। दुनिया स्तब्ध है और भारत जैसे देश तो कुछ ज्यादा ही आहत हैं। हम उस इतिहास में जाकर कतई भावुक न हों कि अफगानिस्तान कभी भारत वर्ष का हिस्सा था, जहां सनातन धर्म और बौद्धों का वर्चस्व था, हमें अभी अपने उस तन-मन-धन के निवेश पर गौर करना चाहिए, जो हमने विगत कम से कम बीस वर्षों में वहां किया। एक उदारवादी ताकत के रूप में न जाने कितनी विकास परियोजनाओं में भारत की वहां हिस्सेदारी रही। लगभग तीन हजार भारतीय अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में लगे थे। एक अनुमान के अनुसार, भारत ने वहां 2.3 अरब डॉलर के सहायता कार्यक्रम चला रखे हैं, अब उनका क्या होगा? भारत और भारतीयों द्वारा वहां मानवीय सहायता, शिक्षा, विकास, निर्माण और ऊर्जा क्षेत्र में किए गए निवेश का क्या होगा? आम अफगानियों के मन में भारत के प्रति अच्छे भाव हैं, लेकिन तालिबान का रुख तल्ख ही रहा है।
बहरहाल, भारतीय ही नहीं, दुनिया के अन्य देशों के लोग भी अफगानिस्तान से भाग रहे हैं और तालिबान में इतनी सभ्यता भी नहीं कि वह लोगों को रोकने के लिए कोई अपील करे। संयुक्त अरब अमीरात भी मजहबी आधार वाला देश है, लेकिन उसने कैसे दुनिया भर के अच्छे और योग्य लोगों को जुटाकर अपने यहां आदर्श समाज जुटा रखा है, लेकिन अफगानिस्तान में जो इस्लामी खलीफा शासन स्थापित होने वाला है, उसमें इतनी सभ्यता भी नहीं है कि उन लोगों को रुकने के लिए कहे, जो अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में दिन-रात एक किए हुए थे। विगत दशकों में तालिबान ने एकाधिक आतंकी हमले सीधे भारतीय दूतावास पर किए हैं और अपनी मंशा वह साफ कर चुका है। कंधार विमान अपहरण के समय तालिबान की भूमिका भारत देख चुका है। क्या दुनिया के आतंकवादियों को अफगानिस्तान में सुरक्षित ठिकाना मिल जाएगा? क्या ये पैसे लेकर सभ्य देशों को परेशान करने और निशाना बनाने का ही काम करेंगे? जो देश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तालिबान की पीठ पीछे खड़े हैं, उनकी भी मानवीय जिम्मेदारी बनती है।
अभी कुछ ही दिनों पहले भारत की कोशिश से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अफगानिस्तान के बचाव के लिए विशेष बैठक हुई थी, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला है। अभी भारत के पास परिषद की अध्यक्षता है, क्या उसे नए सिरे से पहल नहीं करनी चाहिए? तालिबान पर किसी को भरोसा नहीं है और अभी सभी का ध्यान अपने-अपने नागरिकों को बचाने पर है, लेकिन आने वाले दिनों में व्यवस्थित ढंग से सोचना होगा कि ताकत और पैसे के भूखे आतंकियों के खिलाफ क्या किया जाए? हां, यह सही है कि तालिबान में भी सभी आतंकी नहीं होंगे, कुछ अपेक्षाकृत सभ्य भी होंगे, जो अपने देश की बदनामी नहीं चाहेंगे। ऐसे लोगों को कोशिश करनी चाहिए कि अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण न रुके। अफगानी युवाओं को बंदूकों के सहारे ही जिंदगी न काटनी पडे़। महिलाओं की तौहीन न हो। अफगानिस्तान दुनिया में नफरत और हिंसा बढ़ाने की वजह न बने। कुल मिलाकर, उदारता और समझ की खिड़की खुली रहनी चाहिए, ताकि इंसानियत शर्मसार न हो।
- समृद्धि का संकल्प
जन-साझेदारी से ही कामयाबी संभव
निस्संदेह, स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री का देश को संबोधन महज रस्मी नहीं होता, इससे जहां सरकार की रीतियों-नीतियों व उपलब्धियों का पता चलता है, वहीं भविष्य की रणनीतियों का भी खुलासा होता है। स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में प्रवेश करते देश के सामने पंद्रह अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां देश के गौरवशाली अतीत का जिक्र करके राष्ट्रीय आंदोलन के नायकों व शहीदों का भावपूर्ण स्मरण किया, वहीं एक नागरिक के रूप में हमारी जवाबदेही का अहसास भी कराया। उन्होंने देश की आजादी यात्रा के अमृतकाल में प्रवेश पर उन योजनाओं का भी खाका खींचा जो देश के शताब्दी वर्ष में प्रवेश करते वक्त स्वर्णिम तस्वीर उकेर सकेंगी। उन्होंने इस दिशा में सरकार की प्रतिबद्धता को तो जाहिर किया ही, साथ ही युवा शक्ति के देश से अपने सामर्थ्य से इस राष्ट्रीय यज्ञ में आहुति देने का आह्वान भी किया, जिससे देश दुनिया में खुद को सबसे बड़े व सफल लोकतंत्र के रूप में साबित कर सके। उन्होंने युवा आबादी के रूप में देश के संसाधनों की ताकत का जिक्र करते हुए अमृतकाल के संकल्पों का पूरा होने का विश्वास भी जताया। प्रधानमंत्री ने जहां सहकारिता की अवधारणा पर बल देते हुए सरकार व समाज की सामूहिक भागीदारी का जिक्र किया, वहीं इस दिशा में प्रयासों के लिये सहकारिता मंत्रालय खोले जाने की जानकारी भी दी। प्रधानमंत्री ने उन बाधाओं को दूर करने के प्रति भी चेताया जो नये उद्यमों को शुरू करने तथा रचनात्मक प्रयासों में बाधक बनते हैं। उन्होंने कहा कि कौशल विकास की दिशा में हमने नियम-प्रक्रियाओं के सरलीकरण की तरफ कदम बढ़ाया है, लेकिन इस दिशा में बहुत कुछ करना बाकी है। उन्होंने विकास की गति को मंथर करने वाली लाल फीताशाही को खत्म करने का आह्वान किया, जिसके लिये प्रधानमंत्री ने सरकारी विभागों व कर्मचारियों को कार्यशैली के सरलीकरण पर जोर दिया, जिससे भारत में नये उद्यम लगाने व उद्योगों के विकास की राह सरल बन सके।
प्रधानमंत्री ने इस अमृतकाल की विशिष्ट यात्रा में जन-भागीदारी की वकालत की और मोदी सरकार के चिर-परिचित नारे ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ में उन्होंने ‘सबका प्रयास’ भी जोड़ा है जो स्वतंत्रता सेनाओं के अथक प्रयासों से हासिल स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने में सहायक साबित होगा। साथ ही कहा कि हर व्यक्ति अपनी भूमिका के जरिये राष्ट्र विकास में अपना सर्वोत्तम देने का प्रयास करे। प्रधानमंत्री ने समतामूलक विकास की कड़ी में अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के लिये सरकार द्वारा संसद में लाये गये विधेयक का जिक्र भी किया। वहीं बीते वर्ष सरकार द्वारा लाये गये तीन नये कृषि कानूनों के कुछ राज्यों में जारी विरोध के बीच प्रधानमंत्री ने किसानों को भी संबोधित किया। उन्होंने बताया कि देश के अस्सी फीसदी किसान दो हेक्टयेर जमीन पर जीविका उपार्जन कर रहे हैं। सरकार ने इस तबके को ध्यान में रखकर नीतियां तैयार की हैं। इनके लिये कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाया गया है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि सीधे उनके खातों में भेजी गई है। सरकार का प्रयास है कि हर ब्लॉक स्तर पर कृषि उपज भंडारण की व्यवस्था की जाये। उनके भाषण में सबसे महत्वपूर्ण विश्वस्तरीय बुनियादी ढांचा विकसित करने के लिये सौ लाख करोड़ खर्च करने का उल्लेख था। साथ ही उन्होंने पूर्वोत्तर राज्यों के प्रति सरकार की प्राथमिकता को उजागर किया और सभी पूर्वोत्तर राज्यों की राजधानियों को रेल से जोड़ने का संकल्प जताया। इसके अलावा देश को जोड़ने के लिये 75 ट्रेन आरंभ करने की भी बात कही। इससे पहले स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कोरोना योद्धाओं के प्रयासों को सराहते हुए देशवासियों को चेताया कि अभी कोरोना संकट टला नहीं है, इसलिये सुरक्षा उपायों की अनदेखी न करें। उन्होंने कृषि क्षेत्र के उल्लेखनीय विकास, टोक्यो में खिलाड़ियों के बेहतर प्रदर्शन और कोविड संकट के बाद उत्पन्न आर्थिक चुनौतियों का भी जिक्र किया। साथ ही जम्मू-कश्मीर में बदलाव को युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा करने वाला बताया।