इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.अनुराग का सियासी निवेश-1
आशीर्वाद तक पहुंचा सांसद अनुराग ठाकुर का सफर दरअसल हिमाचल में भाजपा की राजनीति को फिर से पढ़ने का नजरिया हो सकता है और यह सत्ता के साधुवाद को बांटने का विमर्श भी पैदा करता है। पांच दिन की यात्रा में माहौल, मेहरबानियां, मकसद और मंजिलें दिखाई दीं, तो प्रदेश के चौराहों में कानाफूसी भी हुई। दरअसल देश भी अब राजनीति को चौराहों पर ही तो पढ़ रहा है, जहां पहले कभी संघर्ष व आंदोलन होते थे। हिमाचल में राजनीति का अर्द्धसत्य संघर्ष में रहा है, लेकिन अब आंदोलन सत्ता की जुबान में पालतू हो गया है। ऐसे में अनुराग की यात्रा के तमाम संदर्भ हाथी-घोड़ों पर सवार रहते हुए भी यह तय नहीं कर पा रहे कि यह काफिला सत्ता का है या विचारधारा का। जाहिर है भाजपा अब सत्ता की मशीनरी है, इसलिए जिसके थैले में ज्यादा होगा, जनता उतने ही जोश से हाथ फैलाएगी। इसका सबसे बड़ा आश्चर्य पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने जिस तरह बयानों के कालीन अनुराग के लिए बिछाए, समझा जा सकता है। शांता कुमार अपनी पार्टी के मार्गदर्शक (?) हैं, लेकिन भाजपा की धारा में उनकी विचारधारा की बात का वजन दिखाई नहीं देता। वह भी भाजपा की कतारों में रेखाओं की लंबाई का अनुसरण कर रहे हैं। इस तरह हिमाचल की आशीर्वाद यात्रा के पदचिन्ह, गोपनीय जिरह की पैमाइश में किसकी रेखा लंबी कर दें, अभी तय नहीं हुआ।
देखना यह भी होगा कि अनुराग ठाकुर की यात्रा का लाभ उनके अलावा किस-किस को मिलता है। जाहिर है अनुराग की उपलब्धियों पर मोहर लगाती जनता उनके भीतर की सियासी संभावनाओं को तोल रही है, तो उत्साही भीड़ के पलक-पांवडे़ केंद्रीय मंत्री को अपनी फील्ड का मुआयना करने का अवसर देते हैं। अनुराग ठाकुर के आगमन ने भाजपा के मंतव्य में नया क्या जोड़ा या पार्टी किस तरह लाभ की स्थिति में दिखाई देगी, यह एक गूढ़ सवाल है जो भविष्य की प्रतिक्रियाओं में दिखाई देगा। फिलहाल इतना जरूर है कि हमीरपुर के सांसद के पांव शिमला, मंडी और कांगड़ा संसदीय क्षेत्रों की परिक्रमा कर गए। शिमला तथा मंडी संसदीय क्षेत्रों में हिमाचल की वर्तमान सत्ता का सीधा तिलक दिखाई देता रहा है, लेकिन कांगड़ा अपने सियासी अतीत के कारण इस बार हमीरपुर के समीप खड़ा है। अतीत के शांता, वर्तमान के पुजारी हैं तो वर्तमान के सांसद किशन कपूर इस बार अनुराग के अनुयायी प्रतीत हो रहे हैं। सांसद किशन कपूर का वजूद खुद से ही नाराज है, तो कांगड़ा की राजनीति आगामी विधानसभा चुनावों का इंतजार कर रही है। कांगड़ा आज की स्थिति में न नया खोज पा रहा है और न ही हासिल कर पा रहा है। पहले ही संसदीय विभाजन में देहरा पर धूमल परिवार की गिरफ्त और अब केंद्रीय विश्वविद्यालय के अस्तित्व की पछाड़ में अनुराग आगे दिखाई दे रहे हैं। कांगड़ा अपने लिए नेतृत्व की हर संभावना से दूर कभी मुख्यमंत्री, तो कभी अनुराग को भी इसलिए देख रहा है, क्योंकि सांसद किशन कपूर की प्राथमिकता तो अपने बेटे शाश्वत कपूर का राजनीतिक पोस्टर ही चमकाना है।
पंद्रह अगस्त व अनुराग आगमन के नाम पर कांगड़ा के सांसद ने दो तरह के होर्डिंग्स पर यही संदेश अंकित किया है कि वह अपने परिवार के लिए जनता के सामने शाश्वत कपूर का चेहरा और स्पष्टता से रखना चाहते हैं। कुछ इसी तरह हिमाचल मंत्रिमंडल के वरिष्ठ मंत्री महेंद्र सिंह के बागीचे में आशीर्वाद यात्रा के लिए फूल नहीं खिले, तो एकमात्र महिला मंत्री सरवीण चौधरी का अनुराग यात्रा के दौरान फोटोशूट का अधिकतम उपयोग भी दिखाई दिया। ऐसे में आशीर्वाद यात्रा राजनीतिक निवेश का अखाड़ा भी बनी और वर्तमान सरकार से रूठे दिलों का आसरा भी रही। यह पहला अवसर है कि पोस्टर अपने कद को होर्डिंग्स पर टांग कर भाजपा के कई चेहरों को शरण देते दिखाई दिए। जाहिर तौर पर हिमाचल सरकार इन जलसों में शरीक रही और ये पांच दिन प्रदेश की सत्ता का साथ दिखाती रही, वरना जब शांता कुमार बतौर केंद्रीय मंत्री प्रदेश में आते थे, तो उनके स्वागत में खड़ी गाडि़यों के इंजन कई बार बंद हो गए या तब कांगड़ा के तोरणद्वार भी मुंह मोड़ के खड़े रहते थे। अनुराग आगमन के तीसरे संदर्भ में हिमाचल की सरकार, सत्ता और प्रदेश को क्या कोई लाभ मिला या आइंदा मिलेगा, इसका विश्लेषण आगे करेंगे।
2.कोविड खतरे की घंटियांं
कोविड आचार संहिता की पाजेब पहनकर फिर हिमाचल के स्कूल मौन हो गए। यह स्कूलों के बंद होने की प्रक्रिया ही नहीं, बल्कि हर घर के माहौल में पनपती अनिश्चितता है। हर बार कोविड खतरे की घंटी स्कूल में ही बजती है, जबकि दूसरी ओर राजनीति के सेनापति अपनी-अपनी फौजों के साथ चिरपरिचित अंदाज में मोर्चे फतह करने निकले हैं। आश्चर्य यह कि जिन बहारों में विराम नहीं, वे कबूल हैं, लेकिन यहां जीवन को आगे बढ़ाने का रास्ता चाहिए, वहां अवरोध हैं। हिमाचल सरकार एक ओर स्कूलों को आगामी 28 अगस्त तक बंद कर रही है, ताकि कोविड की सख्ती बरकरार रहे, लेकिन दूसरी ओर सियासी मंसूबों की बारातें चारों ओर निकल रही हैं। पर्यटक आगमन तथा हिमाचल के बाहर प्रस्थान भी सख्त हिदायतों के दायरे में आ चुका है यानी जनता से जुड़े सवालों का निष्कर्ष कुछ और है और नेताओं के व्यवहार के विषय अलग हैं। इस दौरान स्वयं मुख्यमंत्री प्रदेश की तीन विधानसभा तथा एक संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव को नित संबोधित कर रहे हैं, तो बतौर केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ‘जन आशीर्वाद यात्रा’ के हर पड़ाव पर आह्लादित हैं।
स्वागत के घनघोर वातावरण में जन सैलाब की सारी उपमाएं पूरे प्रदेश की खाक छानती हैं। भीड़ जोश में है और उद्गार पूरे फेफड़े खोल रहे हैं। मीडिया के लिए राजनीतिक रैलियों में कई विश्लेषण हो सकते हैं। यह कैसा दरिया जहां एक ओर तो नेताओं की नाव चल रही है, लेकिन दूसरी ओर शिक्षा का वजूद हर बार डूब रहा है। क्या स्कूल भीड़ हैं और अध्यापक कोई नेता जो अति सुरक्षित माहौल में खलल डाल रहे हैं। राजनेताओं को खुद को दिखाना तो संभव है, लेकिन शिक्षक को पाठ समझाना असंभव है। अगर दफ्तर कोविड प्रोटोकॉल में चल सकते हैं, तो स्कूल की मिट्टी पर ही सारे खतरे क्यों रेंग रहे हंै। हिमाचल में पिछले कुछ दिनों से कोविड मामलों में हुई बढ़ोतरी तथा तीसरी लहर के अंदेशों के बीच सरकार ने कुछ कदम सही लिए हैं और जनता भी इनका समर्थन कर रही है, लेकिन यहां नागरिक व नेता के बीच विशेषाधिकारों की विभाजक रेखा चिंता पैदा करती है। स्कूलों को बंद करने मात्र से कोविड रुकेगा या राजनीतिक समारोहों के उड़ती धूल के भीतर खतरों को देख पाएंगे। प्रदेश दो तरह के टट्टुओं पर सवार है। एक वे हैं जो पर्यटकों व छात्रों को समय-समय पर खदेड़ कर कोविड आया, कोविड आया कहकर चिल्लाते हैं। दूसरे वे हैं जो अपनी पीठ पर राजनीतिक रैलियां ढो रहे हैं।
कोविड की अब तक की सूचनाओं का मर्म भी यही है कि जनता के हालात को सख्त निर्देशों की हवालात मिल सकती है, लेकिन राजनीतिक तौर तरीकों को हर्गिज मनाही नहीं। कोविड के हर चरण औैर हर लहर ने बता दिया कि सार्वजनिक व्यवहार उसी भीड़ में भ्रष्ट हुआ, जहां से नेताओं के काफिले निकले। चाहे ये स्थानीय निकायों के चुनाव रहे हों या राजनीतिक सफलताओं का प्रदर्शन, समाज में कोविड को नाचने का मौका मिला। कोविड की हर लहर में राजनीतिक लहरें गूंजी हैं और इसीलिए मौजूदा बंदिशों के बीच उपचुनावों का शोर और बतौर केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का स्वागत, अपने जश्न में कोविड के पदचिन्ह भी एकत्रित कर रहा है। जनता को भीड़ बनने की आदत है। यह घरेलू-पारिवारिक समारोहों, त्योहारों या विवाह की थालियों तक के अनियंत्रित व्यवहार की सजा है। जन समूहों में उत्साहित मानसिकता के उफान पर राजनीति को जिस अवसर की तलाश रहती है, उसके विपरीत स्कूल की सीढिय़ां चढऩे के लिए छात्र मन की जिज्ञासा प्यासी रहती है। निर्णायक सरकार के कड़े फैसले का स्वागत हम स्कूलों के बंद दरवाजों के सामने करें या किसी नेता की स्वागती भीड़ का हिस्सा बनकर भूल जाएं कि यह दौर कोविड की शिनाख्त भी करेगा।
3.जातिगत गणना की मांग
आज राजनीति की जो दिशा है, उसमें जातिगत जनगणना के पक्ष में माहौल बनना स्वाभाविक ही लगता है। इस मांग के गहरे सियासी मायने हैं, शायद इसीलिए आजाद भारत की सरकारें इस मोर्चे पर उदासीन रही हैं। हमें गौर करना चाहिए कि जातिगत जनगणना की मांग उस प्रदेश से दिल्ली पहुंची है, जो विकास के ज्यादातर पैमानों पर देश में सबसे पीछे है। बिहार के राजनीतिक दल जातिगत जनगणना के लिए एकमत नजर आ रहे हैं। सोमवार को बिहार में सक्रिय 10 राजनीतिक दलों के नेताओं के प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की है। इन नेताओं की मांग है कि केवल बिहार ही नहीं, बल्कि पूरे देश में जातिगत जनगणना होनी चाहिए। बिहार की मांग का वजन इस बात से भी बढ़ जाता है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ ही नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) से पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी, भाजपा की ओर से बिहार में मंत्री जनक राम भी शामिल थे। मतलब, भाजपा, कांग्रेस, जद-यू, वामपंथी, दलित, पिछड़े नेता जातिगत जनगणना के पक्ष में हैं।
केवल बिहार ही नहीं, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में भी जातिगत जनगणना की मांग होती रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने समझाने की कोशिश की है कि पूरे देश में लोगों को इससे फायदा होगा। क्या सभी राजनीतिक दलों ने नफा-नुकसान का अनुमान लगा लिया है? गौरतलब है, इसी महीने जनता दल-यू का प्रतिनिधिमंडल गृह मंत्री अमित शाह से भी यह मांग कर चुका है। अब यदि प्रधानमंत्री के सामने भी मांग की गई है, तो संभव है आने वाले दिनों में सकारात्मक जवाब आए। सबसे बड़ी बात, प्रधानमंत्री ने जातीय जनगणना को नकारा नहीं है। जिस हिसाब से अन्य राज्यों में भी जातिगत जनगणना की मांग बढ़ रही है, उससे यही लगता है कि केंद्र सरकार पर दबाव बढ़ता चला जाएगा। विपक्षी दल चुनावी मैदान में इसे मुद्दा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।
वैसे जातिगत जनगणना के फायदे भी हैं और नुकसान भी। क्या इसके फायदे उठाने की समझदारी हमारे राजनीतिक दलों में पर्याप्त है? क्या इससे होने वाले नुकसान को संभालने के लिए भी पार्टियां तैयार हैं? क्या जातिगत आंकड़े दुरुस्त न होने के कारण जन-कल्याणकारी योजनाओं या आरक्षण देने में कोई परेशानी आ रही है? हमारे यहां चुनाव के समय ही जातिगत आंकड़ों की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है। सबसे बड़ा खतरा यही है कि आंकड़े स्पष्ट होंगे, तो उनका इस्तेमाल भी बढ़ेगा। पिछली जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी और उन्हीं आंकड़ों के आधार पर कटु सियासत होती है। खतरे को अंग्रेज भी समझ गए थे, इसलिए साल 1941 में जातिगत जनगणना तो की गई, लेकिन आंकड़े सार्वजनिक नहीं हुए। 2011 में भी सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना की गई थी, लेकिन सरकार ने आंकड़े जारी नहीं किए। कायदे से अगर साल 2011 के आंकडे़ भी जारी हो जाएं, तो राजनीतिक दलों का मकसद शायद पूरा हो जाना चाहिए। हां, जाति व्यवस्था के अध्ययन और सामाजिक-आर्थिक विकास के योजनाकारों के लिए ये आंकड़े उपयोगी होंगे। सरकारों को ध्यान रखना होगा कि गणना के समय या गणना के बाद किसी तरह की कटुता न रहे और उपलब्ध आंकड़ों का पूरा उपयोग हम अपने समावेशी विकास के लिए कर सकें।
4.अब किशोरों की बारी
नये टीके देंगे कोरोना से लड़ाई को मजबूती
ऐसे वक्त में जब चिकित्सा विशेषज्ञ लगातार कहते रहे हैं कि कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर का खतरा बच्चों के लिये अधिक होगा, डीएनए आधारित जायडस कैडिला के तीन खुराक वाले टीके जाइकोव-डी को आपातकालीन उपयोग के लिये भारत के ड्रग कंट्रोलर जनरल की अनुमति मिलना सुखद ही है। हमारी कोरोना संक्रमण के खिलाफ लड़ाई और घरेलू दवा उद्योग के लिये भी यह बड़ी उपलब्धि है। दरअसल, यह टीका बारह साल से अधिक उम्र के बच्चों के लिये है। ऐसे वक्त में जब देश के विभिन्न राज्यों में बच्चों के स्कूल-कालेज खुल रहे हैं, किशोरों के लिये टीके का उपलब्ध होना भरोसा जगाने वाला ही कहा जायेगा। जाहिर-सी बात है कि जब बच्चे स्कूल-कालेज के लिये निकलेंगे तो उनका भीड़ के संपर्क में आना तय होगा। ऐसे में तीसरी लहर की आशंकाओं के बीच इस टीके का अक्तूबर में उपयोग के लिये उपलब्ध होना सुरक्षा का अहसास कराता है। दरअसल, देश में वयस्कों के लिये तो तीन टीके कोवैक्सीन, कोविशील्ड व स्पूतनिक थे, लेकिन किशोरों के लिये कोई टीका उपलब्ध नहीं था। निस्संदेह देश के महत्वाकांक्षी टीकाकरण अभियान को इस नये टीके के आने से गति मिलेगी। विशेष बात यह भी है कि तीन खुराक के रूप में दिया जाने वाला यह टीका सुई के जरिये नहीं लगेगा। कई बच्चों में सुई से टीका लगाने को लेकर भय रहता है जो टीकाकरण से बचने की कोशिश करते हैं। वैसे यह टीका किशोरों के साथ बड़ों को भी दिया जा सकता है। अच्छी बात यह भी है कि टीके ट्रायल परीक्षणों में तीसरे चरण के बाद टीके की 66.6 फीसदी प्रभावकारिता पायी गई है। उम्मीद है कि निकट भविष्य में दो खुराक वाला टीका भी आएगा। ऐसे वक्त में जब स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक दिन में नब्बे लाख टीके लगाने का लक्ष्य रखा है, दूसरे स्वदेशी टीके के आने से उसे निश्चित रूप से गति मिलेगी। अच्छी बात यह भी है कि टीका जिस तापमान में संगृहीत किया जाना है, वह भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल है।
दरअसल, विकासशील देशों में टीकाकरण की जो गति है, उसके मुकाबले हम बेहतर स्थिति में हैं। दुनिया में एक-चौथाई आबादी को टीकाकरण के बावजूद गरीब मुल्कों में टीकाकरण की स्थिति महज 0.6 फीसदी है। जबकि पचास फीसदी लोग अमीर देशों के हैं। निस्संदेह यह स्थिति कोरोना संक्रमण के खिलाफ हमारी वैश्विक लड़ाई को कमजोर करती है। बहरहाल, तीसरी लहर की आशंकाओं के बीच इस नये टीके के आने से भारतीय अभिभावकों की चिंता कुछ कम हुई है। हालांकि, इस बात का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है कि तीसरी लहर का ज्यादा असर बच्चों पर ही होगा, लेकिन लोगों में यह आम धारणा बन गई है। यद्यपि सीरो सर्वे बता रहा है कि संक्रमण की दूसरी लहर में बच्चे भी बड़ी संख्या में संक्रमण का शिकार बने हैं। लेकिन पहले चिंता ज्यादा थी क्योंकि बच्चों के लिये कोई टीका उपलब्ध नहीं था। जाइकोव-डी आने से हम बच्चों की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हो पायेंगे। कंपनी का दावा है कि वह सालाना तौर पर दस से बारह करोड़ डोज का उत्पादन कर सकेगी। बताया जा रहा है कि नया टीका डेल्टा वायरस व वायरस के अन्य रूपों पर भी प्रभावी होगा। जायडस कैडिला की यह वैक्सीन ऐसे समय में आई है जब देश में कोरोना संक्रमण की स्थिति में गिरावट है, लेकिन भविष्य की आशंकाओं के बीच यह हमारी ताकत बन सकती है। देश के 56 करोड़ से अधिक वयस्कों को वैक्सीन की पहली डोज लग पाना कोरोना संक्रमण के खिलाफ हमारे मजबूत इरादों को जाहिर करता है। ऐसे में टीकाकरण अभियान में भारतीय चिकित्सा वैज्ञानिकों की यह उपलब्धि हौसला बढ़ाने वाली है। उस दिन हम और मजबूत होंगे जब देश शिशुओं को सुरक्षा कवच देने वाली वैक्सीन हासिल कर लेगा। दरअसल, शिशुओं के संक्रमित होने की स्थिति में बड़ों के लिये भी खतरा बढ़ जाता है। इसके साथ ही देश के लोगों को कोरोना से बचाव के परंपरागत उपायों और सावधानियों के प्रति सजग बने रहना होगा।