इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.अनुराग का सियासी निवेश-3
अनुराग की जेब में सियासत के सिक्के खेल-खेल में ही उछलते रहे हैं, इसलिए उनके आसपास भाई जी, भाई जी! संबोधनों का युवा हृदय समूह रहा है। अब भाई जी से हिमाचल के भविष्य को जोड़ने के लिए वक्त के तरानों और सत्ता की तीक्ष्णता से आत्मनिर्भर अनुराग, जो नक्शा बनाना चाहते हैं, उसका अर्थ समझना होगा। केंद्र की भूमिका में राज्य के अर्थ और राज्य के अर्थों में केंद्र की भूमिका अगर परिलक्षित होती है, तो वर्षों से अपने अधिकारों को तरस रहा हिमाचल बिना मांगे बहुत कुछ पा सकता है। हिमाचल के बहाने पर्वतीय राज्यों के मॉडल पहले भी यहीं विकसित हुए और अगर नए रिश्तों में केंद्र हस्ताक्षर करता है, तो पहाड़ के आंसू पोंछे जा सकते हैं। बतौर केंद्रीय मंत्री शांता कुमार ने हिमाचल के लिए पर्यटन की राह को मजबूत करने का खाका तैयार किया था, लेकिन भाजपा की भीतरी सियासत ने उनके कार्यकाल को ही समय पूर्व छीन लिया। ऐसे में इस बार परिस्थितियां अलग व कारगर सिद्ध हो सकती हैं, अगर योजनाओं-परियोजनाओं में सलीका, संदर्भ और सद्भावना बनी रहे। हिमाचल में योजनाओं-परियोजनाओं की खींचतान की एक लंबी सियासत है और इसे वीरभद्र सिंह, शांता कुमार, प्रेम कुमार धूमल से लेकर जयराम ठाकुर के मुख्यमंत्रित्व काल तक देखा जा रहा है। केंद्रीय विश्वविद्यालय की छीनाझपटी में गंवाया एक दशक बताता है कि न पिछला युग निर्मोही रहा और न ही आज का दौर। धर्मशाला में दो बार केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए माकूल जमीन की अनुकूलता पर आज तक जो प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं, उनके सामने सांसद अनुराग ठाकुर भी मासूम नहीं और न ही वर्तमान जयराम ठाकुर यहां प्रस्तावित व आबंटित बजट के बावजूद अगर राष्ट्रीय खेल प्रशिक्षण केंद्र एवं छात्रावास की चयनित जमीन को नहीं बढ़ा पा रही, तो राजनीति की तिजोरियों में क्या भरा है, इसे आम आदमी हर बार के सत्ता पलट में देखता है। आश्चर्य यह भी कि कांगड़ा एयरपोर्ट का विस्तार अगर पिछले एक दशक से लटका है, तो इसके पीछे का राजनीतिक किरदार स्पष्ट है। क्या यह एयरपोर्ट, मंडी बनाम कांगड़ा के प्रश्न पर खुद को नेतृत्वविहीन मानकर पश्चाताप कर रहा है।
बेशक हर नेता अपनी जमीन पर अपनी कल्पना उतारना चाहता है, लेकिन कांगड़ा के हिस्से में अपने नेताओं की विफलताओं के ठीकरे ही आ रहे हैं। बतौर सांसद शांता कुमार के ड्रीम प्रोजेक्ट तथा रेलवे विस्तार, चंबा सीमेंट प्लांट व कांगड़ा हवाई अड्डे का विस्तार अगर हवा हवाई हुआ, तो मौजूदा सांसद किशन कपूर बतौर विधायक व मंत्री बनने के बाद संसद में भी कोरे कागज पर हस्ताक्षर ही कर रहे हैं। जहां कांग्रेस के दौर में बने टॉयलट तक का उद्घाटन नहीं होता, वहां कौन यह आशा कर सकता है कि कोई सांसद युद्ध संग्रहालय के बंद दरवाजे खुलावाएगा। कांगड़ा को न्याय दिलाने उतरे हमीरपुर के सांसद का धर्मशाला से गहरा रिश्ता समझा जा सकता है और यह भी कि वह बतौर मंत्री अपने ही पिता पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल की पूर्व घोषित ‘खेल नगरी’ जैसी उपमाओं को आगे बढ़ाने का संकल्प ले सकते हैं। बतौर केंद्रीय मंत्री अनुराग का प्रिय विषय खेल व युवा मामले इस हिसाब से समझा जा सकता है कि उन्होंने भारतीय क्रिकेट तक अपने झंडे मजबूत किए। दूसरी ओर रेल व रोड के जरिए उनके आदर्श पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल से ही आते हैं, जिन्होंने मनाली-लेह रेल मार्ग की कल्पना में राष्ट्रीय परियोजना का फलक छुआ। इसी तरह ऊना रेल की पटरी पर सारे हिमाचल का नेटवर्क देखा गया और हमीरपुर रेल परियोजना का मसौदा तैयार हुआ। हिमाचल के मध्य अगर रेल मार्ग वाया हमीरपुर या ज्वालाजी पहुंचता है, तो आगे चलकर मंडी, कांगड़ा, बिलासपुर व रामपुर बुशहर तक इसकी शाखाएं पहुंच सकती हैं। बहरहाल, यहीं से राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के प्रश्न उभर कर प्रदेश सरकार से पूछते हैं और यही फिरकी गेंद की तरह जयराम सरकार को हमीरपुर के माध्यम से पूछ रहा है। इन तर्कों के सामने सरकार का तार्किक पक्ष और यात्रा के पदचिन्हों से आगे निकलती प्रादेशिक सियासत का रुख क्या होगा, अगले अंक में।
2.भारत ‘फॉर सेल’ नहीं
देश की परिसंपत्तियों को बेचा जा रहा है या किराए पर, एक निश्चित अवधि के लिए पट्टे पर, देने की घोषणा की गई है? यदि परिसंपत्तियों को बेचने की योजना है, तो वे किसी भी औद्योगिक घराने के लिए ‘तोहफा’ कैसे हो सकती है? सार्वजनिक उद्यमों, संपदाओं, संस्थानों के विनिवेश की शुरुआत कांग्रेस सरकार के दौर में की गई। निजीकरण की प्रक्रिया भी दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में शुरू की गई थी। भारत में उदारीकरण के जनक कौन प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री थे, यह दुनिया जानती है। ऐसे संवेदनशील विषयों को सनसनीखेज नहीं बनाना चाहिए, लिहाजा कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ऐसे आरोप लगा क्या हासिल करेंगे? भारत का संविधान और संसद, सबसे बढ़कर निर्णायक जनता, ऐसे नियामक तत्त्व हैं कि कोई भी प्रधानमंत्री और सरकार देश की बिक्री का आयोजन नहीं कर सकते। सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी भी मौजूद है। भारत सरकार की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन योजना की घोषणा की है, तो वह 2022-25 के दौरान 6 लाख करोड़ रुपए अर्जित करने के मद्देनजर है। देश का राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ रहा है।
कोरोना महामारी और तालाबंदी, अब अफगानिस्तान संकट के कारण हमारी अर्थव्यवस्था डांवाडोल है। यदि हालात और असर ऐसे ही रहे, तो देश की अर्थव्यवस्था उबर नहीं पाएगी। उसके गंभीर और मारक प्रभाव आम आदमी को ही झेलने पड़ेंगे। सरकार ने स्पष्ट किया है कि परिसंपत्तियों पर मालिकाना हक भारत सरकार का ही रहेगा। परिसंपत्तियां बेची नहीं जाएंगी, बल्कि पीपीपी, संचालन-नियंत्रण-विकास, टोल एंड ऑपरेट आदि के आधार पर निजी कंपनियों को पट्टे या किराए पर संपदाएं सौंपी जाएंगी और तय अवधि के बाद उन्हें भारत सरकार को लौटाना होगा। इस संदर्भ में नीति आयोग की वेबसाइट पर विस्तृत दस्तावेज मौजूद हैं। कमोबेश उन्हें पढ़ने और विश्लेषण जानने के बाद ही राहुल गांधी को टिप्पणी करनी चाहिए थी कि प्रधानमंत्री मोदी देश को बेच रहे हैं। दिल्ली और मुंबई के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों का परिचालन और प्रबंधन निजी हाथों में है। कांग्रेस नेतृत्व की केंद्र सरकार ने ही उन्हें निजी कंपनियों को सौंपा था। आज तक कोई विवाद नहीं है, लेकिन 200 रुपए में कॉफी और 150 रुपए में चाय का कप आम आदमी को जरूर चुभता है। देश के ज्यादातर राजमार्गों पर टोल या अन्य कर देना पड़ता है। कई निजी कंपनियों के पास उनके ठेके हैं, जो कांग्रेस सरकारों की ही देन हैं।
कई सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने तक की योजनाएं बनती रही हैं। रेलवे और सेना के पास हजारों एकड़ ज़मीनें और भवन बेकार पड़े हैं। उनका कोई इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है और न ही वे रणनीतिक क्षेत्र के तहत आते हैं। क्यों न उनका उपयोग किया जाए? दरअसल भारत सरकार का बुनियादी काम नीतियां और योजनाएं बनाने का है। सरकार कारोबार, धंधे या हवाई जहाज चलाने के लिए नहीं है। नरसिंह राव सरकार के दौर से सार्वजनिक संपत्तियों का विनिवेश होता रहा है। होटल बेचे गए हैं। एनटीपीसी और एनएचपीसी जैसे नवरत्नों में भी निजी भागीदारी होती रही है। किराए पर भी सार्वजनिक संपत्तियां दी जाती रही हैं। बेशक रेलवे, हवाई अड्डे, बंदरगाह, राजमार्ग, खाद्यान्न भंडारण आदि रणनीतिक महत्व के क्षेत्र हैं, लेकिन सरकार ने अनप्रयुक्त संपदाओं में निजी भागीदारी करके पूंजी बटोरने का बात कही है। तो इससे देश को सेल पर कहां रख दिया गया है? दूरसंचार क्षेत्र में सरकारी बीएसएनएल में आजकल धड़ाधड़ ‘गोल्डन हैंडशेक’ मुहैया कराया जा रहा है, लिहाजा कर्मचारी सेवानिवृत्ति ले रहे हैं। उनकी नौकरी छीनी नहीं जा रही। बीएसएनएल का सालाना घाटा करीब 7500 करोड़ रुपए का है। इसकी तुलना में निजी क्षेत्र की कंपनियां करीब 70,000 करोड़ का राजस्व देती हैं और हजारों कर्मचारी उनमें काम कर रहे हैं। इसी तरह रेलवे में 13 लाख से ज्यादा कर्मचारी हैं। ऐसा कोई आदेश नहीं है कि 400 रेलवे स्टेशनों और 90 टे्रनों का परिचालन और प्रबंधन निजी हाथों में सौंपने के बाद कई हजार कर्मचारी बेरोज़गार हो जाएंगे। देश के लिए यह संक्रमण-काल है, लिहाजा आर्थिक संसाधन जुटाने की कोशिश की जानी चाहिए।
3.जांच पर सवाल
पूर्व और वर्तमान सांसदों, विधायकों के खिलाफ दर्ज मामलों की धीमी जांच बहुत चिंताजनक है। जिन मामलों में जल्दी फैसले आ जाने थे, वे भी अटके हुए हैं। कुछ आपराधिक मामले तो 15 साल पहले दर्ज हुए थे और मामले भी ऐसे, जिनमें दोष सिद्ध होने पर आजीवन कारावास की सजा भी हो सकती थी, लेकिन ऐसे मामलों में भी जांच की दिशा में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की धीमी कार्रवाई बहुत चिंता में डाल देती है। सीबीआई के पास विधायकों और सांसदों से संबंधित 163 आपराधिक मामले लंबित हैं, जबकि प्रवर्तन निदेशालय के पास 122 मामले। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय जैसी जांच एजेंसियों को यथोचित ही फटकार लगाई है। 10-15 साल पहले दर्ज हुए मामलों में भी आरोपपत्र दायर नहीं किए गए हैं। देश के प्रधान न्यायाधीश एन वी रमना ने इन एजेंसियों से कारण बताने को कहा है। प्रवर्तन निदेशालय केवल संपत्तियों को कुर्क कर रहा है और इसके अलावा कुछ नहीं। तीन जजों की पीठ की अध्यक्षता कर रहे न्यायमूर्ति रमना ने साफ कह दिया है कि मामलों को यूं लटकाए न रखें, आरोपपत्र दाखिल करें।
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी बहुत मायने रखती है। प्रधान न्यायाधीश ने लगे हाथ यह भी कहा है कि हम इन एजेंसियों के खिलाफ कुछ नहीं कहना चाहते, क्योंकि हम इनका मनोबल गिराना नहीं चाहते हैं। लेकिन यह सब (लंबित मामलों की संख्या) बहुत कुछ कहता है। ऐसा लगता है, इन एजेंसियों को जांच या मामलों को न्यायपूर्ण अंजाम तक पहुंचाने की कोई जल्दी नहीं है और यह बात सुप्रीम कोर्ट के सामने भी साफ तौर पर आई है। आज की स्थिति में एजेंसियां देरी के स्पष्ट कारण बताने की स्थिति में भी शायद नहीं हैं। यह स्थिति चौंकाती नहीं है, जब भी अपनी व्यवस्था में बड़े लोगों के खिलाफ शिकायत सामने आती है, तब उसका अंजाम पर पहुंचना आसान नहीं होता। कानून-व्यवस्था संभालने वाली एजेंसियां भी यह बात नहीं समझतीं कि अगर किसी अपराधी नेता को दस साल का मौका मिल गया, तो वह दो बार चुनाव जीतकर क्या कर सकता है? क्या किसी अपराधी नेता से हम उम्मीद कर सकते हैं कि वह देश में कानून-व्यवस्था संभालने वाली एजेंसियों को सहजता से काम करने देगा? असल चिंता यही है। इसमें कोई शक नहीं है कि राजनीति में अपराधियों की पैठ को रोकना सबकी जिम्मेदारी है। विशेष रूप से राजनीतिक दलों को अपनी भूमिका के प्रति सजग होना चाहिए। कुछ ही समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक अन्य मामले में नौ राजनीतिक दलों को अवमानना का दोषी ठहराया था। दिक्कत यह है कि राजनीतिक दल दागी नेताओं को बचाने की हर मुमकिन कोशिश करते हैं। राजनीति में अपराधीकरण पर तल्ख टिप्पणी करते हुए शीर्ष अदालत एकाधिक बार इशारा कर चुकी है कि राजनीतिक दल राजनीति से अपराध खत्म करने की दिशा में सही कदम नहीं उठा रहे हैं। क्या सुप्रीम कोर्ट की ताजा पहल के बाद सुधार की संभावना बढ़ी है। प्राथमिक स्तर पर इन महत्वपूर्ण जांच एजेंसियों में मानव संसाधन की कमियों को पूरा करना चाहिए और इसके साथ ही अदालतों में भी कोई पद खाली नहीं रहना चाहिए, तभी कानून-व्यवस्था पूरी क्षमता के साथ काम कर सकेगी।
4.साहसिक सुधार
मोदी सरकार का उद्घोष रहा है कि सरकार को खुद कारोबार नहीं करना चाहिए। लगता है कि सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियों के विमुद्रीकरण के जरिये सरकार उसी दिशा में बढ़ गई है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि विश्वव्यापी कोरोना संकट से देश की अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंची है। सरकार की जिम्मेदारी बढ़ी है तो आय के स्रोतों का संकुचन हुआ है। ऐसे में नेशनल मोनोटाइजेशन पाइपलाइन योजना का क्रियान्वयन देश की आर्थिकी को गति देने वाला साबित हो सकता है। दरअसल, एनएमपी योजना में आधारभूत संरचना के विमुद्रीकरण के जरिये सरकार ने आने वाले चार सालों में छह लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है। वैसे तो वित्त मंत्री ने आम बजट में इस योजना का जिक्र किया था, लेकिन उसकी रूपरेखा का खुलासा अब जाकर किया है। उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार ने आधारभूत संरचना के प्रमुख क्षेत्रों सड़क, रेलवे, बिजली, तेल व गैस पाइपलाइन व दूरसंचार आदि क्षेत्र निजी कंपनियों के लिये खोले हैं। सरकार कह रही है कि इन संपत्तियों का विमुद्रीकरण तो किया जा रहा है, लेकिन संपत्ति पर स्वामित्व सरकार का बना रहेगा। जाहिरा तौर पर यह राष्ट्रीय संपत्ति है, इसकी सुरक्षा को लेकर सरकार को आम जनता को भरोसा देना होगा। दरअसल, कांग्रेस समेत कुछ राजनीतिक दल सरकारी संपत्ति को बेचने के आरोप लगा रहे हैं। ऐसे में सरकार को इस योजना से जुड़ी हर आशंका को दूर करना चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि नरसिम्हा राव सरकार के बाद देश में निजीकरण की जो बयार चली, उसमें दूसरी सरकारों ने भी अपनी-अपनी तरह से योगदान दिया। लेकिन निजीकरण के अपेक्षित लक्ष्य हासिल नहीं किये जा सके। वहीं दूसरी ओर उत्पादकता व आर्थिकी के लिहाज से देश के अधिकांश सार्वजनिक उपक्रम वक्त की कसौटी पर खरे नहीं उतरे। ऐसे में सरकार को सरकारी संपत्ति की विमुद्रीकरण योजना में निवेशकों को आकर्षित करने के लिये कारगर कदम उठाने होंगे।
इसमें दो राय नहीं कि राष्ट्रीय विमुद्रीकरण पाइपलाइन एक महत्वाकांक्षी योजना है। इन संपत्तियों में सरकारी निवेश के बावजूद अपेक्षित लक्ष्य हासिल नहीं हुए हैं। सरकार की योजना है कि निजी क्षेत्र के प्रबंधन से इन सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार आयेगा और सरकार की जवाबदेही कम होगी। लेकिन सरकार को इस दिशा में पूरी पारदर्शिता स्थापित करके देश की जनता को विश्वास में लेना होगा कि निजी क्षेत्र को निरंकुश व्यवहार की इजाजत नहीं दी जाएगी। इन संपत्तियों को कंपनियों द्वारा कालांतर सार्वजनिक प्राधिकरण को स्थानांतरित करना होगा। ऐसा भी न हो कि निजी कंपनियों की मनमानी से सेवा का मूल्य इतना अधिक कर दिया जाये कि आम लोगों की दुश्वारियां असहनीय हो जायें। दरअसल, रेलवे व अन्य सेवाओं का उपयोग समाज का अंतिम व्यक्ति जीवन निर्वाह के लिये करता है। ऐसे में नियामक संस्थाओं को कंपनियों के मनमाने व्यवहार पर नजर रखनी होगी। एनएमपी दस्तावेज के अनुसार 1.6 लाख करोड़ रुपये राष्ट्रीय राजमार्गों व नयी सड़कों के विमुद्रीकरण से आने की उम्मीद है। लेकिन साथ ही निजी कंपनियों के सुचारु संचालन के लिये अनुकूल वातावरण प्रदान करना केंद्र व राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। बीते कई महीनों से चल रहे किसान आंदोलन के कारण हरियाणा-पंजाब के तमाम टोल प्लाजा बंद करने पड़े हैं, जिससे प्रतिदिन पांच करोड़ का नुकसान हो रहा है। इस तरह के व्यवधान निवेशकों का उत्साह कम करेंगे। इसी तरह मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद और बेंगलुरु के हवाई अड्डों के विमुद्रीकरण से लाभ के लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं। वहीं बिजली क्षेत्र की विसंगतियों पर भी ध्यान दिया जाये। पंजाब में निजी बिजली कंपनियों को प्रबंधन सौंपे जाने के सकारात्मक परिणाम नहीं मिले हैं। यहां बिजली की दरों में कमी और बेहतर आपूर्ति के लक्ष्य पूरे नहीं हुए। सरकार को सार्वजनिक संपत्ति की विमुद्रीकरण नीति के क्रियान्वयन में कुशल व प्रभावी नीति का पालन करना होगा। तभी सरकार योजना के वास्तविक लाभ हासिल कर पायेगी। आम जनता में यह विश्वास कायम रहना चाहिए कि निर्धारित समय के बाद संपत्तियां सरकार के पास लौटेंगी और राष्ट्रीय संपत्ति का दुरुपयोग नहीं होगा।