इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.अनुराग का सियासी निवेश-4
दिल्ली समागम में हिमाचल की राजनीति का सबसे बड़ा दांव अकेले अनुराग ठाकुर पर नहीं खेला जा रहा, लेकिन प्रदेश का अतिधु्रवीकरण हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में दिखाई दे रहा है। पहले से ही केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और वर्तमान में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में जगत प्रकाश नड्डा का कद तथा पद सीधे हिमाचल सरकार में संगठनात्मक ताकत देख रहा है और अब युवा केंद्रीय मंत्री के रूप में स्तरोन्नत अनुराग का कार्यक्षेत्र भी हमीरपुर संसदीय क्षेत्र की प्रतिभा निखार रहा है। राजनीति का एक ऐसा समुद्र वर्तमान सरकार में भी कई टापुओं से नजर आ रहा है। पहली बार मंडी जिला के केंद्र में सत्ता का मध्यमार्ग सफल हो रहा है, तो इस आधार प्रादेशिक संतुलन की दाईं और बाईं भुजाओं पर तवज्जो देने की जरूरत है। खास तौर पर कांगड़ा की भुजा अगर नहीं बचाई, तो जयराम सरकार के चुनावी आत्मबल को ठेस लगेगी। यहां कांगड़ा के नए श£ोकाचारण में कांगे्रस के अलावा केंद्रीय मंत्री का दौरा भी दुखती रगों पर हाथ रखता हुआ गुजर गया, तो सत्ता की राजनीति से अकालग्रस्त यह जिला खुद को पैबंदों से मुक्त करने की घडिय़ां गिन रहा है।
यह वर्तमान सरकार के मंत्रिमंडल की झलक में दिखता है, जहां वरिष्ठता के आधार पर सिमट गए किशन कपूर और विपिन सिंह परमार का वजूद आहें भरता है, तो जातीय समीकरणों में अनदेखी के घाव लिए ओबीसी वर्ग त्रस्त है। प्रभावहीन मंत्री सरवीण चौधरी अपनी पींगें बढ़ाती हुई, हमीरपुर की तरफ देख रही हैं, तो कद्दावर नेता रमेश धवाला को बार-बार पछाड़ कर सत्तापक्ष के संदेश, ओबीसी वर्ग को आहत कर रहे हैं। सत्ता पक्ष उत्तर प्रदेश का हवाला लेते हुए विचार करे कि वहां भाजपा इसी वर्ग के आगे शीर्षासन कर रही है, तो ऐसे ही राजनीतिक खेत की आंधी से हिमाचल सरकार बेखबर नहीं रह सकती। अनुराग ठाकुर के दौरे के बाद मुख्यमंत्री को कांगड़ा में अनुराग राग के सामने अपनी सत्ता का आशीर्वाद दिखाना पड़ेगा। आशीर्वाद यात्रा के बाद सत्ता के आशीर्वाद का हिसाब हिमाचल में होगा, तो भाजपा का युवा चेहरा समीकरण बदलेगा। भाजपा के भीतर न केवल दो तरह के युवा चेहरे दिखाई दे रहे हैं, बल्कि इस शिनाख्त में पार्टी ने अपनों का ही एक बड़ा वर्ग निराश कर दिया है। हिमाचल की वर्तमान सत्ता के भीतर विद्यार्थी परिषद का दिल जितनी मजबूती से धडक़ रहा है, उससे भी अधिक विषाद से भरा गैर एबीवीपी युवा विकल्प की तलाश में है।
अनुराग ठाकुर को मिले युवाओं के समर्थन में भाजपा का युवा विभाजन परिलक्षित हुआ है। साढ़े तीन साल की सत्ता के लिए अनुराग का स्वागत, अपने ही पाले में कुछ प्रश्र परोस गया। स्वागती भीड़ किसे नजरअंदाज कर रही थी या किसे गले लगा रही थी और यह कैसे हुआ, इसके पीछे कई सारांश हैं। यह इसलिए भी कि जब हमीरपुर के गांधी चौक में वर्षों बाद नारेबाजी हो रही थी, तो भीड़ की भाव भंगिमा से विभोर आंखें छलक आईं। यह वही हमीरपुर है जिसने विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री का पद उछाल दिया था और अब यही हमीरपुर अगर कह रहा है,‘देखो, देखो कौन आया। …शेर आया, शेर आया’, तो यह महज स्वागत या आशीर्वाद की भाषा नहीं, बल्कि बस्तियां जगाने का संकल्प माना जा सकता है। प्रश्र हिमाचल की जनता को खोजने हैं कि क्या आशीर्वाद यात्रा सहज, स्वाभाविक, सहायक, सर्वव्यापक रही या राजनीतिक रेवड़ को हांकने की कोई नई सूचना थी। आज तक के केंद्रीय मंत्रियों से अलग इस यात्रा का अलख क्यों सुनाई दे रहा है। क्यों भीड़ किसी राजनीतिक यात्रा पर केंद्रित व आश्रित दिखाई दी। क्यों ऐसा लगा कि राज्य सरकार ने विकास के कई प्रश्र अधूरे छोड़ दिए या अब कोई शेर वाकई आ गया है। क्या जनता को कोई शेर चाहिए या जनता किसी भेड़ को शिकार होते हुए फिर से देखना चाहेगी। भेड़ को बचने की जरूरत पैदा हो रही है, तो भाजपा को स्पष्ट करना होगा कि उसके नए नाटक में ‘शेर और भेड़ का यह मामला क्यों पैदा हो रहा है।
2.तालिबान का चेहरा वही
तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर का करीबी, लगभग 5 साल तक क्यूबा जेल में रहा आतंकवादी मुल्ला अब्दुल कयूम ज़ाकिर को अफगानिस्तान का नया रक्षा मंत्री बनाया गया है। शरियत शिक्षा का कर्ता-धर्ता, मदरसे में 7वीं जमात तक पढ़ा मौलवी सखउल्लाह शिक्षा मंत्री होगा। अनपढ़, बैंकिंग प्रणाली से अनजान, टेरर फंडिंग का आतंकी गुल आगा अब अफगानिस्तान का वित्त मंत्री होगा। जिसे अफगानिस्तान का ‘जल्लाद’ कहा जाता है, जिसने सैकड़ों आतंकी हमलों को अंजाम दिया और ‘कसाई’ की तरह लोगों की हत्याएं कीं और कराईं, ऐसे दुर्दान्त आतंकी सदर इब्राहीम को गृह मंत्री बनाया गया है। ‘मोस्ट वांटेड’ आतंकी अब्दुल बाकी अब अफगानिस्तान का उच्च शिक्षा मंत्री होगा। तालिबान हुकूमत में ऐसे और भी चेहरे हैं, जिनका अतीत आतंकवाद से जुड़ा रहा है, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की ‘काली सूची’ में उनके नाम दर्ज हैं और उन पर पाबंदियां चस्पा की गई हैं। कइयों पर तो इनाम भी घोषित हैं। यदि अफगानिस्तान में आतंकी ही कैबिनेट का हिस्सा होंगे, तो विश्व आतंकवाद के खिलाफ अफगानिस्तान की सुरक्षा, मानवाधिकार रक्षा, औरतों-बच्चों-धार्मिक अल्पसंख्यकों की हिफाजत और मानवीय अधिकारों, कानून की हुकूमत आदि की उम्मीद कैसे कर सकता है? लोकतंत्र तो बहुत दूर की कौड़ी है।
आश्चर्य है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, मानवाधिकार आयोग और जी-7 देशों के अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एक भी ऐसा प्रस्ताव पारित नहीं किया गया, जिसमें तालिबानी आतंकियों का जिक़्र किया गया हो अथवा तालिबान की हुकूमत को काबू में रखने के फैसले लिए गए हों। किसी भी तरह के प्रतिबंध का प्रस्ताव भी पारित नहीं किया गया। तालिबान के लिए इन वैश्विक मंचों का जरा-सा भी खौफ नहीं है। तो फिर इन महान संस्थाओं के अस्तित्व के मायने ही क्या हैं? विश्व में युद्ध के हालात को सुरक्षा परिषद समाप्त नहीं करवा सकती। आज तक कश्मीर का मसला भी लटका है। तो फिर इन संगठनों पर अरबों रुपए खर्च क्यों किए जाएं? ये बेहद गंभीर और चिंतनीय सवाल हैं। संयुक्त राष्ट्र का गठन आज क्या अप्रासंगिक हो रहा है? सुरक्षा परिषद में भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर की अध्यक्षता में आतंकवाद पर विमर्श जरूर किया गया, लेकिन तालिबान हुकूमत के मद्देनजर एक सवाल अनसुलझा ही रहा कि क्या कोई भी आतंकी ताकत बंदूक, बम, बारूद के बल पर, किसी भी हुकूमत को, कब्जा सकती है?
फिर लोकतांत्रिक जनादेश कितने प्रासंगिक रहेंगे? तालिबान इन महान मंचों के कथित ताकतवर नेताओं और देशों के ‘उपदेशात्मक’ बयान न तो सुनने को तैयार है और न ही मानता है! फिर बार-बार आग्रह क्यों किए जाते रहे हैं? हैरत है कि अमरीका, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और भारत सरीखे बड़े देशों ने तालिबान हुकूमत से बातचीत की इच्छा जताई है। अमरीकी सीआईए के निदेशक ने तो तालिबान के सह-संस्थापक एवं राष्ट्रपति पद के दावेदार मुल्ला बरादर से बातचीत भी की थी। क्या महाशक्तियां भी तालिबान के आतंकी शासन के सामने आत्म-समर्पण की मुद्रा में आ चुकी हैं? फिर खासकर अमरीका की ‘आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई’ का निष्कर्ष क्या रहा है? क्या बेमानी और नाकाम…! इसी दौरान पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और तालिबान की साझा साजि़श सामने आई है कि काबुल हवाई अड्डे पर और आसपास ‘मानव-बम’ हमले को अंजाम दिया जा सकता है। ऐसे ऑपरेशन का कमांडर सलिल्लाह मुजाहिद को तय किया गया है, जो तालिबान की विजयी सेना का स्वयंभू कमांडर भी कहा जाता है।
हवाई अड्डे के बाहर खूंख्वार सेना बल ‘बदरी-313’ को भी तैनात किया गया है। साजि़श के मद्देनजर ही अमरीका, ब्रिटेन और ऑस्टे्रलिया आदि देशों ने अपने नागरिकों के लिए ‘परामर्श’ भी जारी किए हैं कि वे काबुल एयरपोर्ट के इलाके में भी न जाएं। इन गतिविधियों के मद्देनजर भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत का यह बयान बेहद गौरतलब है कि अब भी तालिबान का चेहरा वही पुराना है। वह बदला नहीं है, सिर्फ खोखले और दिखावटी दावे कर रहा है। भारत के सैनिक तालिबानी आतंक से भी निपटने में सक्षम और तैयार हैं। भारत को हालात पर लगातार दृष्टि बनाए रखनी चाहिए। किसी भी निर्णय की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।
3.देरी पर दंड
भारत में विकास से जुड़ी परियोजनाओं को समय से शुरू और पूरा करने के लिए सरकारें जितना भी करें, कम है। इसी रोशनी में राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजनाओं में होने वाली अनावश्यक देरी की रोकथाम के लिए जो नीतिगत बदलाव किए गए हैं, उनका हर तरह से स्वागत होना चाहिए। पहले इन परियोजनाओं में किसी भी बदलाव के लिए सैद्धांतिक मंजूरी लेने में ही महीनों लग जाते थे, लेकिन अब यह तय कर दिया गया है कि सैद्धांतिक मंजूरी रिपोर्ट अधिकतम छह महीने में सौंपनी पडे़गी। यही नहीं, सलाहकार, अथॉरिटी इंजीनियर, परियोजना निदेशक को सभी मौजूदा परियोजनाओं की रिपोर्ट 31 अगस्त तक सौंपने को कहा गया है। सबसे खास बात है कि यह सिर्फ निर्देश नहीं है, अगर अब इंजीनियरों की ओर से देरी हुई, तो उन्हें दंड का सामना करना पडे़गा। अभी तक जो ढर्रा रहा है, उसमें इंजीनियरों को सरकार की उदारता पर दृढ़ विश्वास है, वह मानकर चलते हैं कि सरकारें केवल बोलने का काम करती हैं, आदेश-निर्देश देकर भूल जाती हैं और काम तो अपनी गति से ही होता है। यही शर्मनाक सोच है, जिसकी वजह से भारत में शायद ही कोई ऐसी परियोजना होगी, जो समय पर पूरी हुई होगी।
अगर भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) ने तय कर लिया है कि अब सड़क परियोजनाओं को हर हाल में समय पर पूरा करना है, तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। कोई शक नहीं कि पिछले दो दशक में भारत में सड़कों की स्थिति में बहुत सुधार हुआ है। सड़क मार्ग से परिवहन सुगम हुआ है, लेकिन अभी बहुत कुछ करने की गुंजाइश है। क्या हम पांच साल की परियोजना को पांच साल से पहले पूरी नहीं कर सकते? क्या हमारे इंजीनियर मेहनती नहीं हैं? क्या उनमें समय पर काम को अंजाम देने की प्रतिभा नहीं है? ये बड़े बुनियादी सवाल हैं, जो सीधे विकास से जुड़े हैं। एनएचएआई ने 24 अगस्त को जो नीतिगत दस्तावेज जारी किया है, उसकी उपयोगिता बहुत लंबे समय से थी। परियोजनाओं के तमाम छोटे-बड़े कामों को टालने की प्रवृत्ति का अंत जरूरी है। हम बुनियादी ढांचा विकास में पहले ही बहुत पिछड़ गए हैं। भारत निवेश में अगर पिछड़ रहा है, तो खराब सड़केंभी जिम्मेदार हैं।
गौरतलब है, जारी दस्तावेज या सर्कुलर में यह भी साफ कर दिया गया है कि कई मामलों में जान-बूझकर मामूली मंजूरी से जुड़ी फाइलों को भी इधर से उधर किया जाता है, ताकि ठेकेदारों को जुर्माने से बचाया जा सके। ठेकेदारों को जुर्माने से बचाने या उनकी लगाम न कसने के पीछे क्या कारण हैं, इसे समझना कठिन नहीं है। जाहिर है, परियोजना की बढ़ी हुई लागत एनएचएआई और देश को चुकानी पड़ती है। सलाहकार-इंजीनियर की सांठगांठ से ठेकेदार बच जाते हैं। सांठगांठ करके कई तरह से देश को चूना लगाया जाता है। अब यह बहुत जरूरी है कि भारत में सड़क परियोजना में होने वाली देरी के लिए जिम्मेदारी तय हो और देरी करने वाले को दंडित किया जाए। ठीक इसी तरह अन्य तरह की विकास परियोजनाओं के लिए भी नीतिगत दस्तावेज जारी होने चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि तमाम परियोजनाएं समय पर पूरी हों। परियोजनाओं को अगर पूरी तेजी से चलाया जाएगा, तो उससे समग्र आर्थिक-सामाजिक विकास में भी तेजी आएगी और रोजगार में भी वृद्धि होगी। देश का तन, मन और धन बर्बाद नहीं होगा।
4. प्रतिशोध की राजनीति
केंद्रीय मंत्री नारायण राणे के विवादित बोल के बाद शिव सैनिकों के उत्पात और राणे की गिरफ्तारी ने बदले की राजनीति का विद्रूप चेहरा ही उजागर किया। निस्संदेह मर्यादा दोनों ओर से लांघी गई। लेकिन शिव सेना सरकार ने राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का बदला जिस तरह सरकार की ताकत से लिया, वह भारतीय लोकतंत्र के लिये अच्छा संकेत तो कदापि नहीं है। राणे व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बीच टकराव कोई नयी बात नहीं है। कभी शिवसेना में बाला साहब ठाकरे का प्रिय होने पर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक हासिल करने वाले नारायण राणे को बाद में जिस तरह शिवसेना से बाहर का रास्ता दिखाया गया, उसमें उद्धव ठाकरे की भूमिका को राणे मुख्य मानते रहे हैं। तब राणे कांग्रेस में गये, अपनी पार्टी बनायी और फिर भाजपा में शामिल हो गये। कालांतर में राज्यसभा के रास्ते केंद्र सरकार में मंत्री पद हासिल करने में सफल रहे। फिलहाल राणे भाजपा द्वारा नये मंत्रियों के जरिये पूरे देश में शुरू की गई जन आशीर्वाद यात्रा के तहत जनसंपर्क अभियान में जुटे थे। वैसे तो वे पहले से ही शिवसेना के निशाने पर थे। यही वजह है कि महज चार दिनों में उनकी यात्रा के खिलाफ चालीस मुकदमें दायर किये गये थे, जिसमें कोरोना काल में कोविड प्रोटोकॉल का उल्लंघन भी शामिल है। वहीं अगले साल देश के सबसे बड़े बजट वाले वृहन्नमुंबई नगर निगम के चुनाव को लेकर भी बिसात बिछनी शुरू हो गई है। इस विवाद को भी इसी कड़ी के विस्तार के रूप में देखा जा रहा है। वर्ष 2019 में जो भाजपा शिवसेना कार्यकर्ता कंधे से कंधा मिलाकर चुनाव की तैयारी में जुटे थे, उन्होंने राणे के बयान के बाद हिंसा व पथराव में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। राजनीतिक टकराव के चलते महाराष्ट्र की कानून-व्यवस्था पर असर पड़ना दुर्भाग्यपूर्ण ही है। जब राजनीति में मर्यादाएं टूटती हैं तो ऐसी अप्रिय स्थितियां ही पैदा होती हैं। निस्संदेह राणे की गिरफ्तारी भारतीय राजनीति में क्षरण की बानगी दिखाती है।
इसमें दो राय नहीं कि राणे द्वारा उद्धव ठाकरे के विरुद्ध की गई टिप्पणी अमर्यादित थी, जिसके चलते शिवसेना ने तल्ख प्रतिक्रिया दी। उनके विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज की गईं। शुरुआत में उन्हें अग्रिम जमानत भी नहीं मिली और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। पुराने टकराव के चलते उद्धव ठाकरे ने भी सरकार की ताकत दिखाने में कोई देरी नहीं की। ऐसा भी नहीं है कि पहली बार किसी राजनेता ने ऐसा अमर्यादित बयान दिया हो। खुद विधानसभा चुनाव के दौरान उद्धव ठाकरे पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध ऐसा ही अपमानजनक बयान देने का आरोप लगा था। आये दिन ऐसे अमर्यादित बयान देने वाले नेताओं की यदि गिरफ्तारी होने लगे तो गिरफ्तार नेताओं की सूची खासी लंबी हो जायेगी। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विताओं का मुकाबला राजनीति के जरिये करने के बजाय कानून की ताकत के जरिये करने की प्रवृत्ति दुर्भाग्यपूर्ण ही है। वैसे अतीत में भी राजनेता अपने विरोधियों के खिलाफ सार्वजनिक रूप से बहुत कुछ कहते रहे हैं लेकिन भाषा को इतने निचले स्तर पर नहीं गिरने दिया जाता था। ये न तो समाज में स्वीकार्य है और न ही इसके बाद संसदीय व्यवहार सहजता से संभव हो पाता है। यही वजह है मुखर विरोध के बावजूद राजनेता आपसी व्यवहार की गुंजाइश बनाये रखते हैं। लेकिन धीरे-धीरे भारतीय राजनीति में मर्यादाओं को भंग करने का फैशन हो गया है। जो जितना ज्यादा तीखा व अप्रिय बोलता है, उसे जनता का ध्यान आकृष्ट करने का सक्षम जरिया मान लिया जाता है। राजनीतिक दलों को भी अपने मंत्रियों व नेताओं को मर्यादित भाषा के प्रयोग के लिये बाध्य करना चाहिए। दरअसल, जब नेता लक्ष्मण रेखा लांघते हैं तो कार्यकर्ता उससे कहीं आगे निकलकर मर्यादाएं भंग करने निकल पड़ते हैं, जिसका समाज पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है। वहीं केंद्रीय मंत्री की गिरफ्तारी से एक संकेत यह भी है कि राज्य सरकारों की मनमानी कार्रवाई से देश के संघीय ढांचे पर भी आंच आती है।