Career Pathway

+91-98052 91450

info@thecareerspath.com

EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है

 

1.किसान आंदोलन

किसान आंदोलन के नौ माह पूरे हो गए हैं। इस अवसर पर एकत्रित हुए किसान नेता पर सुर अलग-अलग रहे। वैसे संयुक्त किसान मोर्चे ने ऐलान किया कि पच्चीस सितंबर को भारत बंद का आह्वान किया है। इस सम्मेलन को संबोधित करते राकेश टिकैत ने कहा कि सभी किसान लीडर हैं, हम तो उनके चेहरे या प्रतिनिधि मात्र हैं। यह भी सवाल उठाया कि एक फोन कॉल की दूरी कब तक बनी रहेगी? हमारे पास तो नंबर ही नहीं। योगेंद्र यादव ने कहा कि नौ माह में तो नई जि़ंदगी जन्म ले लेती है, लेकिन किसानों की जि़ंदगी में बदलाव क्यों नहीं आया? पर एक चीज़ जरूर हुई पचहतर वर्षों में कि अभूतपूर्व एकता पैदा हुई। सरकार की हठधर्मिता के चलते। जबकि गुरनाम सिंह चढूनी की सोच और कहें कि लाइन अलग रही कि हमें भारत बंद की बजाय दिल्ली और दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास घेरने की घोषणा करनी चाहिए, तब असर होगा सरकार पर। वे अरविंद केजरीवाल की राह पर भी चल रहे हैं और कह रहे हैं कि चुनाव लडऩे चाहिएं।

बीच में ऐसे बयान आए भी थे कि चढूनी पंजाब विधानसभा लड़ेंगे बाकायदा पार्टी बना कर, फिर इंकार भी आया लेकिन मन से अभी वह बात निकली नहीं। कभी पंजाब विधानसभा निकट आते ही फिर यह मन वही कर बैठे। कौन भरोसा करे इनका किसान आंदोलन पर यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है कि सरकार पूरी तरह से उदासीन रवैया अपनाए हुए है। कोई खोज खबर तक नहीं लेती। शुरू में लगभग एक दर्जन दौर की वार्ताएं जरूर हुईं लेकिन बेनतीजा रहीं और फिर हमारे साहब पश्चिमी बंगाल के चुनाव में व्यस्त हो गए। वहां मनमुताबिक परिणाम न आए तो और खफा हो गए किसानों पर। सारा गुस्सा निकला किसानों पर बल्कि ज्यादतियों में इजाफा हुआ। हरियाणा में किसानों पर लाठीचार्ज और आंसू गैस आम बात हो गई। केस दर्ज होने लग गए और प्रदर्शन बढ़ते गए। दिल्ली की सीमाओं के बारे में सुप्रीम कोर्ट कह रहा है कि दो सप्ताह के अंदर रास्ते खोलने के बारे में सोचा जाए और ज्यादा देर तक रास्ते बंद रखना भी आम जनता की परेशानी का सबब बनता है।

 

2.काबुल में फिदायीन हमला

जिसकी आशंका व्यक्त की गई थी, अंतत: वही हुआ। काबुल हवाई अड्डे पर और उसके आसपास तीन सिलसिलेवार आत्मघाती, फिदायीन हमले किए गए। उनमें 100 से ज्यादा लोग मारे गए हैं और करीब 200 मासूम घायल बताए जाते हैं। मौत का यह आंकड़ा बढऩा लगभग तय है, क्योंकि कई गंभीर रूप से ज़ख्मी हुए हैं। आतंकी हमले में 13 अमरीकी सैनिक और 90 अफगान भी हताहत हुए हैं, जबकि 15 अमरीकी सैनिक घायल बताए गए हैं। हमले की जिम्मेदारी आईएसआईएस-खुरासान आतंकी गुट ने ली है। यह बगदादी के आईएस की नई पीढ़ी है। अमरीका पर 9/11 आतंकी हमले के बाद यह सबसे बड़ा आतंकी हमला है, लिहाजा राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा है कि अमरीका अपने सैनिकों की मौत नहीं भूलेगा। ये आतंकी अमरीका की बर्बादी चाहते हैं।

हम उन्हें माफ नहीं करेंगे और ढूंढकर मारेंगे। हमें कुछ जानकारी भी है कि हमला किसने किया। उनके पीछे कौन शामिल हैं और यह आत्मघाती हमला क्यों किया गया है? इस त्रासद और शोकाकुल घड़ी में अमरीकी झंडे को 30 अगस्त तक आधा झुकाया गया है। यह अमरीका की कई स्तरीय पराजय है, लिहाजा उसके सामने आतंकियों को ढूंढने और उन्हें मारने की बहुत बड़ी चुनौती है। अमरीका ने आईएसआईएस के खलीफाई मुखिया बगदादी को मार दिया था। खुरासान गुट पर भी हवाई हमले किए गए। दर्जनों आतंकी ढेर भी हुए, ठिकाने धूल-मलबा हो गए। यह सब भी अफगानिस्तान के नंगरहार के इलाके में होता रहा, लेकिन 26 अगस्त, 2021 की सायं करीब 5 बजे और उसके बाद तीन धमाके कर आईएस-खुरासान ने साबित कर दिया कि उसका आतंकवाद अब भी जि़ंदा है। बहरहाल आत्मघाती हमले के बाद काबुल धुआं-धुआं हो गया। सात और धमाकों के दावे किए जा रहे हैं। हवाई अड्डे पर और उसके बाहर लाशें ही लाशें, खून और मांस के लोथड़े, चीत्कार और रूह कंपा देने वाला मंजर है। आईएस-खुरासान ने चेतावनी और धमकी दी है कि अमरीका और उसके मददगारों को अभी काबुल में मारा है। आगे और भी हमले किए जाएंगे।

इस तरह अफगानिस्तान की सरज़मीं पर एक और जंग की शुरुआत हो गई है। अमरीकी राष्ट्रपति बाइडेन ने कमांडरों को ‘बदला लेने के आदेश दे दिए हैं। दूसरी तरफ तालिबान के दावे खोखले साबित हुए हैं कि वे किसी को भी अपनी सरज़मीं के दुरुपयोग की इज़ाज़त नहीं देंगे। तालिबान ने इसी खूनी परिदृश्य के दौरान ‘विक्टिम कार्ड खेलने की कोशिश की है कि उसके भी 28 लड़ाके मारे गए हैं। दरअसल तालिबान, आईएस-खुरासान और हक्कानी नेटवर्क की जड़ें आपस में मिली हैं। जितने भी आतंकी गुट और आतंकी हैं, वे आतंकवाद को ही बढ़ाएंगे। हुकूमत में हिस्से को लेकर उनके बीच तलवारें खिंच सकती हैं, लेकिन फिलहाल साझा दुश्मन अमरीका ही है। न्यूयॉर्क के वल्र्ड टे्रड सेंटर पर 9/11 आतंकी हमला और उसमें करीब 3000 लोगों की नापाक हत्या के बाद अलकायदा का संस्थापक सरगना लादेन अमरीका के निशाने पर था, जिसकी तलाश में अमरीकी सैनिक अफगानिस्तान तक आए थे। लादेन पाकिस्तान में मिला और 2 मई, 2011 को अमरीकी कमांडोज ने उसे मार दिया। अफगानिस्तान में 20 साल की लड़ाई में अमरीका ने क्या हासिल किया, आतंकवाद को नेस्तनाबूद क्यों नहीं कर पाया और अब आईएस आतंकियों की तलाश करके उन्हें कैसे मार देगा, ये बेहद अहम सवाल हैं। सिर्फ अमरीका ही नहीं, अब नाटो देशों की सेनाएं भी आतंकियों के निशाने पर हैं। अमरीका के लिए यह नई लड़ाई भी नाक का सवाल है, क्योंकि उसे दुनिया ‘सुपर पॉवरÓ मानती है। अब अमरीका को अपनी ताकत साबित करनी है, क्योंकि अब चीन भी अंदरखाने अट्टहास कर रहा होगा! अब अमरीका अफगानिस्तान में ही रहेगा और पंजशीर सरीखे विद्रोहियों को समर्थन देकर तालिबान को कमजोर करेगा, यह सब कुछ आने वाले दिनों में साफ होगा। अब भारत के लिए भी चुनौतियां बढ़ गई हैं।

 

3. बनाम मानवता

राष्ट्रवाद की धारणा मूलत: राष्ट्र की समृद्धि और राजनीतिक शक्ति में बढ़ोतरी करने में इस्तेमाल की गई है। शक्ति की बढ़ोतरी की इस संकल्पना ने देशों में पारस्परिक द्वेष, घृणा और भय का वातावरण बनाकर मानव जीवन को अस्थिर और असुरक्षित बना दिया है। यह सीधे-सीधे जीवन से खिलवाड़ है, क्योंकि राष्ट्रवाद की इस शक्ति का प्रयोग बाहरी संबंधों के साथ ही राष्ट्र की आंतरिक स्थिति को नियंत्रित करने में भी होता है। ऐसे में समाज और व्यक्ति के निजी जीवन पर राष्ट्र छा जाता है और एक भयावह नियंत्रणकारी स्वरूप हासिल कर लेता है। दुर्बल और असंगठित पड़ोसी राज्यों पर अधिकार करने की कोशिश राष्ट्रवाद का ही स्वाभाविक प्रतिफल है…

पिछले कुछ वर्षों से भारत सहित विश्व के कई देशों के सत्ता-नशीनों द्वारा राष्ट्रवाद, देशभक्ति जैसे विचारों को प्रयासपूर्वक केंद्रीय विमर्श में प्रमुखता से लाने से इन विचारों को जनमानस में उभार मिला है। सिर्फ सतही तौर पर बात करें तो हम सबको ये विचार सकारात्मकता और गौरव का ही बोध देते हैं। ऐसा इसलिए कि इसी राष्ट्रवाद के दम पर सैकड़ों रियासतों में बिखरे भारत ने अपने को एकजुट किया, अपनी स्वतंत्रता का संघर्ष किया और आज़ादी हासिल करने के बाद देश में मौजूद बहुलतामूलक समाजों को राजनीतिक रूप से एकजुट किया।

यह इसका सिर्फ एक पहलू है। सच तो यह भी है कि इसी राष्ट्रवाद के नाम पर हिटलर ने साम्राज्यवाद का नंगा खेल खेला और लाखों यहूदियों को मौत की नींद सुलाया। दरअसल अपने लगभग दो सौ वर्षों के अस्तित्व काल में राष्ट्रवाद एक दुधारी तलवार ही साबित हुआ है जिसने एक ओर उत्कट निष्ठाओं को जन्म दिया तो दूसरी ओर गहरे विद्वेषों को भी प्रेरित किया। मतलब साफ है कि सत्ता चाहे तो जनता के हितों के पोषण के लिए इसका सदुपयोग कर सकती है या अपना हित साधने के लिए दुरुपयोग भी कर सकती है। अत: इसे समझने की ज़रूरत पहले से ज्यादा आज है। ‘राष्ट्रवाद की उत्पत्ति ‘राष्ट्र शब्द से हुई है। राष्ट्र की अवधारणा ज्यादा पुरानी नहीं है। यह एक आधुनिक संकल्पना है, पर बहुत कम समय में ही पूरे विश्व को इसने अपने सम्मोहन में ले लिया। राष्ट्र का अर्थ है, ‘एक निश्चित भू-भाग पर रहने वाले लोगों का ऐसा समूह जिनकी एक जाति, एक इतिहास, एक संस्कृति और एक भाषा है। गौर करने की बात है कि ‘धर्म को राष्ट्र के बुनियादी आधार के तौर पर मान्यता नहीं है, फिर भी इस आधार पर राष्ट्रों का निर्माण हुआ है, जिसे खुद हमने देश के बंटवारे के समय देखा है।

एक रोचक सवाल यह उठता है कि जब इन साझा मानकों से राष्ट्र बनते हैं तो फिर ये राष्ट्रों को हरदम एकजुट रखने में नाकाम क्यों हो जाते हैं? और वहीं दूसरी तरफ भारत सहित दुनिया में अनेक ऐसे राष्ट्र हैं जिनमें अनेक भाषा-भाषी, जातियां, धर्मावलंबी रहते हैं, फिर भी वे क़ायम हैं। तब वह क्या है जो इन्हें राष्ट्र के रूप में एकजुट रखता है? दरअसल राष्ट्र बहुत हद तक एक काल्पनिक समुदाय होता है जो अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं, कल्पनाओं और साझा अतीत के सहारे एक सूत्र में बंधा होता है। राष्ट्रवाद भारतीय चिंतन की उत्पत्ति नहीं है। इसका उदय भारत में नहीं, अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के मध्य यूरोप में हुआ था। राष्ट्रवाद की उत्पत्ति का श्रेय जॉन गॉटफ्रेड हर्डर को दिया जाता है, जिन्होंने सर्वप्रथम इस शब्द का प्रयोग कर जर्मन राष्ट्रवाद की नींव डाली थी।

राष्ट्रवाद के जो तजुर्बे हैं उससे यह स्पष्ट है कि इसकी कोई भी सटीक परिभाषा अब तक गढ़ी नहीं जा सकी है। एक मत के अनुसार राष्ट्रवाद लोगों के किसी समूह की उस आस्था का नाम है जिसके तहत वे खुद को साझा इतिहास, परंपरा, भाषा, जातीयता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर एकजुट मानते हैं। प्रो. स्नाइडर के मतानुसार ‘इतिहास के एक विशेष चरण पर राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व बौद्धिक कारणों का एक उत्पाद : राष्ट्रवाद, एक सुपरिभाषित भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाले ऐसे व्यक्तियों के समूह की एक मन:स्थिति, अनुभव या भावना है जो समान भाषा बोलते हैं, जिनके पास एक ऐसा साहित्य है जिसमें राष्ट्र की अभिलाषाएं व्यक्त हो चुकी हैं, जो समान परंपराओं व समान रीति-रिवाजों से संबद्ध हैं, जो अपने वीरपुरुषों की पूजा करते हैं और कुछ स्थितियों में समान धर्म वाले हैं। यह और बात है कि पूरी दुनिया में कोई भी ऐसा राष्ट्र नहीं है जो इन कसौटियों पर पूरी तरह से फिट बैठता हो। राष्ट्रवाद पर रवींद्रनाथ टैगोर का चिंतन व्यापक है, जिसे उन्होंने कई अवसरों पर सार्वजनिक मंचों से व्यक्त किया था। उनके इन विचारों की आलोचना भी हुई, पर वे डिगे नहीं क्योंकि राष्ट्रवाद के दुष्परिणामों को टैगोर ने संभवत: अच्छी तरह भांप लिया था। सन् 1917 में एक भाषण में उन्होंने कहा था, ‘राष्ट्रवाद का राजनीतिक, आर्थिक और संगठनात्मक आधार उत्पादन में बढ़ोतरी और मानवीय श्रम की बचत कर अधिक संपन्नता हासिल करने का प्रयास है। राष्ट्रवाद की धारणा मूलत: राष्ट्र की समृद्धि और राजनीतिक शक्ति में बढ़ोतरी करने में इस्तेमाल की गई है। शक्ति की बढ़ोतरी की इस संकल्पना ने देशों में पारस्परिक द्वेष, घृणा और भय का वातावरण बनाकर मानव जीवन को अस्थिर और असुरक्षित बना दिया है। यह सीधे-सीधे जीवन से खिलवाड़ है, क्योंकि राष्ट्रवाद की इस शक्ति का प्रयोग बाहरी संबंधों के साथ ही राष्ट्र की आंतरिक स्थिति को नियंत्रित करने में भी होता है। ऐसे में समाज और व्यक्ति के निजी जीवन पर राष्ट्र छा जाता है और एक भयावह नियंत्रणकारी स्वरूप हासिल कर लेता है।

दुर्बल और असंगठित पड़ोसी राज्यों पर अधिकार करने की कोशिश राष्ट्रवाद का ही स्वाभाविक प्रतिफल है। इससे पैदा हुआ साम्राज्यवाद अंतत: मानवता का संहारक बनता है। यह भी एक संयोग ही है कि जिस राष्ट्रवाद को 1917 में टैगोर मानवता के लिए खतरा बता रहे थे, वह तब सही साबित हो गया जब उसी के नाम पर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया और फिर 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी की त्रासदी हुई। संकीर्ण राष्ट्रवाद के विरोध में वे आगे लिखते हैं, ‘राष्ट्रवाद जनित संकीर्णता मानव की प्राकृतिक स्वच्छंदता एवं आध्यात्मिक विकास के मार्ग में बाधा है। ऐसा राष्ट्रवाद युद्धोन्मादवर्धक एवं समाजविरोधी ही होगा, क्योंकि राष्ट्रवाद के नाम पर राज्य द्वारा सत्ता की शक्ति का अनियंत्रित प्रयोग अनेक अपराधों को जन्म देता है। अक्सर राष्ट्रवाद और देशभक्ति को समान अर्थ में ले लिया जाता है, पर इनमें अंतर है। राष्ट्रवाद अनिवार्य तौर पर किसी न किसी कार्यक्रम और परियोजना का वाहक होता है, जबकि देशभक्ति की भावना ऐसी किसी शर्त की मोहताज नहीं है। टैगोर ने तो मानवता को सबसे बड़ा माना और कहा कि ‘जब तक मैं जि़ंदा हूं, मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा। टैगोर मानते थे कि देशभक्ति चारदीवारी से बाहर विचारों से जुडऩे की आज़ादी से हमें रोकती है। उन्होंने कहा, ‘देशभक्ति हमारा आखिरी आध्यात्मिक सहारा नहीं बन सकती, मेरा आश्रय मानवता है। यह हम सब भारतवासियों के लिए गर्व की बात है कि हज़ारों वर्षों से ‘वसुधैव कुटुम्बकम् जैसे उदात्त मूल्य हमारी संस्कृति का हिस्सा रहे हैं। हमारा इतिहास इस बात का गवाह है कि विश्व को अपना परिवार मानने की हमारी भावना के अनुरूप हमने सदा सबको अपनाया है और हर तरह के संकुचित विचारों को ख़ारिज किया है। इस अनूठी सोच ने हमें पूरी दुनिया में सम्मान दिलाया और विशिष्ट बनाया। समस्त भारत का यह अटल विश्वास रहा है कि हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, न उन्हें कहीं से बाधित किया जा सके एवं अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों।                                                                             

 4.इंसानियत पर हमला

काबुल हवाई अड्डे पर हुए धमाकों की जितनी निंदा की जाए, कम होगी। किसी मजहब की बात छोड़ दीजिए, आज इंसानियत शर्मसार है।ैकैसानिर्मम शासन आया है, डर से लोग भाग रहे हैं और भागते लोगों पर आतंकियों ने हमला किया है। इन धमाकों में करीब सौ लोग मारे गए हैं, जिनमें 13 अमेरिकी सैनिक भी शामिल हैं। दो सौ के करीब लोग घायल हुए हैं, जो अब जीवन भर उस दहशत को याद करेंगे, जो उन्हें कथित मजहबी साये में नसीब हुई है। धिक्कार है, ऐसे लोगों पर, जिनमें रत्ती भर भी दया नहीं, जिनकी आंखों का पानी सूख गया है। जो लोग काबुल हवाई अड्डे पर जुटे थे, वे कोई दुश्मन या आतंकवादी नहीं थे। वे डरे हुए लोग हैं, जो जान बचाकर भागने में भलाई समझ रहे हैं, लेकिन उन्हें भागने से रोकने का यह कौन-सा तरीका हुआ? आज अफगानिस्तान की जमीन शर्मसार है, शायद कभी इस जमीन के लोगों को भलमनसाहत के लिए पहचाना जाता था। इनके सीधेपन की दुहाई दी जाती थी। भारत में जिस काबुलीवाले को हम जानते हैं, वह आज काबुल में कहां है? कौन काबुलीवाला रहम की भीख मांग रहा है और कौैन काबुलीवाला अपनों के ही खून का प्यासा बन गया है? 
खैर, काबुल में चल रहे राहत अभियान को झटका लगा है, लेकिन अभियान रुका नहीं है। शोषित काबुलीवालों की वापसी फिर शुरू हो गई है। हमले के एक दिन बाद अमेरिका ने फिर अपने नागरिकों और अधिकारियों को काबुल से निकालने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। हालांकि, अमेरिका का कहना है कि विदेशी सैनिकों की वापसी की मंगलवार की समय- सीमा से पहले और हमले की आशंका है। अमेरिका अपनी जुबान का पक्का होने की कोशिश कर रहा है, लेकिन क्या तालिबान भी अपनी जुबान के पक्के हैं? अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भले ही कह दिया हो कि वह एक-एक मौत का बदला लेंगे, लेकिन यह भला कैसे होगा? क्या अमेरिका सीधी लड़ाई के बजाय छद्म लड़ाई के पक्ष में है? अगर ऐसी कोई लड़ाई छिड़ेगी, तो अफगानिस्तान ही तबाह होगा और इसका दुष्प्रभाव दुनिया झेलेगी। जो लोग सीधी लड़ाई में नहीं सुधरे, क्या वे चुन-चुनकर बदला लेने से सुधर जाएंगे? यह गौर करने की बात है कि तालिबान का दुस्साहस बढ़ा ही इसलिए है, क्योंकि अमेरिका लौट रहा है। यह हमला पश्चिमी देशों के लिए बड़ा सबक है, जो आतंकवाद के खिलाफ पूरी तरह ईमानदार नहीं रहे हैं। ईमानदारी होती, तो न तालिबान यूं काबुल पर चढ़ आते और न अमेरिकी सैनिक शहीद होते। अपने देश में लोकतंत्र सुनिश्चित रखना और दूसरे देशों में तानाशाही या ताकत के सामने घुटने टेक देना उदारता नहीं है। ऐसी ही कथित उदारता पाकिस्तान जैसे देशों में आतंकवाद के पालन-पोषण की वजह है। अब अफगानियों को अपनी मिट्टी के प्रति सजग होना चाहिए। जो समूह अभी भी तालिबान से लोहा ले रहे हैं, उनके साथ खड़े होने का वक्त है। अफगानियों को अपना हित देखना चाहिए। ऐसे नेता या राष्ट्रपति की जरूरत नहीं, जो डर के मारे खजाना समेटकर रातोंरात नौ दो ग्यारह हो जाए। यह अफगानी मिट्टी में पैदा बंदूकधारी कायरों को नहीं, बल्कि इंसानियत के प्रति सजग वीरों और उनके संगठनों को सही मायने में मजबूत करने का वक्त है। यह काम अमेरिका के नेतृत्व में दुनिया के लोग घर बैठे कर सकते थे और कर सकते हैं।

 

5.संकट में साथ

अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद हालात जिस तेजी से बदले हैं, उसने पूरी दुनिया को गहरी चिंता में डाल दिया है। केंद्र सरकार भी अपने स्तर पर भारतीयों को अफगानिस्तान से निकालने के प्रयासों में जुटी है। इस मुद्दे पर विपक्ष को विश्वास में लेने के क्रम में बृहस्पतिवार को आयोजित सर्वदलीय बैठक के निष्कर्षों ने हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती को ही उजागर किया है। तमाम मुद्दों पर सरकार पर हमलावर रहने वाले विपक्ष ने अफगानिस्तान के मुद्दे पर जिस संयत व्यवहार का परिचय दिया, उससे देशवासियों में अच्छा संदेश गया। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस समेत सभी दलों ने यह संदेश दिया कि अफगानिस्तान में तेजी से बदलते घटनाक्रम से उपजी चुनौती पूरे देश की समस्या है, जिसमें राजनीतिक सर्वसम्मति वक्त की दरकार है। निस्संदेह इससे जहां हमारी लोकतंत्र की अवधारणा को बल मिला, वहीं अब सरकार को अपनी विदेश नीति क्रियान्वित करने में सुविधा होगी, जिसका अंतर्राष्ट्रीय जगत में भी सकारात्मक संदेश जाएगा। कह सकते हैं कि विपक्ष को विश्वास में लेने की सरकार की कवायद सिरे चढ़ी है। यह जरूरी भी था क्योंकि बृहस्पतिवार को काबुल हवाई अड्डे पर हुए आत्मघाती हमले में बड़ी संख्या में अफगान नागरिकों व अमेरिकी सैनिकों की मौत जैसी तमाम घटनाएं हर भारतीय को विचलित कर रही हैं। उन तमाम परिवारों की धड़कनें थमी हुई हैं, जिनके परिजन अभी भी अफगानिस्तान में फंसे हैं। ऐसे में विपक्ष के नेता एकला चलो की नीति का अनुसरण करते तो निश्चित ही देश की जनता में कोई अच्छा संदेश नहीं जाता। ऐसे में विपक्षी दलों के सकारात्मक रुझान से एक संदेश तो स्पष्ट गया कि संकट के मौकों पर विपक्षी दल भी राष्ट्रीय सरोकारों के अनुरूप व्यवहार करते हैं। ये मोदी सरकार की रणनीति की भी कामयाबी कही जायेगी। वैसे भी अफगानिस्तान से भारतीयों के दशकों से भावनात्मक रिश्ते रहे हैं। अफगान लोग भी भारत को एक विश्वसनीय मित्र के रूप में देखते रहे हैं। भारत ने भी अरबों डॉलर का निवेश अफगानिस्तान की विकास योजनाओं में किया है।

निश्चित रूप से अफगानिस्तान का हालिया घटनाक्रम देर-सवेर दक्षिण एशिया की राजनीति व समाज को गहरे तक प्रभावित करेगा। तालिबान व पाकिस्तान की जुगलबंदी और चीन का उसमें तीसरे कोण के रूप में शामिल होना हमारी चिंता का विषय बन गया है। ऐसे में वहां की राजनीतिक अस्थिरता से हम अछूते नहीं रह सकते। हमें अपने नागरिकों की रक्षा के साथ भारी-भरकम निवेश की भी फिक्र है। विपक्षी दलों से हुई बैठक में भी ऐसे तमाम पहलुओं पर मंथन हुआ। सरकार ने बताया कि वह तब तक बचाव अभियान चलाती रहेगी जब तक कोई भारतीय नागरिक अफगानिस्तान में फंसा रहता है। वहीं तालिबान के सत्ता में आने पर संवाद के अन्य विकल्पों पर भी विचार किया जाएगा। मसलन मित्र देशों के जरिये अपने हितों की रक्षा की जायेगी। अभी तो पूरा अफगानिस्तान ही अराजकता की चपेट में है। निस्संदेह देर-सवेर नई सरकार का गठन होगा। तब बदले हालात में भारत को अपनी भूमिका को तलाशना होगा। हालांकि, बृहस्पतिवार के आईएसआईएस के घातक हमले ने चिंता बढ़ा दी है कि क्या नई सरकार का गठन शांतिपूर्ण ढंग से हो पायेगा। वह भी तब जब कई विकसित देशों ने अफगानों को बाहर निकालने का काम बंद कर दिया है। हालांकि अमेरिका ने कहा है कि वह देश छोड़कर जा रहे लोगों को निकालने का अभियान जारी रखेगा और हमलावरों को खोजकर सबक सिखायेगा। लेकिन आने वाले दिन बेहद चुनौतीपूर्ण बने रहने की प्रबल संभावना है। जाहिर बात है कि भारत को धैर्य व संयम से हालात पर नजर रखनी होगी। वह भी ऐसे वक्त में जब तालिबान दोहा शांति समझौते की कसौटी पर खरा नहीं उतरा है। वह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुपालन व अल्पसंख्यक समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित करने के वादे से मुकरता नजर आ रहा है। यही वजह है कि बड़ी संख्या में अफगानी देश छोड़ने पर आमादा हैं। इसके बावजूद वक्त का तकाजा है कि अफगानिस्तान में नई सरकार का स्वरूप सामने आने तक भारत सरकार को धैर्य से हालात पर नजर रखते हुए अपनी प्रतिक्रिया देनी होगी।

 

 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top