इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.दमकते दिव्यांग
टोक्यो में चल रहे पैरालंपिक में भारतीय खिलाड़ियों की स्वर्णिम सफलता निस्संदेह प्रेरणादायक है। इस मायने में भी कि कुदरत व हालात के दंश झेलते हुए उनका मनोबल कितना ऊंचा था कि उन्होंने मानव जीवन की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति खेल में कितनी कामयाबी हासिल की। सामान्य ओलंपिक खेलों में भी कभी ऐसा नहीं हुआ कि एक ही दिन में पांच पदक हमें हासिल हुए हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह कि इसमें दो स्वर्ण पदक भी शामिल हैं। सचमुच पैरालंपिक में हमारे खिलाड़ियों ने नया इतिहास लिखा है। उनका प्रदर्शन हर सामान्य व्यक्ति के लिये भी प्रेरणा की मिसाल है कि जज्बा हो तो जीवन में कुछ भी हासिल किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में भी शिखर की ऊंचाई हासिल की जा सकती है। दरअसल, ये खिलाड़ी दो मोर्चों पर संघर्ष कर रहे थे। एक तो अपने शरीर व सिस्टम की अपूर्णता के विरुद्ध और दूसरे दुनिया के अपने जैसे लोगों के साथ खेल स्पर्धा में। दरअसल, हम आज भी उस स्तर तक नहीं पहुंचे हैं जहां दिव्यांगों को समाज सहजता से स्वीकार करता है। उन्हें समाज के तानों से लेकर अपनों का तिरस्कार भी झेलना पड़ता है। उन्हें तरह-तरह के नकारात्मक संबोधन से पुकारा जाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने दिव्यांग शब्द देकर उन्हें जरूर गरिमा का संबोधन दिया है। वैसे देश में दिव्यांगों के जीवन के अनुकूल परिस्थितियां विकसित नहीं की जा सकी हैं। खेल के लिये अनुकूल हालात तो दूर की बात है। निश्चय ही ये खिलाड़ी इस मुकाम तक पहुंचे हैं तो इसमें उनके परिवार का त्याग व तपस्या भी शामिल है। ऐसे स्वर्णिम क्षणों में देश के प्रधानमंत्री का फोन पर इन खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाना इन प्रतिभाओं को जीवन का अविस्मरणीय अहसास दे जाता है। जो उन जैसे तमाम खिलाड़ियों को भी एक प्रेरणा देगा कि वे जीवन में कुछ ऐसा कर सकते हैं कि जिस पर देश का प्रधानमंत्री भी गर्व कर सकता है।
यह अच्छी बात है कि देश की मुख्यधारा के मीडिया ने इन खिलाड़ियों के उत्साहवर्धन में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। निस्संदेह, इस मुश्किल हालात में इन खिलाड़ियों की उपलब्धियां स्तुति योग्य हैं। हम न भूलें कि देश-दुनिया पिछले डेढ़ साल से कोरोना संकट से जूझ रही है। इन खिलाड़ियों को मुश्किल हालात में इस मुकाम तक पहुंचने के लिये अभ्यास करना पड़ा है। उन्नीस वर्षीय अवनि पहली महिला हैं, जिसने पैरालंपिक की इस स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता। वहीं हरियाणा के लाल सुमित अंतिल ने भी भाला फेंक स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतकर नया इतिहास रच दिया। अपना रिकॉर्ड भी तोड़ा और विश्व रिकॉर्ड भी। पहले ओलंपिक में हरियाणा के नीरज चोपड़ा ने स्वर्ण पदक जीता था, अब सुमित की उपलब्धियों पर पूरे देश को गर्व है। ऐसा लग रहा कि हरियाणा भाले से सोने पर निशाना लगाने वालों की खान बनता जा रहा है। शायद किसी ओलंपिक में यह पहली बार होगा कि भाला फेंक में स्वर्ण, रजत व कांस्य पदक भारत के ही खिलाड़ियों ने जीते हों। पुरस्कार वितरण समारोह में इस तरह तिरंगा लहराया जाना हर भारतीय के लिये गौरव का क्षण है। इससे पहले भाविना पटेल ने टेबल टेनिस स्पर्धा में रजत पदक जीतकर भारतीय विजय अभियान की शुरुआत की थी। पैरालंपिक में भाला फेंक स्पर्धा में रजत हासिल करने वाले देवेंद्र झाझारिया का योगदान भी अविस्मरणीय है। वे अपने रिकॉर्ड में सुधार के बावजूद स्वर्ण हासिल न कर पाये। गर्व की बात है कि वे वर्ष 2004 और 2016 के पैरालंपिक स्पर्धाओं में भारत के लिये भाला फेंक में स्वर्ण लेकर आये थे। उन्होंने भारतीय पैरालंपिक खिलाड़ियों में सोना जीतने की भूख भी जगायी है। बड़ी बात है कि दो दशक तक कोई खिलाड़ी लगातार पैरालंपिक में सोना-चांदी जीतता रहे। इसके अलावा हरियाणा के ही एक लाल योगेश कथूनिया के डिस्कस थ्रो में रजत पदक, ऊंची कूद में रजत पदक जीतने वाले हिमाचल के निषाद कुमार व भाला फेंक में कांस्य जीतने वाले दिल्ली के सुंदर सिंह गुर्जर के योगदान की भी प्रशंसा की जानी चाहिए। मंगलवार को हाई जंप में मरियप्पन थंगावेलू ने रजत, शरद कुमार ने कांस्य तथा 10 मीटर एयर पिस्टल में सिंहराज अधाना ने कांस्य जीत कर पहली बार पदकों को दहाई के अंक तक पहुंचाया है।
2.पीछे ले जाने वाला विचार
काबुल में तालिबान के काबिज होने के साथ अफगानी बच्चियों और औरतों के भविष्य को लेकर जब पूरी दुनिया चिंता में डूबी हुई है, तब भारत में जमीयत उलेमा-ए-हिंद के सदर अरशद मदनी का यह बयान कि लड़कियों और लड़कों की शिक्षा अलग-अलग होनी चाहिए, एक प्रतिगामी विचार तो है ही, भारतीय संविधान की मूल भावना के भी खिलाफ है। कोई भी तरक्कीपसंद हिन्दुस्तानी उनकी इस राय को सिरे से खारिज ही करेगा। इसलिए केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने मदनी को मुनासिब याद दिलाया है कि भारत शरीयत से नहीं, बल्कि संविधान से संचालित एक जम्हूरी मुल्क है, और भारतीय संविधान ने अपनी बेटियों को बेटों के बराबर सांविधानिक अधिकार दिए हैं। एक नागरिक के तौर पर अपने बेहतर भविष्य के लिए वे हर वह फैसला कर सकती हैं, जो इस देश के लड़कों को हासिल है। और इस लैंगिक बराबरी की राह में जो कुछ रुकावटें बाकी भी हैं, उन्हें देश की आला अदालत अपने फैसलों से दूर कर रही है।
अरशद मदनी ने कहा है कि लड़कियों और लड़कों के लिए अलग-अलग स्कूल-कॉलेज खोले जाने चाहिए। देश में लड़कियों के लिए अलग स्कूल भी हैं व कॉलेज भी, और इनका स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में काफी अहम योगदान भी रहा है। निस्संदेह, इनकी स्थापना के पीछे कभी यह सोच रही हो कि चूंकि कई माता-पिता अपनी बच्चियों को सहशिक्षा केंद्रों में नहीं भेजना चाहते, इसलिए उन्हें शिक्षा के अवसर से वंचित न होना पडे़। पर मदनी शायद भूल गए कि उन स्कूलों-कॉलेजों से लड़कियों की कई पीढ़ियां निकल चुकी हैं। 21वीं सदी के भारतीय समाज ने सोच के स्तर पर भी लंबा सफर तय कर लिया है। देश के सभी वर्गों की बेटियां आज मुख्यधारा में शामिल हो तरक्की की नई-नई इबारतें लिख रही हैं।
कई इस्लामी मुल्कों में भी सहशिक्षा की व्यवस्था है, और वह बाकायदा चल रही है। आने वाले दौर की जरूरतों और तेजी से बदलती दुनिया के मद्देनजर अरब देशों को औरतों पर लगी पाबंदियां आहिस्ता-आहिस्ता उठानी पड़ रही हैं। कतर जैसे देश में तो लड़कियों को खेल-कूद तक में बराबरी का हक मिलने लगा है। वहां लड़के-लड़कियों की साक्षरता-दर में मामूली सा फर्क रह गया है। ऐसे में, बोसीदा ख्यालों को अब मुस्लिम समाज से भी बहुत समर्थन नहीं मिल सकता। तीन तलाक के मसले पर देश ने देखा है कि किस कदर महिलाओं ने नए कानून का स्वागत किया। इन बदलावों को देखते हुए भी मजहबी इदारों में बैठे लोगों को अतार्किक बातों से परहेज करना चाहिए। बल्कि उनसे उम्मीद की जाती है कि तंग दायरों से निकल वे समाज का मार्गदर्शन करें। यह समस्या सिर्फ एक धर्म, बिरादरी या स्कूल की नहीं है। लगभग सभी धर्मों, बिरादरियों में ऐसे लोग मौजूद हैं, जो औरतों को खुदमुख्तारी देने को लेकर उदार नजरिया नहीं रखते। हिफाजत, मर्यादा, गरिमा, आबरू जैसे शब्दाडंबरों के नीचे उनकी अपनी मरजी को दबा देना चाहते हैं। मगर भारतीय स्त्रियों का यह सौभाग्य है कि देश के नव-निर्माताओं ने आजादी के साथ ही बराबरी के उनके हक पर सांविधानिक मुहर लगा दी। यकीनन, उन्हें सामाजिक बराबरी के लिए अब भी लड़ना पड़ रहा है, पर इस लड़ाई में उनका संविधान उनके साथ खड़ा है। इसलिए उन्हें मदनी जैसे ख्यालों से चिंतित होने की जरूरत नहीं।
3.वाह! दिव्यांग बेटे–बेटियो!
टोक्यो पैरालंपिक में भारत की 19 साला बेटी अवनि लेखरा ने 10 मीटर एयर राइफल में स्वर्ण पदक जीत कर विश्व रिकॉर्ड बराबर किया। वह प्रथम भारतीय खिलाड़ी हैं। भारत के हुनरमंद बेटे सुमित अंतिल ने भाला फेंक स्पद्र्धा में स्वर्ण हासिल कर विश्व कीर्तिमान स्थापित किया। उसने अपने कीर्तिमानों को ही लगातार चुनौती दी। भाला फेंक के ओलंपिक चैंपियन नीरज चोपड़ा ही सुमित के खेल की मीमांसा कर सकते हैं। भारत के ही बेटों देवेंद्र झाझरिया और सुरेंद्र गुर्जर ने भी भाला फेंक में ही क्रमश: रजत और कांस्य पदक जीते। झाझरिया तो ‘पुराने सिकंदर हैं। हरियाणवी सपूत योगेश कथूनिया ने चक्का फेंक में रजत पदक जीता। बीते सोमवार को एक ही दिन में भारत की झोली में पांच ओलंपिक स्तरीय पदक…! सचमुच अविश्वसनीय, अकल्पनीय और अतुलनीय लगता है। सामान्य ओलंपिक और पैरालंपिक में बुनियादी अंतर नहीं है। सिर्फ शारीरिक दिव्यांगता का फासला और मुकाबला है। वाह!! देेश के दिव्यांग बेटे, बेटियो! आपने तो अक्षमता, विकलांगता को भी चुनौती दे दी! शारीरिक अधूरेपन को हाशिए पर धकेल कर, खेल के लक्ष्य, जज़्बे और गौरव को हासिल किया। आसमान की ओर बढ़ता ‘तिरंगाÓ प्रफुल्लित है। देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समेत अनेक विशिष्ट जनों ने भावनाएं व्यक्त की हैं-हमें आप पर गर्व है। सभी ने देश के इन विशेष बेटे-बेटियों को बधाइयों और शुभकामनाओं से भरपूर कर दिया है।
यह उल्लेख गुजरात और हिंदुस्तान की बेटी भाविनाबेन पटेल की टेबल-टेनिस में विश्व स्तरीय उपलब्धि के बिना अधूरा है, जिसने रजत पदक जीत कर देश की सर्वप्रथम महिला खिलाड़ी होने का गौरव हासिल किया है। हिमाचल के दिव्यांग खिलाड़ी निषाद ने अधूरेपन के बावजूद हवा में छलांग लगाई और भारत की झोली में एक और रजत पदक पेश किया। टोक्यो पैरालंपिक में 7 पदक जीत कर भारत फिलहाल 28वें स्थान पर है, लेकिन प्रतिस्पद्र्धाएं जारी हैं और इस स्थान में सुधार होगा। सामान्य ओलंपिक की तर्ज पर पैरालंपिक में भी यह भारत का अभूतपूर्व प्रदर्शन है। देखते रहिए और प्रतीक्षा कीजिए कि और कितने पदक हमारे बेटे-बेटियों को ‘सिकंदरÓ साबित करेंगे! कोई भी, किसी भी वजह से, दिव्यांग हो सकता है। दुर्घटना, हादसे, बीमारी या जन्मजात विकृतियां किसी भी इनसान को विकलांग बना सकती हैं। हमारे इन खिलाडिय़ों ने भी ऐसे दंश झेले हैं। बहुत कुछ गंवाया है। व्हील चेयर तक सिमट कर रह गए हैं। टांग, बांह नहीं है, लेकिन हिम्मत, जज़्बा और उम्मीदें हैं। ये जुनूनी चेहरे ऐसे हैं, जिन्होंने अक्षमता को पराजित किया है। उन्होंने अपने अधूरे अंगों के बावजूद विश्व कीर्तिमान स्थापित किए हैं। अधूरेपन के बावजूद इन खिलाडिय़ों के भीतर कोई दृढ़ संकल्प और मानसिक शक्ति थी, जिसके बल पर बुलंदियां छुईं और ‘तिरंगेÓ के साथ-साथ भारत को बार-बार सम्मानित किया।
वाह! शाबाश!! पदकवीरो!! आप सभी ने एक मंजि़ल छुई है, अभी सफर जारी है, आप प्रेरणा हैं, आदर्श हैं और दिव्यांगों के हौसलों की ताकत हैं। अब भारत सरकार और राज्य सरकारों के कुछ ठोस करने की बारी है। बेशक करोड़ों रुपए और सरकारी नौकरियों के ऐलान किए गए हैं। वे तो खिलाड़ी हैं, लिहाजा दुर्लभ और विलक्षण हैं, लेकिन देश में आम दिव्यांग आज भी उपेक्षित, असहाय महसूस कर रहा है। भारत में 2011 की जनगणना के मुताबिक, करीब 45 फीसदी दिव्यांग अनपढ़ हैं और करीब 36 फीसदी ही कार्यबल का हिस्सा हैं। अर्थात कोई नौकरी या रोजग़ार में शामिल हैं। दिव्यांगों के लिए सार्वजनिक स्थलों तक आसानी से पहुंचना और परिवहन के सुविधाजनक साधन, चढऩे में मदद करने वाले और अन्य बुनियादी ढांचा जरूर होना चाहिए, लेकिन भारत में इसका बहुत अभाव है। 2011 की जनगणना के मुताबिक ही, देश में 2.68 करोड़ दिव्यांग ऐसे हैं, जिनमें करीब 20 फीसदी चलने-फिरने में अक्षम हैं और करीब 19 फीसदी में दृष्टि संबंधी विकलांगता है। हालांकि 2015 में मोदी सरकार ने ‘एसेसिबल इंडिया अभियानÓ शुरू किया था, ताकि सभी दिव्यांगों को सहूलियत मुहैया कराई जा सके, लेकिन उसकी गति भी अप्रत्याशित तौर पर मंथर ही रही है। ज्यादातर सरकारी योजनाओं में प्रेरणा और सहयोग का स्पष्ट अभाव दिखाई देता है। संयुक्त राष्ट्र में पारित प्रस्ताव के अनुरूप भी भारत की सोच नहीं है, लिहाजा जो पदकवीर खिलाड़ी हमारे सामने आए हैं, वे देश के लिए बहुमूल्य मोतियों से कमतर नहीं हैं। अलबत्ता भारत सरकार को नए सिरे से मंथन करना चाहिए। हमारे देश में खिलाडिय़ों को मिलने वाली सुविधाएं पर्याप्त नहीं हैं।
4.सेब किससे नाराज़
सेब की मिलकीयत में हिमाचल के नए जख्म संबोधित हैं और इस तरह गिरते दामों ने माहौल में तल्खी पैदा की है। कारणों की जद में मसला हिमाचल से दिल्ली सरकार तक की नीयत-नीति से जुड़ते हुए किसान संघर्ष के सवालों तक को छू रहा है। सेब इस बार बाजार की नरमी में अपनी लालिमा पर भले ही थप्पड़ खा रहा है, लेकिन अपने दामों के तराजू पर इसने सत्रह बागबान एवं किसान संगठन इकट्ठे कर लिए हैं। शिमला के कालीबाड़ी हाल में संयुक्त किसान मंच का गठन संघर्ष की इबारत लिख रहा है, जो 13 सितंबर का प्रदर्शन इस मुद्दे को जमीनी अस्मिता से जोड़ सकता है। पहली बार सेब बिखर और बिफर रहा है, तो यह प्रदेश की 4500 करोड़ की आर्थिकी के लिए सबसे बड़ी ङ्क्षचता होनी चाहिए। सेब मूल्य निर्धारण की वर्तमान स्थिति में कारपोरेट घरानों का साजिशी तंत्र पूरे देश को बता रहा है कि कल जिस तारीफ में कृषि कानूनों की खिड़कियां खुली होंगी, वहां व्यापारिक उद्देश्य कितने जहरीले हो सकते हैं। हिमाचली सेब का बाजार एक ओर आयातित सेब से एकतरफा मुकाबला कर रहा है, तो दूसरी ओर वाजिब समर्थन मूल्य निर्धारित न होने की वजह से कारपोरेट के मकसद में अपनी इज्जत गंवा रहा है।
आश्चर्य यह भी कि जिस तरह यह मसला बड़ा होता जा रहा है, उसके विपरीत सरकार की ओर से खामोशी भी मायूस कर रही है। आंदोलन के प्रारूप में किसान-बागबान की संवेदना के संवाहक नेता भी हो सकते हैं और यह भी कि धीरे-धीरे ये कदम एक बड़ी राजनीति को आगे बढ़ा सकते हैं। दशकों बाद प्रदेश खुद को सेब राजनीति के जरिए फिर निहारने लगा है और उन दावों की हकीकत से पूछने लगा है कि फलों के रस का अधिकतम प्रयोग शीतल पेयों में करने का आखिर हुआ क्या। फल आर्थिकी को आगे करके प्रदेश ने क्या पाया, इस चर्चा के विविध आयाम दिखाई दे रहे हैं। यह दीगर है कि आज भी हिमाचल फल राज्य के नाम पर सेब को इंगित करता है और इसी दृष्टि से अनुसंधान, व्यापारिक उत्थान तथा बाजार देखा जाता है। सेब की महिमा में प्रदेश की राजनीति के इकबालिया बयानों का अर्थ और अतीत का संदर्भ जुड़ता रहा है। इस तरह किसान मंच केवल तर्क नहीं, अधिकार प्राप्त करने का ऐसा तरीका है जो आगे चलकर माकूल समर्थन मूल्यों की बात को आगे बढ़ाएगा। बेशक बात सेब से शुरू हुई, लेकिन किसान मंच के आंदोलन में टमाटर, अदरक और लहसुन तक की स्थिति का जिक्र होगा।
राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के मुद्दे पर खड़ा आक्रोश, हिमाचल के सेब का सहारा बनेगा या यहां की हवाएं देश के किसानों को आंदोलन की आक्सीजन देंगी, यह आने वाला समय बताएगा। राकेश टिकैत का हिमाचल दौरा भले ही विवादों में रेखांकित हुआ, लेकिन इन रास्तों पे अब किसान-बागबानों का नमक पिघलेगा। हालांकि हिमाचल का वर्णन कृषि कानूनों की व्यावहारिकता को आदर्श बनाता रहा है और यहां कारपोरेट दखल में सेब आर्थिकी निरूपित हुई, लेकिन इस सीजन में बाजार की चादर हट गई। किसान मंच ने सेब दामों पर जिन चेहरों का वर्णन किया है, वहां कारापोरेट के खिलाफ हिमाचल में भी तर्क बुलंद होंगे। तेरह सितंबर की शुुरुआत आगे चलकर 26 तक क्या शक्ल लेती है या समर्थन मूल्यों की तलब में सेब व अन्य नकदी फसलों पर कितना सियासी रंग चढ़ेगा, यह काफी कुछ कहेगा। मंडी संसदीय क्षेत्र उपचुनाव से पहले कम से कम सेब आधारित राजनीति का प्रवेश तो हो ही गया। चुनावी फसल के लिए योजनाएं-परियोजनाएं बांटती सरकार का सामना किसान
मंच पर उठे सवालों से निश्चित रूप से होगा, अत: इस विषय पर स्पष्टता चाहिए।