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EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है

1.हिंदुस्तान में भी तालिबान!

तालिबान की प्रतिध्वनियां भारत में भी गूंजने लगी हैं। कुछ मौलाना शरिया कानून को संविधान से भी महत्त्वपूर्ण मानने का दुस्साहस कर रहे हैं और अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक आज़ादी का प्रलाप भी कर रहे हैं। यकीनन यह बेहद संवेदनशील स्थिति है। अलबत्ता भारत में संविधान और लोकतंत्र की हुकूमत तय है। मुसलमानों के संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद के सदर अरशद मदनी ने फरमान जारी किया है कि लड़कियां और लड़के अलग-अलग स्कूल, कॉलेज में पढ़ाई करें। सह-शिक्षा किसी भी स्तर पर न हो और पुरुष अध्यापक भी लड़कियों को न पढ़ाएं। जमीयत के सचिव गुलज़ार आज़मी ने आग और लकड़ी से तुलना करते हुए व्याख्या दी है कि 12 साल की उम्र से ज्यादा के लड़के-लड़कियों के दरमियान ‘शैतानÓ आकर बैठ जाता है। जमीयत मौलानाओं ने अनैतिकता और अश्लीलता से जोड़ते हुए सह-शिक्षा को खारिज किया है। इस्लाम और कुरान की आड़ में ये दलीलें भी दी गई हैं कि मर्दों के लिए क्या जायज है और औरतों के लिए क्या नाजायज है? संविधान में ऐसा कोई फासला या फर्क नहीं किया गया है। मर्द और औरत के समान अधिकार और सामाजिक दर्जा हैं। यह फरमान कितना संवैधानिक और कानूनी है, यह सवाल भिन्न है, क्योंकि हमारी अदालतें ऐसे फरमानों और फतवों को ‘अवैध करार दे चुकी हैं, लेकिन चिंता और सरोकार हिंदुस्तान में भी ‘तालिबानी सोच के मद्देनजर है।

जमीयत और देवबंद की व्यापकता और स्वीकृति कई देशों तक है। हालांकि अब अरब और इस्लामी देशों में भी सह-शिक्षा का चलन है। लड़के-लड़कियां साथ पढ़ते और काम करते हैं। कुछ संकीर्णताएं हो सकती हैं, लेकिन तालिबान की तरह तमाम पाबंदियां औरतों पर ही नहीं हैं। ऐसी व्यवस्था ही इस्लाम-विरोधी है। अफगान तालिबान के ताल्लुक भी इन संस्थानों के मदरसों से रहे हैं। वे ही कट्टरपंथी और जाहिल सोच की नस्ल के अड्डे रहे हैं। हालिया दौर में तालिबान एक वैश्विक चिंता और आतंक के तौर पर सामने है, लिहाजा हिंदुस्तान में ऐसी सोच की भत्र्सना ही नहीं की जानी चाहिए, बल्कि संविधान के तहत आरोपित मौलानाओं के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी जरूरी है। भारत एक लोकतांत्रिक और लैंगिक समानता का देश है। जीवन की मुख्यधारा में, ज़मीन से अंतरिक्ष तक, महिला-पुरुष साथ-साथ कार्यरत हैं। बीते कल ही सर्वोच्च न्यायालय में तीन महिला न्यायाधीशों ने शपथ ग्रहण की है। लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर संसद से लेकर निचले सदन पंचायत तक दोनों ही लिंग साथ-साथ दायित्व निभा रहे हैं। क्या अब जमीयत ऐसे हिंदुस्तान में सभी लैंगिक समीकरणों को बिगाड़ कर नई, तालिबानी संस्कृति स्थापित करना चाहता है? क्या आम दफ्तर से लेकर संसद तक में अब पुरुषों और महिलाओं को अलग-अलग बिठाया जाए? लड़का-लड़की साथ में पढ़ेंगे और काम करेंगे, तो क्या गैर-मुस्लिम जमातें ‘लव जेहाद करेंगी? ये तमाम जाहिल दिमाग के तर्क हैं।

दरअसल मंसूबे और मकसद खतरनाक और असामाजिक हैं, लिहाजा यह फरमान भी एक किस्म का ‘देशद्रोह है। संभव है कि मौलाना और मौलवियों की जमात, कट्टरपंथी लोगों के सहयोग से, मुसलमानों में इस नई संस्कृति को जबरन लागू करने की कोशिश करे! वह भी संविधान के खिलाफ होगा, लिहाजा देश-विरोधी करार दिया जाना चाहिए। आस्थाओं पर कोई सवाल या बंदिश नहीं है, लेकिन हिंदुस्तान में शरिया नहीं, संविधान का कानून हमेशा चलेगा। इस्लाम में क्या निहित है, कुरान में क्या लिखा है, औरत के लिए परदा लाजिमी है, इन स्थापनाओं का हमें पर्याप्त ज्ञान नहीं है, लेकिन इतना ज्ञान सार्वजनिक है कि कुरान और इस्लाम औरत के हुकूक की पैरोकारी जरूर करते हैं। मौलाना उन्हें भी लागू करने के फरमान जारी क्यों नहीं करते? क्योंकि उनके लिए औरत सिर्फ एक देह है, वस्तु है और बच्चे पैदा करने की मशीन है। हैरत होती है कि यह फरमान उप्र से जारी किया गया है, जहां कुछ माह बाद विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन कांग्रेस, सपा, एमआईएम और एनसीपी सरीखी कथित धर्मनिरपेक्ष और मुस्लिमवादी पार्टियां खामोश हैं! यह है तुष्टिकरण का सबसे जीवंत उदाहरण…! फरमान देने की मानसिकता विकृत और दकियानूसी है, लिहाजा इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी मान कर छोड़ न दिया जाए। साजि़शें और तालिबान ऐसी ही सोच की कोख से पैदा होते हैं और एक हद के बाद उन्हें काबू करना असंभव हो जाता है। इस मामले में कार्रवाई करना जरूरी है ताकि संविधान की सर्वोच्चता को कायम रखा जा सके। भारत में संविधान से ऊपर कोई नहीं है तथा अभिव्यक्ति की आजादी की भी एक सीमा है।

2.हिमाचल का वैधानिक उद्गार

पूर्ण राज्यत्व के पचास सालों की सुखद अनुभूति में हिमाचल अपनी उपलब्धियों का शृंगार कर रहा है और इसी के आलोक में 17 सितंबर को विधानसभा का विशेष सत्र राज्य के प्रति वैधानिक उद्गार होगा। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की मौजूदगी में पर्वतीय राज्य के कदमों का विवरण, कई मायनों में वाकई एक इतिहास को पूर्ण करने की समीक्षा है। यह आधी सदी का ऐसा पड़ाव है, जो जनता की मेहनत, राजनीतिक नेतृत्व की दृष्टि और उम्मीदों के प्रायोजन में आगे बढऩे का संकल्प रहा। हिमाचल को कितना और आगे जाना है, इस प्रश्न से पहले जहां तक पहुंचा है, उसका उल्लेख राहत के तमगों के साथ होगा।

आंकड़े तरह-तरह के सबूतों के साथ प्रदेश की कद-काठी को ऊंचा करते हैं और यह सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका में सफल होने की पराकाष्ठा की तरह है। इन पचास सालों का जिक्र राजनीति की बदौलत कई जनप्रतिनिधियों को हमारे स्मरण में आदरणीय बना सकता है, लेकिन अतीत के सफर में दिखाई गई इच्छा शक्ति के लिए हिमाचल का समावेश जिन हस्तियों ने किया या जिस तरह पूर्व मुख्यमंत्री वाईएस परमार ने ‘पहाड़ी होने को गौरवान्वित किया, उस भावना का हर पहलू आज के परिप्रेक्ष्य में याद करना होगा। एक दौर वह भी था जब अपनी लंगड़ी भूमिका में घुटने टेक कर यह प्रदेश चलना सीख रहा था और आज हर मुकाम पर बड़े व प्रगतिशील राज्यों से आगे साक्षरता दर, सड़क घनत्व, शैक्षणिक व चिकित्सा संस्थानों की शुमारी में आगे दिखाई देता है। लोकतांत्रिक मूल्यों में नागरिक समाज की जिस पीढ़ी की मुलाकात आज और कल से है, वहां प्रति व्यक्ति आय का हिसाब, हर तरह से सामाजिक न्याय के शिलालेख ऊंचे कर देता है। यही वजह है कि राष्ट्रीय कार्यक्रमों में प्रदेश की भागीदारी सर्वोच्च शिखर पर होती है। कोविड बचाव के कार्यांे में पहली डोज का सौ फीसदी लोगों तक पहुंचना, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिमाचल के यथार्थ को पूर्ण करता है। ऐसी अनेक पूर्णताओं को हासिल करके यह प्रदेश अपने सामने प्रगति के आईने खड़े करता है, लेकिन ‘पहाड़ी होनेÓ की खासियत के साथ वांछित मर्यादा को हम तेजी से खो रहे हैं।

विकास के वैभव में ही यह सवाल नहीं, बल्कि सामाजिक व सांस्कृतिक धरातल पर भी खंडित होती शर्तों के दामन में दाग हैं। यह पर्यावरणीय चिंताओं से कहीं आगे तमाम नियमावलियों का उल्लंघन है जो दरकते पहाड़ों को उदासीनता से देखता है या नदी-नालों के आंचल से गाद बटोरता है। यह पहाड़ी चरित्र तो नहीं कि हम प्रकृति की छाती को चीर कर निजी प्रगति का माफिया बन जाएं या एक ऐसा शासक वर्ग तैयार कर लें जो प्रदेश के संसाधनों की नीलामी पर उतर आए। जिन कारणों पर केंद्रित हिमाचल अपने अस्तित्व का प्रकाश कर पाया, उनसे कहीं अलग अब राजनीतिक दिशाओं का स्वावलंबन ढूंढा जा रहा है। समीकरणों की नई खाद और पौध पर आश्रित एक ऐसा क्षेत्रवाद पैदा हो रहा है, जो सारे प्रदेश को तरह-तरह के चश्मों से देख रहा है। राजनीति में जातीय श्रेष्ठता, क्षेत्रीय गठबंधन व सत्ता के गरूर ने ‘पहाड़ी होने का सांस्कृतिक ह्रास इस कद्र किया है कि एक साथ कई मुहानों की प्रतिस्पर्धा में आंकड़े फिसल रहे हैं। राज्य को केवल हुक्मरान संबोधित नहीं कर सकते, बल्कि उस औचित्य को याद करना होगा जो हमें पहाड़ी बोलियों, रिश्तों, संस्कृति व परंपराओं के संगम पर ले आया है। हिमाचल की विशालता में पंजाब के पर्वतीय क्षेत्र मिले, लेकिन अब प्रदेश अपने ही लोगों की विरासत से गले नहीं मिल पा रहा। हिमाचल की पूर्णत: में विराम लगाते राजनीतिक क्षेत्रवाद को दूर करके, क्या हम हिमाचली भाषा, गीत-संगीत, नृत्य व लोकसंस्कृति के प्रतीकों को जीवंत कर पाएंगे।

 

3.लाचारी की विदाई

महाशक्ति होने का दंभ भरने वाले अमेरिका ने बीस साल बाद अफगानिस्तान से जिन हालात में वापसी की, उसे मुसीबत से पीछा छुड़ाना ही कहा जायेगा। जिस तरह पहले मुख्य सैनिक अड्डे से रातों-रात उसके सैनिक निकले, उसने पूरी अफगानी सेना का मनोबल तोड़ दिया, जो फलत: तालिबानियों के सामने बिछ गई। जिन तालिबानियों के सत्ता में काबिज होने की अवधि को अमेरिकी विशेषज्ञ कभी छह महीने, कभी तीन महीने बताते रहे, उन्होंने चंद दिनों में काबुल सरकार का पतन कर दिया। अमेरिका ने वापसी की जो तिथि 31 अगस्त तय की थी, उससे एक दिन पहले ही अमेरिका अफगानिस्तान से रात के अंधेरे में निकल गया। आखिर अफगानिस्तान में कई ट्रिलियन डॉलर खर्च करने, ढाई हजार से अधिक सैनिक गंवाने तथा ढाई लाख अफगानियों की मौत के बाद अमेरिका ने क्या हासिल किया? वैसे तो अमेरिका की जैसी वापसी हुई, उसे आम भाषा में पिंड छुड़ाना ही कहेंगे। जब अमेरिका 2001 में अफगानिस्तान पहुंचा था तो तालिबान के धमाकों से उसका स्वागत हुआ था और विदाई के वक्त भी काबुल हवाई अड्डे पर हुए फिदायीन हमले के धमाकों से उसकी विदाई हुई। तो क्या बदला अफगानिस्तान में? अमेरिका ने साख ही खोयी है। वह आतंकवादियों के खात्मे का दावा नहीं कर सकता। सही मायनो में तालिबानी संस्कृति ऐसे रक्तबीज के रूप में उभरी है, जिसका खात्मा असंभव नजर आता है। यही वजह है कि महाशक्तियों की कब्रगाह बने अफगानिस्तान में ब्रिटिश साम्राज्य, रूस और अब तीसरी महाशक्ति अमेरिका के पतन के बाद एक बार फिर तालिबान सत्ता में लौटा है। बल्कि अब अमेरिका के जिन हथियारों पर तालिबान ने कब्जा कर लिया है, उसके बाद तो वह अत्याधुनिक हथियारों वाला दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी समूह बन चुका है। जो देर-सवेर भारत जैसे देशों के लिये परेशानी पैदा करेगा। अब भले ही तालिबान दावा करे कि वह आईएस-खुरासान गुट व अल कायदा के खिलाफ लड़ेगा, लेकिन हकीकत में सब मौसेरे भाई हैं, जिन्हें पाक ने अपनी जमीं पर सींचा है।

दरअसल, अमेरिका के इस सबसे लंबे युद्ध के परिणामों पर नजर डालें तो पाते हैं कि उसने अफगानिस्तान की लाखों जिंदगियों को खतरे में डाल दिया है। काबुल में सरकार के पतन के बाद कोई अन्य विकल्प न होने पर हवाई अड्डे पर लाचार अफगानियों का जो सैलाब उमड़ा, उसने आने वाले कल की भयावह तस्वीर उकेरी है। तालिबानियों के हर चौक-चौराहे पर रोके जाने, आत्मघाती बम हमले व राकेट हमले के बीच अफगानी काबुल हवाई अड्डे की ओर बदहवास दौड़ते रहे। कुछ तो हवाई जहाज के पहियों तक में लटककर भागने के प्रयास में मौत के मुंह में समा गये। कई माएं तो अमेरिकी सैनिकों को अपने दिल के टुकड़े सौंपती रही कि इन्हें बचा लो, अब हम रहें, न रहें, ये बच्चे बच जाएं। जो यह बताता है कि तालिबानी सत्ता का भय कितना क्रूर व भयावह है। अमेरिका व मित्र देश सवा लाख के करीब अफगानियों को निकालने का दावा कर रहे हैं, लेकिन उनका जीवन भी कितना बदलने वाला है? वे भी वर्षों तक अपनी जमीन से उखड़कर शरणार्थियों का जीवन जीने को अभिशप्त रहेंगे। जार्ज बुश के सनक भरे फैसले की कीमत लाखों लोगों ने अपनी जान देकर चुकाई और लाखों लोग दशकों तक चुकाते रहेंगे। खासकर वे लोग जो चाहकर भी बाहर नहीं निकल पाये। अब देखना होगा कि तालिबान अफगानिस्तान को इस्लामिक अमीरात बनाकर क्या करना चाह रहा है। वह अभी जो चिकनी-चुपड़ी बातें कर खुद को बदला हुआ तालिबान बता रहा है, उसकी हकीकत देर सवेर सामने आएगी। बीते सोमवार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक प्रस्ताव परित हुआ था, जिसमें तलिबान को इच्छुक अफगानियों का बाहर जाने देने के वायदे पर अमल करने, सहायता एजेंसियों को मानवीय मदद अभियान चलाने देने, महिलाओं व मानवाधिकारों का सम्मान करने तथा अफगान भूमि का इस्तेमाल आतंकवादी गतिविधियों के लिये नहीं करने देने को कहा गया है। उम्मीद करें कि तालिबान विश्व जनमत का सम्मान करेगा। नजर इस दहशत के बहते दरिया में हाथ धोने को आतुर पाक, चीन व रूस पर भी रहेगी।

4.हिरासत में मंत्री

मर्यादाएं जब टूटती हैं, तब वे अशोभनीय दृश्य ही रचती हैं। दुर्योग से भारतीय राजनीति में ऐसे दृश्य अब बार-बार उभरने लगे हैं। केंद्रीय मंत्री नारायण राणे की गिरफ्तारी भारतीय राजनीति के क्षरण का ताजा उदाहरण है। कल महाराष्ट्र में रत्नागिरी पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया। आरोप है कि अपनी जन-आशीर्वाद यात्रा के दौरान उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बारे में अशालीन टिप्पणी की थी, जिसके विरुद्ध शिव सैनिकों में तीखी प्रतिक्रिया हुई और राणे के खिलाफ कई थानों में प्राथमिकी दर्ज करा दी गई। रत्नागिरी कोर्ट से अग्रिम जमानत की याचिका खारिज होने और बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा त्वरित सुनवाई से इनकार के बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इसके साथ ही राज्य में कई जगहों पर शिव सेना व भाजपा कार्यकर्ता आपस में भिड़ गए और एक तनावपूर्ण स्थिति पैदा हो गई। विडंबना यह है कि चंद वर्ष पहले तक यही कार्यकर्ता एक-दूसरे के कंधे से कंधा मिलाकर चुनाव लड़ रहे थे और उनके नेता सत्ता में साथ-साथ भागीदार थे।
कुछ ही माह पूर्व मई में कोलकाता में ऐसे ही दृश्य देखने को मिले थे, जब कुछ नवनियुक्त मंत्रियों को सीबीआई ने नारदा स्टिंग ऑपरेशन मामले में हिरासत में लिया था और तब तृणमूल कांग्रेस व भाजपा के नेता-कार्यकर्ता आमने-सामने आ गए थे। उस समय भी राजनीतिक बदले के आरोपों-प्रत्यारोपों ने ऐसा कटु माहौल बनाया, जिससे जांच एजेंसियों की प्रतिष्ठा तो धूमिल हुई ही, आज तक केंद्र व पश्चिम बंगाल सरकार के रिश्ते सहज नहीं हुए हैं, संघवाद की आदर्श कल्पना से तो खैर कोसों दूर हैं। सियासी प्रतिद्वंद्वियों से राजनीतिक स्तर पर निपटने के बजाय उन्हें कानूनी रूप से घेरने का चलन नया नहीं है, और इसके लिए तंत्र का बेजा इस्तेमाल भी दशकों से होता रहा है, पर हमारे राजनेता एक-दूसरे के खिलाफ यूं अभद्र भाषा का इस्तेमाल सार्वजनिक रूप से नहीं करते थे। समाज इसे अच्छी नजरों से नहीं देखता था। शायद इसीलिए तीखे राजनीतिक विरोध के बावजूद उनके निजी रिश्ते बने रहते और इस कारण संसदीय प्रक्रियाओं का निबाह भी आसानी से हो जाता था, बल्कि सामाजिक स्तर पर राजनीतिक खेमेबाजी की कटुता भी नहीं आ पाती थी। लेकिन हाल के वर्षों में भारतीय राजनीति की यह खूबी तेजी से खत्म हुई है और इसके लिए हमारा पूरा राजनीतिक वर्ग जिम्मेदार है।
नारायण राणे शिव सेना, कांग्रेस और भाजपा, सभी पार्टियों में रह चुके हैं। ऐसे में, उनसे अधिक परिपक्वता की अपेक्षा की जाती है। फिर वह स्वयं एक सांविधानिक पद पर हैं, अत: दूसरे सांविधानिक पद की गरिमा का उन्हें हर हाल में बचाव करना चाहिए। सवाल यह भी है कि बयानों के आधार पर यदि मुकदमे दर्ज किए जाने लगे और गिरफ्तारियां होने लगीं, तो कितने सारे विधायक, सांसद और मंत्री जेल में होंगे? निस्संदेह, एक आदर्श संघीय ढांचे के लिए जरूरी है कि पार्टी नेतृत्व अपने-अपने बड़बोले नेताओं पर नजर रखें। विडंबना यह है कि सभी दल ऐसे तत्वों को पुरस्कृत करने की भूमिका अपनाने लगे हैं। ऐसे में, उद्दंड कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ता जाता है, जो देश के राजनीतिक परिदृश्य के लिए संकट की बात है। राजनीतिक बदले व प्रतिशोध की कार्रवाइयों से देश का संघीय ढांचा कमजोर हो रहा है, यह बात हमारी राजनीतिक पार्टियां जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा होगा।

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