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EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है।

1.तुष्टिकरण की सियासत

चुनाव का मौसम एक बार फिर आ गया है। कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। माहौल अभी से गरमाने लगा है। सबसे पहले फरवरी, 2022 में पंजाब में चुनाव होंगे। हालांकि देश के सबसे बड़े राज्य-उप्र-में मार्च-अप्रैल में चुनाव संभावित हैं, लेकिन यह राज्य ही सबसे अधिक तपने लगा है। सांप्रदायिकता की लपटें उठने लगी हैं, हालांकि धर्म के नाम पर वोट मांगना या राजनीति करना असंवैधानिक है, लेकिन संविधान की परवाह कौन करता है? संविधान की प्रस्तावना में 1975-76 में ‘पंथनिरपेक्ष (सेक्यूलर) शब्द जोड़ा गया था, लेकिन देश में धर्म के बिना कोई चुनाव या सियासत संभव ही नहीं है। बल्कि स्वीकार्य नहीं है। ‘धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा हिंदू बनाम मुसलमान है। बहरहाल अभी तो औपचारिक चुनाव प्रचार भी शुरू नहीं हुआ है कि सियासत सांप्रदायिक होने लगी है। धर्मनिरपेक्षता विकृत अर्थों में है। बसपा अध्यक्ष मायावती ने हिंदू-ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित करने के निर्देश दिए थे, जिसकी शुरुआत अयोध्या से की गई। चेतना और सोच में भगवान श्रीराम जरूर रहे होंगे! अलबत्ता मायावती की पार्टी ‘तिलक, तराजू और तलवार वालों को ‘जूते मारने का हुंकार भरती रही है। बसपा अयोध्या में राम मंदिर या उससे जुड़े आंदोलन की पैरोकार कभी नहीं रही। मुख्यमंत्री रहते हुए मुलायम सिंह यादव ने राम मंदिर के कारसेवकों पर गोलियां चलवाई थीं, जिसमें 16 मासूम लोगों की मौत हो गई थी। मुलायम सिंह के साथ ही गठबंधन कर बसपा सुप्रीमो कांशीराम ने उप्र में सरकार बनाई थी। कांशीराम ही मायावती के ‘राजनीतिक गुरु थे। मायावती को लगता है कि ब्राह्मण समुदाय का एक वर्ग भाजपा से नाराज़ है, लिहाजा 2007 की तरह वह बसपा को समर्थन दे सकता है! चुनावी हंडिया दूसरी बार चूल्हे पर नहीं चढ़ाई जा सकती। लखनऊ में एक समारोह के दौरान बसपा के राज्यसभा सांसद एवं पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्र ने ‘बहिनजी को प्रथम पूज्य, विघ्नहर्ता प्रभु श्री गणेश जी की प्रतिमा भेंट की और श्रीमती मिश्र ने महादेव शिव का त्रिशूल सौंपा। माहौल में शंखनाद बजाया जाता रहा और ‘हर-हर महादेव का उद्घोष गूंजता रहा। बीच-बीच में शिव-भक्त, महापराक्रमी परशुराम जी की भी ‘जय बोली गई। बैठक बसपा की बजाय भाजपा या विशुद्ध पुजारियों अथवा महंत-पंडों की प्रतीत हो रही थी। हमें ऐसे धर्म-कर्म पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन राजनीतिक ढोंग के जरिए लोगों को भरमाने या उनके चुनावी तुष्टिकरण पर सख्त ऐतराज़ है। यह सब कुछ संविधान-विरोधी है।

सवाल है कि क्या इन कोशिशों और नारेबाजी से हिंदुत्व का नया उभार होगा या वह ज्यादा ताकतवर बनेगा? हिंदुओं और ब्राह्मणों का विस्तार होगा और उनकी दुनियावी समस्याओं, तकलीफों और अभावों का निराकरण हो सकेगा? बसपा जनादेश लेने के बदले जनता को क्या मुहैया कराने का वायदा कर रही है? दूसरी तरफ एमआईएम के नेता ओवैसी ‘अयोध्या को ‘फैज़ाबाद कहने पर ही तुले हैं, क्योंकि उसमें इस्लामी व्यंजना निहित है। सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के ऐतिहासिक फैसले के बावजूद ओवैसी का अब भी मानना है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद थी, जिसे ‘शहीद किया गया। ओवैसी ने संसद में रहते हुए और चुनाव प्रचार के दौरान मुसलमानों की अशिक्षा, अज्ञानता, गरीबी, संकीर्णता और मुख्य धारा में बेहद कम मौजूदगी आदि पर कभी भी चिंता और सरोकार नहीं जताए। इन हालात से उबारने की कभी कोशिश तक नहीं की। वह सिर्फ मुस्लिम जमात को, अपने और पार्टी के पक्ष में, सियासी तौर पर लामबंद होने के आह्वान ही करते रहे हैं। ओवैसी की दलीलें भी ज्यादातर कट्टरपंथी होती हैं, बेशक वह ‘धर्मनिरपेक्षता का ढोंंग करते रहें। झारखंड के विधानसभा परिसर में नमाज के लिए एक अलग कमरा आवंटित करना या हनुमान चालीसा के लिए भी कमरा देने जैसी मांगें ‘धर्मनिरपेक्षता नहीं हैं, बल्कि ‘धर्मांध सियासत है। क्या संविधान इसकी इज़ाज़त देता है? हम इसे ‘कट्टरवादी मूर्खता ही मानते हैं। यह हमारे देश की शर्मनाक विडंबना ही है कि चुनावी जनादेश बेरोजग़ारी या रोजग़ार, कारोबार, अर्थव्यवस्था, अस्पताल, स्कूल-कॉलेज, बुनियादी ढांचे सरीखे मुद्दों पर न कभी मांगे गए हैं और न ही जनता ने दिए हैं। ‘खोखले आश्वासनों का एक पुलिंदा घोषणा-पत्र के नाम पर छाप कर बांट दिया जाता है। इस पर कभी चुनाव नहीं हुआ कि वायदे कितने पूरे किए गए। चुनाव धर्म-जाति के तुष्टिकरण पर ही होते रहे हैं। जनता कसूरवार है, जिसने तुष्टिकरण के आधार पर नेता चुने हैं। सवाल है कि हमारा लोकतंत्र कब परिपक्व होगा?

2.निवेश से रेखांकित भविष्य

ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी की सुरमई अदा में हिमाचल का रिश्ता जिस निवेश से बंध रहा है, वह इसलिए उत्साहित करता है कि रोजगार के अवसर और संभावनाएं यहां तैरने लगती हैं। जयराम सरकार ने प्रदेश के माथे पर निजी निवेश की खूबसूरत पंक्तियां लिखते हुए निजी क्षेत्र को समानांतर धारा में खड़ा करने की इच्छा शक्ति प्रकट की है। यह दीगर है कि कोविड काल ने राज्य के सारे आर्थिक पहलू बदल दिए और निजी क्षमता का आशियाना उजड़ता रहा। बावजूद इसके अगर पंद्रह हजार करोड़ का निवेश अनुमानित है, तो इसे उपलब्धि ही माना जा सकता है। चंडीगढ़ में करीब तीन हजार करोड़ के निवेश पर सहमति पत्रों पर हस्ताक्षरित उद्देश्य अगर पूरे होते हैं, तो यह कोविड काल को पीटने की जुस्तजू भी है। निवेश का रेखांकित भविष्य उज्ज्वल हो सकता है बशर्ते हिमाचल की कार्यसंस्कृति में भी अंतर आए।

बीबीएन, परवाणू या ऊना की औद्योगिक गलियों में चलते-फिरते रोजगार को छूने की कोशिश करेंगे, तो वहां गैर हिमाचली समुदाय कुलांचें भरता है जबकि जिनके लिए सत्तर फीसदी की शर्त है, उन्हें या तो नीली वर्दी पहनने से गुरेज है या काम करने की शक्ति का सरकारी अंदाज बरकरार है। हुनर की तपिश के बिना हिमाचल के लिए ऐसा रोजगार चाहिए जो सार्वजनिक क्षेत्र को दफन कर सके। इसलिए निजी निवेश की सार्थकता में पैदा होते रोजगार का क्वालिटी चैक होना चाहिए। हिमाचल में इंजीनियरों की तादाद करीब पच्चीस हजार तक पहुंच चुकी है, तो अगर आईटी से जुड़े व हर तरह से प्रशिक्षित दस लाख युवाओं के समूह की क्षमता को देखा जाए, तो अब तक कई आईटी कंपनियों को न्योता दिया जा सकता था या इन सालों में कम से कम आधा दर्जन आईटी पार्र्क स्थापित हो जाते। इसी के साथ टूरिज्म सेक्टर में रोजगार, स्वावलंबन व स्वरोजगार की संभावना को देखते हुए निवेश की नीति बनती, तो परिदृश्य बदलते देर न लगती। आश्चर्य यह कि ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी की गूंज की दूसरी ओर पर्यटक शहरों में मचा कोहराम नहीं सुना जा रहा है। अकेले धर्मशाला में दर्जनों होटलों ने बिक्री के लिए अपने विकल्प खोल दिए हैं, तो बैंकों ने करीब डेढ़ दर्जन होटलों पर कब्जा करने की कार्रवाई शुरू कर दी है। इसी तरह मनाली के लगभग सौ होटलों की लीज टूटी है, तो कमोबेश हर पर्यटक शहर में स्थापित कई रेस्तरां चेन दामन छोड़ चुकी हैं। कितने शोरूम बंद हुए या कितने आफत में फंसे हैं, यह जिक्र आवश्यक हो जाता है। हम बाहर से निवेशक बुलाने के लिए कालीन बिछाए बैठे हैं, लेकिन आंतरिक क्षमता से निकले निवेश को नहीं पुचकार रहे। निश्चित रूप से बैंकिंग के विराम को तरह-तरह से परिभाषित किया गया, लेकिन इससे कोविड के सदमे से आहत घरेलू निवेशक को राहत नहीं मिली। ऐसे में यह मूल्यांकन होना चाहिए कि अब किस-किस क्षेत्र में प्रदेश के निवेशक पैदा हुए और उन्हें भविष्य में आगे कैसे बढ़ाया जा सकता है।

आवासीय सुविधाओं, आधुनिक बाजारों, बस स्टैंड, स्कूल, चिकित्सा संस्थानों तथा स्वरोजगार में आम हिमाचली का निवेश बढ़ता है, तो आर्थिकी का समावेशी आधार पैदा होगा। स्वरोजगार के लिए ढांचागत विकास तथा सरकार के साथ सहयोगी होने की नीति के तहत पात्रता तय हो, तो हाई-वे व ग्रामीण पर्यटन के तहत हजारों युवा अपने रोजगार के लिए स्वयं ही निवेश कर पाएंगे। प्रदेश में पर्यटन के जरिए रोजगार के अवसर बढ़ाने के साथ-साथ धार्मिक नगरियों के विकास मॉडल पर आधारित निवेश के घरेलू सरोकार पैदा किए जा सकते हैं। कुल मिलाकर बड़े निवेश का आह्वान अगर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संभावनाएं तलाश रहा है, तो घरेलू स्तर पर युवाओं की शक्ति, वैज्ञानिक सोच व आधुनिक शिक्षा का इस्तेमाल भी निवेश की नई प्रेरणा के साथ संभव हो सकता है।

3.चिंता वाली सरकार

अफगानिस्तान में अंतरिम सरकार का स्वरूप सामने आया है। निस्संदेह यह समावेशी सरकार नहीं है। जातीय अल्पसंख्यक समूहों का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती। तालिबानियों के दावों के बावजूद इसमें महिलाओं को भी प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। सरकार में वे ही तालिबानी नेता शामिल हैं जो दो दशक पूर्व तालिबानी सरकार में शामिल थे। सरकार के गठन में जिस तरह नामों में बदलाव हुआ, जैसे देरी हुई, उससे जाहिर है कि तालिबानी धड़ों में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। पिछले दिनों पंजशीर घाटी में नेशनल रेजिस्टेंट ऑफ अफगानिस्तान के प्रतिरोध और तालिबान के भेष में पाक फाइटर पायलटों के सधे हुए हमलों के बाद तस्वीर बदलने से साफ हो गया है कि तालिबानी पाक की मदद से ही आगे बढ़े हैं। बदनाम खुफिया एजेंसी आईएसआई मुखिया के खुलेआम सरकार गठन से पहले काबुल पहुंचने से साफ है कि सारे घटनाक्रम में पाक निर्णायक भूमिका में है। ऐसे में अंतरिम सरकार के गठन व स्वरूप को देखकर भारत का चिंतित होना स्वाभाविक भी है। बहरहाल, अब अफगानिस्तान में कोई लोकतांत्रिक सरकार नहीं है, अब ‘इस्लामिक अमीरात’ का राज है। कहना कठिन है कि वहां भविष्य में चुनाव होंगे या नहीं। ऐसे में अमेरिका व रूस भी चिंतित हैं। वे अफगानिस्तान के मसले पर भारत के संपर्क में हैं। अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के प्रमुख भारत की यात्रा कर चुके हैं और रूसी सुरक्षा परिषद के सचिव भी विदेश मंत्री व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से मिल चुके हैं। हालांकि, अमेरिका, रूस व चीन आदि किसी देश ने तालिबानी सरकार को फिलहाल मान्यता नहीं दी है। आज होने वाले वर्चुअल ब्रिक्स सम्मेलन में भी रूस, चीन के साथ अफगान मामले पर भारत से बातचीत होने के आसार हैं। बहरहाल, वह भ्रम टूटा है कि नई तालिबान सरकार पिछली से भिन्न होगी, क्योंकि सरकार में शामिल अधिकांश मंत्री पिछली तालिबान सरकार में भी शामिल थे, जिसमें पाक की बड़ी भूमिका है।

बहरहाल, अंतरिम सरकार बनने में गतिरोध के बाद आईएसआई प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद के काबुल पहुंचने के बाद साफ हो गया है कि तालिबानी पाक की सक्रिय भागीदारी से आगे बढ़े हैं। पंजशीर के कथित पतन में पाक की भूमिका पर अफगानिस्तान में सवाल उठे हैं। पाक हस्तक्षेप के खिलाफ काबुल व अन्य शहरों में प्रदर्शन भी हुए हैं और तालिबानियों ने प्रदशर्नकारियों पर बाकायदा फायरिंग की है। बहरहाल नई सरकार में मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद प्रधानमंत्री, मुल्ला अब्दुल गनी बरादर व मुल्ला अब्दुल सलीम हनफी को उपप्रधानमंत्री, शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकजई को उप-विदेश मंत्री बनाया गया है। जबकि हिब्तुल्लाह अखुंदजादा कहने को सरकार में सर्वोच्च नेता होंगे, लेकिन उनकी भूमिका सिर्फ मार्गदर्शक की ही होगी। भारत की सबसे बड़ी चिंता सिराजुद्दीन हक्कानी होंगे, जिन्हें 2008 में काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हमले का मास्टर माइंड माना जाता है। वहीं 2011 में काबुल स्थित अमेरिकी दूतावास के निकट नेटो के अड्डे पर हमले का भी दोषी बताया जाता है जो आज भी अमेरिका की कुख्यात आतंकवादियों की सूची में शामिल है, जिस पर बाकायदा मोटा इनाम रखा गया था। ऐसे में आईएसआई के बेहद करीबी सिराजुद्दीन हक्कानी के गृहमंत्री बनने से भारत का चिंतित होना स्वाभाविक है। उसके संगठन में बड़ी संख्या पाक आतंकवादियों की है। वैसे भी अफगानिस्तान में लश्कर, जैश, आईएसआईएस व अल-कायदा के गुटों की सक्रियता किसी से छिपी नहीं है। मुंबई से लेकर पुलवामा व पठानकोट हमलों में लश्कर व जैश का हाथ रहा है। हमलों में आईएसआई की भूमिका भी उजागर हुई है। ऐसे में भारतीय चिंता वाजिब भी है। वैसे भी तालिबान प्रवक्ता कह चुका है कि कश्मीर समेत दुनिया के किसी भी भाग में मुस्लिमों के लिये आवाज उठाना हमारा अधिकार है। भले ही आज भारत अफगानिस्तान की राजनीति को प्रभावित करने की स्थिति में न हो, लेकिन अफगान भूमि में सक्रिय जैश व लश्कर जैसे आतंकी संगठन तालिबान की मदद से भारत को प्रभावित करने की स्थिति में हैं। वैसे भी तालिबान की सोच अमेरिका व अफगान सरकार की मदद करने के चलते भारत विरोधी रही है। भारत को तालिबान से निपटने के लिये व्यावहारिकता का सहारा लेना होगा।

4.दाग भरी सरकार

अफगानिस्तान में तालिबान ने अपनी अंतरिम सरकार का एलान कर दिया। जो सरकार बनने जा रही है, उसे लेकर ज्यादा आश्चर्य नहीं करना चाहिए। जो लोग अमेरिका से बीस साल से लड़ रहे थे, वे सत्ता में नहीं आएं और अपनी जगह किन्हीं दूसरे नेताओं को सत्ता संभालने का मौका दें, यह कैसे संभव होता? जो लोग बेहतर या साफ-सुथरी या बेदाग सरकार की उम्मीद कर रहे थे, उनके भोलेपन को जमीनी जवाब मिल चुका है। तालिबान की समर्थक आईएस हो या आईएसआई, दोनों में से कोई नहीं चाहेगा कि अभी तक के लड़ाकू नेतृत्व को हटाकर उदार नेतृत्व की तलाश की जाए। सत्ता परिवर्तन के आधुनिक युग में अगर मध्ययुग अपनी बर्बरता के साथ कूद आया है, तो उसे एक हद तक व्यवहार लायक बनाए रखने में ही भलाई है। विरोध तो तब करना चाहिए था, जब अमेरिका ने इन्हीं लोगों में कथित अच्छा तालिबान देखा था और सत्ता हस्तांतरण की दोहा वार्ता शुरू हुई थी। अब जो भी सरकार जैसे भी वहां बनेगी, उस सरकार को मान्यता भले न दी जाए, लेकिन कमोबेश महत्व तो देना पड़ेगा। 
यह हमारे समय का स्याह सच है कि तालिबान की अंतरिम सरकार में कम से कम 14 सदस्य संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आतंकी सूची में रहे हैं। प्रधानमंत्री घोषित मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद, उनके दोनों डिप्टी और गृह मंत्री भी सूची में शामिल हैं। इनामी आतंकी सिराजुद्दीन को गृह मंत्री बनाया गया है, तो उनके चाचा हक्कानी को शरणार्थियों की जिम्मेदारी दी गई है। जो लोग सरकार संभालेंगे, उनके नाम दुनिया आगे उनके काम के मुताबिक जानेगी, लेकिन फिलहाल यह जान लेना जरूरी है कि एक सरकार बन रही है, जिसमें रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री तक प्रतिबंधित सूची में रहे हैं। अंतरिम कैबिनेट के तमाम 33 सदस्यों को लेकर दुनिया में चिंता जाहिर की जा रही है। दरअसल, यही लोग थे, जो अमेरिकी सेना और अफगानियों पर छिपकर आतंकी हमले करते थे, तो यह सवाल लोगों के दिमाग में स्वत: आएगा कि क्या इन लोगों की आदत रातोंरात छूट जाएगी। इन नए नेताओं को अपने स्थापित चरित्र से अलग तमाम अफगानियों को साथ लेकर चलते हुए दुनिया को दिखाना पड़ेगा। इस सरकार में कोई महिला नहीं है, तो चिंता और बढ़ जाती है। 
चीन और पाकिस्तान जैसे देशों को भी सावधान रहना होगा। क्या ये दोनों देश तालिबान की नई सरकार को व्यावहारिक बना पाएंगे? हालांकि, एक बड़ी चिंता यह भी है कि तालिबान भी एकमत नहीं हैं और पूरे अफगानिस्तान में उनकी तूती नहीं बोलती है। पंजशीर घाटी में संघर्ष जारी है, वहां से अलग सरकार के गठन की खबर भी आ रही है। पंजशीर घाटी में तालिबान के खिलाफ विद्रोही गुट का नेतृत्व कर रहे अहमद मसूद की तरफ से कहा गया है कि हम यहां एक वैध और ट्रांजिशनल प्रजातांत्रिक सरकार बनाएंगे। यह अपने आप में खुशी की बात है कि अफगानिस्तान में कोई प्रजातंत्र के बारे में सोच रहा है, पर इस सोच का सामना संगीनों से है। अफगानिस्तान में स्थिर सरकार के लिए इंतजार करना पड़ सकता है। किसी भी देश को वाजिब वैधता उसकी सरकार के व्यवहार से हासिल होती है। फिलहाल, दुनिया के तमाम आशावादी लोग तो उस मुल्ला अखुंद से भी उम्मीद रखेंगे, जो बामियान के बुद्ध को तोप से उड़ाने में शामिल रहे हैं।

 

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EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है।

1.तुष्टिकरण की सियासत

चुनाव का मौसम एक बार फिर आ गया है। कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। माहौल अभी से गरमाने लगा है। सबसे पहले फरवरी, 2022 में पंजाब में चुनाव होंगे। हालांकि देश के सबसे बड़े राज्य-उप्र-में मार्च-अप्रैल में चुनाव संभावित हैं, लेकिन यह राज्य ही सबसे अधिक तपने लगा है। सांप्रदायिकता की लपटें उठने लगी हैं, हालांकि धर्म के नाम पर वोट मांगना या राजनीति करना असंवैधानिक है, लेकिन संविधान की परवाह कौन करता है? संविधान की प्रस्तावना में 1975-76 में ‘पंथनिरपेक्ष (सेक्यूलर) शब्द जोड़ा गया था, लेकिन देश में धर्म के बिना कोई चुनाव या सियासत संभव ही नहीं है। बल्कि स्वीकार्य नहीं है। ‘धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा हिंदू बनाम मुसलमान है। बहरहाल अभी तो औपचारिक चुनाव प्रचार भी शुरू नहीं हुआ है कि सियासत सांप्रदायिक होने लगी है। धर्मनिरपेक्षता विकृत अर्थों में है। बसपा अध्यक्ष मायावती ने हिंदू-ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित करने के निर्देश दिए थे, जिसकी शुरुआत अयोध्या से की गई। चेतना और सोच में भगवान श्रीराम जरूर रहे होंगे! अलबत्ता मायावती की पार्टी ‘तिलक, तराजू और तलवार वालों को ‘जूते मारने का हुंकार भरती रही है। बसपा अयोध्या में राम मंदिर या उससे जुड़े आंदोलन की पैरोकार कभी नहीं रही। मुख्यमंत्री रहते हुए मुलायम सिंह यादव ने राम मंदिर के कारसेवकों पर गोलियां चलवाई थीं, जिसमें 16 मासूम लोगों की मौत हो गई थी। मुलायम सिंह के साथ ही गठबंधन कर बसपा सुप्रीमो कांशीराम ने उप्र में सरकार बनाई थी। कांशीराम ही मायावती के ‘राजनीतिक गुरु थे। मायावती को लगता है कि ब्राह्मण समुदाय का एक वर्ग भाजपा से नाराज़ है, लिहाजा 2007 की तरह वह बसपा को समर्थन दे सकता है! चुनावी हंडिया दूसरी बार चूल्हे पर नहीं चढ़ाई जा सकती। लखनऊ में एक समारोह के दौरान बसपा के राज्यसभा सांसद एवं पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्र ने ‘बहिनजी को प्रथम पूज्य, विघ्नहर्ता प्रभु श्री गणेश जी की प्रतिमा भेंट की और श्रीमती मिश्र ने महादेव शिव का त्रिशूल सौंपा। माहौल में शंखनाद बजाया जाता रहा और ‘हर-हर महादेव का उद्घोष गूंजता रहा। बीच-बीच में शिव-भक्त, महापराक्रमी परशुराम जी की भी ‘जय बोली गई। बैठक बसपा की बजाय भाजपा या विशुद्ध पुजारियों अथवा महंत-पंडों की प्रतीत हो रही थी। हमें ऐसे धर्म-कर्म पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन राजनीतिक ढोंग के जरिए लोगों को भरमाने या उनके चुनावी तुष्टिकरण पर सख्त ऐतराज़ है। यह सब कुछ संविधान-विरोधी है।

सवाल है कि क्या इन कोशिशों और नारेबाजी से हिंदुत्व का नया उभार होगा या वह ज्यादा ताकतवर बनेगा? हिंदुओं और ब्राह्मणों का विस्तार होगा और उनकी दुनियावी समस्याओं, तकलीफों और अभावों का निराकरण हो सकेगा? बसपा जनादेश लेने के बदले जनता को क्या मुहैया कराने का वायदा कर रही है? दूसरी तरफ एमआईएम के नेता ओवैसी ‘अयोध्या को ‘फैज़ाबाद कहने पर ही तुले हैं, क्योंकि उसमें इस्लामी व्यंजना निहित है। सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के ऐतिहासिक फैसले के बावजूद ओवैसी का अब भी मानना है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद थी, जिसे ‘शहीद किया गया। ओवैसी ने संसद में रहते हुए और चुनाव प्रचार के दौरान मुसलमानों की अशिक्षा, अज्ञानता, गरीबी, संकीर्णता और मुख्य धारा में बेहद कम मौजूदगी आदि पर कभी भी चिंता और सरोकार नहीं जताए। इन हालात से उबारने की कभी कोशिश तक नहीं की। वह सिर्फ मुस्लिम जमात को, अपने और पार्टी के पक्ष में, सियासी तौर पर लामबंद होने के आह्वान ही करते रहे हैं। ओवैसी की दलीलें भी ज्यादातर कट्टरपंथी होती हैं, बेशक वह ‘धर्मनिरपेक्षता का ढोंंग करते रहें। झारखंड के विधानसभा परिसर में नमाज के लिए एक अलग कमरा आवंटित करना या हनुमान चालीसा के लिए भी कमरा देने जैसी मांगें ‘धर्मनिरपेक्षता नहीं हैं, बल्कि ‘धर्मांध सियासत है। क्या संविधान इसकी इज़ाज़त देता है? हम इसे ‘कट्टरवादी मूर्खता ही मानते हैं। यह हमारे देश की शर्मनाक विडंबना ही है कि चुनावी जनादेश बेरोजग़ारी या रोजग़ार, कारोबार, अर्थव्यवस्था, अस्पताल, स्कूल-कॉलेज, बुनियादी ढांचे सरीखे मुद्दों पर न कभी मांगे गए हैं और न ही जनता ने दिए हैं। ‘खोखले आश्वासनों का एक पुलिंदा घोषणा-पत्र के नाम पर छाप कर बांट दिया जाता है। इस पर कभी चुनाव नहीं हुआ कि वायदे कितने पूरे किए गए। चुनाव धर्म-जाति के तुष्टिकरण पर ही होते रहे हैं। जनता कसूरवार है, जिसने तुष्टिकरण के आधार पर नेता चुने हैं। सवाल है कि हमारा लोकतंत्र कब परिपक्व होगा?

2.निवेश से रेखांकित भविष्य

ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी की सुरमई अदा में हिमाचल का रिश्ता जिस निवेश से बंध रहा है, वह इसलिए उत्साहित करता है कि रोजगार के अवसर और संभावनाएं यहां तैरने लगती हैं। जयराम सरकार ने प्रदेश के माथे पर निजी निवेश की खूबसूरत पंक्तियां लिखते हुए निजी क्षेत्र को समानांतर धारा में खड़ा करने की इच्छा शक्ति प्रकट की है। यह दीगर है कि कोविड काल ने राज्य के सारे आर्थिक पहलू बदल दिए और निजी क्षमता का आशियाना उजड़ता रहा। बावजूद इसके अगर पंद्रह हजार करोड़ का निवेश अनुमानित है, तो इसे उपलब्धि ही माना जा सकता है। चंडीगढ़ में करीब तीन हजार करोड़ के निवेश पर सहमति पत्रों पर हस्ताक्षरित उद्देश्य अगर पूरे होते हैं, तो यह कोविड काल को पीटने की जुस्तजू भी है। निवेश का रेखांकित भविष्य उज्ज्वल हो सकता है बशर्ते हिमाचल की कार्यसंस्कृति में भी अंतर आए।

बीबीएन, परवाणू या ऊना की औद्योगिक गलियों में चलते-फिरते रोजगार को छूने की कोशिश करेंगे, तो वहां गैर हिमाचली समुदाय कुलांचें भरता है जबकि जिनके लिए सत्तर फीसदी की शर्त है, उन्हें या तो नीली वर्दी पहनने से गुरेज है या काम करने की शक्ति का सरकारी अंदाज बरकरार है। हुनर की तपिश के बिना हिमाचल के लिए ऐसा रोजगार चाहिए जो सार्वजनिक क्षेत्र को दफन कर सके। इसलिए निजी निवेश की सार्थकता में पैदा होते रोजगार का क्वालिटी चैक होना चाहिए। हिमाचल में इंजीनियरों की तादाद करीब पच्चीस हजार तक पहुंच चुकी है, तो अगर आईटी से जुड़े व हर तरह से प्रशिक्षित दस लाख युवाओं के समूह की क्षमता को देखा जाए, तो अब तक कई आईटी कंपनियों को न्योता दिया जा सकता था या इन सालों में कम से कम आधा दर्जन आईटी पार्र्क स्थापित हो जाते। इसी के साथ टूरिज्म सेक्टर में रोजगार, स्वावलंबन व स्वरोजगार की संभावना को देखते हुए निवेश की नीति बनती, तो परिदृश्य बदलते देर न लगती। आश्चर्य यह कि ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी की गूंज की दूसरी ओर पर्यटक शहरों में मचा कोहराम नहीं सुना जा रहा है। अकेले धर्मशाला में दर्जनों होटलों ने बिक्री के लिए अपने विकल्प खोल दिए हैं, तो बैंकों ने करीब डेढ़ दर्जन होटलों पर कब्जा करने की कार्रवाई शुरू कर दी है। इसी तरह मनाली के लगभग सौ होटलों की लीज टूटी है, तो कमोबेश हर पर्यटक शहर में स्थापित कई रेस्तरां चेन दामन छोड़ चुकी हैं। कितने शोरूम बंद हुए या कितने आफत में फंसे हैं, यह जिक्र आवश्यक हो जाता है। हम बाहर से निवेशक बुलाने के लिए कालीन बिछाए बैठे हैं, लेकिन आंतरिक क्षमता से निकले निवेश को नहीं पुचकार रहे। निश्चित रूप से बैंकिंग के विराम को तरह-तरह से परिभाषित किया गया, लेकिन इससे कोविड के सदमे से आहत घरेलू निवेशक को राहत नहीं मिली। ऐसे में यह मूल्यांकन होना चाहिए कि अब किस-किस क्षेत्र में प्रदेश के निवेशक पैदा हुए और उन्हें भविष्य में आगे कैसे बढ़ाया जा सकता है।

आवासीय सुविधाओं, आधुनिक बाजारों, बस स्टैंड, स्कूल, चिकित्सा संस्थानों तथा स्वरोजगार में आम हिमाचली का निवेश बढ़ता है, तो आर्थिकी का समावेशी आधार पैदा होगा। स्वरोजगार के लिए ढांचागत विकास तथा सरकार के साथ सहयोगी होने की नीति के तहत पात्रता तय हो, तो हाई-वे व ग्रामीण पर्यटन के तहत हजारों युवा अपने रोजगार के लिए स्वयं ही निवेश कर पाएंगे। प्रदेश में पर्यटन के जरिए रोजगार के अवसर बढ़ाने के साथ-साथ धार्मिक नगरियों के विकास मॉडल पर आधारित निवेश के घरेलू सरोकार पैदा किए जा सकते हैं। कुल मिलाकर बड़े निवेश का आह्वान अगर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संभावनाएं तलाश रहा है, तो घरेलू स्तर पर युवाओं की शक्ति, वैज्ञानिक सोच व आधुनिक शिक्षा का इस्तेमाल भी निवेश की नई प्रेरणा के साथ संभव हो सकता है।

3.चिंता वाली सरकार

अफगानिस्तान में अंतरिम सरकार का स्वरूप सामने आया है। निस्संदेह यह समावेशी सरकार नहीं है। जातीय अल्पसंख्यक समूहों का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती। तालिबानियों के दावों के बावजूद इसमें महिलाओं को भी प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। सरकार में वे ही तालिबानी नेता शामिल हैं जो दो दशक पूर्व तालिबानी सरकार में शामिल थे। सरकार के गठन में जिस तरह नामों में बदलाव हुआ, जैसे देरी हुई, उससे जाहिर है कि तालिबानी धड़ों में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। पिछले दिनों पंजशीर घाटी में नेशनल रेजिस्टेंट ऑफ अफगानिस्तान के प्रतिरोध और तालिबान के भेष में पाक फाइटर पायलटों के सधे हुए हमलों के बाद तस्वीर बदलने से साफ हो गया है कि तालिबानी पाक की मदद से ही आगे बढ़े हैं। बदनाम खुफिया एजेंसी आईएसआई मुखिया के खुलेआम सरकार गठन से पहले काबुल पहुंचने से साफ है कि सारे घटनाक्रम में पाक निर्णायक भूमिका में है। ऐसे में अंतरिम सरकार के गठन व स्वरूप को देखकर भारत का चिंतित होना स्वाभाविक भी है। बहरहाल, अब अफगानिस्तान में कोई लोकतांत्रिक सरकार नहीं है, अब ‘इस्लामिक अमीरात’ का राज है। कहना कठिन है कि वहां भविष्य में चुनाव होंगे या नहीं। ऐसे में अमेरिका व रूस भी चिंतित हैं। वे अफगानिस्तान के मसले पर भारत के संपर्क में हैं। अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के प्रमुख भारत की यात्रा कर चुके हैं और रूसी सुरक्षा परिषद के सचिव भी विदेश मंत्री व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से मिल चुके हैं। हालांकि, अमेरिका, रूस व चीन आदि किसी देश ने तालिबानी सरकार को फिलहाल मान्यता नहीं दी है। आज होने वाले वर्चुअल ब्रिक्स सम्मेलन में भी रूस, चीन के साथ अफगान मामले पर भारत से बातचीत होने के आसार हैं। बहरहाल, वह भ्रम टूटा है कि नई तालिबान सरकार पिछली से भिन्न होगी, क्योंकि सरकार में शामिल अधिकांश मंत्री पिछली तालिबान सरकार में भी शामिल थे, जिसमें पाक की बड़ी भूमिका है।

बहरहाल, अंतरिम सरकार बनने में गतिरोध के बाद आईएसआई प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद के काबुल पहुंचने के बाद साफ हो गया है कि तालिबानी पाक की सक्रिय भागीदारी से आगे बढ़े हैं। पंजशीर के कथित पतन में पाक की भूमिका पर अफगानिस्तान में सवाल उठे हैं। पाक हस्तक्षेप के खिलाफ काबुल व अन्य शहरों में प्रदर्शन भी हुए हैं और तालिबानियों ने प्रदशर्नकारियों पर बाकायदा फायरिंग की है। बहरहाल नई सरकार में मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद प्रधानमंत्री, मुल्ला अब्दुल गनी बरादर व मुल्ला अब्दुल सलीम हनफी को उपप्रधानमंत्री, शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकजई को उप-विदेश मंत्री बनाया गया है। जबकि हिब्तुल्लाह अखुंदजादा कहने को सरकार में सर्वोच्च नेता होंगे, लेकिन उनकी भूमिका सिर्फ मार्गदर्शक की ही होगी। भारत की सबसे बड़ी चिंता सिराजुद्दीन हक्कानी होंगे, जिन्हें 2008 में काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हमले का मास्टर माइंड माना जाता है। वहीं 2011 में काबुल स्थित अमेरिकी दूतावास के निकट नेटो के अड्डे पर हमले का भी दोषी बताया जाता है जो आज भी अमेरिका की कुख्यात आतंकवादियों की सूची में शामिल है, जिस पर बाकायदा मोटा इनाम रखा गया था। ऐसे में आईएसआई के बेहद करीबी सिराजुद्दीन हक्कानी के गृहमंत्री बनने से भारत का चिंतित होना स्वाभाविक है। उसके संगठन में बड़ी संख्या पाक आतंकवादियों की है। वैसे भी अफगानिस्तान में लश्कर, जैश, आईएसआईएस व अल-कायदा के गुटों की सक्रियता किसी से छिपी नहीं है। मुंबई से लेकर पुलवामा व पठानकोट हमलों में लश्कर व जैश का हाथ रहा है। हमलों में आईएसआई की भूमिका भी उजागर हुई है। ऐसे में भारतीय चिंता वाजिब भी है। वैसे भी तालिबान प्रवक्ता कह चुका है कि कश्मीर समेत दुनिया के किसी भी भाग में मुस्लिमों के लिये आवाज उठाना हमारा अधिकार है। भले ही आज भारत अफगानिस्तान की राजनीति को प्रभावित करने की स्थिति में न हो, लेकिन अफगान भूमि में सक्रिय जैश व लश्कर जैसे आतंकी संगठन तालिबान की मदद से भारत को प्रभावित करने की स्थिति में हैं। वैसे भी तालिबान की सोच अमेरिका व अफगान सरकार की मदद करने के चलते भारत विरोधी रही है। भारत को तालिबान से निपटने के लिये व्यावहारिकता का सहारा लेना होगा।

4.दाग भरी सरकार

अफगानिस्तान में तालिबान ने अपनी अंतरिम सरकार का एलान कर दिया। जो सरकार बनने जा रही है, उसे लेकर ज्यादा आश्चर्य नहीं करना चाहिए। जो लोग अमेरिका से बीस साल से लड़ रहे थे, वे सत्ता में नहीं आएं और अपनी जगह किन्हीं दूसरे नेताओं को सत्ता संभालने का मौका दें, यह कैसे संभव होता? जो लोग बेहतर या साफ-सुथरी या बेदाग सरकार की उम्मीद कर रहे थे, उनके भोलेपन को जमीनी जवाब मिल चुका है। तालिबान की समर्थक आईएस हो या आईएसआई, दोनों में से कोई नहीं चाहेगा कि अभी तक के लड़ाकू नेतृत्व को हटाकर उदार नेतृत्व की तलाश की जाए। सत्ता परिवर्तन के आधुनिक युग में अगर मध्ययुग अपनी बर्बरता के साथ कूद आया है, तो उसे एक हद तक व्यवहार लायक बनाए रखने में ही भलाई है। विरोध तो तब करना चाहिए था, जब अमेरिका ने इन्हीं लोगों में कथित अच्छा तालिबान देखा था और सत्ता हस्तांतरण की दोहा वार्ता शुरू हुई थी। अब जो भी सरकार जैसे भी वहां बनेगी, उस सरकार को मान्यता भले न दी जाए, लेकिन कमोबेश महत्व तो देना पड़ेगा। 
यह हमारे समय का स्याह सच है कि तालिबान की अंतरिम सरकार में कम से कम 14 सदस्य संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आतंकी सूची में रहे हैं। प्रधानमंत्री घोषित मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद, उनके दोनों डिप्टी और गृह मंत्री भी सूची में शामिल हैं। इनामी आतंकी सिराजुद्दीन को गृह मंत्री बनाया गया है, तो उनके चाचा हक्कानी को शरणार्थियों की जिम्मेदारी दी गई है। जो लोग सरकार संभालेंगे, उनके नाम दुनिया आगे उनके काम के मुताबिक जानेगी, लेकिन फिलहाल यह जान लेना जरूरी है कि एक सरकार बन रही है, जिसमें रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री तक प्रतिबंधित सूची में रहे हैं। अंतरिम कैबिनेट के तमाम 33 सदस्यों को लेकर दुनिया में चिंता जाहिर की जा रही है। दरअसल, यही लोग थे, जो अमेरिकी सेना और अफगानियों पर छिपकर आतंकी हमले करते थे, तो यह सवाल लोगों के दिमाग में स्वत: आएगा कि क्या इन लोगों की आदत रातोंरात छूट जाएगी। इन नए नेताओं को अपने स्थापित चरित्र से अलग तमाम अफगानियों को साथ लेकर चलते हुए दुनिया को दिखाना पड़ेगा। इस सरकार में कोई महिला नहीं है, तो चिंता और बढ़ जाती है। 
चीन और पाकिस्तान जैसे देशों को भी सावधान रहना होगा। क्या ये दोनों देश तालिबान की नई सरकार को व्यावहारिक बना पाएंगे? हालांकि, एक बड़ी चिंता यह भी है कि तालिबान भी एकमत नहीं हैं और पूरे अफगानिस्तान में उनकी तूती नहीं बोलती है। पंजशीर घाटी में संघर्ष जारी है, वहां से अलग सरकार के गठन की खबर भी आ रही है। पंजशीर घाटी में तालिबान के खिलाफ विद्रोही गुट का नेतृत्व कर रहे अहमद मसूद की तरफ से कहा गया है कि हम यहां एक वैध और ट्रांजिशनल प्रजातांत्रिक सरकार बनाएंगे। यह अपने आप में खुशी की बात है कि अफगानिस्तान में कोई प्रजातंत्र के बारे में सोच रहा है, पर इस सोच का सामना संगीनों से है। अफगानिस्तान में स्थिर सरकार के लिए इंतजार करना पड़ सकता है। किसी भी देश को वाजिब वैधता उसकी सरकार के व्यवहार से हासिल होती है। फिलहाल, दुनिया के तमाम आशावादी लोग तो उस मुल्ला अखुंद से भी उम्मीद रखेंगे, जो बामियान के बुद्ध को तोप से उड़ाने में शामिल रहे हैं।

 

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