इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है।
1.किसानों का एक और मोर्चा
किसानों के मुद्दे पर कुछ महत्वपूर्ण घटनाक्रम सामने आए हैं। आरएसएस का सहयोगी भारतीय किसान संघ भी आंदोलित हुआ है तथा देश के कई हिस्सों में विरोध-प्रदर्शन किए गए हैं। राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर पर भी संघी किसानों ने धरना दिया है। हालांकि उनके मुद्दे भिन्न हैं। दूसरी तरफ केंद्रीय कैबिनेट ने गेहूं, जौ, सरसों, चना, मसूर दाल आदि फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी का फैसला लिया है। मसूर, सरसों का एमएसपी तो 400 रुपए क्विंटल तक बढ़ाने की घोषणा की गई है। यह वित्त-वर्ष 2022-23 की रबी फसलों पर लागू होगा। गन्ने के दाम भी बढ़ाए गए हैं। तीसरे, कृषि कानूनों और किसानों पर सर्वोच्च न्यायालय ने जिस विशेषज्ञ समिति का गठन किया था, उसके एक सदस्य एवं शेतकारी संगठन के अध्यक्ष अनिल घनवत ने प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमण को पत्र लिखकर समिति की रपट सार्वजनिक करने का आग्रह किया है। तीन सदस्यीय समिति ने बीती 19 मार्च को बंद लिफाफे में अपनी रपट सर्वोच्च अदालत को सौंप दी थी। उसमें कई सिफारिशें की गई थीं। घनवत का विश्वास है कि उनकी सिफारिशें किसान आंदोलन का गतिरोध तोडऩे और समाधान तक का रास्ता प्रशस्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। सर्वोच्च अदालत में उन सिफारिशों पर कमोबेश बहस तो होनी चाहिए और रपट भारत सरकार तक भी भेजी जानी चाहिए।
सरकार जो भी निर्णय ले, यह उसका विवेकाधिकार है, लेकिन रपट को पांच माह बाद भी ठंडे बस्ते में रखने का औचित्य क्या है? किसान आंदोलन के संदर्भ मं हरियाणा के करनाल में संयुक्त किसान मोर्चा ने एक और तंबू गाड़ लिया है। अब इस नए मोर्चे पर भी किसानों का आंदोलन अनिश्चितकालीन होगा। दिल्ली की बाहरी सीमाओं पर सिंघु, टीकरी और गाज़ीपुर बॉर्डरों पर, बीते 9 माह से, किसानों के मोर्चे पहले से ही तैनात हैं। यह किसानों का सबसे दीर्घकालिक आंदोलन साबित होता जा रहा है। एमएसपी में बढ़ोतरी के बावजूद किसान जरा-सा भी संतुष्ट नहीं हैं। वे न केवल इसे नाकाफी मान रहे हैं, बल्कि अपनी पुरानी मांग पर ही अड़े हैं कि सरकार सबसे पहले एमएसपी को कानूनी दर्जा दे। किसान एमएसपी और फसलों की बिकने वाली कीमतों के दरमियान बहुत चौड़ा फासला लगातार मानते रहे हैं। एमएसपी पर एक सीमित वर्ग की ही फसलें बिक पाती हैं। शेष करीब 90 फीसदी किसानों को औने-पौने दाम पर ही अपनी फसलें बेचनी पड़ती हैं। एमएसपी को कानूनन लागू करने के बाद यह निश्चित हो जाएगा कि उससे कम पर किसान की फसल खरीदना अवैध होगा। उसके भी रास्ते निकल सकते हैं, लेकिन सतही और कानूनी तौर पर एक व्यवस्था तो उपलब्ध होगी। दरअसल यह समस्या आज की नहीं है। देश की आज़ादी के साथ-साथ किसानों की यह समस्या भी जारी रही है, लिहाजा मोदी सरकार को अब एमएसपी पर अंतिम निर्णय लेना ही चाहिए।
इसके अलावा, संघ के सहयोगी भारतीय किसान संघ के किसानों का भी आंदोलित होना मोदी सरकार के लिए सुखद संकेत नहीं है। संघ ही तो भाजपा की बुनियादी और सांगठनिक ताकत है। लाखों किसान संघ के संगठन से जुड़े हैं। उन्होंने ऐलान किया है कि अभी तो विरोध-प्रदर्शन प्रतीकात्मक है। आगामी 10 दिनों में रणनीति तय की जाएगी कि भविष्य के आंदोलन की रूपरेखा क्या होगी? करनाल हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर का चुनाव-क्षेत्र है। किसानों ने वहीं के मिनी सचिवालय पर तंबू गाड़ लिए हैं। रोजमर्रा के काम और आवाजाही में बाधा पड़ेगी। आंदोलन का तनाव अलग से मंडराया रहेगा। हालांकि यह धरना भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ है, क्योंकि कोई भी आंदोलन या धरना-प्रदर्शन आम नागरिक के मौलिक अधिकारों को नहीं कुचल सकता। दरअसल बीती 28 अगस्त को किसानों पर जो लाठीचार्ज किया गया था और तत्कालीन एसडीएम आयुष सिन्हा ने आंदोलनकारियों के सिर फोडऩे का जो अमानवीय आदेश पुलिस को दिया था, किसान उसके मद्देनजर गुस्से में हैं। अधिकारी के निलंबन की मांग किसान कर रहे हैं। एक प्रदर्शनकारी किसान की मौत हो गई थी, उसके परिजनों के लिए 25 लाख रुपए का मुआवजा भी मांग रहे हैं। आपसी संवाद अभी तक बेनतीजा रहा है, लेकिन किसान उग्र लग रहे हैं। इतने स्तरों पर सरकार किसान आंदोलन से कैसे निपट पाएगी, यह सवाल देशहित का है।
2.परिवहन की नई परिभाषा
इलेक्ट्रिक व्हीकल की तरफ बढ़ते हिमाचल के लिए यह ऐसा मर्यादित आचरण भी है, जो पर्वतीय महत्त्वाकांक्षा को सुखद परिणति की ओर ले जा सकता है। ऐसे में उद्योग एवं पर्यटन मंत्री द्वारा जो खाका बनाया जा रहा है, उसके परिणामों के प्रति जनसहयोग अभिलषित है। हिमाचल में परिवहन की नई परिभाषा व विकल्प समय की जरूरत हैं और इनमें से एक निश्चित रूप से इलेक्ट्रिक वाहनों का अधिकतम उपयोग है। राष्ट्रीय नीति के तहत इलेक्ट्रिक वाहनों का इस्तेमाल सुनिश्चित किया जा रहा है और इसके लिए उत्पादन लागत भी घटाई जा रही है। हिमाचल में इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए सर्वप्रथम राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल की हिदायतें ही कारगर सिद्ध हुईं और मनाली-रोहतांग मार्ग इन्हें प्रशस्त करने का मॉडल बना था। हालांकि इसके बाद प्रादेशिक स्तर पर इलेक्ट्रिक वाहनों के संचालन के लिए रोडमैप बने और कुछ शहरों में तो बाकायदा छोटी गाडिय़ां चलाई भी गईं, लेकिन इससे कोई परिवर्तन नहीं आया। परिवहन मंत्री विक्रम सिंह ठाकुर अब नई योजना व नई नीति के तहत फिर प्रदेश के फेफड़ों में जोश भर रहे हैं, तो देखना होगा कि सार्वजनिक व निजी स्तर पर इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रति कैसा माहौल बनता है।
यह दो स्तरीय होगा, क्योंकि सर्वप्रथम सार्वजनिक परिवहन के लिए चिन्हित मार्गों पर आदर्श सेवा की शुरुआत हो सकती है। दूसरी ओर निजी वाहनों की ओर प्रेरित जनता को इलेक्ट्रिक विकल्प का सूत्रधार बनाने का प्रयत्न है। अभी तक निजी स्तर पर इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रति रुझान न के बराबर है और यह वाहन निर्माताओं के प्रयास से ही प्रचारित हो रहे हैं। जाहिर है सरकार इनकी खरीद पर भी अधिकतम छूट दे सकती है और पंजीकरण इत्यादि के शुल्क को भी नियंत्रित कर सकती है। इलेक्ट्रिक वाहनों के निजी प्रयोग को प्रोत्साहित करने के लिए सर्वप्रथम दोपहिया गाडिय़ों पर केंद्रित वातावरण निर्मित करना होगा। बाजार में दोपहिया वाहनों की उत्साहजनक खेप व उस पर आधारित बिक्री का रुख दिखाई देने लगा है। हिमाचल में असली मसला वाहनों की बढ़ती तादाद और शहरी परिवहन का विकल्प बनते निजी वाहनों को लेकर है। हमें वाहनों पर केंद्रित नीति को एक सीमा तक बढ़ाना होगा, जबकि भविष्य की जरूरतों को देखते हुए परिवहन के सार्वजनिक विकल्प पैदा करने होंगे। खासतौर पर एलिवेटिड ट्रांसपोर्ट नेटवर्क के जरिए यात्री एवं माल ढुलाई की दिशा में बढऩा होगा। प्रदेश में सीमेंट, सेब, नकदी फसलों तथा औद्योगिक माल की ढुलाई के कारण कई क्षेत्रों की परिवहन व्यवस्था को सुधारना मुश्किल हो रहा है। सड़कों पर वाहनों का बढ़ता दबाव कब तक इन्हें चौड़ा करने की सिफारिश करता रहेगा।
ऐसे में रज्जु मार्गों के द्वारा माल ढुलाई का राज्यव्यापी नेटवर्क स्थापित करने की जहां जरूरत है, वहीं स्काई बस या मोनो टे्रन जैसी परियोजनाओं का नक्शा बनाते हुए यह सुनिश्चित करना होगा कि अगले दशक में परिवहन सेवाओं का दस्तूर पूरी तरह बदलेगा। परिवहन की परिकल्पना में शहरी विकास मंत्रालय को भी अपनी भूमिका अंगीकार करनी होगी। प्रदेश में शहरीकरण की उत्कंठा में हर नागरिक अपनी जीवन शैली व उसके प्रदर्शन में उत्कृष्ट होने की इच्छा रखता है। ऐसे में शहरी क्लस्टरों के आधार पर सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था को नए सिरे से रूपांतरित करना होगा। दो से तीन शहरों के मध्य बस स्टैंड या महापार्किंग स्थापित करते हुए आगे का सफर रज्जु मार्गों या स्काई बस-मोनो टे्रन से सुनिश्चित करें तो ट्रैफिक के दबाव कम होंगे और पर्यटक व धार्मिक स्थलों पर सैलानियों का आगमन सुविधाजनक हो पाएगा। इसी के साथ नादौन में ट्रांसपोर्ट नगर का प्रस्ताव भी सराहनीय है, लेकिन परिवहन नगरों का राज्यव्यापी नक्शा बनाते हुए यह तय होना चाहिए कि सड़कों के किनारे वाहन वर्कशॉप न दिखाई दें तथा ट्रक व बसों की पार्किंग भी सुविधाजनक ढंग से हो जाए।
3.अभी भी दूसरी लहर
भारत में कोरोना के मामले फिर बढ़ते दिख रहे हैं। देश में कुल कोरोना मरीजों की संख्या में इजाफा हुआ है, क्योंकि जहां बुधवार को 40,567 मरीज ठीक हुए, वहीं नए मामलों की संख्या 43,263 रही है। मरीजों की संख्या क्यों बढ़ रही है, इसका जवाब खोजना बहुत मुश्किल नहीं है। हर जगह बढ़ती भीड़ और बचाव के प्रति लापरवाही जवाब दे रही है। भारत ही नहीं, प्रसिद्ध बायोबबल में रहकर इंग्लैंड में क्रिकेट खेल रहे खिलाड़ी और टीम स्टाफ भी संक्रमण के साये में हैं। मतलब हर जगह लापरवाही बढ़ी है, नतीजा सामने है। गृह मंत्रालय के निर्देश पर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट की तरफ से एक रिपोर्ट तैयार की गई है, जिसमें अक्तूबर में तीसरी लहर की आशंका जताई गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर टीकाकरण की रफ्तार को नहीं बढ़ाया गया, तो तीसरी लहर में प्रतिदिन मामले छह लाख तक पहुंच सकते हैं। सभी को कोशिश करनी चाहिए कि वह नौबत न आए।
हमें सोचना होगा। विशेष रूप से केरल और महाराष्ट्र को राहत का एहसास नहीं हो रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने गुरुवार को जानकारी दी है कि पिछले सप्ताह आए कोरोना वायरस के कुल मामलों में करीब 70 फीसदी (68.59 प्रतिशत) मामले अकेले केरल के थे। यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि विशेष रूप से केरल को कोरोना की दूसरी लहर से अभी भी मुक्ति नहीं मिली है। केंद्र सरकार के साथ मिलकर केरल सरकार को इस पर पूरा फोकस करना चाहिए। अभी देश के 35 जिलों में साप्ताहिक कोविड संक्रमण दर 10 प्रतिशत से अधिक और 30 जिलों में 5 से 10 प्रतिशत के बीच है। अभी भले ही देश के 38 जिलों से ही सौ से अधिक मामले आ रहे हैं, लेकिन तब भी हमें इन मामलों और इन इलाकों को गंभीरता से लेना चाहिए। केरल में युद्ध स्तर पर कोशिश की जरूरत है। यह अपेक्षाकृत विकसित राज्य पूरे देश को चिंता में डाल रहा है। क्या केरल के लिए कोई विशेष योजना बनाई जा सकती है? क्या केरल में सौ प्रतिशत टीकाकरण युद्ध स्तर पर पूरा नहीं करना चाहिए? क्या चिकित्सा जगत से केरल को पूरी मदद मिल रही है? केरल खुद को संभाल ले, तो कुल मामलों में 60 प्रतिशत से भी ज्यादा कमी आ जाएगी।
विशेषज्ञों ने बच्चों को लेकर सावधानी बरतने की ताजा चेतावनी दी है, तो बच्चों के टीकाकरण में समय लगेगा, अत: स्कूल खोलने की जल्दी करने से पहले सोच-विचार लेना चाहिए। भ्रम की स्थिति दूर होनी चाहिए। एक ओर कहा जाता है कि बच्चों से कोरोना फैलने का प्रमाण नहीं है, तो दूसरी ओर चेताया जाता है कि बच्चों को बचाकर रखें। टीकाकरण में वाकई तेजी आई है, मई में हम प्रतिदिन 20 लाख टीके ही लगा पा रहे थे, लेकिन सितंबर में करीब 78 लाख टीके प्रतिदिन लग रहे हैं। कोई शक नहीं, इस रफ्तार को दो से तीन गुना कर देना चाहिए, ताकि जल्दी से जल्दी सबको सुरक्षित किया जा सके।अफसोस, अभी हम 60 प्रतिशत लोगों को भी टीके की पहली डोज और 20 प्रतिशत लोगों को भी दूसरी डोज नहीं दे पाए हैं, तो हमें लंबा रास्ता तय करना है, अत: रफ्तार बढ़ जानी चाहिए। विशेषज्ञों की सलाह को गौर से सुनना चाहिए। खुद को और दूसरों को भी संक्रमण से बचाने की फिक्र बनी रहनी चाहिए, क्योंकि 18 से कम उम्र की हमारी आबादी का तो अभी टीका ही नहीं आया है।
4.किसान को राहत
केंद्र के तीन नये कृषि कानूनों के खिलाफ जारी किसानों के विरोध के बीच बुधवार को केंद्र सरकार ने छह रबी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की घोषणा की है। आगामी विपणन सीजन, जो कि मार्च, 2020 से आरंभ होगा, में सरकार ने दलहन व तिलहन की एमएसपी में ज्यादा वृद्धि की है। सबसे कम वृद्धि गेहूं की एमएसपी में की गई है। सरसों की एमएसपी में जहां 400 रुपये की वृद्धि की है, वहीं गेहूं की एमएसपी में 40 रुपये बढ़ाने की घोषणा की गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में बुधवार को आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक में इस संबंध में निर्णय लिया गया। दरअसल, केंद्र सरकार खरीफ व रबी मौसम की तेईस फसलों के लिये एमएसपी तय करती है ताकि बाजार में मूल्यों में गिरावट होने पर किसान को नुकसान न हो। यद्यपि रबी की फसल में गेहूं का सर्वाधिक उत्पादन होता है लेकिन उस पर एमएसपी ज्यादा नहीं बढ़ाई गई। सरकार की मंशा है कि किसानों को गेहूं व धान की खेती को कम करने के लिये प्रेरित किया जाये ताकि तिलहनों और दलहनों की खेती को बढ़ावा दिया जा सके। देश में खाद्य तेलों के दामों में अप्रत्याशित वृद्धि और इनके आयात के दबाव को कम करने के मकसद से सरकार ऐसे कदम उठा रही है। सरकार की मंशा है कि देश में मांग के अनुरूप ही तिलहन व दलहन की पैदावार में वृद्धि की जा सके। राजनीतिक पंडित कयास लगा रहे हैं कि पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश में जारी आंदोलन के चलते किसानों के असंतोष को कम करने की दिशा में यह एमएसपी में वृद्धि की गई है। वहीं केंद्र सरकार की दलील है कि इससे किसानों की आमदानी बढ़ेगी और उनका जीवन स्तर बेहतर होगा। दूसरी तरफ किसान नेताओं की दलील है कि एमएसपी में वृद्धि से किसानों को वास्तविक लाभ नहीं होगा क्योंकि किसानों के पास एमएसपी पर फसल बेचने की गारंटी नहीं होती।
दरअसल, पिछले नौ माह से जारी किसान आंदोलन में किसान जहां तीन नए कृषि कानूनों को निरस्त करने की मांग कर रहे हैं, वहीं न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी गारंटी देने की मांग प्राथमिकता के आधार पर उठा रहे हैं। विपक्षी दल कह रहे हैं कि एमएसपी वृद्धि के जरिये केंद्र सरकार उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड आदि राज्यों के आसन्न चुनाव के मद्देनजर किसानों को साधने की कोशिश में है। वहीं कुछ कृषि विशेषज्ञ मानते हैं कि बढ़ती महंगाई के बीच किसान को राहत देने के लिये ये कदम उठाये जाते हैं, एमएसपी बढ़ाये जाने का किसान आंदोलन व चुनावों से कोई सरोकार नहीं है। न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाना सामान्य प्रक्रिया है, जो सरकार हर साल बुआई से पहले अमल में लाती है। इसमें दो राय नहीं कि पेट्रोल-डीजल के दामों में अप्रत्याशित वृद्धि के बाद महंगाई की जो मार सारा देश महसूस कर रहा है, उसकी तपिश किसान तक भी पहुंच रही है। कृषि उत्पादों की लागत पहले के मुकाबले बढ़ी है। डीजल, मशीनरी, बीज व खाद पर भी महंगाई का प्रभाव पड़ा है। मनरेगा में श्रमिकों की सक्रियता के बाद कई राज्य में खेती के लिये श्रमिक नहीं मिल पा रहे हैं, जिससे मशीनरी पर किसानों की निर्भरता बढ़ी है। डीजल के दामों में वृद्धि ने किसानों की लागत बढ़ाई है। ऐसे में एमएसपी के जरिये किसी सीमा तक किसानों को राहत देने का प्रयास हुआ है। वहीं कुछ कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि एमएसपी में वृद्धि महंगाई दर के अनुपात में होनी चाहिए। सरकारी कर्मचारियों को भी तो महंगाई भत्ता मिलता है। यदि ऐसा नहीं होता तो किसान नुकसान में रहेंगे। वैसे भी एमएसपी इस बात की गारंटी नहीं है कि उससे फसल का वास्तविक मूल्य मिल सकेगा। यही वजह है कि किसानों को फसलों की विविधता बढ़ाने के लिये बेहतर विकल्प दिये जाने की बात कही जाती है। वे फसल चक्र में तभी परिवर्तन करेंगे यदि उन्हें नयी फसल से ज्यादा लाभ होगा। किसान मांग कर रहे हैं कि सरकार एमएसपी की घोषणा के साथ एमएसपी पर खरीद भी सुनिश्चित करे।