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EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है।

1.फिर उसी मोड़ पर

11 सितंबर 2001 को दुनिया के सबसे घातक और सुनियोजित आतंकी हमले ने अमेरिका के मर्म पर चोट की थी। दो बोइंग विमानों ने अमेरिकी अस्मिता की प्रतीक सबसे ऊंची 110 मंजिला बिल्डिंग ट्विन टावर को ध्वस्त कर दिया था। हमले में अल कायदा के आतंकियों की भूमिका मानते हुए अमेरिका व नाटो सदस्यों ने अफगानिस्तान पर हमला कर तालिबान को सत्ता से खदेड़ दिया था। लेकिन आतंक के खिलाफ बीस साल के युद्ध और अरबों डॉलर खर्च करके यदि कुछ हजार लड़ाके लाखों अफगान सैनिकों को परास्त करके अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हो गये हैं तो यह अमेरिकी अभियान की नाकामी को ही दर्शाता है। यानी बीस साल पहले अफगानिस्तान जहां था, फिर वहीं पहुंच गया है। कहीं न कहीं अमेरिका अफगानिस्तान के मूल चरित्र को नहीं समझ पाया। फिर जिस पाकिस्तान को अमेरिका ने पाला-पोसा और जिसके भरोसे वह अफगानिस्तान में आतंकी गुटों के साथ लड़ रहा था, अंदरखाने पाकिस्तान उन्हें सींच भी रहा था। फिर अमेरिका ने अपनी मुहिम में शहरी जनमानस को तो शामिल किया, लेकिन रूढ़िवादी व परंपरागत सोच रखने वाले ग्रामीण अफगानियों का दिल वह नहीं जीत सका। ग्रामीण समाज को अपनी इस्लामिक प्रतिबद्धताओं के जरिये तालिबान सम्मोहित करता रहा। तालिबानियों ने पिछले दो दशक में ग्रामीण समाज में अपनी गहरी पैठ बनायी और कबीलों में यह संदेश देने का प्रयास किया कि हम देश को विदेशी आक्रांताओं से मुक्त करने की मुहिम में जुटे हैं। यही वजह है कि अमेरिका व नाटो सैनिकों की वापसी से पहले ही तालिबानियों ने ग्रामीण इलाकों से बढ़ते हुए सभी प्रांतों की राजधानियों के साथ ही देश की राजधानी काबुल पर भी कब्जा कर लिया। यहां अमेरिकी तंत्र की असफलता अफगान सेना के हथियार डालने के रूप में भी सामने आई। जिन लाखों अफगान सैनिकों को अमेरिका की देखरेख में प्रशिक्षण दिया गया था, वे कुछ हजार लड़ाकों के सामने बिछते चले गये। जिसे अमेरिका की सबसे बड़ी नाकामी माना जा रहा है।

 भले ही आज तालिबान बदला हुआ होने का दावा कर रहा हो, लेकिन धीरे-धीरे उसका पुराना चेहरा उजागर होने लगा है। अंतरिम सरकार का समावेशी न होना और महिलाओं को फिर से हाशिये में रखना उसकी शुरुआत है। पत्रकारों पर हमले और स्कूलों में लड़के-लड़कियों को अलग बैठने के आदेश उसकी बानगी भर है। जैसे-जैसे तालिबान सरकार के पैर जमने शुरू होंगे, उनका असली चेहरा बेनकाब होने लगेगा। सबसे खतरनाक बात यह है कि अमेरिका द्वारा अफगान सैनिकों को दिये गये अत्याधुनिक हथियार तालिबानियों के हाथ लग गये हैं। आज तालिबान दुनिया का सबसे आधुनिक हथियारों वाला आतंकी संगठन बन गया है। जिसका खतरा भारत समेत तमाम पड़ोसी देशों को है। भारत के लिये यह खतरा सबसे बड़ा है क्योंकि चीन, रूस व ईरान किसी न किसी भूमिका में तलिबानी सरकार से जुड़ते हैं। फिर हमेशा से भारत विरोधी रहा पाकिस्तान तालिबानियों का संरक्षक व मार्गदर्शक बना हुआ है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि पिछले बीस सालों में अमेरिका, भारत व वैश्विक एजेंसियों ने विकास की जो इबारत अफगानिस्तान में लिखी थी, उसे मिटाने की कवायद शुरू हो गई है। अब शरिया कानून के नाम पर बंदिशें लागू करके अफगानी समाज की रचनात्मकता को कुंद किया जायेगा। सांस्कृतिक तानाशाही के जरिये प्रतिभाओं के दमन की कोशिशें होंगी। यही वजह है कि भारत की अध्यक्षता में रूस, चीन, ब्राजील व दक्षिण अफ्रीका के प्रतिनिधित्व वाले ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के 13वें अधिवेशन में अन्य नेताओं के साथ रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने माना कि इससे क्षेत्रीय व वैश्विक सुरक्षा को नया खतरा पैदा हो गया है। आज भारत समेत ब्रिक्स देशों के नेता चेताते हैं कि अफगानिस्तान अपने पड़ोसियों के लिये खतरा न बने। वहां से नशीली दवाओं का कारोबार न हो। वहां आतंक की पाठशाला न बने। अफगानिस्तान में लोगों का पलायन रुके और लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास हो। साथ ही अफगानिस्तान को बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त रखने के प्रयास हों। पाक जैसे पड़ोसी उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करें तथा अफगानिस्तान की संप्रभुता का सम्मान किया जाये।

2.आतंक के खिलाफ ब्रिक्स

अमरीका के न्यूयॉर्क में 9/11 आतंकी हमले की आज बरसी है। उससे ज्यादा विध्वंसक हमला कोई नहीं हुआ, जिसमें करीब 3000 लोगों की मौत हो गई थी। आतंकवाद अमरीका और उसके साझेदार देशों का सबसे महत्त्वपूर्ण सरोकार है। आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई के बावजूद आतंकवाद 20 लंबे सालों के बाद भी जि़ंदा है। तालिबान का अफगानिस्तान नया अवतरण है। अमरीका के अलावा, भारत की अपनी चिंताएं रही हैं, जिनकी अभिव्यक्ति ब्रिक्स सम्मेलन के मंच पर भी की गई है। ब्रिक्स दुनिया के पांच सबसे बड़े विकासशील देशों-भारत, रूस, चीन, ब्राजील और साउथ अफ्रीका-का साझा मंच है। विश्व की करीब 41 फीसदी आबादी इन देशों में बसी है। करीब 24 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) इन देशों का है और दुनिया का 16 फीसदी से ज्यादा कारोबार ये देश करते हैं। ऐसे संगठन की चिंताओं की अनदेखी विश्व नहीं कर सकता। संदर्भ तालिबानी अफगान का है, जिसकी सरज़मीं पर अब अलकायदा, आईएसआईएस, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मुहम्मद, हक्कानी नेटवर्क और दूसरे देशों से आ रहे आतंकी समूह अपने अड्डे बना रहे हैं। आतंकी नए सिरे से गोलबंद हो रहे हैं। कैबिनेट में ही आतंकी मौजूद हैं, जो संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबंधित सूची में हैं। उन पर करोड़ों डॉलर के इनाम भी घोषित हैं। ब्रिक्स के मंच से रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर चिंता जताई है। उन्होंने आतंकवाद और नशे के कारोबार पर चिंता जताई है। ऐसे कारोबार पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। पुतिन की आशंका है कि अफगानिस्तान पड़ोसी देशों के लिए खतरा बन सकता है, लिहाजा आतंकवाद पर लगाम जरूरी है। पुतिन ने अफगानिस्तान में बाहरी दखल और पंजशीर में हवाई हमलों पर भी चिंता जताई और बिना नाम लिए पाकिस्तान की भत्र्सना भी की।

अफगान में तालिबान का कब्जा, अमरीका का अफगानिस्तान से चले जाना और आज भी 9/11 जैसे आतंकी हमलों की धमकियों के मद्देनजर ब्रिक्स सम्मेलन बेहद प्रासंगिक है। इसके तीन बड़े सदस्य-भारत, रूस, चीन-अफगानिस्तान के पड़ोसी देश हैं। यदि आतंकवाद की नई लपटें उभरती हैं, तो इन देशों की शांति और स्थिरता भंग होना तय है। पुतिन तालिबानी अफगान को विश्व-सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती भी मान रहे हैं। भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने 13वें ब्रिक्स सम्मेलन की अध्यक्षता की और आतंकवाद को एजेंडे का प्रमुख मुद्दा बनाया। अभी तक अफगानिस्तान पर रूस के रुख और समर्थन की अलग व्याख्याएं की जा रही थीं, लेकिन रूसी राष्ट्रपति के कथन ने हवा का रुख ही बदल दिया। रूस आंख मींच कर तालिबानी अफगान को समर्थन नहीं देगा, अब यह स्पष्ट हो गया है। हालांकि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने आतंकवाद और अफगानिस्तान पर कुछ भी खुलकर नहीं कहा, लेकिन आतंकवाद के खिलाफ साझा प्रयास और लड़ाई पर साझा घोषणा-पत्र जारी कर चीन को भी मजबूर होना पड़ा है। घोषणा-पत्र में भारत ने सीमापार आतंकवाद, उसकी पनाहगाह और फंडिंग को भी शामिल करा परोक्ष रूप से पाकिस्तान को दबोचने की कोशिश की है। ऐसे आतंकी हमलों का ब्रिक्स देश मिलकर मुकाबला करेंगे, यह भी साझा घोषणा-पत्र में है।

लेकिन एक प्रावधान सवालिया है कि तालिबानी अफगानिस्तान के साथ समावेशी संवाद किया जाएगा। क्या बर्बर,जल्लाद, दरिंदे तालिबान समावेशी संवाद की भाषा और उसकी नैतिकता को समझेंगे? वे आत्मा और व्यवहार से आज भी आतंकी हैं। यह उनके ऐलानों और जनता पर कोड़ों की मार, पाबंदियों और दफ्तर की मेज पर बंदूक रखने से साफ है कि उनके संस्कार कैसे हैं और बिल्कुल भी नहीं बदले हैं। आखिर वे क्यों बदलेंगे? वे लोकतांत्रिक नहीं हैं। उनकी जवाबदेही और जन-कल्याण की योजनाएं ‘शून्यÓ हैं। उन्हें हुकूमत करनी है, जब तक संभव होगा। लिहाजा यह भी सवालिया है कि क्या वे ब्रिक्स की घोषणाओं को गंभीरता से ग्रहण करेंगे? साझा घोषणा-पत्र में उल्लेख किया गया है कि अफगान धरती का इस्तेमाल, अन्य देशों के खिलाफ, आतंकी हमलों को अंजाम देने के लिए नहीं करने देना चाहिए। क्या तालिबान के नियंत्रण में ऐसा संभव है, क्योंकि गुटों में बंटा तालिबान किसी एक निश्चित शर्त को मानने वाला नहीं है। ब्रिक्स ने स्पष्ट कर दिया है कि तालिबानी अफगानिस्तान को मान्यता देना आसान नहीं होगा। शेष, तालिबान का व्यवहार देखना होगा।

3.प्रदेश की शिक्षा कहां असफल

हिमाचल की शिक्षा अपनी औकात देखने के लिए संस्थागत व व्यक्तिगत उपलब्धियों का आकलन कर सकती है। प्रदेश के चारों तरफ फैले शिक्षण संस्थानों का मूल्यांकन भले ही न हो, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर यह चर्चा तो होगी कि कहां पढ़ा जाए। रोजगार और शिक्षा का रिश्ता अब संस्थान की बुनियाद पर तय होता है और इसके लिए राष्ट्रीय परिपाटी में खासी प्रतिस्पर्धा है। आश्चर्य यह है कि प्रदेश का प्रथम तथा अतीत के प्रतिष्ठित कदमों से निकला हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय आज शिक्षा के पैमानों से इतना दरकिनार हो चुका है कि देश के श्रेष्ठ दो सौ संस्थानों की सूची में भी इसकी योग्यता-उपयोगिता दर्ज नहीं होती।

नेशनल इंस्टीच्यूट रैंकिंग फ्रेमवर्क के सामने प्रदेश शिक्षा के आदर्श ढह रहे हैं, तो आईआईटी मंडी से एनआईटी हमीरपुर का कद घट रहा है। निजी क्षेत्र में सोलन की शूलिनी यूनिवर्सिटी ने खुद को सौ की सूची में बरकरार रखा है, तो इस तरह सारे प्रदेश की वास्तविकता सामने आ जाती है। कहां तो हम चले थे हिमाचल को शिक्षा का हब बनाने और कहां आज हमारे इरादे ही कन्नी काट रहे हैं। शुरुआती दौर की शिक्षा में दम था, लेकिन मात्रात्मक फैलाव ने सारी गुणवत्ता छीन ली। शिमला विश्वविद्यालय के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अगर यही स्थिति है, तो तकनीकी विश्वविद्यालय का औचित्य समझ में आ सकता है। हिमाचल विश्वविद्यालय के माध्यम से कभी हिमाचली विवेक, विवेचन, अध्ययन, शोध और बौद्धिक तर्क की क्षमता का परिमार्जित स्वरूप, प्रशासनिक, वैज्ञानिक और समाज-राजनीति शास्त्र के माध्यम से प्रदर्शित होता था। आरंभिक दौर में सूचना तकनीक व बिजनेस स्टडी के परचम दिखाई दिए, लेकिन यह औचित्य भी छीना जा चुका है।

जिस तकनीकी विश्वविद्यालय के लिए राजनीतिक ताज सजा, उसने तमाम इंजीनियरिंग कालेजों के साथ-साथ बिजनेस स्टडीज का बेड़ा गर्क कर दिया है। अब छोले-भटूरे की तरह अगर बिजनेस की पढ़ाई हर कालेज में शुरू होगी या इसी तरह हर कालेज को स्नातकोत्तर होने का दर्जा चाहिए, तो किस पैमाने पर शिक्षा का फालूदा निकलेगा, यह राष्ट्रीय रैंकिंग का संदेश है। इसी दौर में सबसे निम्र दर्जे की शाखा में बैठे केंद्रीय विश्वविद्यालय का न कोई अतीत है और न ही भविष्य दिखाई देता है। सियासी खिचड़ी में शिक्षा के चावल तो उबल सकते हैं, लेकिन प्रदेश का शैक्षणिक नेतृत्व भूखा ही रहेगा। प्रदेश की सबसे घटिया मानसिकता का शिकार हुआ केंद्रीय विश्वविद्यालय केवल केंद्र व प्रदेश सरकारों की नीयत व नीति का पश्चाताप करता रहेगा। विडंबना यह है कि शिक्षण संस्थान अब नेताओं की मूंछ पर ही उग रहे हैं और इसीलिए प्रदेश में दो-अढ़ाई सौ प्राइमरी स्कूलों में एक छात्र नहीं, आधे सरकारी कालेजों में पांच सौ से कम विद्यार्थी या कुछ ऐसे भी हैं जहां बमुश्किल सौ का आंकड़ा पूरा होता है।

शिक्षा को दिशा देने के लिए नई शिक्षा नीति पर समारोह आयोजित हो सकते हैं या तर्कों की जुबान में प्रशंसा के खेत उगाए जा सकते हैं, लेकिन काबीलियत में न फैकल्टी परिष्कृत है और न अध्ययन से अध्यापन तक कोई लक्ष्य दिखाई दे रहा है। सरकार के लिए अगर आंकड़े ही पैमाना रहेंगे, तो शिमला विश्वविद्यालय को न जाने कितना नीचे गिरना पड़ेगा। वरना इस रैंकिंग के परिणाम सीधे परिवर्तन का दिशा-निर्देश दे रहे हैं। प्रदेश सरकार शिमला विश्वविद्यालय के कम से कम चार अध्ययन केंद्र बना कर शिक्षा के उच्च मानदंडों पर आधारित अलग-अलग स्कूल स्थापित कर सकती है। इसके अलावा प्रदेश के एक दर्जन कालेजों को राज्य स्तरीय दर्जा देते हुए इन्हें अलग-अलग विषयों की विशिष्टता में अंकित करना होगा, अन्यथा राष्ट्रीय रैंकिंग के आगे मुंह छिपाने की जगह भी नहीं मिलेगी। देश के टॉप सौ संस्थानों में हिमाचल की पढ़ाई न तो ह्यूमैनिटी और न ही कामर्स, कानून, बिजनेस, मेडिकल, डेंटल, विज्ञान तथा अनुसंधान में दिखाई दे रही है, तो यह स्थिति प्रदेश के अधिकांश छात्रों को हिमाचल से बाहर जाने के लिए उत्प्रेरित ही करेगी।

4.सुधार की उम्मीद

जब देश की लोकसभा में करीब 43 प्रतिशत सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले घोषित रूप से दर्ज हों, तब किसी भी पार्टी की ओर से आगे बढ़कर यह कहना स्वागतयोग्य है कि हम किसी माफिया या बाहुबली को चुनाव में नहीं उतारेंगे। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने शुक्रवार को कहा है कि उनकी पार्टी अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बाहुबलियों या माफिया उम्मीदवारों को मैदान में नहीं उतारेगी। मायावती की इस घोषणा को जेल में बंद गैंगस्टर से नेता बने मुख्तार अंसारी और उनके भाई से जोड़कर अगर देखा जा रहा है, तो भी यह घोषणा अपने आप में उम्मीद जगाती है। ऐसे ही एक-एक दागी या अपराधी का टिकट कटना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि दुनिया को दिखाने के लिए बाहुबलियों का विरोध किया जाए और पिछले दरवाजे से उनको तरजीह मिलती रहे। दरअसल, यही होता आया है, कोई एक पार्टी अगर बाहुबलियों को बाहर का रास्ता दिखाती है, तो वे पहले से भी ज्यादा आक्रामकता के साथ किसी अन्य पार्टी के टिकट पर या किसी पार्टी के सहयोग से चुनाव जीतकर आ जाते हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश में ऐसे अनेक दागी हैं, जो दो से तीन दलों को अपनी सेवाएं दे चुके हैं और उनके लिए लगभग हर पार्टी का दरवाजा कमोबेश खुला ही रहता है। 

जरूरी है कि बसपा बाहुबलियों को टिकट न देने के अपने प्रयास में कामयाब हो, जिससे दूसरी पार्टियों को भी सबक मिले। हर पार्टी को यह समझना चाहिए कि लोग अपराधी किस्म के उम्मीदवारों को पसंद नहीं करते हैं, लेकिन किसी न किसी मजबूरी या भय की वजह से कहीं-कहीं बाहुबलियों का पलड़ा भारी हो जाता है। इतिहास गवाह है, जब-जब लोगों को मजबूत विकल्प मिला है, तब-तब बाहुबलियों को चुनाव में मुंह की खानी पड़ी है। राजनीतिक पार्टी कोई भी हो, उसे अपने क्रिया-कलाप से यह दर्शाना चाहिए कि वह वाकई अपराध और अपराधियों के खिलाफ है। किसी भी पार्टी में योग्य लोगों की कमी नहीं है, तो फिर क्यों बाहुबलियों को आगे आने दिया जाए? जमाना बदल चुका है। जो बाहुबली है, उसकी खुलेआम चर्चा होती है, लोग पार्टियों के चरित्र को बार-बार परखते हैं और निराश होते हैं। अपने देश में पहले भी कुछ नेताओं से लोगों को उम्मीद रही है कि वे दागियों को टिकट नहीं देंगे, लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगी है। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की ओर से जीते 39 प्रतिशत सांसद दागी थे, तो कांग्रेस की ओर से जीते 57 प्रतिशत सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। यह बात छिपी नहीं है कि अपराधियों को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट या चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों की पालना भी सही ढंग से नहीं हो पाती है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि राजनीतिक दलों में अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई और सुधार की इच्छाशक्ति का अभाव है। ऐसे में, बसपा की ओर से यह कहा जाना वाकई काबिलेगौर है कि कानून द्वारा, कानून का शासन सुनिश्चित करने के साथ-साथ, बसपा का संकल्प अब उत्तर प्रदेश की छवि को भी बदलना है। काश, ऐसा हो, तो उत्तर प्रदेश देश में राजनीतिक ताकत ही नहीं, बल्कि राजनीतिक चरित्र सुधार का भी नेतृत्व करता नजर आएगा। लोग भूल जाएंगे कि पहले किस पार्टी ने कितने दागी खडे़ किए थे, गलत उम्मीदवारों की छंटनी शुरू तो हो।
 

 

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