इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है।
1.ट्रैफिक व्यवस्था के सुराख
गगरेट पुलिस चैक पोस्ट पर कानून के सन्नाटे को तोड़ता एक अज्ञात वाहन तीन जवानों को रौंद देता है और वहां खून के धब्बों की शिनाख्त में अपाहिज बेडि़यां नजर आती हैं। इसे वाहनों की टक्कर कहें, रात की चीख मानें या एक ही बाइक पर बिना हेल्मेट तीन सवार जवानों की दुखद मृत्यु के कारण जानें, लेकिन इस घटनाक्रम को निश्चित रूप से टाला जा सकता था। अगर रात के समय हाई-वे पैट्रोलिंग सुनिश्चित की जाए, ओवर स्पीड वाहनों के चालान काटे जाएं तथा बिना हेल्मेट बाइक सवार रोके जाएं, तो इस तरह की वारदात नहीं होगी। विडंबना यह है कि यातायात व्यवस्था अभी तक पुलिस, प्रशासन, पीडब्ल्यूडी व सरकार की प्राथमिकता में नहीं आई है। पुलिस जवानों को सड़क पर खड़ा कर देने से ट्रैफिक इंतजाम पूरे नहीं होंगे, बल्कि खास तरह की ट्रेनिंग, आधुनिक उपकरण व निगरानी वाहन उपलब्ध करा कर ही इसे पूरी तरह व्यवस्थित किया जा सकता है। सड़कों पर बढ़ता वाहन दबाव केवल दिन की गतिविधि नहीं, बल्कि रात्रि के समय भी भौगोलिक दूरियां मिटाने के लिए इनका अधिकतम उपयोग होने लगा है। अब हिमाचल रात को विश्राम नहीं करता, बल्कि रात के साये में पुलिस व्यवस्था को चौकन्ना करने की जरूरत है।
खासतौर पर बार्डर एरिया, पर्यटक व धार्मिक स्थलों पर पुलिस चौकसी के इंतजाम रात को बदल जाते हैं। रात्रिकालीन पुलिस व्यवस्था के तहत ट्रैफिक के अलावा आपराधिक गतिविधियों पर नकेल डालने के लिए नए मानदंड स्थापित करने होंगे। अभी हाल ही में वायरल वीडियो में एक धार्मिक स्थल पर यात्रियों और अधिकारी के बीच हो रहा विवाद चाहे किसी एक पक्ष को दोषी न मानें, लेकिन यह कहना पड़ेगा कि दिन ढलते ही हमारी व्यवस्था के सुराख सक्रिय हो जाते हैं। ड्यूटी के मायने अगर दिन में ही निठल्ले हैं, तो रात के वक्त अनुशासनहीनता बढ़ने के कई प्रमाण मिल जाते हैं। गगरेट की दुर्घटना दिल दहला देने वाली है, क्योंकि वहां तीन परिवारों के बच्चों ने जान नहीं गंवाई, बल्कि पुलिस महकमे ने भी अपने सामने जवानों की लाशों को देखा है। कमोबेश हर दिन का सूर्य कई घरों के चिराग बुझाकर लौटता है और हिमाचल के हर मोड़ पर कोई न कोई दुर्घटना पीछा करती है। वाहनों की बढ़ती तादाद और जीवन की भागदौड़ ने हर सड़क पर मरघट सजा दिए हैं। पंद्रह लाख के करीब पंजीकृत वाहनों के अलावा बाहरी गाडि़यों का आगमन अब सड़कों के होश फाख्ता करता है। सड़कों का विस्तार अपनी योजनाओं के नालायक फलक पर कमजोर है, खासतौर पर शहरी आवरण में परिदृश्य और भी विकराल है। हैरानी तो यह कि प्रदेश के प्रवेश द्वार ही वाहन आगमन का नैराश्य पक्ष पेश करते हैं।
है हिम्मत तो गगरेट, कांगड़ा, जोगिंद्रनगर, ज्वालामुखी, नयनादेवी, चिंतपूर्णी या बैजनाथ जैसे अनेक शहरों के प्रवेश द्वार से वाहन को आराम से निकाल के दिखाओ। दरअसल शहरीकरण व शहरी मानसिकता ने अपना विकास तो किया, लेकिन इस रफ्तार के प्रश्नों का हल यातायात के बढ़ते दबाव में नहीं समझा गया। नतीजतन शहर की डियोढ़ी पर सड़क दुर्घटनाओं की आशंका बिखरी हुई मिलती है। युवा पीढ़ी के रोमांच और वाहनों के बाजार में बढ़ती हिमाचल की भागीदारी ने सड़कों पर अनुशासनहीनता बढ़ा दी है। जरूरत यह है कि ट्रैफिक नियमों का कड़ाई से पालन करने के साथ-साथ सड़क अधोसंरचना को वाहनों की गति के अनुरूप मुकम्मल किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए मुख्य सड़कों पर संपर्क रास्तों से आते वाहनों के लिए न निर्देश, न ट्रैफिक लाइट्स और न ही चौराहे विकसित हुए हैं, जबकि बस स्टॉप का स्थान न तो तय है और न ही इसकी अधोसंरचना यात्री व वाहन चालकों की सुरक्षा की दृष्टि से हो रही है। ऐसे में सड़क अधोसंरचना के साथ-साथ ट्रैफिक पुलिस प्रबंधन को रात-दिन मुस्तैद करने के लिए नए मानक स्थापित करने होंगे। हाई-वे पैट्रोलिंग के जरिए ट्रैफिक नियमों की अनिवार्यता के साथ-साथ रात के समय अनैतिक गतिविधियों पर भी नजर रहेगी।
2.पीएम का मिशन अमरीका
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने महासभा सत्र के संबोधन में कहा है कि दुनिया शीत युद्ध की ओर अग्रसर है। दुनिया इससे पहले कभी इतनी बंटी हुई नहीं लगी। गंभीर संकट के हालात बने हैं। दुनिया गर्त की ओर बढ़ रही है। अमरीकी राष्ट्रपति जोसेफ बाइडेन ने महासभा के प्रथम संबोधन में स्पष्ट किया कि हम एक और शीत युद्ध नहीं चाहते, जिसमें दुनिया विभाजित हो। हम सभी अपनी असफलताओं के नतीजे भुगत चुके हैं। तीसरा पक्ष चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का है, जिन्होंने प्रतिक्रिया जताई है कि यदि शीत युद्ध हुआ, तो अमरीका चीन को जिम्मेदार ठहराएगा। हम सर्वशक्तिमान या दुनिया पर शासन करने की होड़ में शामिल नहीं हैं। चीन का हमेशा मानना है कि बातचीत से सभी विवादों का हल निकल सकता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा और विश्व की दो शीर्ष शक्तियों ने जो चिंताएं व्यक्त की हैं, उनका मूल शीत युद्ध ही है, लेकिन संबोधनों में गहरे विरोधाभास हैं। ऐसे संवेदनशील माहौल में प्रधानमंत्री मोदी अमरीका में हैं। उनका प्रवास किसी मिशन से कम नहीं है। उन्होंने अमरीकी उप राष्ट्रपति कमला हैरिस से संवाद किया है और 24 सितंबर को अमरीकी राष्ट्रपति बाइडेन के साथ प्रथम मुलाकात होगी।
इस द्विपक्षीय, बहुआयामी और रणनीतिक संवाद पर दुनिया की निगाहें होंगी। कोरोना की वैश्विक महामारी का प्रकोप कम होने के बाद यह मुलाकात और संयुक्त राष्ट्र में विश्व नेताओं का जमावड़ा संभव हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति बाइडेन, ऑस्टे्रलिया और जापान के प्रधानमंत्रियों समेत, क्वाड की शिखर बैठक में भी शिरकत करेंगे। छह महीने में क्वाड की यह दूसरी बैठक है, लिहाजा बेहद महत्त्वपूर्ण है। दरअसल हिंद प्रशांत महासागर क्षेत्र में चीन के वर्चस्व को चुनौती देने के संदर्भ में क्वाड का गठन बेहद महत्त्वपूर्ण आंका जा रहा है। क्वाड नेता भी कोरोना-काल में पहली बार रूबरू होंगे। बहरहाल भारत-अमरीका संवाद के कई आयाम हैं। दोनों विश्व नेता संभावित शीत युद्ध के अलावा, सीमापार और वैश्विक आतंकवाद, अफ़गानिस्तान में तालिबानी कब्जे के बाद उपजे कट्टरपंथ और अतिवाद, चीन, रूस और पाकिस्तान के समीकरणों, कोरोना महामारी, जलवायु परिवर्तन, व्यापार, रक्षा, सुरक्षा आदि वैश्विक मुद्दों पर विमर्श करेंगे। आखिरी तौर पर क्या तय होगा, यह साझा घोषणा से ही स्पष्ट होगा, लेकिन यह संवाद और मुलाकात भारत-अमरीका की रणनीतिक साझेदारी को मजबूती और व्यापक आयाम देगी। भारत अमरीका के लिए अपरिहार्य है, क्योंकि चीन और रूस के समानांतर वही एक स्थापित शक्ति है। अमरीका भारत के साथ सामरिक, आर्थिक, शैक्षिक, कूटनीतिक और कारोबारी आयामों की समीक्षा करना चाहेगा। प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति और द्विपक्षीय मुलाकातों की खासियत यह है कि वह कूटनीतिक संबंधों को ‘दोस्ती’ के स्तर तक ले जाते हैं, लेकिन पूर्व राष्ट्रपति टं्रप की तुलना में बाइडेन मुद्दों और नीतियों के प्रति विशेष आग्रही रहे हैं। बाइडेन के साथ अंतरंगता का स्तर कुछ और ही होगा।
हालांकि जब राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ बाइडेन उपराष्ट्रपति थे, तो वह भारत आए थे। वह भारत को बहुमूल्य संदर्भों में आंकते रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी से उनके संवाद जारी रहे हैं। अफगानिस्तान में बिल्कुल उलटफेर होने के बाद भी बाइडेन-मोदी के बीच फोन पर बातचीत होती रही है। कमोबेश भारत और अमरीका की रणनीतिक और सामरिक साझेदारी इतनी परिपक्व हो चुकी है कि दोनों देशों के नेता परस्पर समझने लगे हैं कि आखिर यह संबंध क्यों जरूरी है। लेकिन भारत अमरीका का पिछलग्गू भी नहीं है और न ही अंधानुसरण करने वाला देश है। अमरीका के लिए एशिया महाद्वीप में भारत ही एकमात्र विकल्प है। दोनों देशों के साझा खतरे चीन, पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया से हैं। पाकिस्तान ने आतंकवाद पर अमरीका को मूर्ख बनाकर खूब पैसा लूटा है और आतंकवाद आज भी जि़ंदा है। अब तो तालिबानी अफगानिस्तान की पनाहगाह भी सुरक्षित है। यदि इस क्षेत्र और हिंद प्रशांत महासागर में अमरीका चीन की दादागीरी को तोड़ना चाहता है, तो क्वाड के अन्य देशों से अधिक भारत की जरूरत होगी। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई भारत के बिना नहीं जीती जा सकती। बहरहाल प्रधानमंत्री मोदी का यह मिशन कितना सफल रहता है, उसका आकलन बाद में होगा।
3.मानवीय हो नजरिया
देश के सबसे बड़े व्यावसायिक बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के अर्थशास्त्रियों ने सरकार को सलाह दी है कि बढ़ती महंगाई और बैंक खातों में निगेटिव रिटर्न के चलते जमा पूंजी से मिलने वाले ब्याज पर लगाये जाने वाले कर पर सरकार नये सिरे से विचार करे। निस्संदेह इस कर से जमाकर्ताओं का उत्साह कम होता है। खासकर सरकार को उन लोगों के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए जो सेवानिवृत्ति के बाद जीवनभर की जमापूंजी पर आने वाले ब्याज के सहारे जीवनयापन करते हैं। दरअसल, देश के केंद्रीय बैंक की प्राथमिकता विकास दर है, जिसके चलते उद्योग जगत की मांग पर ब्याज दरों में कमी की जा रही है। इसका परिणाम यह है कि बचतकर्ताओं के रिटर्न में कमी आ रही है। आम लोगों की सोच होती है कि बैंक पूंजी रखने के लिहाज से सुरक्षित स्थान है। एक मकसद यह भी होता है कि बैंकों में जमा राशि पर मिलने वाले ब्याज से हमारी कुल पूंजी बढ़ेगी। ऐसा होना भी चाहिए, लेकिन केंद्रीय बैंक की नीतियों के चलते ऐसा नहीं हो रहा है, जिसकी मूल वजह निगेटिव रिटर्न है। दरअसल, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के अर्थशास्त्रियों का मानना है कि सरकार जमा पूंजी के ब्याज से होने वाली आय पर वसूल किये जा रहे आयकर के बारे में पुन: विचार करे। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्य कांति घोष के नेतृत्व वाली अर्थशास्त्रियों की टीम ने इस मुद्दे पर सरकार से संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद जतायी है। टीम का मानना है कि यदि सभी जमाकर्ताओं को टैक्स में यह छूट नहीं दी जा सकती तो कम से कम सीनियर सिटीजन को यह छूट जरूर मिलनी चाहिए। वे सेवानिवृत्ति के बाद अपनी जीवनभर की जमापूंजी को बैंकों के हवाले करके ब्याज से अपना घर चलाते हैं। इससे आने वाले ब्याज की आय से ही उनके सभी खर्चे चलते हैं। तार्किक बात है कि जब बैंक में जमा राशि पर निगेटिव रिटर्न मिल रहा हो तो जमाकर्ताओं से टैक्स लेना अनुचित ही होगा।
यह देश की विडंबना ही है कि एक तो महंगाई में जीवनयापन मुश्किल हो रहा है और दूसरे कोरोना संकट के चलते आय के स्रोतों का संकुचन हुआ है। इस दौरान बुजुर्गों व सेवानिवृत्त लोगों का संकट और गहरा हुआ है। कोरोना संकट में यह आयु वर्ग संक्रमण की दृष्टि से ज्यादा संवेदनशील रहा है। इस वर्ग ने ज्यादा लॉकडाउन सहा। ऐसे में जो उम्रदराज काम करने वाले थे भी, वे घर से निकलने में असमर्थ रहे। दूसरे महामारी का प्रभाव व उम्र के रोगों का सिलसिला बढ़ता गया और इलाज का खर्च भी। ऐसे में बैंकों में जमापूंजी से आय भी घटने लगे तो बुजुर्गों का जीवनयापन नि:संदेह मुश्किल होगा, जिसके प्रति सरकार से संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद की जा रही है। दरअसल, बैंकों की मौजूदा व्यवस्था के हिसाब से बैंक में जमापूंजी पर यदि चालीस हजार से अधिक ब्याज आता है तो उस पर टीडीएस यानी टैक्स डिडक्टेड एट सोर्स काटा जाता है। वहीं वरिष्ठ नागरिकों के लिये यह राशि पचास हजार रुपये वार्षिक है। ऐसे में यदि देश में बढ़ती महंगाई के आधार पर बचत पूंजी पर मिलने वाले ब्याज का मूल्यांकन करें तो कई बार रिटर्न निगेटिव हो जाता है। सरकार को सोचना चाहिए कि बचतकर्ताओं के खातों में जमा राशि से भी देश का विकास होता है। सरकार इस धन को देश की विकास योजनाओं में लगाती है। एसबीआई के सूत्रों के हिसाब से इस समय सिस्टम में रिटेल डिपॉजिट के अंतर्गत कुल जमा रकम 102 लाख करोड़ रुपये की है। ऐसे में बैंक डिपॉजिट्स पर मिलने वाले ब्याज पर लागू टैक्स की छूट सीमा कम से कम बुजुर्गों के लिये तो बढ़ाई जानी चाहिए, ताकि महंगाई के दौर में वे बेहतर ढंग से जीवनयापन कर सकें। एक लोकतांत्रिक सरकार का दायित्व बनता है कि वह कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत अपने नागरिकों, खासकर वरिष्ठ नागरिकों को राहत देकर उनका जीवन सुगम बनाये।
4.पेगासस की जांच
लोकतंत्र में किसी भी मोर्चे पर संदेह की गुंजाइश न्यूनतम होनी चाहिए। इसी दिशा में सुप्रीम कोर्ट की ओर से आया संकेत स्वागतयोग्य है कि पेगासस मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट एक विशेषज्ञ समिति गठित करेगा। भारत के प्रधान न्यायाधीश एन वी रमना ने गुरुवार को संकेतदिया कि सुप्रीम कोर्ट भारतीय नागरिकों की निगरानी के लिए इजरायली स्पाइवेयर पेगासस के कथित इस्तेमाल की जांच के लिए समिति गठित करेगा। अगर सब कुछ सही रहा और सरकार की ओर से इस मामले में कोई बड़ा या अलग फैसला नहीं आया, तो अगले सप्ताह सुप्रीम कोर्ट आदेश जारी कर देगा। वैसे बेहतर यही होता कि केंद्र सरकार अपने ही स्तर पर मामले को आगे नहीं बढ़ने देती। वैसे संभव है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित होने जा रही समिति की रिपोर्ट भी सुरक्षा चिंताओं की वजह से जगजाहिर नहीं हो, पर देश को संतोष रहेगा कि पेगासस मामले में कम से कम सर्वोच्च अदालत को सब पता है।
प्रधान न्यायाधीश उस पीठ का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसके पास उन याचिकाओं का एक पूरा समूह है, जिनमें गैर-कानूनी जासूसी की जांच अदालत की निगरानी में कराने की मांग की गई है। अदालत ने 13 सितंबर को ही अपना आदेश सुरक्षित रख लिया था। जहां तक केंद्र सरकार की बात है, तो उसने यह सार्वजनिक करने से इनकार कर दिया था कि उसकी एजेंसियों ने इजरायल के सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया है या नहीं। सरकार के ऐसे जवाब के बाद सुप्रीम कोर्ट के पास इसके सिवा कोई विकल्प नहीं रह गया था कि वह स्वयं जांच समिति गठित करे। अब सुप्रीम कोर्ट की इस पहल से जहां न्यायपालिका के प्रति विश्वास में बढ़ोतरी होगी, वहीं सरकारी एजेंसियों के साथ टकराव में भी वृद्धि हो सकती है। उम्मीद करनी चाहिए कि किसी तरह का सांविधानिक संकट न पैदा हो। ध्यान रहे, सरकार अगर जांच को रोकेगी, तो उसे लोगों को जवाब देना पड़ेगा। बड़ा सवाल यह नहीं है कि किन लोगों की जासूसी की गई, बड़ी चिंता यह है कि क्या विदेशी सॉफ्टवेयर का मनमाना इस्तेमाल हुआ। सॉफ्टवेयर इस्तेमाल का फैसला किसने लिया? कोई भी सरकार यह नहीं चाहेगी कि उस पर संदेह किया जाए, तो फिर सरकार पेगासस जासूसी मामले में दायर 16 अगस्त के अपने हलफनामे पर क्यों कायम है? अब समस्या यह है कि जिन मंत्रियों, राजनेताओं, व्यापारियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की जासूसी की गई, वे तो जवाब चाहेंगे। क्या इन लोगों को विश्वास में लेकर सरकार समाधान निकाल सकती है? हालांकि, इसमें दिक्कत यह भी है, एकाधिक देशों में पेगासस के इस्तेमाल की जांच चल रही है, अगर इन देशों से भारत संबंधी सूचनाओं का भी खुलासा हुआ, तो फिर भारतीय सरकारी एजेंसियों की परेशानी ज्यादा बढ़ जाएगी। अत: जो सरकारी एजेंसियां जिम्मेदार हैं, उन्हें अपनी छवि की रक्षा के लिए सक्रिय हो जाना चाहिए। जासूसी भले ही सभ्य विधा न हो, लेकिन व्यावहारिक रूप से प्रचलन में है, इसकी मौजूदगी से इनकार नहीं किया जा सकता। फिर भी एक लोकतंत्र में जहां लोग सरकारी एजेंसियों पर विश्वास करते हैं, वहां सरकारी एजेंसियों की भी जिम्मेदारी है कि वे अपराध और अपराधियों को रोकने के सही तरीकों को ही तरजीह दें, ताकि किसी निर्दोष को धोखे या अपमान का एहसास न हो।
5.मोदी-बाइडन को मिलकर बनानी होगी चीन के अतिक्रमणकारी रुख के खिलाफ रणनीति
भारतीय प्रधानमंत्री की बेहद महत्वपूर्ण मानी जाने वाली अमेरिकी यात्र शुरू हो गई है। इस यात्र पर केवल भारत ही नहीं विश्व समुदाय की भी निगाह होगी, क्योंकि इस दौरान भारतीय प्रधानमंत्री न केवल आस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका के शासनाध्यक्षों से द्विपक्षीय मुलाकात करेंगे, बल्कि क्वाड सम्मेलन में भी भाग लेंगे। इसके अलावा वह संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करेंगे। इस अवसर पर वह दुनिया को उन चुनौतियों पर नए सिरे से ध्यान देने के लिए कह सकते हैं, जो गंभीर रूप लेती जा रही हैं।
यह तय है कि अमेरिका के साथ द्विपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाने के अतिरिक्त अफगानिस्तान के बदले हालात भारतीय प्रधानमंत्री के एजेंडे में सबसे ऊपर होंगे। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद वहां तालिबान जिस तरह काबिज हुआ उसने दुनिया के अन्य देशों के साथ भारत की भी चिंता बढ़ी दी है। यह चिंता और अधिक इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि एक तो तालिबान की कथनी और करनी में भारी अंतर दिख रहा है और दूसरे यह लग रहा है कि अफगानिस्तान नए सिरे से आतंकवाद का गढ़ बन जाएगा। वहां से जो संकेत मिल रहे हैं, वे इसलिए अच्छे नहीं, क्योंकि पाकिस्तान के प्रभाव वाला तालिबान न तो खुद को आतंकवाद से अलग करता दिख रहा है और न ही ड्रग्स के कारोबार से। बीते दिनों ही भारत में अफगानिस्तान से आई हेरोइन की जो बड़ी खेप पकड़ी गई, उसके पीछे तालिबान का भी हाथ माना जा रहा है और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ का भी। भारत और अमेरिका के लिए यह आवश्यक है कि वे चीन पर आर्थिक निर्भरता कम करने के अपने प्रयासों को साझा स्वरूप प्रदान करें। इससे ही विश्व समुदाय को दिशा दिखाने में मदद मिलेगी। कुछ ठोस कदम उठाने के लिए तत्पर होना होगा।
भारतीय प्रधानमंत्री की बेहद महत्वपूर्ण मानी जाने वाली अमेरिकी यात्र शुरू हो गई है। इस यात्र पर केवल भारत ही नहीं विश्व समुदाय की भी निगाह होगी, क्योंकि इस दौरान भारतीय प्रधानमंत्री न केवल आस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका के शासनाध्यक्षों से द्विपक्षीय मुलाकात करेंगे, बल्कि क्वाड सम्मेलन में भी भाग लेंगे। इसके अलावा वह संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करेंगे। इस अवसर पर वह दुनिया को उन चुनौतियों पर नए सिरे से ध्यान देने के लिए कह सकते हैं, जो गंभीर रूप लेती जा रही हैं।
यह तय है कि अमेरिका के साथ द्विपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाने के अतिरिक्त अफगानिस्तान के बदले हालात भारतीय प्रधानमंत्री के एजेंडे में सबसे ऊपर होंगे। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद वहां तालिबान जिस तरह काबिज हुआ उसने दुनिया के अन्य देशों के साथ भारत की भी चिंता बढ़ी दी है। यह चिंता और अधिक इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि एक तो तालिबान की कथनी और करनी में भारी अंतर दिख रहा है और दूसरे यह लग रहा है कि अफगानिस्तान नए सिरे से आतंकवाद का गढ़ बन जाएगा। वहां से जो संकेत मिल रहे हैं, वे इसलिए अच्छे नहीं, क्योंकि पाकिस्तान के प्रभाव वाला तालिबान न तो खुद को आतंकवाद से अलग करता दिख रहा है और न ही ड्रग्स के कारोबार से। बीते दिनों ही भारत में अफगानिस्तान से आई हेरोइन की जो बड़ी खेप पकड़ी गई, उसके पीछे तालिबान का भी हाथ माना जा रहा है और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ का भी।यह जितना भारत के लिए आवश्यक है कि वह अफगानिस्तान से उभरते खतरों के प्रति अमेरिका को सावधान करे उतना ही अमेरिका के लिए भी यह जरूरी है कि वह इन खतरों से निपटने के लिए सजग हो। उसे यह आभास होना चाहिए कि अफगानिस्तान से अपनी सेनाओं को बुलाकर उसने एक नया संकट खड़ा करने का काम किया है। भारतीय प्रधानमंत्री और अमेरिकी राष्ट्रपति के बीच आपसी चर्चा में जो अन्य बहुपक्षीय मसले चर्चा के केंद्र में रहने चाहिए, वे हैं कोविड महामारी से उपजी चुनौतियां और चीन का अतिक्रमणकारी रवैया।भारत और अमेरिका के लिए यह आवश्यक है कि वे चीन पर आर्थिक निर्भरता कम करने के अपने प्रयासों को साझा स्वरूप प्रदान करें। इससे ही विश्व समुदाय को दिशा दिखाने में मदद मिलेगी। चूंकि चीन के अतिक्रमणकारी रुख को अमेरिका भी देख-समझ रहा है इसलिए उसे उसके खिलाफ कुछ ठोस कदम उठाने के लिए तत्पर होना होगा। इस मामले में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन को वैसे ही तेवर दिखाने की जरूरत है जैसे उन्होंने सत्ता में आने के पहले दिखाए थे। इसी के साथ भारत को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि चीन के खिलाफ आकस गठबंधन तैयार होने का प्रतिकूल असर क्वाड पर न पड़े।