इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.शिखर और खाई के बीच
हिमाचल में उपचुनावों के दामन पर चस्पां किंतु-परंतु और राजनीतिक खेत में उगती तहरीरों का जंगल, क्या मतदाता के सामने कोई विकल्प रख पाएगा। जुब्बल-कोटखाई, बालीचौकी तथा निरमंड में चार एसडीएम उतारने की सुखद अनुभूति में जीत के तिनके बटोरने का संकल्प और विरोध की वेशभूषा में विपक्ष की ओर से चुनावों की तीमारदारी का अनूठा संगम। ऐसे में उपचुनावों को नजदीक से देखने के लिए सियासी चश्में तो हर विधानसभा क्षेत्र में अलग-अलग रंगों में होंगे, लेकिन विपक्ष को यह चुनने का अधिकार है कि वह सदन के बाहर अपनी रस्सी पर सत्ता को चलाए या अपने मुद्दों पर जोर आजमाइश करवा पाए। उपचुनावों का विधानसभा चुनावों से एक साल पूर्व होना खासी अहमियत रखता है और इस लिहाज से मुद्दों में ताजगी व उन्हें अगले वर्ष तक जिंदा रखना कांग्रेस की मजबूरी है। जाहिर है आगामी विधानसभा के लिए तैयार हो रहे मुद्दे, इन उपचुनावों में जाया नहीं होंगे, इसलिए पार्टियों से कहीं अधिक उम्मीदवार लड़ाए जाएंगे। ऐसे में उम्मीदवारों पर टिका दारोमदार पुश्तैनी सियासत को हवा देगा और कहीं बस्तियों का हिसाब स्थानीय विषयों पर हो सकता है। सरकार अपनी आलोचना से कैसे बचती है या यह कैसे साबित करती है कि उसकी सरपरस्ती में चुनावी विधानसभाओं तथा मंडी लोकसभा क्षेत्र किस तरह लाभान्वित हुए।
सिरदर्द यह भी कि केवल हमीरपुर संसदीय क्षेत्र को छोड़कर बाकी तीनों किसी न किसी तरह उपचुनावों की भट्ठी पर गर्म होंगे। इस हिसाब से क्षेत्रीय संवेदना के राजनीतिक अर्थ ही महफिल सजाएंगे। कांग्रेस के लिए यह शोध का विषय है कि वह किस तरह सरकार की खामियों का ठीकरा इन उपचुनावों में फोड़ती है। सरकार बनाम विपक्ष के चुनाव में सत्ता के खिलाफ परंपरागत, औपचारिक या स्थानीय मुद्दों के बीच कांग्रेस की वचनबद्धता के राष्ट्रीय प्रमाण भी देखे जाएंगे। राष्ट्रीय स्तर पर अस्तित्व की जंग लड़ रही कांग्रेस के लिए अगले वर्ष की शुरुआत में ही उत्तर प्रदेश समेत उत्तराखंड व पंजाब जैसे राज्यों के चुनावों की तैयारी का ट्रेलर पार्टी दिखा पाती है, तो ये छवि को परिमार्जित कर सकते हैं। हिमाचल के पड़ोस में पंजाब में बतौर सत्तारूढ़ दल, कांग्रेस का नकाब उठ चुका है। वहां के संदेश कांग्रेस को भले ही सशक्त दावेदार से संशय के मझधार में पहुंचाते हुए दिखाई दे रहे हों, लेकिन कार्रवाइयों का यह दौर पार्टी में अनुशासन की तामील सरीखा है। कांग्रेस कितनी स्पष्टता से इन उपचुनावों को लेती है या भाजपा कितनी स्पष्टता से सरकार और सुशासन का वक्तव्य दे पाती है, इसके ऊपर मुद्दों से लेकर परिणामों तक की सेज सजेगी। सत्ता के अंतिम वर्ष में विपक्ष की हर आलोचना मुद्दों की जुबान बन जाती है और इस तरह प्रादेशिक उम्मीदों में कर्मचारी, बेरोजगार, निजी क्षेत्र के हकदार तथा क्षेत्रीय संगती व विसंगतियां मुंहबाए खड़ी हो सकती हंै।
उपचुनाव की सफेद चादर के नीचे सो गए जेसीसी बैठक के निमंत्रण पत्र, मन मसोस कर बैठ जाएंगे या कोविड की खरोंच में उभरे आर्थिक सन्नाटे चुपचाप कब्र में बैठे रहेंगे, कहा नहीं जा सकता। इससे पूर्व हिमाचल के दो उपचुनावों, चार नए नगर निगमों तथा अन्य स्थानीय निकाय चुनावों में कुशल पारी खेल चुके मुख्यमंत्री के लिए यह परीक्षा उनके अपने ग्राफ के लिए अति महत्त्वपूर्ण है। खासतौर पर मंडी संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव सीधे-सीधे मुख्यमंत्री के स्वाभिमान का प्रश्न पैदा करता है। वहां मुद्दों से बड़ी विरासत और सत्ता से बड़ी सियासत का खेल होने जा रहा है। प्रतिभा सिंह के आने से चुनाव के हर कक्ष में बहस का मसौदा वीरभद्र सिंह बनाम जयराम ठाकुर हो सकता है। मंडी संसदीय क्षेत्र की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक स्थिति के कई क्षेत्रवाद हैं। यहां कई कबाइली मसले हैं, तो कई जातीय समीकरण भी। यहां शिमला से भरमौर तक अगर शिखर हैं, तो खाइयां भी। अतः यह उपचुनाव शिखर और खाई के बीच मंडी को आवाज दे रहा है, तो अन्य तीन विधानसभाई क्षेत्रों में भी सत्ता की प्रतिध्वनि में जनता क्या सुनती है, यह परिणामों का आदेश ही माना जाएगा। उपचुनावों की घोषणा के साथ शिमला में कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता अल्का लांबा ने जिस तरह नशे के खिलाफ हल्ला बोला है तथा बेरोजगारी की बढ़ती व्यथा पर आक्रोश जताते हुए भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर को कोसा है, उससे राष्ट्रीय मुद्दों की परख में ये उपचुनाव भी रंगने वाले प्रतीत होते हैं।
2.सिद्धू के बाद अब कौन?
एक पुरानी कहावत है-‘हाथी पर बैठने के बावजूद कुछ काट लेता है।’ कांग्रेस के संदर्भ में यह कहावत सटीक है। हाथी और काटना प्रतीकात्मक हैं। कमोबेश पंजाब के संदर्भ में आसानी से समझा जा सकता है। बीती 28 सितंबर का दिन कांग्रेस आलाकमान के प्रति बग़ावत, उसे चुनौती देने का दिन था अथवा गौरव और उल्लास का दिन था! उल्लास का एहसास इसलिए माना जा सकता है, क्योंकि ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के छात्र नेता रहे कन्हैया कुमार कांग्रेस में शामिल हुए और गुजरात की वडगाम सीट से निर्दलीय विधायक एवं अंबेडकरवादी चेहरा जिग्नेश मेवाणी ने कांग्रेस के साथ राजनीति करने की घोषणा की। वह अभी औपचारिक कांग्रेसी नहीं बने हैं। शायद उन्हें बाबा अंबेडकर की नसीहत याद नहीं रही कि कांग्रेस से जुड़ना या उसमें शामिल होना ‘आत्मघाती’ है। कन्हैया ने लगभग आधा दर्जन बार दोहराया कि वह कांग्रेस के जहाज को बचाने पार्टी में शामिल हुए हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय पदाधिकारी बगल में खड़े यह दावा सुनते रहे और तालियां भी बजाईं। ये दोनों नौजवान चेहरे कांग्रेस को कितना बचा पाएंगे या अपनी ही राजनीतिक वैतरणी पार करना चाहेंगे, यह तो वक्त ही तय करेगा। कांग्रेस के लिए सबसे विश्वासघाती और अस्थिर पंजाब के प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ही साबित हुए हैं। उन्होंने पार्टी आलाकमान को विश्वास में लेने और जानकारी देने के बजाय अपना इस्तीफा सोशल मीडिया के जरिए सार्वजनिक किया। सिद्धू बीती 18 जुलाई को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए थे और 28 सितंबर को उन्होंने इस्तीफा दे दिया। यह अस्थिरता की पराकाष्ठा नहीं, तो और क्या है? इतने से अंतराल में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को बदला गया। नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी बनाए गए। नई कैबिनेट और नए नौकरशाह तय किए गए। पंजाब जैसे घोर संवेदनशील राज्य को नेतृत्व देने के दावे किए ही जा रहे थे कि सिद्धू ने आदतन सब कुछ ठोंक कर रख दिया। अंततः कैप्टन सही और सटीक साबित हुए। सिद्धू की फितरत ही अस्थिर है। अलबत्ता कोई ऐसे ठोस और वाजिब कारण नहीं थे कि सिद्धू को इस्तीफा देना पड़ा।
यह कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व के प्रति स्पष्ट बग़ावत है। आलाकमान को ‘बौना’ मानने की हिमाकत है। दरअसल एक बार फिर यह साबित हो गया कि कांग्रेस आलाकमान ‘अनुभवहीन’ है और उसे साथी नेताओं की पहचान ही नहीं है। चुनाव से 3-4 माह पहले कोई पार्टी अपने ही मुख्यमंत्री और सबसे कद्दावर नेता को खोने का जोखि़म उठा सकती है? यदि अब भी पार्टी नेतृत्व सिद्धू का इस्तीफा स्वीकार कर उन्हें हाशिए पर नहीं सरकाता, तो इससे घातक गलती कोई और नहीं हो सकती। नतीजतन फरवरी, 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की फजीहत को टालना मुश्किल होगा। इस्तीफों का नाटक सिद्धू तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि परगट सिंह और रजि़या सुल्ताना सरीखे मंत्रियों ने भी इस्तीफों की घोषणा की है। उन्हें मंत्रालयों का आवंटन 28 सितंबर को ही किया गया था। कई-कई विभाग सौंपे गए थे, लेकिन सिद्धू के वफादारों ने इस्तीफों का रास्ता चुना है। हालांकि संपादकीय लिखने तक न तो सिद्धू और न किसी और नेता-मंत्री का इस्तीफा मंजूर किया गया था, लेकिन ख़बर थी कि आलाकमान ने नए प्रदेश अध्यक्ष पर मंथन करना भी शुरू कर दिया है। हालांकि राहुल गांधी केरल के अपने चुनाव क्षेत्र में हैं और प्रियंका गांधी लखनऊ में हैं। इधर सिद्धू नेे वीडियो जारी कर अपना स्पष्टीकरण देने की कोशिश की है कि यह लड़ाई निजी नहीं है, यह जारी रहेगी। अब सिद्धू की लड़ाई मुख्यमंत्री चन्नी से है या नेतृत्व के खिलाफ है, जिन्होंने दागी चेहरों को जिम्मेदारियां देकर कैबिनेट तक में स्थान दिया है! सिद्धू लच्छेदार भाषा बोल लेते हैं, यही उनकी शख्सियत है। चुनाव सिर पर हैं। पंजाब फिलहाल कांग्रेस का गढ़ रहा है। फैसला कांग्रेस आलाकमान को लेना है कि गढ़ बचाए रखना है या लड़ाई जारी रखनी है।
3.दिल्ली में देशभक्ति
राष्ट्रीय राजधानी के स्कूलों में देशभक्ति का पाठ पढ़ाने का फैसला अनुकरणीय और स्वागतयोग्य है। दिल्ली के स्कूलों में इसी सप्ताह देशभक्ति बढ़ाने संबंधी पाठ्यक्रम की शुरुआत कर दी गई है। केवल प्राथमिक कक्षा ही नहीं, बल्कि नर्सरी कक्षा से 12वीं कक्षा तक देशभक्ति का पाठ पढ़ाया जाएगा। इस पाठ के तहत बच्चों, किशोरों को देश के प्रति जिम्मेदारी का एहसास कराया जाएगा। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने देशभक्ति पाठ्यक्रम शुरू करते हुए कहा है कि ऐसा माहौल बनाने की जरूरत है, जहां लोग 24 घंटे देशभक्ति का अनुभव करें। अक्सर देखा गया है कि लोग देशभक्ति गीत सुनते समय और देशभक्ति की फिल्म देखते हुए अभिभूत होते हैं। बाकी समय उनका व्यवहार देश के प्रति उदासीन ही रहता है। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, जो यह सोचते हैं कि उनके किसी कार्य से देश को नुकसान तो नहीं होगा। उत्साह से भरे केजरीवाल ने यहां तक कहा है कि देशभक्ति पाठ्यक्रम भारत की प्रगति यात्रा में मील का पत्थर साबित होगा।
दिल्ली में शुरू हुआ यह ताजा पाठ्यक्रम अगर देशभक्तों की संख्या बढ़ा सका, तो यह समाज में किसी क्रांति से कम नहीं होगा। ऐसे नागरिक चाहिए, जो देश को सबसे पहले या सबसे आगे रखकर चलें। जो कुछ भी करने से पहले यह जरूर सोचें कि इससे उनका देश कमजोर होगा या मजबूत। हालांकि, यह उम्मीद करना अतिरेक ही होगा कि देश में किसी ऐसी पीढ़ी का पदार्पण होगा, जो पैसे या धन को तरजीह नहीं देगी। आज के समय में पैसे को तरजीह देना जरूरी है, लेकिन नैतिकता का स्तर ऐसा होना चाहिए कि जब प्रश्न देश का आए, तब उससे किसी तरह का समझौता न किया जाए। वाकई देश को देशभक्त डॉक्टर, इंजीनियर, वकील और अन्य पेशेवरों की जरूरत है, लेकिन सबसे बड़ी जरूरत है देशभक्त नेता। अगर शासन और प्रशासन में बैठे लोग ईमानदार हो जाएं, अगर वे अपनी शपथ हमेशा याद रखें, संविधान के मूल मकसद को याद रखें, तो फिर इससे अच्छी बात क्या हो सकती है? जब नेता और अधिकारी संविधान के नाम पर ली गई शपथ भूल जाते हैं, तभी भ्रष्ट होते हैं। भ्रष्ट होना भी देशद्रोह ही है। देशभक्ति पढ़ाने से निश्चय ही लाभ होगा, पर बड़े लोगों को अपने व्यवहार से देशभक्ति का प्रमाण भी देते रहना होगा। ध्यान रहे, बच्चे पढ़कर कम और देखकर ज्यादा सीखते हैं। बहरहाल, देश के दूसरे राज्यों की सरकारों को भी इस देशभक्ति पाठ्यक्रम पर निगाह डालकर सीखने की जरूरत है। यह पाठ्यक्रम 100 स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियों के साथ शुरू हो रहा है। दिल्ली में जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होगा, वह लगभग 700-800 ऐसे सेनानियों के बारे में जान पाएगा। सेनानियों के बारे में पहले भी काफी कुछ पढ़ाया-बताया जाता रहा है, लेकिन अब निर्दिष्ट रूप से पढ़ाने-बताने की कोशिश किसी प्रयोग से कम नहीं है। शिक्षा संस्थाओं और विशेषज्ञों को इस पहल पर ध्यान देना चाहिए। यह शोध का विषय है कि पढ़ाई का कितना प्रत्यक्ष असर चरित्र पर पड़ता है। बहुत अच्छा पढ़े-लिखे लोग भी भ्रष्टाचार में डूबे नजर आते हैं। कहा जाता है कि पढ़े-लिखे लोग ही अक्सर देशद्रोह के काम में दिखते हैं। अत: विशेष रूप से शिक्षकों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ गई है। बच्चों को देशभक्ति के लिए हम तभी ज्यादा प्रेरित कर पाएंगे, जब हमारी कथनी-करनी का भेद मिटेगा।
4.सेहत की जन्मपत्री
सिर्फ प्रौद्योगिकी से दूर न होंगी खामियां
देश में डिजिटल हेल्थ मिशन के विस्तार के रूप में प्रत्येक नागरिक को डिजिटल स्वास्थ्य आईडी प्रदान करने की महत्वाकांक्षी योजना की शुरुआत की गई है जो उपचार के वक्त हर व्यक्ति के रोग व उपचार का विवरण एक क्लिक में सामने ले आएगी। साथ ही देश में कहीं भी और कभी भी किसी डॉक्टर द्वारा उसे देखा जा सकेगा। इसमें सारी जानकारी का डाटा संरक्षित किया जा सकेगा और रोगी की सहमति के बाद उसे देखा जा सकेगा। ज्यादा समय नहीं हुआ जब बीते अप्रैल-मई में कोरोना के कोहराम ने हमारे चिकित्सा तंत्र की लाचारगी को उजागर किया था। रोज लाखों मरीजों के संक्रमित होने के साथ हजारों लोगों के पर्याप्त चिकित्सा अभाव में मरने की खबरें आई थी। हमारे चिकित्सा तंत्र का ढांचा पूरी तरह चरमरा गया था। कोरोना संकट का एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि संचरण की बाधाओं के चलते लॉकडाउन के दौरान टेलीमेडिसन का क्षेत्र उभरा है। डॉक्टर और मरीज के बीच व्यक्तिगत संपर्क न होने के बावजूद उपचार की प्रक्रिया को गति मिली है। लेकिन सरकार के डिजिटल प्रणालियों को विस्तार देने के बावजूद एक हकीकत यह भी है कि महज तकनीक के बल पर ही स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव नहीं लाये जा सकते। जब तक स्वास्थ्य क्षेत्र में पर्याप्त ढांचागत सुधार नहीं होता और प्रशिक्षित मानव संसाधन उपलब्ध नहीं होते, तकनीक के जरिये चिकित्सा सुविधाएं पर्याप्त रूप में उपलब्ध नहीं करायी जा सकतीं। भारत में जनसंख्या के अनुपात में डॉक्टरों की उपलब्धता बढ़ाए जाने की सख्त जरूरत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जहां एक हजार लोगों पर एक चिकित्सक होना चाहिए, वहां भारत में डेढ़ हजार से अधिक लोगों पर एक चिकित्सक है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार तीन सौ लोगों पर एक नर्स होनी चाहिए, वहीं भारत में यह अनुपात 670 है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह कमी और भी ज्यादा है। पहले से ही मरीजों के बोझ से चरमराये शहरी चिकित्सा तंत्र से उपचार की उम्मीद में ग्रामीण मरीज शहरों का रुख करते हैं।
दरअसल, वक्त की जरूरत है कि नयी तकनीक के प्रयोग के साथ ही देश के हर जिले में एक मेडिकल कालेज व अस्पताल के लक्ष्य को समय पर हासिल किया जाये। साथ ही शैक्षिक स्तर की कमी को देखते हुए देश में डिजिटल डिवाइड को भी दूर किया जाये ताकि लाखों लोग आधुनिक प्रौद्योगिकी आधारित सार्वजनिक सेवाओं का अधिकतम लाभ उठा सकें। स्वास्थ्य क्षेत्र को नया जीवन देने के लिये नीति-नियंताओं को आगे एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना होगा। यह अच्छी बात है कि डिजिटल आईडी के जरिये देश के तमाम अस्पताल आपस में रोगियों से जुड़ी जानकारी हासिल कर सकेंगे। एक आम आदमी मोबाइल ऐप के जरिये अपने स्वास्थ्य रिकॉर्ड तक सहज ही पहुंच बना सकेगा। साथ ही मरीजों को पुराने पर्चों को संभालने व डॉक्टर के पास ले जाने का भी झंझट नहीं रहेगा। हाल के दिनों में हमने नयी तकनीक के जरिये बिलों के भुगतान व धन हस्तांतरण से दैनिक जीवन में राहत का अनुभव किया है। बहुत संभव है कि सेहत के क्षेत्र में हेल्थ आईडी के जरिये कालांतर बड़ा बदलाव आये। वैसे इसमें व्यक्ति के संवेदनशील स्वास्थ्य डाटा को सुरक्षित बनाने की सख्त जरूरत है। इसके दुरुपयोग की आशंका हमेशा बनी रहेगी। यह भी कि देश-विदेश की बड़ी दवा कंपनियां निजी लाभ के लिये इन्हें हासिल न कर पायें। लेकिन इन आशंकाओं के बीच प्रगतिशील प्रयासों को खारिज नहीं किया जा सकता। इससे आयुष्मान भारत योजना के अनुभव व सभी पक्षों का मूल्यांकन भी होगा। इस योजना को लेकर भी व्यक्ति व राज्य सरकारों के स्तर पर कई तरह की आशंकाएं थीं। इसका विभिन्न चिकित्सा योजनाओं के साथ सामंजस्य बनाया गया है। खामियों को दूर करके ऐसी योजनाओं को उपयोगी बनाना वक्त की जरूरत भी है। जरूरत इस बात की भी है कि चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार हो और उन तक मरीजों की सहज पहुंच हो। चिकित्सा संसाधन पर्याप्त हों व दवाओं की उपलब्धता में पारदर्शी व्यवस्था हो। इनके अभाव में अच्छी योजनाओं की सफलता संदिग्धता बनी रहेगी और सस्ता इलाज महज मृगमरीचिका बना रहेगा।