इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.चुनावों का सियासी कथन
उपचुनावों के गुण और गुणवत्ता के आकलन में आम जनता के सामने सियासी चरित्र की पड़ताल होगी। राजनीतिक कथन के परिप्रेक्ष्य में चुनावी लहरों पर दौड़ती महत्त्वाकांक्षी किश्तियों का टकराव और लोकतांत्रिक परिदृश्य की मजबूरियों का शृंगार। हिमाचल में उपचुनावों की प्रदक्षिणा में टिकट पाने की होड़ और अलंकरण की भूमिका में दो प्रमुख दल। भाजपा अगले हफ्ते अपने उम्मीदवारों की गुणात्मक शक्ति का परिचय कराएगी, तो कांग्रेस भी अपने दहले पेश करेगी। आंतरिक सर्वेक्षणों की मुखालफत में उम्मीदवारों का चयन हमेशा टेढ़ी खीर की तरह है। प्रचार की नोक पर हिमाचल की अवसरवादिता का खेल और हर तुर्रमखान की असलियत का खोखलापन जाहिर होगा। आश्चर्य यह कि हम नागरिक समाज के रूप में जो सोचते हैं, उससे कहीं विपरीत अपने जनप्रतिनिधियों से प्राप्त करते हैं। यह दीगर है कि हिमाचल के विधायकों का करिश्मा उनके द्वारा अर्जित सत्ता की ऊष्मा तथा ट्रांसफरों के जरिए किया गया परोपकार है। पिछले चार साल की विधायकी के आगे शेष एक साल का समय कितना आगे जा सकता है, यह समझ से परे है।
यह दीगर है कि अब तक खिचड़ी में पक रही उम्मीदों का हिसाब लगाएं, तो राजनीतिक पार्टियों की जेब खाली है। हम पुनः परिवारवाद की उपज में सियासत की बागडोर देख सकते हैं या राजनीति में तिल धरने की जगह अब आम कार्यकर्ता के लिए नहीं है। क्या कांग्रेस के प्रयोग हिमाचल में भी किसी चरणजीत सिंह चन्नी जैसा उम्मीदवार ढूंढ लाएंगे या भाजपा की फेहरिस्त में पुनः कोई साधारण कद-काठी का राम स्वरूप निकल आएगा। सियासत के परिवार अपनी मिलकीयत में जो देख रहे हैं, क्या फिर वही शाम आएगी। गुण और गुणवत्ता के चौबारों के ठीक सामने मतदाता की कंगाली का आलम यही कि जब सामने परोसी गई राजनीतिक उम्मीदें ही बासी होंगी, तो चुनेंगे क्या। जब पंडित सुखराम के इर्द-गिर्द की कांग्रेस को समेटना मुश्किल हो या दादा से पोते तक के हिसाब में पार्टी उलझ जाए, तो किसी भी चुनाव का कथन बिगड़े बोल बन जाता है। जनता के समूहों में उपचुनावों की परिभाषा जातीय आधार भी देखेगी खासतौर पर मंडी संसदीय क्षेत्र में भाजपा के सामने फिर स्लेट साफ है, लेकिन आरंभिक झुकाव में राजपूत प्रत्याशियों की सूची के आगे पंडित समुदाय को सत्ता में कोई अभिभावक नहीं मिल रहा।
फतेहपुर, जुब्बल-कोटखाई व मंडी संसदीय सीट के आलोक में हिमाचल का शासक वर्ग स्पष्टता से जिन चेहरों को देख रहा है, वहां जातिवाद का एक खास स्तंभ ही दिखाई दे रहा है। अर्की विधानसभा क्षेत्र में भाजपा की दावेदारी ठोंक रहे गोविंद राम शर्मा इस लिहाज से जातीय संतुलन पैदा कर सकते हैं, वरना हाथियों पर जातीय महारथी कई अन्य वर्गों की उपेक्षा ही करेंगे। राजनीति के मशवरे भी मुड़-मुड़ अपनों को ही रेवडि़यां बांटने जैसे होंगे या पिछले चुनावों के अंक गणित में हुआ जमा-घटाव देखा जाएगा। बहरहाल एक हफ्ते की पड़ताल में थाली सजेगी और देखा यह जाएगा कि राजनीति भी गोल-गोल घूम कर जलेबियां ही पका रही है। राजनीति में ‘विनेविलिटी’ का आधार जिस तरह भोथरा गया है, वहां किसी का भी हुक्का-पानी बदल सकता है। जनता के खाके में उसकी पसंद के उम्मीदवार आएंगे या वह राजनीति के खाकों में अपने लिए और खालीपन भर लेगी, इसका पता अगले हफ्ते ही चलेगा। यह दीगर है कि आगामी चुनावों की तैयारी में उम्मीदवारों की परख, मुद्दों की परत और सत्ता की खबर पता चल जाएगी। राजनीति के लिए अपने कथन सुधारने का अवसर है, लेकिन कांग्रेस के लिए अपने वचन सुधारने की गुंजाइश रहेगी। पंजाब में पार्टी का पतन जिस तरह उनके समर्थकों को निराश कर रहा है, कम से कम उस हालत में हिमाचल फिलहाल नहीं है। दूसरी ओर सत्ता के लिए अपने दौर का परीक्षण और लक्ष्यों की हिफाजत का समय शुरू हो चुका है।
2.‘कमल’-कैप्टन के समीकरण
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के साथ पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की मुलाकात का एकदम निष्कर्ष यह नहीं है कि वह भाजपा में शामिल होने जा रहे हैं अथवा अपनी पार्टी बनाकर राजग (एनडीए) का हिस्सा हो सकते हैं, लेकिन यह कोई सामान्य राजनीतिक मुलाकात भी नहीं है। यह दौर ऐसा है, जब कांग्रेस के भीतर से ही कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल उठाए जा रहे हैं। बल्कि कपिल सिब्बल सरीखे वरिष्ठ कांग्रेसी ने पार्टी को ‘अध्यक्षहीन’ करार दिया है। पूर्व केंद्रीय मंत्री गुलाम नबी आज़ाद ने कांग्रेस की बीते 28 माह से अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाने की मांग की है। पंजाब में चुनाव सिर पर हैं और कांग्रेस बिखराव की स्थिति में है। यह भी सामान्य राजनीतिक घटनाक्रम नहीं है। कैप्टन भी कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे हैं। यदि किसी भी स्तर पर भाजपा के साथ उनका तालमेल और गठजोड़ होता है, तो उसके पहले मायने होंगे कि कांग्रेस से उनके समझौते की संभावनाएं समाप्त हैं। आसार भी ऐसे ही हैं। कैप्टन आहत और अपमानित महसूस कर रहे हैं। बेशक भाजपा केंद्र सरकार में उन्हें कोई मंत्री पद न दे। यह संभव भी नहीं है, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने ही एक फॉर्मूला स्थापित किया था कि 75 साल की उम्र के बाद कोई मंत्री, मुख्यमंत्री और कार्यकारी पद नहीं दिया जाएगा।
कैप्टन की उम्र भी 79 साल को पार कर चुकी है, लेकिन उन्हें फिर भी बहुत कुछ देकर अपने पाले में लाया जा सकता है। उपराष्ट्रपति का कार्यकाल समापन की ओर है। यदि मौजूदा उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडु को पदोन्नत कर राष्ट्रपति बनाया जाता है, तो कैप्टन को वह पद दिया जा सकता है। कमोबेश राष्ट्रवाद के मुद्दे पर भाजपा और कैप्टन लगभग ‘सहोदर’ रहे हैं। कैप्टन अल्पसंख्यक भी हैं। हम सिर्फ संभावनाओं की व्याख्या कर रहे हैं। सूत्रों की ख़बर है कि कैप्टन के भाजपा की तरफ आने की चर्चा भी शीर्ष मुलाकात के दौरान की गई है। बहरहाल गृहमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री की 50 मिनट से भी ज्यादा मुलाकात महज शिष्टाचारवश नहीं हो सकती। उसके गहरे निहितार्थ हो सकते हैं। कैप्टन और किसानों के रिश्ते बेहद सौहार्द्रपूर्ण रहे हैं। कैप्टन अखिल भारतीय जाट महासभा के अध्यक्ष भी हैं। ज्यादातर किसान जाट, जटसिख और सिखों के विभिन्न समुदायों से ही आते हैं। किसान आंदोलन काफी लंबा खिंच चुका है। मुख्यमंत्री रहते हुए कैप्टन ने गन्ने का खरीद मूल्य 35 रुपए प्रति क्विंटल बढ़ाया था। विधानसभा से समानांतर कृषि बिल भी पारित कराया था। यदि अब गंभीर प्रयास किए जाते हैं, तो कैप्टन भारत सरकार और आंदोलित किसानों के बीच ‘सेतु’ की भूमिका निभा सकते हैं। 2022 में आधा दर्जन राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं। अधिकतर में भाजपा की ही सरकारें हैं। किसान आंदोलन भाजपा के समीकरण बिगाड़ सकता है, लिहाजा कैप्टन के जरिए किसानों को साधने की कोशिश की जा सकती है। कैप्टन किसानों को भरोसा दिला सकते हैं कि वह उनके पैरोकार हैं। विवादित कानूनों को डेढ़-दो साल के लिए स्थगित किया जा सकता है।
अब भी सर्वोच्च न्यायालय ने जनवरी, 2021 से रोक लगा रखी है। एमएसपी को कानूनी दर्जा दिए जाने पर सरकार गंभीर मंथन कर ही रही है। कैप्टन के मुताबिक, उन्होंने गृहमंत्री से आग्रह किया है कि केंद्र सरकार इन मुद्दों पर अविलंब निर्णय करे। गौरतलब यह भी है कि पंजाब में भाजपा के पास कोई कद्दावर और स्वीकार्य नेता नहीं है। अभी तक भाजपा बुजुर्ग अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल की ‘छत्रछाया’ में ही कुछ सीटें जीतती रही है। पूरा हिंदू वोट बैंक भी भाजपा के साथ नहीं है। यदि चुनाव में भाजपा को कैप्टन का सक्रिय समर्थन मिलता है और कुछ कांग्रेस विधायक पाला बदल कर भाजपा में आते हैं, तो पंजाब का चुनाव दिलचस्प हो सकता है। हिंदू, जटसिख और दलित वोटों में तीव्र धु्रवीकरण देखा जा सकता है। पंजाब जैसा ही भाजपा का राजनीतिक आधार हरियाणा में था, लेकिन बीते दो कार्यकाल से भाजपा सरकार में है। गृहमंत्री और कैप्टन का संवाद किसी निष्कर्ष तक पहुंचता लगेगा, तो बाद में प्रधानमंत्री मोदी से भी कैप्टन की बात हो सकती है। इस राजनीतिक परिदृश्य पर निगाह रखना बेहद जरूरी है। अब कैप्टन ने यह घोषणा भी कर दी है कि वह कांग्रेस में नहीं रहेंगे। जिस तरह कांग्रेस में उनकी उपेक्षा हुई, उससे वह नाराज हैं। यह कांग्रेस के लिए एक बड़ी क्षति है कि उसका एक होनहार नेता पार्टी को छोड़ने जा रहा है।
3.कब तक जाम
जब दिल्ली और आसपास के राज्यों में एकाधिक राजमार्गों पर लंबे समय से जाम लगा हो, तब इस परेशानी का फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचना स्वागतयोग्य है। सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए वाजिब सवाल उठाया है कि राजमार्गों को इतने लंबे समय के लिए कैसे अवरुद्ध किया जा सकता है? पिछले साल पारित तीन कृषि कानूनों के खिलाफ जारी किसान आंदोलन के चलते सड़कों पर जाम को हमारे शासन-प्रशासन के एक तबके ने मानो भुला ही दिया है। ऐसा लगता है, लोगों को आए दिन होने वाली परेशानी की परवाह न तो किसानों को है और न सरकारों को। जहां भी जाम की स्थिति है, वहां जितनी संख्या में किसानों का डेरा है, उतनी ही संख्या में पुलिस या अद्र्धसैनिक बलों के जवान में भी जमे हुए हैं। ऐसा लगता है, मानो किसान और जवान राजमार्गों पर ही बस गए हों।
शीर्ष अदालत नोएडा निवासी मोनिका अग्रवाल की याचिका पर सुनवाई कर रही है। याचिकाकर्ता ने नाकाबंदी को हटाने की मांग करते हुए कहा है कि पहले दिल्ली पहुंचने में 20 मिनट लगते थे और अब दो घंटे से अधिक का समय लग रहा है और क्षेत्र के लोगों को विरोध-प्रदर्शन के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इस याचिका पर केंद्र सरकार से यह कहा गया है कि वह किसान संघों को पक्ष बनाने के लिए एक औपचारिक आवेदन दायर करे। लंबे समय से राजमार्गों पर बैठे किसानों का मत जानना जरूरी है, ताकि जाम खुलवाने की दिशा में सुनवाई हो सके। बहुत से लोगों का मानना है कि किसानों के प्रति सरकार का लचीला रुख ही जाम की वजह है, तो कई लोग यह भी मानते हैं कि सरकार के पास कोई विकल्प नहीं है। सरकार ने किसानों को राजधानी में अंदर आकर बैठने से रोकने के लिए उन्हें सीमा पर ही रोकने की कोशिश की है और सरकार की सहमति से ही कुछ जगहों पर किसानों को जाम लगाने दिया गया है, लेकिन कुल मिलाकर, इससे आम लोगों को जो परेशानी हो रही है, उसके प्रति अब सुप्रीम कोर्ट की गंभीरता वाजिब मुकाम पर पहुंच सकती है।
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और जस्टिस एम एम सुंदरेश की पीठ ने विश्वास जताया है कि समस्याओं का समाधान न्यायिक मंच, आंदोलन या संसदीय बहस के माध्यम से हो सकता है, पर राजमार्गों को ऐसे कैसे अवरुद्ध किया जा सकता है? शीर्ष अदालत ने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के एम नटराज से पूछा है कि सरकार इस मामले में क्या कर रही है? जवाब मिला कि सरकार ने प्रदर्शन कर रहे किसानों के साथ बैठक की थी और हलफनामे में इसका ब्योरा दिया गया है। इसके बाद अदालत ने सरकार से जो कहा, वह बहुत मायने रखता है। अदालत ने कहा, कानून को कैसे लागू किया जाए, यह आपका काम है। अदालत इसे लागू नहीं कर सकती। इसे लागू करना कार्यपालिका का काम है। बहरहाल अदालत के रुख से ऐसा भी लगा कि वह हस्तक्षेप से बचना चाहती है, क्योंकि एकाधिक मौकों पर जब अदालतों ने समाधान के लिए हस्तक्षेप किया है, तब सरकार की ओर से अधिकारों के अतिक्रमण की बात उठी। जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट की सलाह और चिंता को सरकार गंभीरता से ले, ताकि पिछले साल 27 नवंबर से ही अवरुद्ध राजमार्ग खुल सकें।
4.संकट और सवाल
आलाकमान के दखल से ही बनेगी बात
पंजाब कांग्रेस में महत्वाकांक्षी नेताओं की आत्मघाती कोशिशें पार्टी को संकट की ओर धकेल रही हैं। पहले कैप्टन अमरेंद्र पर हमलावर होकर उन्हें इस्तीफा देने को बाध्य करने के बाद चन्नी सरकार से टकराव लेकर महज दो माह बाद राज्य अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर नवजोत सिद्धू ने उन आरोपों की पुष्टि की जो उनके धीर-गंभीर राजनेता न होने को लेकर लगाये जाते रहे हैं। उनके साथ एक मंत्री व कुछ सहयोगियों के इस्तीफे बता रहे हैं कि वे चन्नी सरकार को मुश्किल में डाल रहे हैं। वर्ष 2017 में स्पष्ट जनादेश पाने वाली कांग्रेस की राह आसन्न चुनाव में मुश्किल दिखायी दे रही है। महत्वाकांक्षाओं के टकराव व सत्ता में पकड़ की होड़ ने पार्टी को मुश्किल में डाल दिया है। निश्चित रूप से इस संकट की जवाबदेही से पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व बच नहीं सकता, जिसने चार साल तक पार्टी सरकार के मुखिया की कारगुजारियों का मूल्यांकन नहीं किया। देखा जाना चाहिए था कि राज्य सरकार ने उन वादों पर कुछ काम किया जो चुनाव के वक्त पार्टी के घोषणापत्र में शामिल थे। इसमें बेअदबी के आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई, नशा तस्करों को राजनीतिक संरक्षण के आरोपों का निस्तारण, अवैध रेत खनन, शराब माफिया पर नकेल आदि वादों पर हुई कार्रवाई का मूल्यांकन होना चाहिए था। इन मुद्दों पर पार्टी में लंबे टकराव व आरोप-प्रत्यारोपों के दौर के बाद नवजोत सिद्धू को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था। टकराव फिर भी नहीं थमा और नतीजा कैप्टन के इस्तीफे के रूप में सामने आया। अब जब चन्नी नये मुख्यमंत्री बने हैं तो नई नियुक्तियों को लेकर सिद्धू ने विवाद खड़े कर दिये। यहां तक चरणजीत चन्नी की मुख्यमंत्री की ताजपोशी को भी सिद्धू ने सहजता से नहीं लिया। मंत्रिमंडल में शामिल मंत्रियों तथा महाधिवक्ता की नियुक्ति पर सवाल खड़े किये। जाहिर है जब राज्य में विधानसभा चुनाव में कुछ ही वक्त रह गया है तो ये घटनाक्रम पार्टी की छवि के लिये घातक ही होगा।
निस्संदेह, हालिया घटनाक्रम का यही निष्कर्ष है कि पार्टी आलाकमान ने सिद्धू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाकर जो राजनीतिक प्रयोग किया वह दांव महज दो माह में ही उलटा पड़ गया है। केंद्रीय नेतृत्व के फैसले मौजूदा चुनौतियों में खरे नहीं उतरे हैं। यह साफ है कि कांग्रेस हाईकमान राज्य की राजनीतिक जटिलताओं का सही आकलन नहीं कर पाया। सिद्धू की छवि पहले से ही चंचल व अपरिपक्व व्यवहार की रही है, जिसे जिम्मेदार राजनेता का गुण तो कदापि नहीं माना जा सकता। वहीं हाईकमान ने अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार से सत्ता छीनने वाले अनुभवी राजनेता कैप्टन अमरेंद्र के राजनीतिक कौशल का सही मूल्यांकन नहीं किया। कैप्टन पहले भी कहते रहे हैं कि सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील सीमावर्ती राज्य पंजाब का नेतृत्व करने में सिद्धू सक्षम नहीं हैं। शायद सिद्धू को उम्मीद थी कि संबल दे रहा केंद्रीय नेतृत्व उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी दे देगा। लेकिन जब आलाकमान ने चरणजीत चन्नी को सत्ता की बागडोर सौंपी दी और मंत्री बनाने व नियुक्तियों में उनकी नहीं चली तो वे धैर्य खोकर अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे बैठे। लेकिन इस राजनीतिक घटनाक्रम ने राज्य के हाशिये पर गये राजनीतिक दलों को हमलावर होने व अनुकूल जमीन तैयार करने का मौका जरूर उपलब्ध करा दिया। वह भी ऐसे समय में जब विधानसभा चुनाव के चंद महीने बाकी रह गये हैं। पार्टी हाईकमान को सोचना चाहिए था कि भले ही सिद्धू ऊर्जावान हों, सक्रिय हों व सुर्खियां बटोरने की कला जानते हों, लेकिन राजनीति में धीर-गंभीर होना पहली शर्त है। पुराने व अनुभवी राजनेताओं का कोई विकल्प नहीं होता। पार्टी की रीति-नीतियों का ध्यान रखना होता है। यूं ही तुनकमिजाजी राजनीति में नहीं चलती। फलस्वरूप हालिया इस्तीफे से कांग्रेस खुद को असहज महसूस कर रही है। बृहस्पतिवार को चन्नी व सिद्धू की पंजाब भवन में मुलाकात से उम्मीद थी कि विवाद का पटाक्षेप होगा, लेकिन मीटिंग मे जाने से पहले ट्वीट करके सिद्धू ने चन्नी सरकार की नियुक्तियों पर जिस तरह सवाल उठाये, उससे साफ जाहिर है कि सब कुछ ठीक नहीं है।