इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.मंडी का चुनावी इश्तिहार
प्रदेश की सियासत अपना रास्ता बदल रही है और मंडी संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव यह साबित कर सकता है कि सारे ऊंट किसकी करवट बैैठेंगे। वर्तमान सरकार का सबसे बड़ा व महत्त्वपूर्ण इश्तिहार मंडी में लगने जा रहा है। यह इसलिए क्योंकि उम्मीदवारों की फेहरिस्त में भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ही बनने जा रहे हैं। यह मिशन रिपीट का पूर्वाभ्यास हो सकता है और सरकार के मानकों में भाजपा का इतिहास बन सकता है, लेकिन इतने बड़े लक्ष्य का अवतार ढूंढने में पार्टी की भीतरी सतह पर अनिश्चितता का हाव भाव दिखाई दिया। यह कहने में गुरेज नहीं कि कांग्रेस पार्टी ने अपने किंतु-परंतु से बाहर निकलते हुए प्रतिभा सिंह समेत भवानी सिंह, रोहित ठाकुर व संजय अवस्थी पर दांव खेला है। अर्की विधानसभा से अपनी चुनौतियों के भीतर भाजपा की मुसीबत जाहिर हो रही थी, लेकिन कांगेस के घाव भी रिसने लगे हैं। संजय अवस्थी को मिले पार्टी टिकट पर चस्पां कई नेताओं के इस्तीफे स्व. वीरभद्र सिंह की विरासत को तोड़ने-मरोड़ने में लगे हैं। यह दीगर है कि कहीं मंडी संसदीय क्षेत्र में राजा की विरासत का मतदाता से सौदा भी हो रहा है। वीरभद्र सिंह के नाम का सिक्का सीधे-सीधे जयराम ठाकुर की सत्ता के सामने उछाला जा रहा है। चुनाव में वीरभद्र सिंह के संस्मरण या श्रद्धांजलि को कई नेताओं की विरासत से जोड़कर देखा जा सकता है और यह भी कि उनके परिवार के नाम मंडी उपचुनाव की वसीहत किस-किस को रास आती है।
बेशक वीरभद्र सिंह के समर्थकों का एक टोला कांगे्रस के भीतर और कांग्रेस के बराबर खड़ा रहता है। इसके साथ गुणात्मक इतिहास है, तो बनते-बिगड़ते समीकरणों की कई कहानियां भी हैं। फिर एक मुआयना अर्की विधानसभा क्षेत्र में बता रहा है कि किसकी पलकों पर कौन सवार या किसकी पलकों के नीचे आंसुओं का अंबार लगा है। इसमें दो राय नहीं कि कांग्रेस ने एक साथ फतेहपुर, जुब्बल-कोटखाई व मंडी के उपचुनाव में तुरुप के पत्तों के साथ अपना परिवार सजा दिया है और इसके सामने भाजपा की महत्त्वकांक्षा में पलते नेताओं का कुनबा अपने-अपने अधिकारों की पात्रता मांग रहा है। जाहिर है केंद्र की डिबिया में पार्टी का भविष्य सुरक्षित रखने के लिए भाजपा टिकटार्थियों की कवायद बदल गई है। भाजपा के लिए चुनाव एक पटकथा लिखने की मशक्कत है, जहां पूरी फिल्म को ‘ब्लॉक बस्टर’ की तरह पेश किया जाता है। दरअसल दोनों पार्टियों की पेशकश में यही अंतर है कि भाजपा अपने विजयी मुहूर्त को जीतने की तड़प से देखती है, जबकि कांग्रेस की विनेविलिटी का रिश्ता आज भी राजनीति के वट वृक्षों के नीचे आसरा पाने जैसा है।
यही आसरा मंडी के उपचुनाव में वीरभद्र सिंह की धरोहर में उगे वट वृक्ष के नीचे यह कहने को मजबूर कर रहा है कि हर वोट, श्रद्धांजलि के तौर पर दिया जाए। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्व. वीरभद्र की याद के कलश पूरे प्रदेश में भरे हैं और यह भी कि मंडी संसदीय क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा उनकी राजनीतिक यात्रा का पथिक रहा, लेकिन अब मंडी यथास्थिति से भविष्य की स्थिति तक भिन्न दिखाई दे सकती है। मंडी के फलक पर वरिष्ठ मंत्री महेंद्र सिंह का दारोमदार, हर तरह से भाजपा के गणित और गठजोड़ को बुलंद करने का मूलमंत्र साबित होगा, तो इस लड़ी में गोविंद सिंह ठाकुर व रामलाल मार्कंडेय को मिली सत्ता के उपहार की राजनीतिक राशि भी सामने आएगी। यानी सरकार के तीन मंत्री व स्वयं मुख्यमंत्री के सामने दिवंगत वीरभद्र सिंह की छवि एवं प्रतिष्ठा दांव पर रहेगी। मंडी का चुनाव पहले ही सुखराम परिवार के अस्तबल को खाली होता देख रहा है। आश्रय शर्मा के लिए दादा की हांक कमजोर पड़ गई, तो मुख्यमंत्री की अदालत में विधायक अनिल शर्मा की याचिका अब याचना सरीखी हो गई। देखने में मुख्यमंत्री के पास पूरी बिग्रेड है और वह अपने दौर की सियासत को अपनी तरह से लिखने में सक्षम नजर आते हैं, फिर भी मतदान में कितने पुष्प आदरांजलि या श्रद्धांजलि के निकलते हैं, इसके ऊपर काफी कुछ निर्भर करेगा।
2.काली कमाई बेनकाब!
ये खुलासे हमारी कर-प्रणाली, कर-कानूनों और समूची अर्थव्यवस्था की विसंगतियों और दरारों के उदाहरण हैं। करीब 1.20 करोड़ दस्तावेजों को खंगाला गया है। उनकी विश्वसनीयता भी तय की गई है कि किस स्रोत ने दस्तावेज लीक किए हैं। देश के कुलीन, संभ्रान्त और अति विशिष्ट चेहरे बेनकाब हो रहे थे, लिहाजा दस्तावेजों की प्रामाणिकता जरूरी थी। खोजी पत्रकारों की अंतरराष्ट्रीय टीम की पेशेवर निष्ठा, ईमानदारी और उनके साहस को ढेरों बार सलाम करते हैं, क्योंकि कर-चोर और उनकी काली कमाई एक बार फिर बेनकाब हुई है। भारत की तरफ से ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के खोजी पत्रकारों ने साबित कर दिया है कि पत्रकारिता अब भी जि़ंदा है। इस बार के रहस्योद्घाटन का नामकरण है-‘पैंडोरा पेपर्स।’ बीते 5 सालों के दौरान यह तीसरा खुलासा है। इससे पहले ‘पनामा पेपर्स’ और ‘पैराडाइज पेपर्स’ के जरिए भी कई नामी चेहरों से नकाब हटाए गए थे और उनके काले चेहरे सार्वजनिक हो सके थे।
उनके नामों का अब खुलासा करना बेमानी है। सभी दस्तावेजों के जरिए उद्घाटित किया गया है कि किस तरह देश से पैसा निकाल कर विदेश भेजा जाता रहा है। कर से बचने के लिए ऐसा किया जाता रहा है और भारतीय पैसा फर्जी और काग़ज़ी कंपनियों में निवेश किया जाता रहा है। विदेशों के कर-स्वर्ग तक पैसा अमूमन हवाला के जरिए भेजा जाता है। कुछ और भी तरीके होंगे। कर बचाकर देश की अर्थव्यवस्था को ही चूना लगाया जाता रहा है और धन्नासेठ अपनी संपत्तियों को कई गुना बढ़ाते रहे हैं। यह संगीन आर्थिक अपराध है। भारत सरकार के कथनानुसार, बीते दो खुलासों में 20,352 करोड़ रुपए की अघोषित आय सामने आई है। यह आंकड़ा ज्यादा भी हो सकता है, क्योंकि सभी संबद्ध दस्तावेज सरकार को उपलब्ध नहीं रहे हैं। यह जरूर देखा गया है कि इन खुलासों के बाद सरकार अपनी नियामक गिरफ्त को और अधिक मजबूत करने पर बाध्य हुई है। कितने कर-चोर और कितनी काली कमाई भारतीय कानूनों के तहत गिरफ्त में ली जा सकी है, इसका कोई पुष्ट खुलासा सरकार ने नहीं किया है। कर-चोरी की दृष्टि से 90 देश ऐसे हैं, जिन्हें ‘कर-स्वर्ग’ माना गया है। अमरीका, ब्रिटेन, यूरोप के विकसित और उन्नत देश भी ऐसे पनाहगाहों से अछूते नहीं हैं। ज्यादातर कर-चोरों ने ब्रिटिश वर्जिन आईलैंड्स की काग़ज़ी कंपनियों में पैसा लगा रखा है। इन देशों में कर की व्यवस्था या तो नगण्य है अथवा शून्य फीसदी है। ऐसा निवेश लगातार कई काग़ज़ी कंपनियों में किया जाता है और फिर एक फर्जी कंपनी के खाते में रख दिया जाता है। ये कंपनियां सिर्फ काग़ज़ों पर ही होती हैं।
भारत से उद्योगपति अनिल अंबानी, किरण मजूमदार शॉ, रीयल एस्टेट के बेताज बादशाह हीरानंदानी से लेकर क्रिकेट के भगवान एवं ‘भारत रत्न’ से सम्मानित सचिन तेंदुलकर, आयकर के पूर्व मुख्य आयुक्त और नेफेड के पूर्व अतिरिक्त प्रबंध निदेशक आदि 300 से ज्यादा नाम सामने आए हैं। सचिन राज्यसभा सांसद भी हैं। करोड़ों-अरबों डॉलर फर्जी विदेशी कंपनियों में लगाए गए हैं। इन सभी नामों और चेहरों के मकसद और मंसूबे एक ही हो सकते हैं कि कर बचाया जाए, लिहाजा कर की चोरी की जाए। हालांकि सभी विदेशी खाते ‘अवैध’ नहीं होते। ये व्यवस्था के ही छिद्र हैं, जिनका दुरुपयोग कर पैसा बाहर निवेश किया जाता है। उसके लिए बैंकिंग नेटवर्क का भी इस्तेमाल किया जाता है, ताकि कर-स्वर्गों में ग्राहक की आमदनी को छिपाया जा सके, लिहाजा कर-भुगतान से भी बचा जा सके। कर-स्वर्गों की व्यवस्था ‘गोपनीय’ होती है, लिहाजा पत्रकारांे ने गोपनीय दस्तावेज कैसे हासिल किए, उनकी छंटनी कैसे की और फिर निष्कर्ष तक कैसे पहुंचे, यह वाकई दुस्साध्य काम है। 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के दौरान गोपनीय व्यवस्था को धक्का दिया गया था। जी-20 देशों के नेताओं ने भी 2009 में बैंकिंग गोपनीयता को समाप्त करने का संकल्प लिया था, नतीजतन 2013 में तय किया जा सका कि देश बैंकिंग और गोपनीय सूचनाओं को मानकों के आधार पर साझा करेंगे। बहरहाल भारत के संदर्भ में ऐसा कितना हो पाया, उसकी जानकारी नहीं है, लेकिन प्रकाशित दस्तावेज बेनकाब कर रहे हैं कि देश में कौन कर-चोर है और कितनी काली-कमाई कर देश को ठगा जा रहा है। भारत सरकार को ऐसे कुलीन और काले चेहरों की धरपकड़ के लिए एक बहुएजेंसी जांच दल गठित करना चाहिए।
3.फिर बढ़ी कीमतें
पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में फिर वृद्धि न केवल ध्यान खींचती है, बल्कि सोचने पर विवश भी करती है। पेट्रोल की कीमत में 30 पैसे प्रति लीटर और डीजल में 35 पैसे प्रति लीटर की बढ़ोतरी की गई। इस वृद्धि के साथ ही दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 102.94 रुपये प्रति लीटर और डीजल की कीमत 91.42 रुपये प्रति लीटर हो गई है। देश में कुछ शहर ऐसे भी हैं, जहां पेट्रोल की कीमत 105 रुपये प्रति लीटर तक पहुंच गई है। पेट्रोल की कीमत में इसी वर्ष लगभग 18 रुपये की बढ़ोतरी हुई है। इसी वर्ष की शुरुआत में डीजल की कीमत 75 रुपये के करीब थी, पर इसमें भी इस वर्ष करीब 17 रुपये की बढ़ोतरी हो चुकी है। कुल मिलाकर, इसी वर्ष पेट्रोल, डीजल के भाव में 17-18 रुपये की बढ़त चिंता में डालने के लिए काफी है।
हालांकि, सबसे ज्यादा चिंता रसोई गैस को लेकर है। इसी साल रसोई गैस की कीमत में 205 रुपये तक की बढ़ोतरी हो चुकी है। तेल विपणन कंपनियों ने बुधवार 6 अक्तूबर से घरेलू रसोई गैस सिलेंडर की कीमत में एक बार फिर 15 रुपये की बढ़ोतरी की है। यह दो महीने के भीतर चौथी कीमत बढ़ोतरी है। इस बढ़ोतरी के बाद 14.2 किलोग्राम के एलपीजी सिलेंडर की कीमत अब राजधानी दिल्ली में 899.50 रुपये हो गई है।
त्योहारी मौसम में कीमतों की इतनी ज्यादा बढ़त बाजार ही नहीं, बल्कि लोगों की जेब पर सीधे असर डालेगी। ऐसा आखिर क्यों हो रहा है? बताया गया है कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बढ़ते भाव के कारण पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी की गई है। जहां एक-एक पैसे की बढ़त से बजट पर असर पड़ता हो, वहां बीस-तीस पैसे की बढ़त बहुत गंभीर है। क्या कीमतों में कम वृद्धि मुमकिन नहीं थी? क्या सरकार को कर के स्तर पर रियायत देकर पेट्रोल की कीमत को 100 रुपये से नीचे नहीं रखना चाहिए? इसमें कोई शक नहीं कि सरकार को विकास कार्यों के लिए पैसे चाहिए? सरकार की अपनी बाध्यताएं भी हैं, वह कोरोना काल में अधिकांश ट्रेनों के बंद होने के बावजूद रेल कर्मचारियों को परंपरा के अनुरूप बोनस देने के लिए मजबूर है। त्योहारी मौसम में अन्य सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को भी कुछ न कुछ सरकार देगी। लेकिन सरकारी नौकरियों में देश के पांच प्रतिशत लोग भी नहीं हैं, बाकी लोगों को सरकार कीमतों में बढ़ोतरी न करते हुए ही राहत दे सकती है। उम्मीद करनी चाहिए कि अब पेट्रोलियम पदार्थों और आम लोगों की जेबों को नहीं छेड़ा जाएगा। बेशक, सरकार को पैसे चाहिए। वह कर या आयकर के स्तर पर ज्यादा वसूली नहीं कर पा रही है। जब अर्थव्यवस्था कठिन दौर है, जब लगभग हर उद्यम क्षेत्र को प्रोत्साहन की जरूरत है, तब सीधे कर वसूली करना आसान भी नहीं है। ऐसे में, सरकार को कैसे पैसे जुटाने चाहिए? यहां पैंडोरा का जिक्र गलत नहीं होगा। पैंडोरा ने यह संकेत कर दिया है कि देश के अनेक दिग्गज देश में कमाए गए धन को येन-केन-प्रकारेण देश से बाहर भेजते रहे हैं। ऐसा काली कमाई को छिपाने के लिए किया गया हो या टैक्स बचाने के लिए, दोनों ही स्थितियों में सरकार को आगे ऐसे उपाय करने चाहिए कि देश का पैसा देश में ही रहे। टैक्स चोरी की गुंजाइश को कम करना भी जरूरी है। सरकार को ऐसे प्रबंध करने ही पड़ेंगे, ताकि पेट्रोल-डीजल पर से दबाव कम हो।
4.वक्त के पाठ्यक्रम
तकनीकी शिक्षा के नये आयाम तलाशें
वैश्विक परिदृश्य में सूचना-तकनीक उद्योग में आये अप्रत्याशित उछाल के बाद बड़ी संख्या में छात्रों का रुझान निजी इंजीनियरिंग विश्वविद्यालयों व बीटेक कॉलेजों की तरफ हुआ। निजी इंजीनियरिंग कालेजों को खोलने की शासन की उदार नीति ने इनका तेजी से विस्तार किया। कुछ दशक पहले जिन पाठ्यक्रमों को लक्षित किया गया, वे समय की जरूरत के हिसाब से अप्रासंगिक हो गये। लेकिन ये इंजीनियरिंग कालेज बदलते दौर की गतिशील चुनौतियों के अनुरूप खुद को ढालने में विफल रहे। दरअसल तेजी से बदलता औद्योगिक परिदृश्य नित नई प्रौद्योगिकी संचालित उद्योग को प्राथमिकता दे रहा है और पुरानी तकनीकों से किनारा कर रहा है। वैश्विक औद्योगिक परिदृश्य में बदलाव को देखते हुए निजीकरण की लहर में सवार होकर आये निजी इंजीनियरिंग कालेज समय के अनुरूप खुद को ढाल नहीं पाये। वहीं इन संस्थानों की प्राथमिकता मुनाफा कमाना तो था लेकिन वे गुणवत्ता वाले शैक्षिक ढांचे को तैयार करने तथा योग्य शिक्षकों के बूते अपनी साख बनाने में विफल रहे। फलत: इंजीनियरिंग के विभिन्न पाठ्यक्रमों के जरिये भविष्य संवारने आने वाले छात्र-छात्राओं की संख्या में तेजी से कमी आई है। अधिक मुनाफे के लालच में शिक्षा के निर्धारित मानकों पर खरे न उतरने वाले इन कालेजों में छात्र मोटी फीस के बूते दाखिला तो पा गये, लेकिन अपना भविष्य संवार न पाये। इन कालेजों में शैक्षिक योग्यता के मानकों से समझौता करने के भी आरोप लगे, जिसके चलते पिछले आठ वर्षों में बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग कालेज बंद होने के कगार पर जा पहुंचे। इसकी वजह है कि डिग्री पाने वाले छात्रों को जो सब्ज-बाग कैंपस प्लेसमेंट के नाम पर दिखाये गये थे, वे पूरे नहीं हुए। जब डिग्री पाकर भी रोजगार के मौके नहीं मिले तो आने वाले छात्रों ने अन्यत्र भविष्य तलाशने का मन बनाया। कमोबेश यही स्थिति हरियाणा के निजी इंजीनियरिंग कालेजों की भी है जहां 37 बीटेक कराने वाले कालेज बंद हो चुके हैं। वहीं हिमाचल में कई इंजीनियरिंग कालेजों में शैक्षिक घोटाले सामने आये। वर्ष 2020-21 के सत्र में राज्य के विभिन्न निजी विश्वविद्यालयों द्वारा चलाये जा रहे 402 पाठ्यक्रमों में 69 फीसदी सीटें खाली रहीं।
यह स्थिति केवल हरियाणा व हिमाचल की ही नहीं है। तेलंगाना, महाराष्ट्र, केरल, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में इंजीनियरिंग कॉलेजों के भविष्य के लिये भी कोई अच्छा संकेत नहीं है। इनके इंजीनियरिंग कालेजों के विभिन्न पाठयक्रमों की पचास फीसदी सीटों के लिये छात्र-छात्राओं ने आवेदन नहीं किये। निस्संदेह, यह भारत में तकनीकी शिक्षा के भविष्य के लिये कोई शुभ संकेत नहीं है। दरअसल, ये हालात इन निजी इंजीनियरिंग कालेजों के पाठ्यक्रमों में आमूल-चूल बदलावों की मांग करते हैं। वैश्विक परिदृश्य में आज जिन पाठ्यक्रमों में प्रशिक्षित इंजीनियरों की मांग है, उसी के अनुरूप विषय के पाठ्यक्रमों को छात्रों को पढ़ाये जाने की जरूरत है। मसलन, विश्व बाजार में कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसे पाठ्यक्रमों की बड़ी मांग है, जिसमें युवाओं के भविष्य के लिये सुनहरे अवसर देखे जा रहे हैं। दरअसल, आज विगत वर्षों में प्रतिष्ठित ट्रेडों की मांग में गिरावट आई है। ऐसे में नये दौर में बाजार की मांग वाले विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल करने की जरूरत है। हम देखते हैं कि दुनिया के रोजगार बाजार में वर्चुअल क्रांति ने नये अवसरों का सृजन किया है। नये उद्योग उभर रहे हैं। मसलन खाने से जुड़े कई नये कारोबार विकसित हुए हैं। इसी तरह यात्रा, बागवानी, नृत्य, संगीत, सौंदर्य, वस्त्र आदि के व्यवसाय में बड़ा उछाल आया है। जरूरत इस बात की है कि नये कौशलों को पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाये। तभी हम वैश्विक बाजार में अपने प्रशिक्षित व हुनर वाले युवाओं को स्थापित करके देश की अर्थव्यवस्था में योगदान दे सकते हैं। युवाओं को भी चाहिए कि वे भेड़चाल में न फंसकर बदलते विश्व बाजार की जरूरत के अनुरूप पाठ्यक्रमों का चयन करें। साथ ही निजी इंजीनियरिंग कॉलेज व विश्वविद्यालय भी समय की जरूरत के विषयों के पाठ्यक्रमों को शिक्षण का हिस्सा बनायें तथा संस्थानों में गुणवत्ता का शैक्षिक वातावरण बनायें। इसके लिये योग्य शिक्षक के जरिये समृद्ध शैक्षणिक ढांचा तैयार करना पहली शर्त होगी।